कनकलता की कहानियाँ
सन् 1950 के बाद कथा-साहित्य की मूल प्रवृत्ति
रचनाकारों की आत्मानुभूति की ओर केन्द्रित हो गई। कथा-संरचना का मूल आधार न तो
मनोवैज्ञानिक फार्मूला रहा,
न ही राजनीतिक मतवाद
को प्रश्रय मिला। शिवप्रसाद सिंह कहते हैं, ‘प्रमचन्दोत्तर
हिन्दी कथा-साहित्य में मनोवैज्ञानिकता और प्रगतिवाद का जोर था। मनोवैज्ञानिक
कहानियाँ अथवा उपन्यास अपनी अन्तिम परिणति में फार्मूलावादी साहित्य बनकर रह गए।
प्रगतिवादी साहित्य में उद्बोधन और प्रचार का स्तर देख न सका।’ प्रेमचन्द की धारणा भी ऐसी ही थी कि
उत्तम कोटि की कहानी मनोवैज्ञानिक सत्य पर आधारित होती है। शिवप्रसाद सिंह के मत
को यहाँ इस रूप में स्वीकारा जा सकता है कि मनोवैज्ञानिकता ही कथा-संरचना का
मूल-तत्त्व नहीं है,
किन्तु इस कारण कथा
में मनौवैज्ञानिकता की उपेक्षा नहीं का जा सकती है। यह बात शत-प्रतिशत सच है कि आज
के कथाकार अपनी सृजनधर्मिता को निजी अनुभवों से अनुरंजित करते हैं। इसी
आत्मानुभूति के कारण कथा-साहित्य में क्षेत्र-विशेष और वर्ग-विशेष से प्राप्त हुए
अनुभवों की अभिव्यक्ति होने लगी। सन् 1952-53
के आसपास इसे ही आंचलिकता कहा जाने लगा था। और बाद में आकर इस ‘आंचलिकता’ शब्द
का अर्थ अंचल विशेष के रूप में लिया जाने लगा। इस शब्द के विवेचन से बचते हुए कहना
उपुयक्त होगा कि अधिकांश पाश्चात्य साहित्यों में भी इसका प्रचार-प्रसार और प्रयोग
बखूबी होता रहा है।
मोटे तौर पर कहानियों पर आंचलिकता की टीका दो तरह से थोपी जाती
रही है। या तो उसमें आंचलिक शब्दों का प्रयोग कहकर या गाँव-कस्बे की अप्रचलित
विविध-परम्परा का अबूझ वर्णन कहकर। पर कहानियों के तथ्यान्वेष से कभी हमें
आंचलिकता की उक्त हदबन्दी से बाहर आकर यह भी सोचना होगा कि जिस जनसमुदाय से मानवता
की डोली कबके उठ गई हो,
सम्बन्धों की सफेद
चादर तले विवेक और व्यवस्था की बलि दी जाती हो, संस्कृति
और परम्परा की दुहाई देकर,
गलित परम्परा को
बरकरार रखने की साजिश रची जाती हो;
आत्मानुभूति को
प्रश्रय देती हुई कनकलता की कहानियाँ वर्ग-विशेष की उसी घिनौनी विद्रूपताओं का
नंगा चित्र है।
बिहार की मिट्टी में जन्मी, पली
और शिक्षित हुई कनकलता ने अपने जीवन के लम्बे जिज्ञासु क्षण उस समाज को देखते हुए
बिताया है, जिसकी जिन्दगी समस्या और बेकारी से ही
भरी पड़ी है। उनके परिपक्व जीवन के अनेक वर्ष विदेश में बिते। अस्तु वहाँ की
आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति,
व्यस्तता और
विदू्रपता को भी देखने का सुयोग उन्हें मिला। पूरब-पश्चिम के समेकित अनुभव से
अनुप्राणित उनकी कहानियों का कथा-क्षेत्र उच्च शिक्षा प्राप्त नायक-नायिकाएँ, सम्भ्रान्त परिवार, उच्च परिवार की विधवाओं पर सम्बन्धियों
की कुदृष्टि, प्रेम-अनुराग, घटना-दुर्घटना...से तैयार हुआ है, कथा बुनने का उनका अपना अन्दाज है।
‘दो
हिस्सों में बँटी’ उनके
पहले कहानी-संग्रह के बाद उनकी कहानियों के दो और संग्रह प्रकाशित हुए--‘गान्धारी ने आँखें खोलीं’ तथा ‘जख्मों
के दरख्त’। सामाजिक विद्रूपताओं, विकृत मानसिकताओं का निर्भीक जश्न देखकर
उद्वेलित होना हर संवेदनशील नागरिक की सहज वृत्ति होती है। कनकलता की कहानियाँ उसी
उद्वेलन की अभिव्यक्ति है। ‘जख्मों के दरख्त’ के पूर्वकथ्य में उनका कथन है कि
वर्तमान समाज की विसंगतियों और छलावों की मृगमरीचिका में सतत भटकते रहने की विवशता
के दर्द से हृदय में उमड़-घुमड़ आई व्यथा की घनघोर बदलियों को लेखन के माध्यम से
बरसाकर पीड़ा की तीव्रता को कम करने का प्रयास किया है।...
एक स्त्री के रूप में यह कनकलता की निजी पीड़ा नहीं, उस स्त्री समाज की पीड़ा है, जिनके पूरे शरीर, मन, प्राण
में मर्दों ने हवस पूर्ति के आधार के अलावा कुछ नहीं देखा। अस्तित्व-रक्षा के लिए
अन्न, वस्त्र, मकान, बिस्तर की न्यूनतम सुविधा देकर जिसके
शरीर पर गिद्धों का जश्न मनाया जाता है, उसकी
पीड़ा है; या फिर साँस भर ममता को तरसते असहाय
बच्चों की पीड़ा है। यह रोज-रोज नए-नए मर्दों की गोद में नंगे बैठकर उसकी आग बुझाती, मातृत्व जलाकर राख करती, सन्तान तक से नृशंस व्यवहार करती मजबूर
स्त्रियों की त्रासद पीड़ा है,
जो इन कहानियों में
उजागर हुआ है।
वर्ग विशेष की जीवन-व्यवस्था को रेखांकित करती से कहानियाँ
नागरिक परिदृश्य से गहरे तौर पर जुड़ी हैं। चार वर्षों के विदेश-प्रवास में विभिन्न
परिवेश के नागरिकों का जीवन-स्तर देखकर लेखिका को अनुभव-सम्पन्न होने का सुयोग
मिला। इस दौरान उच्च-शिक्षा प्राप्त सम्पन्न परिवारों को निकट से देखने-समझने का
सुअवसर मिला। कनकलता की कहानियाँ ऐसे ही परिवारों की तंगहाल पिंजरबद्ध स्त्रियों
की वेदना उकेरती हैं;
निम्नवर्ग की चर्चा
उनके यहाँ प्रसंगवश ही है। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम कुछ दशकों में वैज्ञानिक
चमत्कारों के कारण जन-जीवन में तेजतर बदलाव आया। सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष तीव्र
हो गया। दो क्रमागत पीढ़ियों में बदलाव की बड़ी खाई दिखने लगी। चतुर्दिक विकास और
राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क से जीवन-पद्धति, संस्कृति
और रहन-सहन में अप्रत्याशित अनुकरण की खलबली मच गई। परम्परा और नए संस्कार के बीच
टकराव के कारण पीढ़ियों का द्वन्द्व प्रारम्भ हो गया। यहाँ तक कि एक ही व्यक्ति में
नए-पुराने संस्कार के ग्रहण-विमुक्ति का संघर्ष चलने लगा। पर इस बदलाव और विकास का
कोई स्वस्थ स्वरूप सामने नहीं आ सका। आंशिक रूप से कुछ नकल हुए, कुछ पुराने रहे; इसी क्रम में परम्परा, शास्त्रीय बन्धन और ढोंग के तहत कई
अनाचारों को प्रश्रय मिला। परिवार की अकाल विधवाओं को अपने ही घर के राक्षसों का
आहार बनने से; परदेशी श्रमिकों की स्त्रियों को गाँव
के जमीन्दारों के जाल में फँस जाने से कोई रोक न सका। इधर विदेशों में भ्रमणशील
अपने प्रेमी की प्रतीक्षा में सम्भ्रान्त स्त्रियाँ अपनी यौन-ज्वाला सह नहीं कर
पाईं। स्त्री-जीवन की इस मर्मांतक पीड़ा को कनकलता ने स्त्री-दृष्टि से देखा-परखा।
उनकी कहानियाँ स्त्री-जीवन के ऐसे ही द्वन्द्वों पर विचार करती हैं।
अपनी कहानियों को वे नारी-उत्पीड़न के अवलोकन से उठी ज्वालामुखी
का अग्नि-स्फुलिंग,
स्त्री-समुदाय की
व्यथा-कथा मानती हैं। पर ‘लीक से हटकर’ कहानी की अनामिका पर अत्याचार कोई और
नहीं, अपनी यौन-लिप्सा के कारण वह खुद करती
है। रंगरेलियों में बाधा उत्पन्न होने की आशंका में मातृत्व को तिलांजलि देती ‘स्मिथ आण्टी’ की मिसेज स्मिथ अथवा ‘एक घूँट जहर’ की मिसेज हैरिसन जैसी अभारतीय परिवेश की
स्त्रियों का आचरण लेखिका को उद्वेलित करती है।
‘गान्धारी
ने आँखें खोलीं’ में पाँच कहानियाँ (‘गान्धारी ने आँखें खोलीं’, ‘बुझी राख, भड़कते
शोले’, ‘मौलश्री की उदास टहनी मुसकराई’, ‘सूखे वृक्ष की हरी पत्तियाँ’, ‘सुराज’) और
‘जख्मों के दरख्त’ में सात कहानियाँ (‘जख्मों के दरख्त’, ‘पत्थरों की बस्ती’, ‘पहाड़ की गोद में नई जिन्दगी’, ‘स्मिथ आण्टी’, ‘भटकन’, ‘लीक
से हटकर’ तथा ‘एक
घूँट जहर’) हैं। महाभारत की गान्धारी ने जब आँखें
खोली थीं, तो दुर्योधन के समूचे शरीर को वज्र-सा
कठोर बना दिया था। इस कहानी में कनकलता ने शीर्षक का यथा-साध्य प्रतीकात्मक प्रयोग
करने का प्रयास किया है। प्रतीकात्मक प्रयोगों का यह सिलसिला लगभग उनकी समस्त
कहानियों में चला है,
किंचित सफलता भी मिली
है। इन कहानियों को स्त्री-जीवन के वैविध्य का खुला दस्तावेज कहना असंगत न होगा।
गान्धारी ने आँखें खोलीं,
सूखे वृक्ष की हरी
पत्तियाँ, पहाड़ की गोद में नई जिन्दगी, स्मिथ आण्टी, लीक से हटकर, एक घूँट जहर...गिद्ध की तरह स्त्रियों
को नोचकर खाने वाले कुत्सित विचार अथवा अपने नंगे शरीर को मर्दों की गोद में
सौंपकर सुकून पाने वाली घृणित प्रवृत्ति के खुले चित्र हैं।
‘जख्मों
के दरख्त’ में पूर्वाग्रह के कारण कत्ल होती
मित्रता का विवश रूप उभरा है और पत्थरों की बस्ती में नेतृत्व सँभाले जन-प्रतिनिधि
द्वारा जनता को आश्वासन देते रहने की वंचना उजागर हुई है। ‘भटकन’ एक
प्रतीकात्मक कहानी है,
जिसमें आम नागरिक
भटकन को ही सचाई, प्रतिष्ठा, समृद्धि के रूप में देखते हैं और सचाई
को भटकन कहते हैं।
अपनी लगभग कहानियों में लेखिका स्वयं कथावाचिका होती हैं।
जमीनी हकीकत से जुड़ी इन कहानियों के कथ्य में नागरिक परिदृश्य की दानवीयता के
चित्र बहुफलकीय हैं। कोई असहाय विधवा की झोपड़ी में जाकर पाश्विक अत्याचार करता है, कोई अपने ही घर की विधवाओं को पापाचार
के लिए मजबूर करता है। कहीं यौन-पिपासा से आकुल स्त्रियाँ तृप्ति हेतु इधर-उधर
भटकती हैं, कहीं अनामिका जैसी कुछ कुण्ठित
स्त्रियाँ अपने साथ अत्याचार करती हैं? उधर
मिसेज स्मिथ और मिसेस हैरिसन जैसी अभारतीय परिवेश की स्त्रियाँ नारी-स्वभाव की अलग
ही तस्वीर पेश करती हैं?
केवल मर्दों को ही
शोषक कहें तो आशीष के साथ सन्ध्या का, या
चित्रा के साथ सुभाष का व्यवहार क्या कहलाएगा? कनकलता
की कहानियाँ इन सारे प्रसंगों का कच्चा-चिट्ठा खोलती हैं। बावजूद इसके शब्दों के
अपव्यय, शब्दाडम्बरों की भरमार और शिल्प की
कमजोरी के कारण कहानियों में एकतानता और ओज की कमी है। कहानी-लेखन की उनकी
प्रवृत्ति प्रायः फिल्मी स्टाइल में बैक-फ्लैश करती है अथवा कोई बीच में ही आकर
कहानी की पूरी घटना सुनाने लगता है। कथा नायिका चित्रा को सुभाष की कहानी पंकज
सुनाते हैं। जहाँ-तहाँ विचार-प्रधान लम्बे-लम्बे व्याख्यानों और दुरूह
शब्दालंकारों के प्रयोग से गान्धारी ने आँखें खोलीं कहानी को अनावश्यक लम्बा किया
गया है, सरसता तो भंग हुई ही है। शिल्प-प्रयोग, वाक्य-संरचना, शैली-निरूपण से जो कहानी कथ्य के
इर्द-गिर्द भटकती न रहे,
वह आज की सफल कहानी
नहीं हो सकती। कहानी के हर शब्द से कथ्य को बल मिलना चाहिए। समय की अफरातफरी में
आज के पाठक का एक-एक मात्रा के पीछे लगाए गए समय महत्त्वपूर्ण होते हैं। इस हाल
में कहानी का एक-एक अक्षर महत्त्वपूर्ण होने लगा है। कनकलता की कहानियों में इसका
सर्वथा अभाव है। ‘स्मिथ आण्टी’ कहानी में साढ़े बारह पृष्ठों के बाद
जाकर पाठक कहानी के कथ्य में घुस पाते हैं, और
ऐसे दोष से उनकी कोई भी कहानी मुक्त नहीं है। तथ्य है कि पूर्व निर्धारित लक्षणों
से मुक्त होकर भी आज की कहानी कई लक्षणों के इर्द-गिर्द है। आज की कहानी घुड़दौड़ का
वैसा क्षण है, जहाँ स्वीच ऑन होते ही अपनी तीव्रतम
रफ्तार पर जाना पड़ता है और ऑफ होते ही एकाएक रुक जाना पड़ता है। इसमें इतनी
संगीतात्मकता तो होनी ही चाहिए,
कि इसका पहला आलाप
सुनते ही (पहली पंक्ति का पाठ) हम उसकी आत्मा तक प्रविष्ट हो जाने को जिज्ञासु हो
उठें।
चेखव के मतानुसार उत्तम कोटि की कहानियाँ अपनी समाप्ति-स्थल से
ही प्रारम्भ होती है। भारतीय मान्यता के अनुसार मनुष्य को जीवन की तमाम परेशानियों
से खींचकर कहानी के परिवेश में ले आने का दायित्व, कहानी
की पहली पंक्ति पर रहता है और कहानीकार की अन्तरेच्छा तथा कहानी के कथ्य पर पाठक
को सोचने के लिए विवश कर देने का दायित्व अन्तिम पंक्ति पर। अतः, कहानी में पहली और आखिरी पंक्ति का
सर्वाधिक महत्त्व है। कनकलता को इस दिशा में सिद्धि नहीं है।
‘भर्त्स्ना
के विषबुझे व्यंग्यवाण उनके फौलाद बन चुके हृदय से टकराकर, बगैर अधिक नुकसान किए, बुझती फुलझड़ी के अग्निस्फुलिंग से स्वयं
निस्तेज ही मुट्ठी-भर राख बनकर बिखर जाते (गान्धारी ने आँखें खोली/पृ.13) है।’ जैसे
अनेक उद्धरण से शब्दाडम्बर के जाल में कथ्य को उलझाने का उदाहरण दिया जा सकता है।
अधिकांश जगह संयोग-कथा की झलक आती है। घटना सृजन हेतु कथाकार
की ओर से भाव-भूमि तैयार करने का कोई कौशल नहीं दिखता। अस्तु, यह डर सदैव ही बना रहेगा कि यह
अप्रत्याशित घटना इस कहानी को सूट करेगी या नही। ‘सूखे
वृक्ष की हरी पत्तियाँ’
में माधवी जब लन्दन
की धरती पर उतरती है,
तो अचानक उसे
चाचा-चाची मिल जाते हैं। स्वाभाविक रूप से क्रान्तिधर्मी और स्वाभिमानी माधवी अपना
स्वतन्त्र अस्तित्व बनाने के बजाए वहाँ आकर एक घिरनी से बँध जाती है। अपने भाई-बाप
के मत के विरुद्ध अपना मुल्क छोड़ने का साहस करनेवाली विधवा स्त्री का अत्मबल विदेश
की धरती पर पाँव धरते ही दुर्बल क्यों हो जाता है; वह
क्यों शंकित होती है कि ‘कौन जाने स्त्री के नाते इस धरती पर भी
सम्मान हो या न हो?’
स्वभाव से विद्रोही नायिका माधवी के हृदय में मातृत्व और
स्त्रीत्व के फूल पूरी तरह खिले हुए हैं। यौन-पिपासा और वात्सल्य की गरिमा पर
नियन्त्रण पाने में अन्ततः वह असफल हो जाती है--‘माधवी
अपने अन्दर एक अज्ञात हलचल-सी महसूस कर रही थी। एक ऐसा दबा तूफान उभर उठा था, जिसे कठोर प्रयत्न से अपने संयम की लौह
शृंखला से जकड़कर गहरे गर्त में डाल दिया था।’ दरअसल
यह संयम नहीं, जन्मजात संस्कार के विकराल नेत्रों का
डर है, जो उसकी कामना के अंकुर को बेशर्मी से
कुचलना चाहता है।
जख्मों के दरख्त के पूर्वकथ्य में वे कहती हैं, ‘असली चेहरे पर मुखौटा चढ़ाकर विकृत
मनोरंजन के लिए किए गए आखेट में इनसान के द्वारा इनसान का शिकार किए जाने की
प्रक्रिया ने आज मानवता के नाम पर जो कलंक लगाया है, उससे
कलेजा दरककर किरचों में बिखर जाता है।’ ‘गान्धारी
ने आँखें खोलीं’ के बिहारी लाल का, ‘पत्थरों की बस्ती’ के आशुतोष का, ‘लीक से हटकर’ की अनामिका का यही मुखौटा है; और, अपने
इस मुखौटे के कारण वे सब अपने सारे अवगुण तो समाज में पचा लेते हैं, पर इस दंश के भुक्तभोगी से इसका दर्द
छुपा नहीं रह पाता है।
स्वार्थ के व्यापारी समाज में जाति, सम्प्रदाय, धर्म, समुदाय, पद, दल
के नाम पर दंगे करवाते हैं;
धरती को टुकड़ों में
बाँटकर अपनी मिल्कियत कायम करते हैं और इस कुचक्र में पिस जाती है नुसरत और ‘जख्मों के दरख्त’ की कथावाचिका।
-‘कहानियों का सच’ पुस्तक में ‘कनकलता की कहानियाँ’ शीर्षक से संकलित
करखाना पत्रिका में
प्रकशित
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