तीसरे आदमी की तलाश
(नारायण सिंह का कहानी संग्रह ‘तीसरा आदमी’)
जब रक्षक ही भक्षक हो जाए, गहन
आस्था के साथ जनसामान्य अपनी जीवन-व्यवस्था जिसके हाथ सौंपे, वही आस्तीन का साँप हो जाए, तो जनता सोई नहीं रह सकती। सहृदय होने
के कारण भारतीय नागरिक का विश्वास जीतना राजनीतिज्ञों के लिए बड़ा आसान होता है। पर
विडम्बना है कि वे जनता को सहृदय नहीं, मूर्ख
समझ लेते हैं और शोषण में लिप्त हो जाते हैं। जनता ऐसी ही परिस्थिति में एक ‘तीसरा आदमी’, खोजती है, जो
उसकी सोचे, उसकी करे। ‘तीसरा आदमी’ में संकलित अपनी सात कहानियों में
कथाकार नारायण सिंह समग्रता के साथ अपना समाज खड़ाकर इसी कड़ी की खोज करते दिखते
हैं।
नारायण सिंह सातवें दशक से ही कहानी लिखते आ रहे हैं, बीच में कुछ दिनों इनका लेखन अवरुद्ध भी
रहा। यद्यपि लेखनरत उम्र के हिसाब से नारायण सिंह प्रौढ़ कथाकार हैं, लेकिन इस संग्रह के जरिए, कथा लेखन के क्षेत्र में कोई सन्तोषप्रद
छवि उपस्थित नहीं करते।
सामान्यतया उनकी कहानियों का परिवेश मेहनतकशों के पक्ष में
आवाज बुलन्द करता हुआ,
मानवीय मूल्यों की
सुरक्षा तलाशता हुआ,
व्यवस्था की
विकृतियों पर आँसू बहाता हुआ प्रतीत होता है। आजादी के बाद से ही वोट-तन्त्र हमारे
यहाँ एक विचित्र रहस्य बन गया है। जनतान्त्रिक विधि से प्रतिनिधियों के चुनाव की
प्रक्रिया किस सीमा तक अपने सही रूप में है--संकलन में इस रहस्य की निर्लज्जता को
उजागर किया गया है। अपनी विक्षिप्तता और एकाकीपन के बावजूद इस कहानी का अपंग पात्र
चउरंगी बड़े जीवट वाला है।
अपनी तमाम विवशताओं के बावजूद वह इन नागनाथ और साँपनाथ के
षड्यन्त्र के सामने घुटना नहीं टेकता, संघर्ष
करता है। चउरंगी उन तमाम शोषितों की आँखों की रोशनी है, जो आज तक इन षड्यन्त्रकारियों के
तीक्ष्ण प्रकाश की चकाचौंध में रास्ता भूलते रहे हैं। चउरंगी अपने समूह के साथ इन
सामन्तों का दर्प चूसता है और संकेत देता है कि तुम्हारे ढोंग की पोल अब खुल चुकी
है। लेकिन कथ्य को छोड़कर ज्यों ही कहानी कला के अन्य निकष की ओर बढ़ते हैं, कथाकार अत्यन्त निराश करते हैं। गाँव की
इतिवृत्ति में कहानी का परिवेश गढ़ने का प्रयास तो लेखक ने किया है, ग्रामीण नीति मूल्य, मानव-मूल्य के लोप का ब्लू प्रिंट तो
दिखाया है, लेकिन विषय उपस्थापन का माहौल ऐसा बनाया
है, घटना संयोजन इस तरह किया है कि वे सारे
तथ्य घोर काल्पनिक से लग रहे हैं। कहानी कृत्रिम हो जाती है, वास्तविकता आ ही नहीं पाती है।
‘अजगर’ कहानी में दस कट्ठा जमीन वाले अंगद के
पिता को लोग किस उम्मीद पर कर्ज देते हैं, अंगद
को अप्रत्याशित रूप से प्रतिभाशाली और पराक्रमी घोषित किए बगैर कहानी में क्या
बिगड़ रहा था? कहानियों से इतना तो स्पष्ट होता है कि
गाँव और खानदान का जीवन-क्रम कहानीकार का रच-रच कर देखा-परखा है। थोड़ी-सी सावधानी
बरतकर लेखन की गम्भीरता को लेखक पकड़े, तो
अच्छी कहानियाँ लिख सकते हैं। यदि वे अपनी बौद्धिकता और अतिरंजना का लोभ संवरण कर
लें, तो एक अच्छे कहानीकार के गुण उनमें
दिखते हैं। ऐसा होने के बाद उनकी पुस्तक के फ्लैप पर लिखी पंक्तियाँ सच साबित
होंगी--‘नारायण सिंह के लिए लिखना शौक या कैरियर
नहीं, एक मिशन है। वे जिन गाँव के बनिहारों और
खदान मजदूरों की कहानियाँ लिखते हैं उन्हीं के बीच रहकर उन्हें अपने अधिकारों के
प्रति जाग्रत करने का काम भी कर रहे हैं। इन कहानियों में गाँव की मिट्टी की महक
के साथ-साथ खदान मजदूरों के पसीने की गन्ध का ताप अपने भीतर शिद्दत से महसूस
करेंगे।’
‘पागल’, ‘निषेध’ अथवा
अन्य कहानियाँ भी इन त्रुटियों का अपवाद नहीं है। एक ओर जहाँ उनके विषय मिट्टी के
कण-कण से, पात्र के रोम-रोम से अपनी आवाज बुलन्द
करते हैं, सारे पात्र अपनी-अपनी सीमा में अपनी-अपनी
क्षमता के हिसाब से जूझते हैं,
लड़ते हैं अथवा दम तोड़
देते हैं, वहीं दूसरी ओर अतिरंजना के कारण ये
कहानियाँ बोझिल भी बन गई हैं। जितने शानदार विषय को उठाकर नारायण सिंह अपनी कहानी
प्रारम्भ करते हैं,
अतिशय वक्तृता के
कारण वे अपने कथ्य को भटकाव में डाल देते हैं।
अपवादस्वरूप कुछ कहानियों को छोड़कर आजकल हिन्दी में दो तरह की
कहानियाँ छप रही हैं--एक तो ऐसी कहानी, जिसके
प्रारम्भिक अंश में सृजनधर्मिता का दम-खम दिखता है, किन्तु
एक-दो अनुच्छेद जाते-जाते लेखक की वास्तविकता दिखने लगती हैं और दूसरी ऐसी कहानी, जिसमें निष्प्रयोजनीय बातें भर-भरकर
लम्बी कर दी जाती है और अन्त में एकाध पृष्ठों में शीघ्रता से कुछ कह लिया जाता
है। लेखकीय परिपक्वता के अभाव अथवा जबर्दस्ती कहानी लिखने के उद्यम के कारण ऐसा
होता है। नारायण सिंह की कहानियाँ एक खास सीमा तक इन दोनों कोटियों का प्रतिनिधित्व
करती हैं।
कहानी लेखन को प्रेमचन्द ने ध्रुपद की वह तान कहा है, जो अपने शुरू होने से पूर्व ही सारी कला
प्रस्तुत कर डालता है। अर्थात् कहानी इस कदर पाठक को अपने कब्जे में ले ले कि वह
किसी भी हाल में विचलित न हो। नारायण सिंह की कहानियों में पाठक इस सुख से वंचित
रह जाते हैं। कहानीकार को इतना दायित्वबोध होना चाहिए कि पाठक जिस उत्साह और ललक
से उनकी कहानी पढ़ना शुरू करते हैं,
उसका सम्मान हो।
नारायण सिंह को पाठक की कोई चिन्ता नहीं है। वे पाठक के धैर्य और मशक्कत की निर्मम
परीक्षा लेते हैं। पाठक कसरत करते-करते मरे, नारायण
सिंह अपनी बौद्धिकता,
अपना दर्शन कूट-कूट
कर भरेंगे और कहानी को बोझिल बनाएँगे। यों, कथोपकथन
में भाषाई स्तर पर क्षेत्रीयता का पुट डालकर कहानी को चहटदार बनाने का प्रयास
कहीं-कहीं है।
-तीसरे आदमी की तालाश, नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली, 06.09.1992
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