उज्ज्वल सपनों के बीज
(अनुज की कहानियों का संग्रह 'कैरियर, गर्लफ्रैण्ड और विद्रोह')
इस समय हिन्दी की केन्द्रीय विधा कुछ भी हो, पर कहानियाँ खूब लिखी जा रही हैं, अपने
समय की नसों और उत्तकों की पहचान करनेवाली बेहतर कहानियाँ लिखी जा रही हैं।
तोषप्रद है कि ये लक्षित पाठक वर्ग के मन-मिजाज में भीगती भी जा रही हैं।
गत शताब्दी का अन्तिम चरण भारतीय जनपद की दिनचर्या और भारतीय
भाषाओं के रचनाकारों के लिए बेहद तनाव से भरा रहा। आपातकाल और उसके गर्भ, गोद से निकली विडम्बनाओं ने जनसमूह को
जिस भय, आतंक, अनिश्चय, असुरक्षा की भट्ठी में झोंका, इक्कीसवीं शताब्दी के समाज का अस्तित्व
और उस अस्तित्व का अविचल यथार्थ उसी की परिणति है। कथाकार अनुज की दस ताजा और
तीक्ष्ण कहानियों का संग्रह कैरियर,
गर्लफ्रैण्ड और
विद्रोह इन्हीं परिस्थितियों का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करता है।
दिलचस्प है अनुज की अधिकांश कहानियाँ आत्मकथ्य अथवा रिपोर्ताज
शैली में लिखी गई हैं। जरूरी नहीं कि जिन कहानियों का नायक कथाकार स्वयं हो, वे कथाकार के जीवन की सच्ची घटना हो।
सत्यकथा पर आधारित कई कहानियाँ अविश्वसनीय और अतार्किक, और इसलिए निरर्थक साबित-घोषित होती रही
हैं--मनोरंजन की दृष्टि से भी,
और प्रभाव की दृष्टि
से भी।
सृजनात्मक दृष्टि से तो हर कालखण्ड का समकालीन साहित्य
चुनौतियों और तनावों से भरा रहा है,
पर गत दो दशकों के
भारतीय परिवेश में तनाव और चुनौती का घनत्व कुछ अलग-सा दिखता है। आजादी के बाद के
दो दशकों को शर्मनाक भिक्षाकाल के रूप में देखा गया, अगला
दो दशक बेशर्मी की सारी सीमाएँ तोड़कर निरंकुशता और विवेकहीनता में बीता, राजनीतिक अनस्थिरता और अमानवीय समाज की
बुनियाद इन्हीं दशकों में पड़ी और पुख्ता हुई। पर सारी विसंगतियों के बावजूद मनुष्य
के भीतर आस्था के कुछ तिनके बचे हुए थे। विगत दो दशकों में आस्था की राय-रत्ती तक
नष्ट हो गई। ब्रह्माण्ड की किसी भी शक्ति के प्रति मनुष्य की आस्था बची नहीं रही।
यहाँ तक कि वैचारिक प्रतिबद्धता,
धर्म और देव-पितर तक
से आस्था उखर गई। नई पीढ़ी के भविष्णु कथाकार अनुज की ये कहानियाँ इस अर्थ में
ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं कि ऐसे गहन अन्धकार से भरे समय में भी लोगों के मन में
आस्था की चिनगारी बो रही हैं। इन सभी कहानियों का कौशल इस तरह भी प्रणम्य है कि
इनके नायक तमाम विपरीत परिस्थितियों और विसंगतियों-असफलताओं के बावजूद कहीं टूटते
नहीं हैं, वस्तुतः ये कहानियाँ संघर्ष के मसीहाओं
के जीवट की गाथा हैं। लक्षित उद्देश्य की प्राप्ति में विफलता मिलने पर इनके नायक
कभी हताश और प्रतिगामी नहीं होते। तत्काल किसी उज्ज्वल विकल्प के अनुसन्धान में नई
स्फूर्ति और नई ऊर्जा के साथ संघर्षरत हो जाते। इन कहानियों के नायक की एक खास
विशेषता यह भी है कि वे किंवदन्तियों, जनश्रुतियों
और समाज स्वीकृत मान्यताओं पर आँख मूँद कर विश्वास नहीं करते। तर्क और परीक्षण के
बिना इन कहानियों के नायक को कहीं चैन नहीं मिलता।
आपातकाल के बाद की राजनीतिक अनस्थिरता और मन्दिर-मस्जिद विवाद
के कारण उपजे मानवद्रोह ने आगे के समय को पूर्णतया नृशंस-काल घोषित कर दिया। आकाश
छूने की लिप्सा और भोग-विलास की तृष्णा के कारण आत्मघात की प्रवत्तियाँ समाज में
भर गईं। अपने जीवन की शान्ति और अपने प्राण का सौदा करके भी लोग दूसरों का अनिष्ट
करने लगे। पल भर के अपने विलास के लिए दूसरों के जीवन भर की शान्ति छीनने लगे।
नैतिकता और मानव मूल्य सिरे से गायब हो गया। वैचारिक प्रतिबद्धता और
धार्मिक-सामाजिक मान्यता की ओट में सारे दुष्कर्मों को छूट मिल गई। युवा कथाकार
अनुज की कहानियाँ इन्हीं विसंगतियों का दस्तावेज हैं। इन कहानियों का पूरा रचाव
इन्हीं विडम्बनाओं की बुनियाद पर है।
काॅम्सोमोल कोटा में कथाकार ने राजनीतिक तिजारत और सामाजिक
आचार के पूरे ढाँचे का जर्रा-जर्रा अलग कर रख दिया है। भयानक अन्धकार में भी यह
कहानी किरणमाला का अनुसन्धान करती प्रतीत होती हैं। यहाँ बाबूजी के जीवन की विफलता
का नैरन्तर्य उन्हें टूटने नहीं देता। बार-बार विफल होकर भी वे अपने को सँभालते
हैं। वे कहते हैं--हम थकेंगे नहीं,
थकान पौरुष का शत्रु
होता है।--यह सूक्ति वाक्य नायक की आन्तरिक शक्ति का परिचायक है और मानवीय शक्ति
पर नायक की आस्था का प्रतीक है। राजनीतिक समर्थन से अपनी सन्तान को इंजीनियरिंग
में भर्ती कराने की विफलता देखकर वे हताश नहीं होते, नए
सपने देखने लगते हैं। सारे दुष्कर्मों का पर्दा हटा देने के बावजूद वे उन लोगों की, या अपनी पार्टी की नीति की बुराई नहीं
करते, अपनी सन्तान की प्रतिभा पर भरोसा करते
हैं और उन्हें आई.ए.एस. बनाने की ठान लेते हैं। इस नायक के जीवन-चरित से एक सन्देश
आता है कि आखिरकार आत्मशक्ति ही प्रबल शक्ति होती है।
खूँटा कहानी के अवध और सितुआ का वार्तालाप मानवीय मूल्य और
गहरी नैतिकता का विराट फलक सामने रखता है। अनजाने में अवध के हाथों एक पाप हो जाता
है--जानवरों के हाट में कसाई के हाथ बैल बेच देता है। और, सितुआ क्षणिक उन्माद में पतुरिया की
खोली में चला जाता है। दोनों घर पहुँचने से पहले अपने-अपने कलुष को समझ लेता है, पश्चाताप करता है, पीर-पुरखों से क्षमायाचना करता है और इस
तरह उस घटना को गुप्त रख लेता है।--आज के इस नृशंस दौर में, जहाँ मानव अंग का व्यापार करनेवाले तक
अपने को दुष्कर्मी नहीं मानते,
वहाँ अवध और सितुआ, कसाई के हाथों बैल बेचने की घटना से
व्यथित हो जाते हैं। सृजन-कौशल की यह मानवीय निष्ठा ही कथाकार को समाज के प्रति
जिम्मेदार और सम्भावनाशील बनाती है।
स्कूल-काॅलेज जाती हुई युवतियों के साथ तो आए दिन महानगरों और
कस्बाई इलाकों में अत्याचार होते रहते हैं। उन्हें अगवा कर बलात्कार का खेल खेलना
इन दिनों आम बात हो गई है। उपलब्धियों के शिखर छूने अथवा जीवन की मजबूरियों से
जूझने में व्यस्त आज के वैज्ञानिक समाज के लोगों के दिल-दिमाग पर ऐसी घटनाएँ किसी
तरह खरोंच नहीं डाल पातीं। पर आनन्द बनकटा जैसे लोगों के आचरण में सामाजिक संवेदना
और मानव-मूल्य का बीज ऐसे समय में भी बचा हुआ है। बनकटा कहानी के नायक आनन्द बनकटा
अपने शहर के इस वारदात की सूचना को अपनी बेटी के साथ हुई दुर्घटना की तरह भोगते
हैं, समय के दुराचार से इतने भयभीत, इतने आतंकित हो जाते हैं कि डेलीरियम
में बड़बड़ाने लगते हैं। आनन्द बनकटा की इस मनोदशा को पढ़-सुनकर कोई बलात्कारी भी
अपनी दुर्वृत्ति से संन्यास ले लेगा। विवरण और चित्रण का यह कौशल कथाकार की गहरी
सामाजिक दृष्टि और संवेदनापूर्ण समझ का द्योतक है।
धर्म एवं धार्मिक अस्त्रों के निर्भीक दुरुपयोग की पद्धति से
आज का समाज भली-भाँति परिचित है। पर सच है कि हमारे समाज में आज भी ऐसे चालबाजों
की कमी नहीं, जो धर्म की बची-खुची आस्था को मटियामेट
करने में लगे हुए हैं। फरेब और चालबाजी के नए-नए नुस्खे बनाए जा रहे हैं। बेरहमी
से जनभावनाओं और संवेदनाओं का दोहन होता रहता है। सारी सावधानी बरतने के बावजूद
भारतीय परिवेश अभी तक इतना अविश्वस्त नहीं हुआ कि बात-बात में लोगों पर शक करे। पर
अपराध और राजनीति की दुनिया के नृशंस लोगों की संवेदना को न जाने क्या हो गया, वे आदिम युग में जीने लगे हैं। उदाहरण
असंख्य हैं, खड़ेसरी बाबा ऐसे ही फरेबियों, चालबाजों के प्रतीक हैं, जो सारी शील-सभ्यता को ताख पर रखकर
असंख्य बेबस लोगों की भावनाओं से खेलते, और
अपने भोग-विलास का इन्तजाम करते रहे हैं। सन्तान प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा पूरी
करने हेतु आज की स्त्रियाँ न जाने किस-किस शक्ति पर आस्था जमा लेती हैं और अन्त
में अपना सब कुछ गँवाकर ठगी-सी रह जाती हैं, कुछ
भी प्राप्त नहीं कर पातीं। यह कहानी ऐसी ही एक दारुण घटना पर केन्द्रित है, जो निःसन्तान स्त्री के प्रति समाज की
नृशंस धारणा का चित्र अंकित करती है। कथाकार ने बेहतरीन कौशल से इस कहानी में
व्यंजना भरी है। कहानी का वाचक एक छोटा-सा बच्चा है, जिसने
स्त्री देह को अब तक ममता के वृक्ष की तरह देखा, और
दो लोगों के लिपटने की घटना को कुश्ती समझा। स्त्री-पुरुष के दैहिक सम्बन्धों के
ज्ञान से पूरी तरह अनजान वह बच्चा हैरत और कौतुक से खड़ेसरी बाबा की उस हैवानी को
देखता रहता है, जो सन्तान प्राप्ति की अभिलाषा से
उतावली उस भोली स्त्री पर बीत रही है। पूरी बात समझने में अक्षम उस बच्चे के कोमल
मन के तनाव, उसकी बेचैनी, बात समझ पाने की उसकी मशक्कत को
कहानीकार ने प्रभावकारी ढंग से रखा है। इस कौशलपूर्ण व्यंग्यात्मक ध्वनि से कथाकार
ने एक बड़े फलक की ओर संकेत किया है।
भाई जी शुद्ध रूप से राजनीतिक कहानी है। बड़ी ही सूक्ष्मता से
यहाँ न्याय का बहुआयामी अर्थ पिरोया गया है। भावक चाहें तो इसे कर्मों का भोग कहें, पोएटिक जस्टिस कहें, काल निर्णय कहें, समय का नैतिक न्याय कहें--भाई जी के लिए
सब बराबर है। अपने अन्तिम समय में उन्हें उन सभी दुष्कर्मों के लिए पश्चाताप करना
पड़ा जो उन्होंने बाहुबली होने के दौरान धार्मिक, साम्प्रदायिक
और दलगत उन्माद में किए थे। यह कोई लोक-परलोक की बात नहीं, कथाकार का कौशल है कि उस खलनायक के भीतर
बैठे इनसान को अवसर पाकर सम्मुख लाता है। सद्वृत्ति का यही आगमन समाज को सही दिशा
दिखाएगा--ऐसा मेरा मानना है,
और मैं समझता हूँ, मेरे जैसे कई पाठकों का मानना होगा।
वैवाहिक पाखण्डों और समस्याओं पर आधारित होकर भी कुण्डली कहानी
बाल मनःस्थिति पर उसके कुठाराघात की कहानी है, जिसमें
एक पुराना और घिसा-पिटा विषय सर्वथा जीवन्त, तीक्ष्ण
और नवता से भर उठता है। पूरे प्रकरण में एक बच्चा सारे बुजुर्गों का बाप बन जाता
है और सारे नपुंसकों को धिक्कारता रहता है। पूरी कहानी इस बच्चे की सोच-समझ और
चुहल-कौतुक की उठा-पटक के साथ प्रस्तुत हुई है। यहाँ पाठक उस बच्चे के तनाव को
तीव्रता से महसूस करते हैं। कहानी का अन्त एक विद्रोह के स्वर फूटने से, और सुखद साँस से होता है। लड़के की माँ
के मुँह से ‘शादी’ के
लिए ‘सौदा’ शब्द
सुनकर लड़की चौंक उठती है,
और उस घर में शादी
करने से इनकार कर देती है,
बच्चे को दीदी का यह
निर्णय सुखद लगता है। ‘बचपन’ और
‘स्त्रीत्व’ को निर्णय के इस कठोर दौर में पहुँचाकर
कथाकार ने समाज के लिए एक नई रोशनी की ओर इशारा किया है।
इस संग्रह का नाम कैरियर, गर्लफ्रैण्ड
और विद्रोह है, जरूरी नहीं कि कथ्य, शिल्प और कथा-संरचना के लिए इसी कहानी
को कहानीकार के पूरे कौशल की कसौटी मानी जाए। पर इतना तय है कि यह बहुत अर्थपूर्ण
और प्रतीकात्मक नाम है। किसी भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय परिसर में विभिन्न जनपदों
से कैरियर बनाने आए हुए युवा-वर्ग समय पाकर इन्हीं तीन मान्यताओं में विभाजित हो
जाते हैं, कुछ कैरियर बनाकर भविष्य की नींव पुख्ता
करने में जुटे रहते हैं,
कुछ गर्लफ्रैण्ड
बनाने, टाइम पास करने और उपलब्ध लड़कियों का
राजनीतिक उपयोग करने में तल्लीन रहते हैं, और
इन्हीं में से कुछ युवा बगैर कोई अकादमिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक महत्त्वाकांक्षा पाले, आत्मस्थापन और आत्मविज्ञापन की लिप्सा
से निर्लिप्त सार्वजनिक हित में कुछ करना चाहते हैं। धूर्त्तता, चालाकी, अनीति, सम्बन्धों का दुरुपयोग उन्हें पसन्द
नहीं आता, नीति-विरुद्ध बातों और करतबों से वे
पूरी तरह परहेज रखते हैं। ऐसा अक्सर तब होता है, जब
मनुष्य की कोई सुविचारित जीवन-दृष्टि हो। सुविचारित सोच-समझ और जीवन-दृष्टि के
कारण ही कोई मनुष्य समय की धारा को अपने पक्ष में कर पाता है, समय का नायक बन पाता है। इस कहानी के
विद्रोही जी अपने समय के ऐसे ही नायक हैं, समाज
को नई दिशा देना चाहते हैं। उनकी जीवन-दृष्टि सुविचारित है, पर समय की धूर्त्तताओं से वे खुद
अपरिचित हैं। वे किसी राजनीतिक तिकड़म में नहीं जाते, पर
यथार्थ है कि बहेलियों के इस झुण्ड में विद्रोही जैसा पंछी उन सबसे बच भी नहीं
पाता! उन्हें उन्हीं की मान्यता से फँसाया जाता है। आजमगढ़ के गरीब किसान के इस
मेधावी और तेजस्वी-ओजस्वी बेटे को देश की अर्थनीति, समाज
की आर्थिक विषमता, दुनिया भर के विद्वानों और उनके वैचारिक
बहसों का ज्ञान भली भाँति था,
पर अपने आस-पास के
लोगों की समझ कतई नहीं थी। उनके आस-पास के लोग जमीन में भगवान उगाने के तिकड़म रचते
थे, वे आसमान में धान उगाने की मशक्कत करते
थे। दिन-रात समाजवाद और नीति-निष्ठा का नारा बुलन्द करनेवालों को दूसरों के सिर पर
बेल फोड़कर खाने में लिप्त देखकर वे हैरत में पड़ जाते थे। तूलिका जैसी सुन्दर लड़की
से मित्रता रखकर भी वे उसे नहीं जान पाए। क्योंकि वह न केवल सुन्दर थी, बल्कि अपने सौन्दर्य, विद्रोही के भोलेपन और राजनीतिक रूप से
महत्त्वाकांक्षी लोगों के मन-मिजाज पर अपने सौन्दर्य के नशे को जानती भी थी, अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा पूरी
करने में इन सारे उपस्करों के उपयोग का तौर-तरीका और अनुपात भी जानती थी, उसके लिए ये सब संसाधन थे, व्यक्ति और सम्बन्ध उनके लिए कुछ भी
नहीं था। उग्र प्रगतिशीलता के पुतले बने अन्य कई कार्यकत्र्ता भी कुछ कम नहीं थे।
हर कोई हर किसी के उपयोग के लिए बने थे--पूरे व्यापार में भोले थे बस एक विद्रोही, जिन्हें अपने समय की वैचारिक पहचान तो
थी, पर उनके पास कोई व्यावहारिक पद्धति नहीं
थी, समाज को अपसंस्कृति, असमनाता और दुराचार का अखाड़ा प्रमाणित
करनेवाली शक्तियों के डटकर मुकाबला करने हेतु कोई सांगठनिक समायोजन नहीं था। उस
सांगठनिक अभियोजन के लिए जिस क्षुद्र वृत्ति की जरूरत होती, विद्रोही उसे अपना नहीं सकते थे। पूरे
संग्राम में विद्रोही अकेले थे। आखिर किसके समर्थन-सहयोग से वे इन काली शक्तियों
से टक्कर लेते! सच है कि जनविरोधी ताकतों से संघर्ष करता हुआ इनसान जब अकेला हो
जाता है, उसकी वैचारिक शक्ति लगातार उग्र होती जाती
है; दुराशा, दुव्र्यवस्था, और घनघोर अन्धकार के प्रति विद्रोह का
रास्ता उधर से ही जाता है। विद्रोही के विद्रोह का रास्ता उधर से ही गया।
आहार-निद्रा-मैथुन के संसाधन जुटाने में लिप्त-तृप्त लोगों को यदि महत् उद्देश्य
के प्रति निष्ठा से समर्पित ऐसे नायक मतिहीन-मतिक्षीण दिखते हैं, तो इसका दोष किसे दिया जाए--समय को, तूलिका को, विनय को, विश्वविद्यालय
परिसर को, विद्रोही को...किसे दोष दिया जाए! आचार
की परिभाषा तो हर किसी की निजी होती है। और, इस
कहानी में नायकों के जितने प्रतीक दर्ज हुए हैं, वे
दूसरों की कसौटी पर भले खरा न उतरें, अपनी
कसौटी पर चौबीस कैरेट हैं! औरों से उन्हें क्या मतलब! विद्रोही जैसे एक नहीं, पचास नायक मर-खप जाएँ, पागल हो जाएँ, तूलिका और विनय की सेहत पर क्या असर
पड़ना है!...मगर कथाकार ने अपने विवरण-कौशल और कथा-संरचना के सहारे जे.एन.यू. परिसर
की एक सच्ची घटना को इतना प्रभावी बनाया है, इतना
उत्कर्ष दिया है कि आज के इस मतलबी दौर में भी किसी भावक की सद्भावना तूलिका के
सौन्दर्य और विनय की तिकड़मी प्रगतिशीलता की ओर नहीं जाती; विद्रोही के मसीहाई पहल को हर कोई सलाम
करते हैं। इसे कथाकार की बड़ी सफलता मानी जानी चाहिए। वस्तुतः इस कहानी में कथाकार
ने मानवता विरोधी आचरणों की चक्की में सारी सम्भावनाओं को पीसकर खत्म कर देनेवाले
आयास को नंगा करने का प्रयास किया है। वैसे इस कहानी का विषय, एक उपन्यास का विषय है। इसी तरह हंसा
रे... और अनवर भाई नहीं रहे कार्यालयीय दुर्वृत्तियों और माइक्रोवेव टावर
राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियों को बेनकाब करनेवाली बेहतरीन कहानियाँ हैं।
ये सभी कहानियाँ वृहत् व्याख्या की माँग करती हैं। आकर्षक गद्य, सरल-सहज बुनावट, सुललित भाषा-शैली, आम नागरिक की शब्दावली एवं प्रचलित
मुहावरे युवा कथाकार अनुज की कथा-संरचना को भरपूर समर्थन और सहयोग दे रहे हैं।
जाहिर है कि इन घटकों का अर्जन भी कथाकार ने अपने अभ्यास और प्रतिभा से ही जुटाए
हैं। आशा की जाती है कि ये कहानियाँ पाठकों का सम्मान पाएँगीं।
कैरियर, गर्लफ्रैण्ड और
विद्रोह/भारतीय ज्ञानपीठ/पृ. 116/रु. 120.00
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