साज की चुप्पी
(रश्मि रमानी का कविता संग्रह ‘साज चुप है’)
‘साज
चुप है’ रश्मि रमानी का पहला कविता संग्रह है।
कवयित्री के भिन्न नजरिए के कारण इन इकहत्तर कविताओं के संकलन का अलग महत्त्व है।
विसंगतियों, विकृतियों से भरे हमारे परिवेश में
कवयित्री साफ देखती हैं कि--
धुएँ से भरी हैं दिशाएँ
जलती रहती हैं आँखें
ख्वाबों तक में हो रहे हैं विस्फोट
जला दिया है आग ने जंगल
और सुलग रही है अब भी किसी कोने में
चुपचाप
परन्तु ऐसे विकृत माहौल में भी कवयित्री को जीवन के साधन और
सुकून मिल जाते हैं,
संघर्ष के स्रोत मिल
जाते हैं। इन कविताओं में काव्य-कौशल की यह विलक्षणता परिलक्षित है। अनन्त काल से
जिस ‘आग’ को
सहेजा और पूजा गया,
जो अग्नि जीवन के
तमाम संस्कारों का साक्षी बनी,
वह आग उनके यहाँ अपनी
तमाम गुणवत्ता के साथ भिन्न-भिन्न रूपों में मौजूद है। सारी विपरीत परिस्थितियों
के बावजूद इसी आग से प्राप्त ‘ऊष्मा’ मनुष्य
को जीने की प्रेरणा देती है और जीवन में संघर्ष करने की ताकत तथा अन्धकार के बाद
रोशनी और रात के बाद सुबह के आगमन की प्रतीक्षा हेतु धैर्य देती है।
सही कहा गया है कि ‘स्त्री
ही इन कविताओं की धुरी है और परिधि भी। जब स्त्री है तो समय के दबाव के साथ वे
गहरी छायाएँ भी हैं जो सपनों के इन्द्रजाल के विरुद्ध परिस्थितिजन्य व्यूह-रचना
करती हैं। कभी न खत्म होने वाली भीतरी तलाश और छोटी-छोटी स्मृतियों के सहारे लम्बा
सफर तय करते हुए अधूरेपन और पूर्णता की कामना के बीच चमकते-बुझते शब्दों में रोमेण्टिक
भावुकता और नाॅस्टेल्जिया मौजूद है।...स्त्री की पीड़ा, अकेलापन, चुप्पी, अस्मिता-लोप, सौन्दर्य के साथ ही बेटी, माँ, गर्भस्थ
शिशु, दरारों के बावजूद दुनिया रहने लायक लगती
है।’
सच पूछा जाए तो इन पंक्तियों में रश्मि की कविताओं का सब कुछ
कह दिया गया है। पिछले कई वर्षाें से औरत पर कविता लिखना स्त्री-दैन्य से
सहानुभूति रखते हुए बात करना,
नारीवादी फारमूले में
बात कहना, हिन्दी साहित्य में एक फैशन की तरह चल
पड़ा है। शायद ही ऐसे कोई महत्त्वपूर्ण-अमहत्त्वपूर्ण या औसत-अनौसत कवि हों, जिन्होंने औरत पर कविताएँ न लिखी हों, कुछेक ने तो शृंखलाबद्ध ढंग से कविताएँ
लिखी हैं, पर उनमें से ज्यादातर कविताएँ रश्मि की
इन कविताओं के समक्ष बेजान और कृत्रिम-सी दिखने लगेगी। जब रश्मि लिखती हैं कि--
औरत नहीं जानती
अपने औरत होने का अर्थ
साधारण होती है वह आसमान की तरह
पर, अनभिज्ञ नहीं
भीतर की भूल भुलैया से
पुरुष का विषाद, थकान, खालीपन और भी बहुत कुछ
सोख लेती है वह बढ़िया सोख़्ते की तरह
औरत को पता नहीं है
कितना ज़्यादह कहती है उसकी चुप्पी
आखिर, संसार की सबसे अच्छी कविता है
औरत...
तो नजर के सामने औरत का पूरा-पूरा बिम्ब उभर आता है। ये
पंक्तियाँ औरत के बारे में फैशनपरस्त शब्द नहीं उगलतीं। यहाँ औरतों के प्रति
सहानुभूति नहीं; दयनीय बनाकर, सहानुभूति दिखाकर औरत को शिकार का दाना
चुगाने वाले बुद्धिजीवियों को ये पंक्तियाँ आतंकित करती हैं। ‘अपने औरत होने का जादू’ जिस दिन वह जान जाएगी कि--
उसकी देह की कमनीयता बदल जाती है चट्टान
में और,
दर्द की दीवार को तोड़कर फूटते हैं
नस्लों के अंकुर
आविष्कृत होती है नई देह...
उस दिन औरत-भक्षियों का यह सारा पाखण्ड
समाप्त हो जाएगा।
जैसे कहा गया कि ‘स्त्री
ही रश्मि की कविता की धुरी है’,
वैसे ही यह भी कहा जा
रहा है कि यह धुरी हिन्दी में लिखी जानेवाली अन्य तमाम रचनाओं से भिन्न है। और, वह इन अर्थों में कि रश्मि के यहाँ औरत
मजबूर, असहाय, दयनीय
और सहानुभूति के पात्र नहीं है। औरत यहाँ शक्तिवती है, पर उसकी शक्ति मशीनी नहीं है, वह रोबोट नहीं, उसकी शक्ति संहारक नहीं, सर्जक है। वह अपनी शक्ति निर्माण में
लगाना चाहती है और सारी खामियों को सोख कर दुनिया को, परिवेश को खुशनुमा बनाना चाहती है।
अन्धकार,
आतंक, दहशत, विकृति, वीभत्सता...तमाम विपरीत परिस्थितियों के
बीच जीवन बिताते मानव को रश्मि की कविता एक खुशनुमा माहौल तलाशने और उसे पा लेने की
आशा एवं आस्था देती है। ये कविताएँ समुद्र और समुद्र की लहरों में व्यस्त माँ-बाप
के बच्चों का अकेलापन और उसकी उदासी दर्ज करती हैं, पर
वहीं उसकी तर्क-संगति भी मौजूद है। इन कविताओं में सूरज ढल जाने के बाद आए अन्धकार
से घबराहट पालने के बजाए नीन्द और नीन्द में सपने तलाशने का सन्देश, पाठकों को खुश होने के टिप्स मौजूद हैं।
डूबते सूर्य के रंगों से
नहा रहा है आसमान
साँझ के सौन्दर्य का जादू
उतर आया है
एक लड़की की आँखों में
उजाड़ में फूल खिलने की आस लिए
लड़की खोजती है बहुत कुछ
चाँद का पता
जैसी पंक्तियाँ कवयित्री के सोच का उत्कर्ष दिखाती है। किसी भी
रचनाधर्मी की जीवन-दृष्टि उसके बिम्ब-प्रतीकों में और दुनिया को देखने के उनके
नजरिए में ही मुखरित होती है। रश्मि की कविताओं में उनकी यह जीवन-दृष्टि साफ-साफ
परिलक्षित है। यहाँ उनका स्वावलम्बन, पराश्रय
के प्रति उनका तिरस्कार,
विपन्नता में भी
सम्पन्नता के भाव से भरी हुई मनोवृत्ति और अपने वजूद के प्रति पुरजोर आस्था निखर
उठी है--
मत बनाओ मुझे
उस भीड़ का हिस्सा
जहाँ, मेरा अपना कोई नहीं है
बाहर की चकाचौंध बन्द कर देगी मेरी
आँखें
नहीं कहना चाहती मैं वे शब्द
जो मेरे होठों पर तुमने धर दिए
उदास बियाबानों में
अपने आपको ढूँढती मैं
जीना चाहती हूँ एक खुशगवार जिन्दगी
चाँदनी की तरह उजली
और नीले आसमान की तरह उदार
सूर्य,
फूल, बच्चे, स्मृतियाँ, समुद्र, आसमान, धरती, शान्ति
के कपोत, तितली, हवा, आइना, सितारों
की चमक, लहरें, सुबह...जैसे
बिम्बों की मदद से इन कविताओं में कवयित्री ने अपनी उन्मुक्त और शक्तिशाली भावनाओं
का न केवल चित्रण किया है,
बल्कि भाषा और भाव के
तेवर से अपनी शक्ति एवं आकांक्षा भी व्यक्त की है। इस संग्रह की कविताएँ रचनाकार
के सधे हुए रचना कौशल की साक्षी हैं। सारी की सारी कविताएँ मानव हृदय के कोमल
तन्तुओं की सुगबुगाहट और उनकी अठखेलियों से, उसके
उमंगों की बाढ़ से उत्पन्न हुई हैं। इस पुस्तक में ‘साज़
चुप है’ शीर्षक से एक कविता भी संकलित है। पर, यह पदबन्ध इन कविताओं के माध्यम से और
इस खास कविता की पंक्तियों के माध्यम से जितनी मूल्यवान और अर्थगर्भित हो उठी है, उसकी कितनी भी तारीफ हो, कम होगी। प्रेम और स्पर्श का इतना कीमती
अर्थ स्पष्ट करना कोई साधारण बात नहीं। यह ‘साज़’ अर्थात् सितार, वायलिन, इतकारा, सरोद, सन्तूर...कुछ
भी, अर्थात् स्त्री इतने-इतने अर्थों, सुरों, संगीतों
का खजाना है कि इसे सिर्फ स्पर्श चाहिए, स्पर्श
करने वालों के कौशल पर निर्भर करता है कि वह कैसी ध्वनि निकाल पाएगा। जो स्त्री
रोजमर्रा का काम निबटाते हुए दिन गुजार देती है, रात
उसके लिए प्रश्नवाचक हो जाती है और उस रात में, जहाँ
हवा तक बेचैन हो जाती है,
वह साज़ के कसे हुए
तारों की मानिन्द अपने को अनुभव करती है
और सिर्फ सोचती है
कि, साज देखने
या, उसके बारे में बात करने से नहीं बजता
वह स्पर्श की भाषा जानता है
करीब से बेहद करीब से
उसे बजाना होता है...
सीधी-सादी पंक्तियों में स्त्री की इतनी खूबसूरत और इतनी
जानदार परिभाषा नहीं हो सकती है। ठीक इसी तर्ज पर यह कहना भी वाजिब है कि जैसी
कविताएँ इस संकलन में हैं,
उसके लिए इससे शानदार
शीर्षक नहीं हो सकता। ‘साज़’ के
साथ स्त्री की सारी अर्थवत्ता,
मूल्यवत्ता ध्वनित हो
उठती है। साज़ वह सब कुछ कर सकता है,
जो एक स्त्री कर सकती
है; साज थके और बीमार मनुष्य को आराम और
स्वास्थ्य दिला सकता है,
प्रेम के लिए प्रेरित
और युद्ध के लिए उन्मत्त कर सकता है, तरह-तरह
के सुरों-लयों में भिगो कर उसे जीवनी शक्ति दे सकता है, मनुष्य को हैवान बनने से रोक सकता है।
स्त्री ये सारे काम कर सकती है। साज़ और स्त्राी सिर्फ नफरत नहीं कर सकती, वह संहारक नहीं हो सकती, नहीं हो सकती इसलिए कि वह होना नहीं
चाहती, वह चुप हो जाती है, जैसे साज़ चुप हो जाता है। उसका चुप हो
जाना ही साज़िन्दा के लिए सबसे बड़ी नफरत और सबसे बड़ा संहार है। जीवन के
सुर-ताल-छन्द का मर जाना क्या साधारण मौत है?
हिन्दी में इन दिनों व्यवस्था (सामाजिक, राजनीति, आर्थिक, पारिवारिक) को धिक्कारने के लिए, उससे लड़ने, उसे पछाड़ने के लिए काफी रचनाएँ हो रही
हैं। यूँ, सबसे बड़ी सचाई है कि व्यवस्था मनुष्य से
ही बनती है। मनुष्य अपने ‘स्व’ से
उबड़ पाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है; अहंकार
से मुक्त और वैयक्तिकता से निर्लिप्त नहीं हो पाया है। ऐसी स्थिति में दुराव और
मानव-मानव के बीच राग-द्वेष पनपना वाजिब है। रश्मि की ज्यादातर कविताएँ मौजूदा
हालात में इनसानी ताकत की तलाश की कविताएँ हैं। राजनीतिक माहौल भारत का ऐसा बन ही
गया है, जहाँ आम आदमी से बेहतर जीवन किसी भी
मक्खी-मच्छर या कीडे़-मकोड़े को मयस्सर है। रश्मि ने इस धुन्ध भरी गलियों में भी
खुशियाँ तलाशने का सन्देश दिया है। प्रतिभा और अर्थ का संहारक उपयोग देखकर ‘सदी के अन्त में’ कविता लिखती हैं और व्यथित हो उठती
हैं--
जाती हुई सदी के अन्त में
सपने उमड़कर आए
लहरों की तरह
पर टूटकर बिखर गए किनारों से टकराकर
शान्ति के कपोत नहीं उड़ पाए ऊँचाई पर
बन गए वे शिकार
हथियारों के सौदागरों का
षड्यन्त्रों के ताने-बाने बुनती
ऊँगलियाँ
करती रही संकल्पों, सन्धियों की असफल कोशिशें...
पर इन सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद निराश होना ठीक नहीं, ‘अगर आशाएँ जीवित हैं’ तो ‘निराशा
के सागर सूख सकते हैं।’
यहाँ बच्चों के ‘नंगे मुलायम पैर बगीचे की घास पर नहीं, पथरीले रास्तों पर चल रहे हैं’ परन्तु ‘सुलगते
हुए इस खतरनाक समय में’
भी ‘पेड़ों पर फल लग रहे हैं, खेतों में फसलों का लहलहाना जारी है’, सूर्योदय और सूर्यास्त पर कोई टैक्स
नहीं, बर्फ पर कालिख पोतने की कोशिश नहीं हो
रही है, इसलिए निराशा जैसी स्थिति से बचा जा
सकता है। प्रेम, ऊर्जा, धन
और प्रतिभा का सर्जनात्मक और अन्वेषी उपयोग कर इस दुनिया को खुशनुमा बनाया जा सकता
है।
सूख सकते हैं निरशा
के सागर,
साक्षात्कार
साज चुप है/रश्मि
रमानी/रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा, म.प्र./पृ. 128/रु. 90.00
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