कुछ संस्मरण, कुछ श्रद्धांजलि, कुछ चित्र
(‘अन्तिका’ पत्रिका का नागार्जुन विशेषांक)
बडे़-बडे़ साहित्यसेवियों के निधन के बाद पत्र-पत्रिकाओं के
विशेषांकों का आयोजन अब एक आचार की तरह होने लगा है। आनन-फानन कुछ संस्मरण, कुछ श्रद्धांजलि, कुछ चित्र आदि जमाकर विशेषांक छापकर
बाजार में पहुँचा दिए जाते हैं। जब डेढ़ वर्ष पूर्व भारतीय साहित्य के महान रचनाकार
बाबा नागार्जुन का निधन हुआ,
तो बड़ी संख्या में
विशेषांक प्रकाशित हुए। पर ‘अन्तिका’ पत्रिका
के अप्रैल-जून 2000 के यात्री (नागार्जुन) पर केन्द्रित
अंक ने पीछे के डेढ़ वर्षों में हिन्दी-मैथिली में प्रकाशित तमाम नागार्जुन
विशेषांकों को पीछे छोड़ दिया।
‘अन्तिका’ परिवर्तनकामी रचनाओं की संवाहिका है। यह
त्रौमासिक पत्रिका अपने पाँचवें अंक में ही सुधी पाठकों के बीच जिस तरह प्रतिष्ठित
हो गई, वह देश की किसी भी भाषा की किसी भी
पत्रिका के लिए ईष्र्या उत्पन्न कर सकती है। आशय यह नहीं है कि इस पत्रिका के निन्दक नहीं हैं; गणना
करें तो प्रशंसक से अधिक निन्दक ही हैं। पर चूँकि हर परिवर्तनकामी स्वर अल्पसंख्यक
होता है, ऐसे स्वर की ताकत उसकी संख्या नहीं, उसके अन्दर की आग, चेतना, विवेक, साहस और उसकी निःस्वार्थता होती है, इसलिए अपने इन गुणों के साथ एक निर्भीक
और मुखर पत्रिका ‘अन्तिका’ मैथिली
की एक श्रेष्ठ पत्रिका है। कुछ मैथिलों की कुटिल दृष्टि और नापाक इरादे से यह
पत्रिका बची रही, तो आने वाले दिनों में यह ‘हंस’ या
‘पहल’ या
‘संवेद’ या
‘पल प्रतिपल’ जैसी ख्याति बना पाएगी। यूँ आज भी यह
कुछ कम नहीं
है।
अन्तिका का यह अंक कुल सात खण्डों में विभाजित है:
व्यक्ति-चित्र, आकलन, गद्य
मूल्यांकन, पद्य मूल्यांकन, धरोहरि, अभिमत, समीक्षा आदि। व्यक्ति-चित्र में स्वयं
यात्री जी द्वारा लिखे आलेख ‘आइने के सामने’ के मैथिली अनुवाद के साथ-साथ शोभाकान्त, कमलेश्वर, मनोहर
श्याम जोशी, नरेन्द्र, महेश
दर्पण के लेख हैं। जो बाबा यात्री (नागार्जुन) के व्यक्तित्व का बड़ा ही सजीव चित्र
अंकित करते हैं और इस चित्र से उनके रचनाकार की सहजता, सरलता, विह्वलता, निर्भीकता, संघर्षशीलता...सब टपकती है। पाठकों के
सामने यह बात तो जाहिर ही होगी कि नरेन्द्र और शोभाकान्त के आलेख के अतिरिक्त सारे
आलेख इस खण्ड में हिन्दी से अनूदित हैं।
‘आकलन’ में मैथिली के विख्यात कथाकार राजमोहन
झा ने अपने लेख ‘बाबाक बारे मे’ में वाकई बाबा का आकलन प्रस्तुत किया
है। चौदह पृष्ठों के इस आलेख के अन्त में राजमोहन स्वयं कहते हैं कि ‘उन पर लिखना बाँकी रह गया है।’ वस्तुतः बाबा नागार्जुन (यात्री) के
रचना संसार का जो आयाम है,
उस पर काफी कुछ लिखने
के बाद भी बाँकी रह ही जाएगा।
बाबा के साहित्य का मूल्यांकन इस अंक में दो खण्डों में हुआ
है। पहले खण्ड में बाबा के उपन्यास एवं अन्य गद्य का मूल्यांकन किया गया है। इस
खण्ड में जीवकान्त,
गंगेश गुंजन, विभूति आनन्द, देवशंकर नवीन, विद्यानन्द झा, केदार कानन तथा सुरेन्द्र स्निग्ध ने
मूल मैथिली भाषा में तथा राजेन्द्र यादव, सुरेश
सलिल, खगेन्द्र ठाकुर, कर्मेन्दु शिशिर, कुमार मुकुल ने हिन्दी में विचार किया
है। जाहिर है कि बाबा के सारे उपन्यास हिन्दी में भी उपलब्ध हैं, इसलिए हिन्दी के लेखकों को भी मूल्यांकन
में कोई परेशानी नहीं
हुई होगी।
मूल्यांकन के दूसरे खण्ड में बाबा की कविताओं पर मैथिली से
जयकान्त मिश्र, रामानुग्रह झा (पुनर्मुद्रण), संजय कुन्दन, तारानन्द वियोगी ने तथा हिन्दी से
विष्णु चन्द्र शर्मा तथा राणा प्रताप ने विचार किया है। ‘धरोहरि’ खण्ड
में यात्री की कुछ रचनाओं के पुनर्मुद्रण के अलावा हरिमोहन झा, राजकमल चौधरी, फणीश्वरनाथ रेणु, अपराजिता देवी तथा शमशेर की छोटी-छोटी
टिप्पणियों के अलावा यात्री के कुछ पत्र संकलित हैं। ये पत्र और ये पुनर्मुद्रित
उद्धरण अपने प्रभाव में आज अत्यन्त प्रासंगिक हैं। ‘अभिमत’ खण्ड में बाबा के लेखन के सम्बन्ध में
सुकान्त सोम, सुरेन्द्र झा ‘सुमन’, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, अमरकान्त, चन्द्रनाथ
मिश्र ‘अमर’, मायानन्द
मिश्र, कुलानन्द मिश्र, अदम गोण्डवी, विष्णु खरे, भीमनाथ झा, उपेन्द्र दोषी, ललित, पंकज
बिष्ट, हंसराज, रमानन्द
रेणु, महाप्रकाश, रघुवीर सहाय, अरुण कमल आदि के अभिमत प्रस्तुत किए गए
हैं। ये अभिमत भिन्न-भिन्न स्थानों से छाँटे गए हैं। अन्तिम खण्ड समीक्षा में
यात्री पर लिखी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘तुमि
चिर सारथि’ (तारानन्द वियोगी) की समीक्षा सारंग
कुमार ने की है।
‘अन्तिका’ के पूर्व के अंकों में भी यात्री और
राजकमल पर विशेष रूप से अनुपलब्ध सामग्री प्रस्तुत की गई थी। फिलहाल इस विशेषांक
की समीक्षा संक्षिप्तता में सम्भव नहीं है।
इसमें जितनी सामग्री इकट्ठी की गई है, वे
भी समीक्षा की माँग करती हैं। यह अंक बाबा के साहित्य पर शोध करने वाले विद्वानों
को पर्याप्त मदद देगी। इस अंक से ऐसे कई सूत्र भी निकलते हैं, जो बाबा के साहित्य पर नए सिरे से विचार
करने को बाध्य करते हैं। खगेन्द्र ठाकुर और राणा प्रताप के आलेख बाबा के साहित्य
में किसान जीवन और कृषि संस्कृति के चित्र तलाशने और मजदूर किसानों के प्रति बाबा
की संवेदना की नई बुनियाद खोजने की पे्ररणा देते हैं।
पर,
विस्तार से व्याख्या
की गुंजाईश यहाँ नहीं
है। चूँकि हर अच्छे
और नए काम की पूर्णाहुति के पश्चात तलाशने पर उनमें और सम्भावनाएँ दिख जाती हैं, इसलिए पाठकों को और भी सम्भावनाएँ इस
अंक में दिख सकती हैं। पर सम्भावनाओं का अन्त नहीं होता। अस्तु, अन्तिका का यह विशेषांक बाबा यात्री
(नागार्जुन) के जीवन एवं लेखन पर प्रकाशित अकेला अंक है, जहाँ सावधानी से सामग्री जुटाई गई है।
इस संकलन में मैथिली के रचनाकारों के उदारतापूर्ण सहयोग का अभाव परिलक्षित होता
है। कहने के लिए मैथिली के पाठक कह सकते हैं कि यात्री जी पर लिखने के लिए मैथिली
में लेखकों का अभाव था क्या कि हिन्दी के लेखकों को जमा कर दिया गया है? पर, यह
शायद उसी उदारतापूर्ण समर्थन का अभाव हो सकता है। और यह भी कि मैथिली के बाबा
यात्री, हिन्दी के बाबा नागार्जुन के रूप में
क्या हैं, वह भी यहाँ परिलक्षित हो जाए। बहरहाल, ‘अन्तिका’ परिवार
को इस शानदार सफलता के लिए बधाई।
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