Sunday, July 12, 2009

साहित्य और समाज के सम्बन्धों के आयाम Dimensions of Relations of Literature and Society



आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार जनता की परिवर्तनशील चित्तवृत्तियों की परम्परा और साहित्य की परम्परा का सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास है(हिन्दी साहित्य का इतिहास/पृ.-1)
सच है कि साहित्य तब से लिखा जा रहा है जब से मनुष्य ने लिखना-पढ़ना शुरू किया। चाहे वे प्राचीन ऋषि रहे हों जिन्होंने वेद की ऋचाएँ गाईं या आदिकवि इस देश के...(विजयदेव नारायण साही/साहित्य और साहित्यकार का दायित्व/पृ.-31)
साहित्य के प्रयोजन से सम्बन्ति प्रश्नों का उत्तर उल्लिखित उद्धरणों की व्याख्या में समाहित है। वस्तुतः साहित्य तब भी था जब लिखने पढ़ने की परम्परा नहीं थी, और उनलोगों के जीवन में भी इसका महत्त्‍व था, जो लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे। उस समय और उनके यहाँ यह वाचिक परम्परा में था, आज का लोकसाहित्य उसी परम्परा की देन है। लोककथा, लोकगाथा, लोकगीत, कहावत आदि के रूप में हमारे समाज में साहित्य का अस्तित्व तब भी था। आज, साहित्य की भिन्न-भिन्न विधाएँ जिस रूप में हमारे सामने हैं, उसके इस स्वरूप-गठन में हमारी इन वाचिक परम्पराओं का योगदान कहीं से भी कम नहीं है, बल्कि अहम् है।
साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का वाहक तो होता ही है, समकालीन समाज की जनता को आपस में जोड़ने का साधन भी है, और परवर्ती काल की जनता को पूर्व की सामाजिक संरचना, रहन-सहन, आचार-विचार, आहार-व्यवहार, कला-संस्कृति आदि की जानकारी देने वाला माध्यम भी। साहित्य के उद्देश्य और प्रयोजन पर बड़े-बड़े प्राच्य आचार्यो ने बड़ी-बड़ी बातें की हैं। काव्यं यशशेर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये सद्यःपरिनिवृतये कान्तासम्मित्तयोपदेशयुजेजैसी कई बातें कही गई हैं। पर पाठकों, श्रोताओं, प्रेक्षकों की दृष्टि से, और जरा लीक से हटकर सोचें तो जनता के जीवन में इसके उपयोग की दृष्टि से, यह बात अच्छी तरह समझ में आती है कि साहित्य बहुआयामी प्रयोजन की चीज है--यह मनोरंजन का साधन है, उपदेश का माध्यम है, सामाजिक धार्मिक और सांस्कृतिक इच्छा-आकांक्षाओं और भावुकताओं को तृप्त करने का सम्बल है, जश्न मनाने का एक तरीका है, भयमुक्त होने का हमसफर, हमकदम है, साहस बटोरने, क्रोध जगाने, आक्रोश पैदा करने और विद्रोह करने का संसाधन है, क्रान्ति का अगुआ है और विद्रोह का झण्डा है...सामाजिक जीवन में साहित्य पग-पग का साथी होता आया है, अनेक रूपों में अनेक तरह के योगदान से हमारे समाज की जनता का साथ साहित्य देता आया है। समाज के साथ सािहत्य के सम्बन्धों के इतने आयामों के सूत्रा टटोलने का काम बहुत सरल भी है, बहुत कठिन भी, पर बहुत-बहुत आवश्यक भी। सरल इसलिए कि साहित्य मनुष्य के हर भटकाव को रोकता है, विपत्ति और उद्विग्नता में उसके बिखराव और टूटन को सहेजता है और उसे ऊँगली पकड़कर सही राह दिखाता है। जीवन के हर टेढ़े-सीधे रास्ते पर सहारा देने वाले साहित्य का सान्निध्य इस तरह बड़ी सरलता से महसूस किया जा सकता है।... यह काम कठिन इसलिए है कि जब मानव जीवन की सारी परिस्थितियाँ विपरीत हो जाती हैं, जहाँ मानवीय जीवन के सारे जागतिक सम्बन्ध विरुद्ध हो जाते हैं, ऐसे विकराल काल में यदि साहित्य उसका साथ देता है, तो उसे सम्बन्ध के किस व्याकरण की कसौटी पर जाँचा परखा जाएगा? विजयदेव नारायण साही ने कहा है कि एक स्तर पर भाषा, विचार और साहित्य--ये भिन्न नहीं रह जाते और जैसे-जैसे उनमें घनत्व बढ़ता जाता है, वैसे वैसे लेखक जो उस भाषा से दिन-रात उलझ रहे हैं, उनके अनुभव समाज के लिए बहुत महत्त्‍वपूर्ण होते हैं। भाषा के स्वरूप के लिए भी महत्त्‍वपूर्ण होते हैं--उस भाषा के बोलने वालों के लिए भी महत्त्‍वपूर्ण होते हैं (साहित्य और साहित्यकार का दायित्व/पृ.-30)यहाँ जिस अनुभव की बात की जा रही है, यह अनुभव लेखक उसी समाज के खट्टे-मीठे यथार्थ में अरजता है। जब से मनुष्य ने वाचिक और लिखित रूप में भाषा को अख्तियार किया है, वह उसकी चिन्तन प्रक्रिया, बल्कि एक तरह से जीवन प्रक्रिया का अंग है। और यही चिन्तन, यही विचार, भाषिक रूप में साहित्य होता है। स्वभावतः मनुष्य के जीवन का सहचर बना यह साहित्य, मानव के साथ कैसा सम्बन्ध स्थापित करता है, उसका सूत्रा टटोलना बहुत आवश्यक है।
इतिहास लेखन की प्रक्रिया पुराने समय से चली आ रही है। कुछ राजाओं ने तो अपनी जीवनी और अपनी शासन प्रक्रिया को कीर्तिगाथा के रूप में लिखवाने का काम किया। मुगल बादशाहों ने इस काम में काफी रुचि ली। राज्याश्रय में रहकर राजाओं के यशोगान और उनकी खूबियों, वीरताओं को अंकित करने, उनकी बर्वरताओं को वीरता के रूप में चित्रित करने के बरक्स एक विश्लेषणपरक और तटस्थ इतिहास भी लिखा जाता रहा है। पर तमाम तटस्थता और ईमानदारी के बावजूद, यह इतिहास समाज का एकांगी दर्शन ही कराता है। यह इतिहास समकालीन राजा के वंश वृक्ष, जन्म-मरण, रहन-सहन, माल-असबाब, शादी-विवाह, आहार-व्यवहार, युद्ध-शान्ति, जय-पराजय, गुण-दोष का परिचय देता है। उसके काल की जनता की चित्तवृत्ति का संकेत ऐसे किसी भी इतिहास में नहीं रहता। जनता की इच्छा-आकांक्षा, सुख-दुख, हर्ष-उल्लास, शोक-सन्ताप, भय-साहस, जीवन-मरण, ऐश-आराम, शोषण-दोहन, क्रोध-विनय, शील-स्वभाव, अपेक्षा-उपेक्षा, मान-सम्मान, संक्रमण-अतिक्रमण आदि की बात कोई भी इतिहास नहीं करता। राज्य सीमा के विस्तार हेतु हुए युद्ध में मारे गए सैनिकों के आश्रितों के विलाप की ध्वनि और उनके आँसू की गिनती किसी भी इतिहास में नहीं होती। यह काम सामूहिक, सांकेतिक और प्रतीकात्मक रूप से साहित्य में होता है, लेखक समकालीन यथार्थ का तीक्ष्ण अनुभव अपने समय के साहित्य में बड़ी संजीदगी से दर्ज करता है। इस अर्थ में साहित्य समकालीन जनपथ पर बिलखती अथवा किलकती जनता की चित्तवृत्ति का इतिहास ही है, जिसे राजपथ की क्रूर मुस्कान, बेदर्द उल्लास, अश्लील प्रसन्नता और हृदयहीन उत्सव का भी अन्दाज रहता है। अर्थात् हर समय का इतिहास लेखन की एक समानान्तर धारा है।
पूर्व में समाज और साहित्य के सम्बन्धों के आयाम टटोलने की आवश्यकता की चर्चा हुई है । यह आवश्यकता इसलिए भी है कि आज का नागरिक काफी शिक्षित, प्रशिक्षित, सुजान, सुबोध हो गया है, किन्तु उनके जीवन में उलझनों की गाँठ लगाने वाले सकल सूत्रा उलझाऊ तत्त्वउनसे अधिक चतुर, सचेत और सावधान हैं। जनता को अभिमन्यु की तरह निहत्था, विक्रमादित्य की तरह अपंग, पाण्डवों की तरह सुविधाहीन करना इनके लिए दाएँ-बाएँ हाथ का खेल हो गया। जनता ज्यों-ज्यों अपनी समस्या समझती गई, उनकी समस्याओं की कोटि बदलती गई। साहित्य की सहायता से मनुष्य ने समझा कि हमारी मूलभूत समस्या अशिक्षा और बेरोजगारी है। इन समस्याओं के जनक ने सोचा कि जनता ज्वालामुखी होती है, उसके सम्मुख नहीं जाना चाहिए, उसकी दिशा बदल देनी चाहिए। इन आदमखोर राजनेताओं, व्यापारियों, पुलिस, अधिकारियों ने ऐसा विधान रचा कि अब जनता से साहित्य का सम्पर्क ही विरल हो गया। जिस साहित्य ने जनता को उसकी अशिक्षा और बेकारी की जानकारी दी, वह साहित्य अब यह जानकारी उन्हें न दे दे कितुम्हें शिक्षित और कामगार बनाने की नीयत से नहीं, अपने लिए प्रशिक्षित मजदूर गढ़ने की नीयत से तुम्हें वह शिक्षा की सुविधाएँ दे रहा है, तुम्हें नई पद्धति से वह लाठी, पिस्तौल, आलू, बारूद, रोबोट, शिकारी कुत्ता, प्रशिक्षित बाज बना रहा है, तुम्हारी आँखों में नए तरीके से धूल झोंकी जा रही है...।जनता को इस तिलिस्म से साहित्य सावधान करता आ रहा है, पर इस साहित्य से यदि सम्पर्क ही भंग कर दिया जाए, तो फिर इसे यह जानकारी कौन देगा? और तकनीकी शिक्षा, रोजगारोन्मुख शिक्षा, सूचनाप्रधान शिक्षा, साइबर युग, कम्प्यूटर शिक्षा, इन्टरनेट, वेबसाइट आदि आदि के प्रवेश से इन तिकड़मियों को इतना लाभ तो मिल ही गया कि लोगों को आज साहित्य के सम्पर्क में रहने का अवसर लोगों बहुत कम मिल पाता है। मनोरंजन के नाम पर रेडियो तो लोगों के जीवन से विस्थापित ही हो गया। दूरदर्शन, जो अभी मानव जीवन के अहम् हिस्से पर अधिकार जमाए हुए हैं, वह तरह-तरह के देशी-विदेशी चैनल के भोण्डेपन के सहयोग से जनता की रुचि और उसके सोच को गंदा करता जा रहा है। ले-देकर कुछ नाट्य संस्था और कुछ नुक्कड़ नाटक टीम अभी भी अपनी स्तरीयता बचाए हुए है, पर संसाधन के अभाव में ,अराजकता के समुद्र को शुद्ध कर पाना उसके वश में नहीं रहा। इस ख्याल से भी, साहित्य और समाज के सम्बन्धों की व्याख्या करना आज आवश्यक है। स्थिति तो यह बन आई है कि तरह-तरह की नारेबाजी से आज यह कहा जाने लगा है कि इन्टरनेट और ऑन-लाईन सूचना की सुविधा से सम्पन्न समाज में पुस्तक का महत्त्‍व घट गया है। ऐसा कहने वाले ये भूल जाते हैं कि यह भारत देश है, यहाँ की जनता धरोहर की सुरक्षा में सदा रुचिशील रही है और रहेगी।
साहित्य के विकास का सिलसिलेवार अध्ययन इस बात का प्रमाण है कि लेखन में प्रवृत्त हमारे साहित्यकार सदा से आम जनता के दुःख दर्द से रू-ब-रू होते रहे हैं और उसकी जीवन प्रक्रिया को अंकित करते रहे हैं। लाख व्यस्तता और जीवन की आपाधापी के बावजूद, चूँकि अक्षरही भाषा का माध्यम है। इसका क्षरण नहीं होता। साहित्य, भाषा, वाक्य, शब्द, वर्ण का महत्त्‍व मानव जीवन और सामाजिक आचार में सदा से रहा है और अनन्त काल तक रहेगा। समाज एक-एक व्यक्ति के लिए अपने जीवन, अपने विकास और अपने अस्‍तित्व के सम्बल के मद्दे नजर साहित्य से पल-पल जुडे़ रहना आवश्यक है। यदि वे अपने इस दायित्व को भूलेंगे, तो निश्चय ही वे कुत्ते बिल्ली और कीट पतंगों के जीवन जीने को विवश हो जाएँगे। मनुष्य को मनुष्य का वजूद दिलाने के लिए, उसके स्वाभिमान की रक्षा के लिए, अपने अस्तित्त्व और अस्मिता की सुरक्षा के लिए साहित्य के अलावा अन्य कोई भी घटक कारगर साबित नहीं हो सकता।
स्वाधीनता से पूर्व देश के सामने एकाभिमुख समस्या थी अंग्रेजों की शासन व्यवस्था। देशभक्त बलिदानियों ने अपनी कुर्बानी देकर इसे आजाद तो कर दिया, पर जैसा कि होता है, स्वाधीनता प्राप्ति की प्रसन्नता का नशा जनता पर इस कदर छा गया कि आगे की व्यवस्था के लिए वह कुछ सही सलामत निर्णय नहीं ले पाई और ऐसे भी, लम्बी गुलामी के बाद प्राप्त स्वाधीनता ने उसे सर्वतन्त्र स्वतन्त्र कर दिया। मगर, इस लम्बी गुलामी के बाद इस स्वाधीन भारत की वागडोर जिनके हाथ गई, वे उन अंग्रेजों के ताऊ निकाले और अंग्रेजों के नक्शे कदम भारत के नागरिक को सर्वतन्त्र परतन्त्र कर दिया। स्वाधीनता के डेढ़ दशक बीतते-बीतते सारी गति-दुर्गति सामने आ गई। देश विभाजन, पार्टियों का विभाजन, सीमा संघर्ष, चीन और पाकिस्तान के खतरे, चीनी मैत्राी में धोखाधड़ी, पण्डित नेहरू और लाल बहादुर शास्त्राी को लगे राजनीतिक झटके, जनता का मोहभंग...सारी की सारी घटनाएँ बड़ी-बड़ी भूमिका के साथ देश में मौजूद थीं। छायावाद से उबरकर प्रगति, प्रयोग के युग को पारकर, सच को सच की तरह कहने को अभ्यस्त हो गए साहित्यकारों के सामने ये सारी स्थितियाँ चिन्तनीय स्वरूप में खड़ी थीं, लेकिन सन् उन्नीस सौ साठ से पूर्व की स्थिति इन सारे दृश्यों की पृष्ठभूमि ही थी, जहाँ जनता स्वाधीनता से पूर्व गढ़े हुए अपने सपनों की महलों को ढहते हुए देख रही थी, उनकी सारी अभिलाषाएँ कुचली जा रही थीं। समाज की अवधारणाएँ और समाज के दायित्व, देश की राजनीति से बुरी तरह प्रभावित हो चुके थे, व्यक्ति अपने समाज में अपने को असुरक्षित महसूस करने लगा था। राजकमल चौधरी ऐसे ही समय में जोर-शोर और निष्ठा के साथ साहित्य सृजन में जुटे रचनाकारों में प्रमुख थे।
साहित्य और समाज के सम्बन्धों को ही रेखांकित करते हुए, राजकमल चौधरी लिखते हैं, ‘‘इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं या मेरे समय का कोई भी दूसरा मनुष्य अपनी कविता में कितना अश्लीलहोता है, शरीर के किन अंगों और दृश्यों का वर्णन करता है, कितनी मात्रा में गाँजा या मस्कोलिन या चरस लेता है, किन गलियों और नाबदानों में रात काटता है, किस प्रकार की यातनाओं और बर्बरताओं को बर्दाश्त करता है, और किन शब्दों को अपना दास अथवा अपना ईश्वर स्वीकार करता है! फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता है कि वह अपनी कविता को अपना जीवन मानता है या नहीं--और, वह युद्धरत है या तटस्थ (लहर,फरवरी -1960, पृ.48)’’
कविताशब्द तो यहाँ चर्चा भर के लिए है, वस्तुतः किसी भी विधा का साहित्य, मनुष्य के जीवन और परिवेश से अलग अथवा बाहर नहीं है। साहित्य हर समय के जनजीवन की चित्तवृत्ति का वाहक रहता आया है। और, जनजीवन की चित्तवृत्ति सामाजिक परिवेश में ही निर्मित, विकसित, परिचालित, सम्वर्द्धित, अथवा कुण्ठित होती है। इस अर्थ मंे कहना युक्तिसंगत है कि मनुष्य की वैयक्तिक विचारधारा, वृत्तियाँ, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ, प्रीति, घृणाकृसबके सब सामूहिक केन्द्र के उत्पाद के रूप में समाज में तय होते हैं, जो बैयक्तिक यथार्थ-भोग के रूप में बेहतर रचना कौशल के माध्यम से साहित्य में उतर जाती हैं।
सच यह भी है कि सांस्थानिक तथा वैयक्तिक उद्यमों, उद्योगों, प्रयासों के वैशिष्ट्यों और पाखण्डों में उक्त सारी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। राजकमल चौधरी ने मनुष्य जाति की तीन आदम प्रवृतियाँ स्वीकारी हैं--आत्मबुभुक्षा, यौन पिपासा और आत्मसुरक्षा। अर्थात्--रोटी, सेक्स, सुरक्षा। संसार मंे हर मनुष्य के पास जिजीविषा होती है। जीने के लिए मानव की पहली समस्या हैभूख। भूख मिटाने के लिए रोटी चाहिए, रोटी जुटाने के लिए पैसे चाहिए, पैसे के लिए रोजगार, रोजगार के लिए परिचय-सम्बन्ध-संस्था, परिचय-सम्बन्ध-संस्था में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए व्यक्तित्व चाहिए, प्रतिभा, परिश्रम, चतुराई, धूर्तता, ईमानदारी, बेईमानी, फरेब, मक्कारी, निष्ठाकृसब चाहिए, प्रतिस्पद्र्धा भी चाहिए। भूख की तृप्ति हो जाए तो हर मनुष्य को उम्र की एक खास दहलीज पार करने पर यौन पिपासा परेशान करती है। यौन पिपासा एक तरफ यदि सृष्टि के विकास कारण है तो दूसरी तरफ एक शारीरिक मजबूरी या जैविक आवश्यकता भी। इसकी पूर्ति हेतु पति/पत्नी चाहिए, प्रेमी/प्रेमिका चाहिए, वेश्या/रखैल/कामदग्धा स्त्राी चाहिए, कामलोलुप/काम वणिक्/कामदग्ध/काम विकृत पुरुष चाहिए और इन सारी हरकतों में किसी अराजक स्थिति से बचने के लिए कोई नियम और उसके अनुपालन में मदद करने लायक कोई संस्था चाहिए। भूख और काम तृप्ति के साधनों से युक्त हर व्यक्ति को अपने क्षेत्राकी सुरक्षा, अपनीनाक’, अपना एक विधि-विधान चाहिए, एक आचार-संहिता चाहिए, घर चाहिए, समाज चाहिए, कुटुम्ब चाहिए, दल चाहिए, ताकत चाहिए, पराक्रम चाहिए। इन सारी स्थितियों में ही अस्‍तित्व, अस्मिता और वर्चस्व के अँखुवे उगते हैं और बढ़ते हैं। वर्चस्वबोध ही तो अहंकार में परिणत हो जाता है। ये सारी बातें समाज में ही होती हैं। यही समाज की खूबियाँ भी हैं और खामियाँ भी , यही समाज का सत् भी है, असत् भी, उत्कृष्ट भी है, अपकृष्ट भी। समाज के नियम कायदे होते हैं। नियम-कायदे मुट्ठी भर सबल को ताकत देते हैं और आम जनजीवन को उलझनें। अस्‍तित्व रक्षा में संघर्षरत मनुष्य, अस्मिता के निर्माण में लीन मनुष्य, और वर्चस्व भाव को अख्तियार में लेता मनुष्य--ये तीन जातियाँ समाज में होती हैं। प्रेम, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य--इन तीन बातों में मनुष्य अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं देखना चाहता।
अर्थात्, बात चाहे रोटी की हो, सेक्स की हो, सुरक्षा की हो, प्रेम की हो, प्रतिष्ठा की हो, ऐश्वर्य की हो...समाज में रहने वाले हर व्यक्ति का उपरिमुख स्वभाव, उसके मन में प्रतिस्पद्र्धा उत्पन्न करता है। स्पष्ट सी बात है कि इस परिप्रेक्ष्य में प्रेम, सौहार्द, उदारता, सहिष्णुता, त्याग आदि का भाव घटेगा; घृणा, वैमनस्य, संकुचित दृष्टि, असहिष्णुता, मोह, कलुष आदि का भाव बढ़ेगा। मानव समाज जब से सभ्य और सुसंस्कृत हुआ है, कम से कम जब से सभ्य होने का दावा करता है अथवा सभ्य हो जाने का भाव पालने लगा है, तब से लगातार हर दिशा में विकास करता आया है। ज्ञान मनुष्य के विकास का मुख्य कारण है, इसीलिए ज्ञान ही मनुष्य के सुख का भी सबसे बड़ा कारण है और दुख का भी। वैज्ञानिक युग के प्रादुर्भाव से समाज और व्यक्ति के अधोगमन और उध्र्वगमन--दोनों दिशाओं में पर्याप्त सम्वर्द्धन हुआ। जीवन-यापन की स्थितियाँ बदल गईं, इसलिए मानवों के सामाजिक, पारिवारिक, वैयक्तिक या पारम्परिक सम्बन्धों के गुणसूत्रा बदल गए। राजनीतिक चिन्तन में बदलाव आया। चन्द्रमा की पूजा करने वाले व्यक्तियों की सन्तानें चन्द्रलोक से घूम-फिर आए। राजा को देवता का प्रतिरूप मानने वाले लोगों की सन्तानें जनतान्त्रिाक सरकार के मन्त्रिायों की दुष्चरित्राता से परिचित हुए। नए समय में मन्दिर की तरह निष्कलुष स्थान की परिकल्पना लोगों ने न्यायालय के लिए की, पर क्या मन्दिर और क्या न्यायालय--ये किसी भी दुष्कर्म से अछूते नहीं रहे। समाज के अधिकांश व्यक्तियों के चिन्तन का मूल लक्ष्य वैयक्तिक पारिवारिक और कौटुम्बिक उपलब्धि, तात्कालिक सुख, उन्मादादि पर केन्द्रित हो गया। स्वातन्त्र्योत्तर काल में यह भाव बहुत तीव्रता से बढ़ा। आज के समय में तो इन सारी स्थितियों में कल्पनातीत परिवर्तन आ गए हैं। कहा जा सकता है कि मानवीय सोच का धरातल, जीवन-यापन की प्रक्रिया और इसीलिए मानव-समाज की पूरी यान्त्रिाक प्रक्रिया एकदम से बदली हुई दिखाई दे रही है ।
साहित्य के सामाजिक अस्‍तित्व से उसकी अस्मिता के सम्बन्ध तो पुराने समय से ही रहे हैं। साहित्य, कला और संस्कृति से समाज के गहरे ताल्लुकात होने की बात प्राचीन काल से स्वीकृत और प्रमाणित है। इधर आकर, जब सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, पारिवारिक सम्बन्धों के रूप-स्वरूप में परिवर्तन, वैचित्रय आए; आदर्श के प्रतिमान खण्डित हुए, नए-नए आदर्शों के प्रतिमान बने, तब यह विचार करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि साहित्य के समाजशास्त्राीय चिन्तन की बड़ी आवश्यकता है। दरअसल आज के जमाने में साहित्य की दुनिया केवल कला और सौन्दर्य की साधना के सहारे नहीं चलती है। वह समाज के आर्थिक ढाँचे, राजनीतिक परिवेश, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक संस्थाओं से बहुत दूर तक प्रभावित होती है। जब से साहित्य की दुनिया में लेखकों और पाठकों के बीच पुस्तक-बाजार आ गया है और संस्कृति का क्षेत्रा प्रतीकात्मक वस्तुओं का बाजार बन गया है, तब से समाज में कला और साहित्य की स्थिति बदल गई है।’(साहित्य के समाजशास्त्रा की भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, आच्छादप पृष्ठ-1)
साहित्य और समाज के रक्त-माँस जैसे सम्बन्धों की बात तो शाश्वत रूप से प्रमाणित है। कला और संस्कृति के विभिन्न रूपों का उपयोग व्यक्ति और समाज के सुव्यवस्थित जीवन और संचालन के लिए होता आया है। पर समय के बदलते परिदृश्यों में इसके उपयोग और जीवन यापन में इसकी भागीदारी के तरीके बदलते गए। किसी समय फुरसत के क्षण बिताने अथवा मनोरंजन का साधन होने वाला साहित्य, अब राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, सत्ता, आर्थिक-सामाजिक स्थिति, जन सरोकारों के विविध आयाम आदि में हस्तक्षेप करने लगा है। अर्थात् आज के समय में समाज और साहित्य के सम्बन्धों को नई दृष्टि से देखने की जरूरत है। गरज यह नहीं कि यह जरूरत, आज, इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में हुई है, बल्कि यह कि, भारतीय स्वाधीनता से पूर्व ही, इन सारी स्थितियों का समावेश यहाँ होने लगा था। यूँ साहित्य में समाज के चित्रा और समाज में साहित्य की सम्भावना प्रारम्भ से ही रही है, सिर्फ समाजशास्त्राीय पद्धति से इसकी व्याख्या करने की परम्परा नई है, वैसे अब यह बहुत नई भी नहीं है। प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने साहित्य के समाजशास्त्रा के क्षेत्रा में जिन तीन सक्रिय दृष्टियों की चर्चा की है, वे हैं--
1. साहित्य में समाज की खोज
2. समाज में साहित्य की सत्ता और साहित्यकार की स्थिति का विवेचन
3. साहित्य और पाठक के सम्बन्ध का विश्लेषण ।
(साहित्य के समाजशास्त्रा की भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, पृष्ठ-12)

ये तीनों दृष्टियाँ व्याख्येय हैं। साहित्य की उत्पत्ति में समाज की भूमिका को लेकर अनेक राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय लेखकों, चिन्तकों ने विस्तार से अपनी टिप्पणी दी है, लम्बी चौड़ी विवेचना प्रस्तुत की है। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि स्थान विशेष के समाज को समझने के लिए कोई वहाँ के साहित्य की मदद लेते हैं, तो भाषा विशेष के साहित्य की व्याख्या के लिए कोई समाजशास्त्राीय दृष्टि अपनाते हैं। समाज से साहित्य के सम्बन्ध की खोज और व्याख्या करते हुए ये तथ्य सामने आते हैं। समाजशास्त्राीय दृष्टि अपनाने वाले भी दो तरह के होते हैं --पहला तो वे, जिनकी नजर में गुलशननन्दा या कुशवाहाकान्त के साहित्य और निराला या नागार्जुन के साहित्य में कोई फर्क नहीं होता। वे दोनों वर्गों के साहित्य के पाठक समाज को ध्यान में रखकर सम्बद्ध साहित्य की अन्तर्वस्तु को समझने की कोशिश करते हैं। और दूसरा वे, जो साहित्य की साहित्यिकता के साथ, उसके ज्ञानात्मक पक्ष की व्याख्या करते हैं।
वस्तुतः प्रारम्भिक काल से ही, जब से साहित्य के हेतु, प्रयोजन, उद्देश्य, लक्षणकृआदि की व्याख्या लक्षणकारों ने करनी शुरू की, तब से लेकर आज तक की स्थिति पर एक मोटी नजर डालें तो यह बात समझने में देर नहीं लगती कि स्थितियाँ चाहे जितनी भी बदल जाएँ, साहित्य के हेतु, प्रयोजन, लक्षण भले ही कमोवेश इधर-उधर हों, पर समय के अनुसार हर साहित्य के हेतु, प्रयोजन, लक्षण होते हैं। थोड़े बहुत स्वरूप में अन्तर भले ही आ जाए, पर इसकी मूल संरचना वही होती है। कायदे से देखा जाए तो शताब्दियों पूर्व काव्य सृजन के जो प्रयोजन गिनाए गए-- यश, अर्थ, व्यवहार कुशलता, अनिष्ट निवारण, आत्मशुद्धि और कान्तासम्मित उपदेश (काव्यं यशशेर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतर क्षतये, सद्यः परिनिवृतये कान्ता सम्मित्तयोपदेशयुजे) -- वे प्रकारान्तर से आज भी हैं। आज भी यदि साहित्य के हेतु, प्रयोजन, लक्षण की व्याख्या कर उसके सामाजिक सन्दर्भ को देखा जाए, तो उक्त दोनों वर्गों के साहित्य का तात्विक अन्तर समझने में देर नहीं लगेगी। गुलशननन्दा और कुुशवाहाकान्त और मनोज वाजपेयी टाइप लेखकों की कलम से जो साहित्य सामने आता है, उसकी परम्परा इस श्रेष्ठ साहित्य की तरह बहुत पुरानी नहीं है, बहुत नई है। विज्ञान और बाजार के नए सन्दर्भों का प्रचार-प्रसार जब जोरों से हुआ तो आधुनिक भारतीय समाज के जीवन-यापन की प्रक्रिया काफी जटिल हो गई। शिक्षा के प्रचार-प्रसार, रोजगार की विविधता, रोजमर्रे की समस्या आदि से समाज में कई वर्ग हो गए। प्राचीन समय की किस्सागोई, कथावाचन की परम्परा आदि जीवन की इन जटिलताओं और वर्ग विभाजनों के कारण कम हो गई, लिखित परम्परा और पाठ परम्परा विकसित हुई । एक वर्ग ऐसा रह गया, जो निरक्षर रहा, उसके लिए शरीर-श्रम की थकित-मनःस्थिति में मनोरंजन का साधन वही पुरानी परम्परा रह गई; दूसरा वर्ग ऐसा रहा जो साक्षर या अल्प शिक्षित होकर जीवन यापन की जटिलता में लीन हो गया और समयाभाव के कारण चौपाल आदि में बैठकर समय न बिता पाने की विवशता में बचे-खुचे समय को मनोरंजन के लिए लिखित साहित्य के पाठ में लगाया। यह वर्ग बहुत बड़ा हो गया, अभी भी बहुत बड़ा है। लोकप्रिय साहित्य का विशाल पाठक वर्ग यही है। तीसरा वर्ग बुद्धिजीवियों का हुआ। जिनकी पठन रुचि बढ़ती गई और जिनके लिए श्रेष्ठ साहित्य का सृजन होता रहा। इस प्रकार के पाठकों और इनके लिए उपयुक्त साहित्य के रचनाकारों की परम्परा वही प्राचीन परम्परा है। इस कोटि के साहित्य में शुद्ध मनोरंजन और उपदेश ही नहीं रहा। समय के दबाव के कारण इसके पारम्परिक स्वरूप में बदलाव तो आया, पर इसके लक्ष्य में समाज के स्वरूप का परिशोधन आ गया। जाहिर है कि इस कोटि के साहित्य का दायित्व केवल समकालीन समाज की सचाई को अंकित कर देना नहीं रहा, समकालीन पाठकों के कलुष और अविवेक की परिशुद्धि और एक उत्कृष्ट सामाजिक परिस्थिति के निर्माण हेतु उन्हें प्रेरित करना भी हो गया।
आज के माहौल में दूसरे वर्ग के जो भी पाठक हैं, उनके लिए उपयुक्त लोकप्रिय साहित्य आलोचकों की नजर से बाहर है। कभी-कभी अवसर विशेष पर इस कोटि के साहित्य पर कोई निबन्ध, मतबन्ध आदि लिख जाए या छप जाए, वह दीगर बता है। पर, यह दिलचस्प बात है कि इस देश में सबसे बड़ा पाठक वर्ग जिस साहित्य का है, उसकी चर्चा आज के प्रतिष्ठित आलोचकों के लिए आवश्यक नहीं लग रही है। अवसर विशेष पर इस कोटि के साहित्य पर जो कुछ कभी-कभी लिखा जाता है, वह भी साहित्य को समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखने की परम्परा आने के बाद ही शुरू हुई है। बहरहाल...
साहित्य की साहित्यिकता की रक्षा करते हुए उसकी सामाजिकता खोजने वालेसमाजशास्त्रिायों के सम्बन्ध में प्रो. मैनेजर पाण्डेय का कहना है कि वे साहित्यिक कृतियों के विशिष्ट स्वरूप की उपेक्षा नहीं करते, इसलिए रचना की अन्तर्वस्तु, उसकी संरचना और प्रयोजन पर ध्यान देते हैं।कृऐसे समाजशास्त्राी...यह देखने की कोशिश करता है कि सर्जनात्मक साहित्य के निर्माण में समाज की क्या भूमिका होती है और रचना की जड़ें समाज में कितनी समाई होती हैं, किसी रचना में युग की प्रभावशाली विचारधारा का रचना की अन्तर्वस्तु और रूप पर क्या प्रभाव पड़ता है और यह भी कि कोई रचना किस तरह तथा किस सीमा तक अपने समाज को प्रभावित करती है। साहित्यिक रचना एक सामाजिक कर्म है और कृति एक सामाजिक उत्पादन, लेकिन साहित्य की रचना व्यक्ति करता है, इसलिए समाज से साहित्य के सम्बन्ध को समझने के लिए समाज से रचनाकार व्यक्ति के ठोस ऐतिहासिक सम्बन्ध की समझ आवश्यक है। जिसे असामाजिक या व्यक्तिवादी साहित्य कहा जाता है उसका भी समाज से एक तरह का सम्बन्ध होता है। यह भी साहित्य के समाजशास्त्रा के अध्ययन का विषय है। समाज की आलोचना करने वाले या समाज से विद्रोह करने वाले साहित्य का समाज से दूसरी तरह का सम्बन्ध होता है (साहित्य के समाजशास्त्रा की भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, पृष्ठ-12-13)
अब तय यह होता है कि एक तरफ समाज, साहित्य की उत्पत्ति और उसके स्वरूप निर्धारण करने वाला घटक है, तो दूसरी तरफ साहित्य, समाज का दर्पण। साहित्य को समकालीन समाज की चित्तवृत्ति का वाहककहने के पीछे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यही दर्पणवादी दृष्टिकोण रहा होगा।
इसीलिए समाज में साहित्य के हस्तक्षेप और उसके महत्त्‍व की व्याख्या करने के लिए रचनाकारों की वैयक्तिक स्थिति भी महत्त्‍वपूर्ण होती है। सामाजिक कर्म के रूप में स्वीकृत साहित्य में राष्ट्र-चिन्ता, समाज-चिन्ता जब से महत्त्‍वपूर्ण हुई है, तब से भारतीय राजनीति में ऐसे उथल-पुथल होते रहे हैं, जिसका असर साहित्य के रूप-स्वरूप और उसकी अन्तर्वस्तु पर पड़ा है। साहित्य समाज का दर्पण तो होता है, पर वह दर्पण केवल कथ्य को लेकर नहीं। लेखन के क्षेत्रा में शिल्प, शैली, भाषा संरचना, शब्द संस्कार, आदि इतने महत्त्‍वपूर्ण हो गए कि इन सबका सीधा सम्बन्ध रचनाकारों की विचारधारा और उनकी जीवन दृष्टि से हो गया। जाहिर है कि किसी भी दृश्य के अंकन में रचनाकार की विचारधारा, जीवनदृष्टि, राजनीतिक प्रतिबद्धता आदि का योगदान होगा। स्वातन्त्र्योत्तर काल में भारत में राजनीतिक दलों में इतने विभाजन हुए, आत्मवर्चस्व, आत्मसुख और स्वार्थ से प्रेरित विचारधाराओं के इतने तर्क गढ़े गए कि देश की राजनीतिक स्थिति भ्रष्ट हो गई, राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता से लोग निरपेक्ष हो गए, साहित्य सृजन के समय उन पर उनकी विचारधारा हावी होने लगी, फलस्वरूप साहित्य की स्थितियाँ भी परिवर्तित हुईं। आखिरकार वह दर्पण ही तो है।
ऐसे में साहित्यकार के व्यक्त्तिव का भरपूर असर उसके लेखन और उसकी वृतियों पर पड़ा। यह असर केवल अन्तर्वस्तु, शिल्प और शैली पर ही नहीं, उसके लक्ष्य और प्रयोजन पर भी पड़ा। और जब कृति ही प्रभावित हो जाए तो पाठकों का प्रभावित होना जायज-सी बात है। इस तरह साहित्य और समाज के सम्बन्धों को जानने का महत्त्‍वपूर्ण घटक साहित्यकार का व्यक्त्तिव, विचारधारा, दृष्टिकोण और उसके सामाजिक तथा राष्ट्रीय सरोकार भी हैं और साहित्य तथा पाठक के सम्बन्ध भी।
कोई भी साहित्यिक कृति पाठक के पास पहुँचकर ही अपनी सार्थकता सिद्ध करती है। प्राचीन समय के लक्षणकारों ने साहित्य के जो छह प्रयोजन निर्धारित किए -- यश, अर्थ, व्यवहार कुशलता, अनिष्ट निवारण, आत्मशुद्धि, कान्ता सम्मित उपदेश; उनमें से पहला और अन्तिम शुद्ध रूप से पाठक से ही सम्बन्ध रखता है, दूसरे और चौथे का सम्बन्ध प्रकाशक, पाठक और पुरस्कारदातृ समितियों से है। तीसरे का सम्बन्ध लेखक, पाठक, दोनों से है। पाँचवें का सम्बन्ध खुद लेखक से है। इस तरह साहित्य से पाठकों का सम्बन्ध, सम्बन्धों के गणित में और सम्बन्धों के व्याकरण में बहुत महत्त्‍वपूर्ण है। और, पाठक चूँकि समाज का ही प्राणी होता है, इसलिए इन तीनों के सम्बन्ध-सूत्रों का महत्त्‍व स्वीकारने में किसी बहस की गुंजाईश नहीं है। यूँ पाठक और साहित्य के सम्बन्ध पर दो दृष्टियों से अधिक विचार हुआ है। एक में मुख्य रूप से साहित्य के विकास में पाठक समुदाय की भूमिका का विवेचन हुआ तो दूसरी में कृति के पाठकीय अभिग्रहण, पाठक पर प्रभाव और पाठकीय प्रतिक्रिया का विश्लेषण हुआ है। पहली परम्परा इंगलैण्ड में विकसित हुई है और दूसरी जर्मनी में। पहली परम्परा का विकास इतिहास लेखन के अन्तर्गत हुआ है और दूसरी का आलोचना के क्षेत्रा में। इसलिए पहली में ऐतिहासिक चेतना अधिक है, तो दूसरी में भाष्य की प्रवृत्ति (साहित्य के समाजशास्त्रा की भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, पृष्ठ-25)
मेरी समझ से इस विवाद में जाना यहाँ उचित नहीं कि भारत में इन्हीं दृष्टियों का नकल हुआ या पूर्व से व्याप्त दृष्टियों में विकास हुआ। सुविधापूर्ण ढंग से इतना मानकर आगे निकल लेना श्रेयस्कर है कि भारत में अभी ये दोनों दृष्टियाँ व्याप्त हैं। और, यदि नजर पीछे करके देखा जाए तो ऐसा विश्वास करने में कोई हिचक नहीं होगी कि इन दृष्टियों के विकास में अन्य राष्ट्रों से चली हवाओं का सहयोग जो हो पर इनकी मूल धारा यहाँ पहले से व्याप्त थीं। काव्य के लक्षण, प्रयोजन, हेतु पर भाष्य लेखन की परिपाटी हमारे यहाँ कोई नई नहीं प्रक्रिया नहीं है। बहरहाल...
विद्वानों के बीच चूँकि मतैक्य की गुंजाईश कभी नहीं बनती, इसलिए साहित्य पर समाजशास्त्राीय चिन्तन का विरोध भी हुआ, समर्थन भी। पर, हम इस सत्य के साथ आगे बढ़ते हैं कि व्यक्ति से समाज बनता है, समाज में साहित्य अपनी अन्तर्वस्तु ग्रहण करता है, अपनी स्वरूप-संरचना प्राप्त करता है, समाज में ही पढ़ा जाता है, समाज का विरोध और समर्थन करता है, सामाजिक प्राणी को किसी आन्दोलन के लिए प्रेरित करता है, अनिष्ट की तरफ अग्रसर होने से रोकता है।... जाहिर है कि व्यक्ति-समाज-साहित्य का बड़ा ही गहरा सम्बन्ध है ।
प्रमाणित यथार्थ है कि साहित्य भी अपने समय का इतिहास ही होता है। इतिहास में समय विशेष के राजाओं और उसके राजकोष, राजक्षेत्रा, जय-पराजय, जन्म-मृत्यु, ज्ञान-अज्ञान, वंश-परम्परा आदि की कथा दर्ज रहती है; पर उस समय के आम जनजीवन की बातें इतिहास नहीं कहता, वह साहित्य कहता है। यहाँ तक कि उत्खनन के आधार पर जब इतिहासकार बीते समय के राज-पाट की कथा कहने लगते हैं, तब कई बार उस काल का साहित्य उन्हें सहयोग देता है और उनके निष्कर्ष को सच या झूठ साबित करने का आधार देता है। इस अर्थ में साहित्य एक इतिहास ही है। अकबर के शासन काल में राजाओं की नजर में आम जनता की आपसी बातचीत भी महत्त्‍वपूर्ण होती थी और उस बातचीत का असर न केवल राजा के राजकाज में, बल्कि उनके पारिवारिक सम्बन्धों पर भी पड़ता था--यह बात अकबर कालीन इतिहास से जितनी पुख्ता साबित होती है, कहीं उससे ज्यादा पुख्ता तुलसी कृत रामचरित मानससे होती है।
विदित है कि पुराने समय में साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन और उपदेश होता था। लक्ष्य ग्रन्थों की रचना के बाद जब लक्षण ग्रन्थ लिखा जाने लगा, तब उन लक्षणों के आधार पर उसका परीक्षण होता गया और कृतियाँ उन कसौटियों पर अच्छी और बुरी कही जाने लगी। धीरे-धीरे समय बदला, तो उन कृतियों का टीका होने लगा। बाद में उन पर टिप्पणियाँ होने लगीं। आलोचनात्मक व्याख्या तो एकदम से हाल की बात है। विज्ञान के प्रवेश, देशान्तर से सम्बन्ध, शिक्षा के प्रसार आदि के कारण जब आलोचना का वजूद पूरी तरह स्थापित हो गया, तब साहित्य की व्याख्या के नए नए तरीके सामने आए और समाज में साहित्य की उपयोगिता और साहित्य के दायित्व का निर्धारण भी होने लगा। अब आकर यह बात भी साबित हो गई कि किसी भी समय का साहित्य समकालीन लोगों के लिए भले ही समाज का दर्पण हो, पर भविष्य के पाठकों के लिए वह केवल दीर्घ परम्परा की प्रारम्भिक कोपलें ही नहीं, इतिहास का अंश भी होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो आज के अध्यापकों के अशोभनीय आचरण की निन्दा करने से पूर्व लोग यह सोचने को विवश नहीं होते कि द्रुपद राजा से मिलने गए द्रोणाचार्य, अपनी नागरिक शिष्टाचार की सीमा भूलकर राज्य क्षेत्रा में प्रविष्ट हुए, उचित शिष्टाचार का निर्वाह न करने के कारण द्रुपद ने उन्हें केवल सीमा बता दी। परिणामस्वरूप द्रोण ने अपना सारा विवेक खो दिया और अपनी प्रतिभा का विघटनात्मक और घृणित उपयोग किया। एकलव्य का अँगूठा कटवाया, पाण्डव को शिक्षा दी और अपने अपमान का बदला लेने को व्यग्र रहे। प्रतिभा का इतना बड़ा अपमान और प्रतिभा का इतना घृणित उपयोग करने वाले गुरुओं की दीर्घ परम्परा रही है। कृष्ण और सुदामा साथ-साथ एक ही गुरु आश्रम में पढ़ते थे। चूँकि कृष्ण सम्पन्न घर का बालक था, इसलिए वह महान नीतिवेता बना, पर सुदामा को गुरु ने कौन-सा ज्ञान दिया कि वह भीख माँगने के सिवा कुछ नहीं कर सका। ब्राह्मणों और गुरुओं की यह घृणित परम्परा हमारे समक्ष साहित्य के माध्यम से ही आती है। द्यूत में पत्नी को दाँव पर लगाने की कुत्सित हरकत और किसी भी स्त्राी को (कुलवधू हो या नगरवधू) भरी सभा में नग्न किए जाने की प्रवृत्ति पर भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य जैसे बुद्धिजीवियों और महारथियों के सिर झुका लेने की नपुंसकता कौन-सी नैतिकता थी! सत्यवती जैसी स्त्राी द्वारा किसी धनशाली पुरुष (शान्तनु) को कामजाल में फँसाया जाना और राज-पाट की मालकिन बनना, वंश परम्परा की रक्षा हेतु अपने ही आचरण के समतुल्य अपनी कुलवधुओं को परपुरुषगामिनी होने को प्रेरित करना और अपने ही विवाहेतर सम्बन्ध से उत्पन्न पुत्रा के साथ उन सबका सहवास कराना, बात दबी रहे, इसलिए लगे हाथ दासी को भी इस घिनौनी हरकत में शामिल करना, वंश परम्परा चलाने और कामेच्छा तृप्त करने के लिए कुन्ती द्वारा धर्म, इन्द्र, पवन के साथ सहवास करना और छल से गन्धर्वों के साथ अपनी सौत माद्री का सहवास करवाना, विवाह पूर्व ही सूर्य के साथ रमण करना, किसी थाली की तरह पाँच-पाँच मर्दों द्वारा एक ही स्त्राी (द्रौपदी) का भोग होना, उद्दण्ड कुलवधू (द्रौपदी) द्वारा देवर के साथ मजाक करने में स्वसुर के प्रति अभद्र और आहत करने वाले सम्भाषण -- ये सब के सब साहित्य के जरिए ही हमारे सामने आते हैं। हर समय के लेखक बड़े ज्ञानी होते हैं। अपने काल की सारी बातें दर्ज कर देते हैं। दर्ज करना उनकी रचनात्मक विवशता होती है। पर चूँकि वे किसी शासन के अधीन होते हैं, इसलिए उनके कुकर्मों को भी महिमामण्डित करना उनकी विवशता होती है। इसलिए सत्यवती, या अम्बे, अम्बालिका, या कुन्ती, माद्री आदि का सहवास, नियोग में परिणत हो जाता है। इसीलिए किसी अशक्य (पाण्डु) पति की पत्नी (कुन्ती) जब किसी मजबूत कद-काठी वाले ऐसे मर्दोंं के विस्तर पर जाती है, जो उसे कामतृप्त कर सके, तो वह इन्द्रदेवया पवनदेवहो जाता है। इतना महिमामण्डन न किया जाता तो समकालीन सामन्त अपना काला चेहरा उस आइने में नहीं देख पाते। इसलिए हर समय के रचनाकार अपने समय की सचाई का बयान तो कर जाते हैं, दर्पण तो रख जाते हैं, पर उस दर्पण पर एक ऐसी परत चढ़ा जाते हैं कि समकालीन सामन्त को अपने चेहरे की कालिमा का बोध नहीं हो। समझने वालों को तो दिख ही जाता है कि इस चेहरे में कितने दाग हैं। आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य का छायावाद भी इसी तरह की घटना है। बहरहाल...
साहित्य समाज का दर्पण है, साहित्य समकालीन समाज की चितवृत्ति का वाहक है, साहित्य अपने समय के आम जनमानस का ईमानदार इतिहास है, समाज साहित्य की उत्पत्ति का केन्द्र है, समाज साहित्य की अन्तर्वस्तु और स्वरूप निर्धारण का स्रोत है...आदि-आदि कितनी बातें सूत्रा रूप में कही जा सकती हैं। मूल बात यही है कि जब से आलोचनात्मक व्याख्या की परम्परा विकसित हुई है; साहित्येतिहास, इतिहास-दृष्टि, समाजशास्त्राीय आलोचना, राजनीति-अर्थनीति के आधार पर साहित्य की व्याख्या, दर्शन-मनोविज्ञान के औजारों से साहित्य का परीक्षण आदि-आदि जब से शुरू हुआ, तब से साहित्य का दायित्व और साहित्य की उपयोगिता बहुत बढ़ गई। पूरा परिदृश्य लगभग बदल-सा गया। अब तो साहित्य की भूमिका व्यक्ति, परिवार, समाज तक ही केन्द्रित न रहकर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की गुत्थियाँ सुलझाना और राजनीतिक परिदृश्य में हस्तक्षेप करना और राजसत्ता को सीधे-सीधे सलाह-निर्देश या धमकी देना भी हो गया है।
अब एक तरफ तो साहित्य की जिम्मेदारी इतनी बढ़ गई और दूसरी तरफ गैरजिम्मेदार साहित्य का प्रकाशन शुरू हो गया। आज के समय में गैरजिम्मेदार साहित्य के पूरे फलक को लोकप्रिय साहित्य कहना तो गलत होगा क्योंकि लोकप्रियता का आधार यदि लोकमें प्रियताहै तो आज ढेर सारी गन्दी पुस्तकें काफी रुचि लेकर पढ़ी जा रही हैं और ऐसे लोगों की एक बड़ी तादाद है जो ऐसी पुस्तकें लिखते, छापते, बेचते और पढ़ते हैं। पर, इस किस्म की पुस्तकें हमारे विवेचन से बाहर हैं, जो छिपाकर लिखी, छापी, बेची और पढ़ी जाती हैं। लोकप्रिय साहित्य में हम वैसी पुस्तकों की गणना कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य अल्पशिक्षित लोगों का या कुछ उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों का भी केवल मनोरंजन करना, टाइम पास करना है और जिसे पढ़ते समय उनके मन में कोई भय नहीं होता, उसे वे छिपाकर नहीं पढ़ते, खुलेआम पढ़ने में अपना अपमान या बेइज्जती नहीं समझते। साहित्यिक आलोचना के क्षेत्रा में जब समाजशास्त्राीय आलोचना का प्रवेश हुआ, तो ऐसे साहित्य भी चर्चा में आने लगे। ये साहित्य सदा से आलोचकों की नजर से बाहर रहे। शुद्ध समाजशास्त्राीय पद्धति से साहित्य का परीक्षण करने वाले विचारकों ने इस तरह के साहित्य की भी उपेक्षा नहीं की। आज महान साहित्य के नाम पर जो कुछ भी लिखा-पढ़ा जा रहा है, वह बहुत बड़ी जिम्मेदारी लेकर चल रहा है। पर यह लोकप्रिय साहित्य भी अपनी भूमिका में कहीं पीछे नहीं है, वह अपने दायित्व के मुगालते में भी नहीं है।
और, जब लोकप्रिय साहित्य की गाड़ी चल निकली, तो स्पष्ट रूप से पाठकों, प्रकाशकों, विक्रेताओं और लेखकों का समूह विभाजन हो गया। इस विभाजन के बाद महान साहित्य की रचनासे पाठतक की यात्रा में जुड़े कर्मियों को अपना दायित्व समझने और निबाहने में थोड़ी और गम्भीरता आई। उन्हें साहित्य-सृजनको सामाजिक कर्मबनाए रखने की सारी जिम्मेदारी हाथ में लेनी पड़ी। सर्वविदित है कि समाज साहित्य का उद्गम स्थल है, पर हिमालय से निकली गंगा की तरह नहीं, कि वह कभी लौटकर अपने उद्गम स्थल को नहीं देखे। हिमालय को चूँकि गंगा की कभी जरूरत नहीं होती, इसलिए वह इसी में प्रसन्न रहता होगा कि मुझे न देखे, न सही, वह अपनी यात्रा के सारे सद्कर्मों को निभाती जाए, खुद मैली हो जाए, पर सबके मैल को धोती जाए। पर, साहित्य का दायित्व इसहिम-नदसे ज्यादा होता है। वह समाज में अपना स्वरूप ग्रहण करता है और समाज के स्वरूप को सँवारता है। साहित्य किसी व्यक्ति द्वारा लिखा जाता है, व्यक्ति द्वारा छपाया जाता है और समूह द्वारा पढ़ा जाता है और इसी दौरान वह समूह के प्रति अपना दायित्व निभाता है, समूह पर अपने प्रभाव के जरिए समाज के स्वरूप को नूतनता से अभिसिक्त करता है, उसे सत्य, शिव और सुन्दर की ओर अग्रसर करता है। आज साहित्य किसी क्रान्ति का अगुआ होता है, शोषण-अत्याचार के विरुद्ध आवाज बुलन्द करता है। अर्थात् साहित्य और समाज के बीच नमक-आटे के सम्बन्धों की स्थिति तो है ही, इसके साथ यह भी सत्य है कि किसी भी राष्ट्र और भाषा के सम्बन्ध में समाजशास्त्रा के बिना बातचीत असम्भव है। समाजशास्त्रीय चिन्तन के बिना कहीं के साहित्य की अन्तर्वस्तु और साहित्य के संरचनात्मक पहलू की सही व्याख्या नहीं हो सकती। साहित्य के चरित नायक और सहयोगी पात्रा-पात्राओं की हरकतों, भाषा शिल्पों, शब्दावलियों, भाषा स्तरों, भाषा के तर्ज-तेवरों की व्याख्या वहाँ के सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत, पारिवारिक शिष्टाचार, आर्थिक परिवेश, राजनीतिक स्थिति सत्ता के दमनात्मक रवैये आदि को जाने बिना नहीं की जानी चाहिए, वैसी व्याख्या भ्रामक होगी, अपूर्ण होगी।
समाज से साहित्य का यह सम्बन्ध कृतिकार के सामाजिक सरोकार से तय होता है। हर रचना के पात्रा का सृजन रचनाकार के मनःलोक में होता है और यह सृजन रचनाकार की जीवन दृष्टि पर निर्भर करता है। किसी भी रचनाकार की सहानुभूति और उसका समर्थन किस प्रकार के पात्रा को मिलेगा; किस कोटि के नायक का रचनाकार विरोध करेगा; अपने सृजित पात्रों के चरित्र का विकास रचनाकार किस तरह करेगा; कौन-सा पात्र विजयी होगा, कौन-सा पराजित; अपने संघर्ष में कौन-सा पात्र लगा रहेगा, कौन टूट जाएगा; किसी तरह के शोषक का हृदय परिवर्तन हो जाएगा, कौन मृत्युपर्यन्त आतंक का पुतला बना रहेगा; किस पात्रा की भाषा का तेवर, स्तर, शब्द संसार क्या होगा...ये समस्त बातें रचनाकार की वैचारिक प्रतिबद्धता, अर्जित जीवन दृष्टि, सामाजिक सरोकार, जन-सम्बन्ध की गम्भीरता पर ही निर्भर करती हैं। प्रतिबद्धता और दृष्टि के इसी स्वरूप के साहित्य का कोटि-निर्धारण भी होता है। लोकप्रिय साहित्य के रचनाकारों की प्रतिबद्धता और दृष्टि यहीं तक सीमित है कि वे समाज के हाथों एक ऐसी चीज बेचें, जिससे उनका लाभ हो, उन्हें धन मिले। यह व्यापार तभी सम्भव है जब समाज उस उत्पाद को खरीदने को प्रवृत्त हो। इसलिए उसमें और कुछ हो चाहे न हो, मनोरंजन तो होना ही चाहिए। इससे ज्यादा या इससे अलग वे कुछ कर नहीं सकते, इसलिए अपनी दुकान और अपना व्यापार चलाने के लिए इसमें लगे रहते हैं। समाज की संरचना और उसके स्वरूप को सँवारने में इस कोटि के साहित्य की कोई भूमिका भले न हो, पर इतना तय है कि इस प्रकार का साहित्य समाज को भ्रष्ट तो नहीं करता! पर उन लोगों का क्या हो, जो यह भी नहीं कर सकते, अश्लील-भद्दी-गन्दी भाषा और चित्रों के साथ पुस्तकें लिख-छाप कर समाज के हाथों बेचते हैं और अपनी मानसिक विकृतियों, यौन कुण्ठाओं, कुत्साओं का व्यापार कर देश की किशोर पीढ़ी को दिशाहारा बनाते हैं। सही मायने में ऐसे लोग सामाजिक शत्रु हैं। समाज में फैल-पनप रही अभद्रता-अशिष्टता और यौन-उत्पीड़न का प्रमुख स्रोत इस किस्म की पुस्तकें भी हैं। बहरहाल...
आज जो साहित्य बाकायदा महान साहित्य के रूप में चर्चित-व्याख्यायित हो रहा है, समाज का एकमात्रा आधार वही रह गया है। घपले, घोटाले, स्वार्थ केन्द्रित राजनीति, अपराध केन्द्रित राजनीति, कुर्सी की दलाली, सत्ता की छीना-झपटी, व्यापार केन्द्रित शिक्षा, प्रेम का व्यापार और व्यापार का प्रेम, पूँजी और सत्ता के गलियारों में संचार माध्यमों का ध्रुवीकरण, पूँजीपतियों और उद्योगपतियों की जेब में संचार माध्यमों का संचालन, कुर्सी की खरीद में पूँजीपतियों और उद्योगपतियों के सहयोग, इस खरीद फरोख्त में दोनों के भूत-भविष्य-वत्र्तामान के ग्राफ...इन सारी स्थितियों से पराभूत देश को देखकर कोई भी सचेतन और संवेदनशील व्यक्ति यह निष्कर्ष दे सकता है कि सचमुच यहाँ से वस्तु मूल्य, नीति मूल्य, अर्थ मूल्य, वचन मूल्य, मानव मूल्यकृ किसी भी तरह के मूल्य के विद्यमान होने की कोई सम्भावना नहीं है। इस देश में किसी भी पार्टी की सरकार से सत्ता में चले जाने के बाद इस देश की जनता उनकी नजर में मनुष्य नहीं रह जाएगीः लोक सभा में अन्न मन्त्री कहते हैं--बसते हैं पाँच अरब चूहे इस देश में (रा.क.चौ./मुक्ति प्रसंग/प.-18)जिस देश में स्वार्थ ही महत्त्‍वपूर्ण हो, जिस जनतन्त्र में जन प्रतिनिधियों की नजर में पाँच वर्षों तक जनता, चूहे की संज्ञा पाए, कीड़े-मकोड़े की संज्ञा पाए, जिस देश में बाघ-साँप-छुछुन्दर...सबके परिरक्षण हेतु आयोग बन जाए, केवल मनुष्य रक्षा की बात न सोची जाए, जिस देश में शोषण-दमन के विरुद्ध आवाज उठाने पर उसे गोलियों से भून दिया जाए, लूट और लूटनुमा व्यापार को कायम रखने के लिए मनुष्यों को कीट-पतंगों की तरह मसल दिया जाए, वहाँ यह कहना कठिन होगा कि अंग्रेजों के शासन-काल में भारतीयों पर बहुत अत्याचार होता था। ऐसी ही परिस्थि‍ति‍ में राजकमल चौधरी की बात माकूल लगती है किक्योंकि अन्य सभी सामाजिक कार्यकर्ता अर्थात् पत्राकार, उपदेशक, शिक्षक, नेता, संन्यासी और राज्याश्रित बुद्धिजीवी, स्वार्थलाभ और सत्ता की राजनीति में इस तरह उलझ गए हैं कि खेतों में, काम करने वाली जनता और मशीनों में काम करने वाली जनता इनके पास पहुँच नहीं पाती है, और वे लोग जनता के पास जाने की इच्छा नहीं रखते हैं, अब भी नहीं(शवयात्रा के बाद देहशुद्धि/पृष्ठ-218)
ऐसे हाल में जब जिम्मेदार लेखक साहित्य सृजन के लिए कलम उठाते हैं, तो उनके सामने जिम्मेदारी का बहुत बड़ा लक्ष्य खड़ा रहता है, जिसे पूरा करना वे अपना धर्म समझते हैं। यह दीगर बात है कि स्वातन्त्र्योत्तर काल के बीते वर्षों में बहुत से ऐसे लेखक भी हुए हैं, जिन्होंने प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य की लालसा में विरुद्गान किए हैं, आज भी कर रहे हैं, पर इतिहास ऐसे लोगों को उचित न्याय देता रहा है।
सारांशतः, साहित्य और समाज का बड़ा गहरा रिश्ता है। दोनों के सम्बन्ध दोनों के लिए हितकारी भी हैं, पोषक भी हैं। हर समय के साहित्य का सर्जक जिस समाज में अपनी जीवन दृष्टि विकसित करता है, उसी समाज के चित्रा वह अपने सृजन में उकेरता है। पूँजी, सत्ता और आतंक के गठजोड़ से जो व्यवस्था हमारे सिर पर थोपी हुई है, उसके काले और घृणित चेहरे को उजागर करने में आज के लेखक प्राणपन से जुड़े हुए हैं, जनता के सुख-दुख के चित्रा जनता के समक्ष दे रहे हैं। अपने समाज के लिए अन्तर्वस्तु को चित्रित कर समाज को ही सचेत कर रहे हैं, गोया, साहित्य विद्यापति की भाषा में कह रहा हो--तोहि जनमि पुनि तोहि समाओव, सागर-लहरि समाना...

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