Friday, December 22, 2017

पुस्तक-पाठक सम्बन्ध Book-Reader Relationship



वि‍श्‍व पुस्‍तक मेला एक बार फि‍र सामने है। दस दि‍नों तक मेला परि‍सर में एक बार बौद्धि‍कों का सम्‍मि‍लन और पुस्‍तक-व्‍यवसायि‍यों के वि‍पणन के कई रूप दि‍खेंगे। कई प्रान्‍तों के पुस्‍तकप्रेमी मेला परि‍सर में मुदि‍तमन घूमते नजर आएँगे। ऐसे मौके पर पुस्तक-पाठक के अनुरागमय सम्बन्ध पर नजर डालना मुनासि‍‍ब होगा।
यह कथन अब मुहावरे की तरह दुहराया जाता है कि‍ हर पुस्तक पढ़ने के बाद हर पाठक नव-स्नात हो उठता है। बात अपने वास्‍तवि‍क अर्थों में तो सही है, पर देखना चाहि‍ए कि‍ हमारे में समाज में यह व्‍यावहारि‍क सच हो पाया है क्‍या? पुस्‍तक लि‍खने, छापने, खरीदने, पढ़ने से यदि‍ समाज मानवीय, या कि‍ मनुष्‍य सामाजि‍क होता, तो हमारे समाज में इतनी दारुण घटनाएँ होतीं?...नहीं होतीं।...तो क्‍या, हमें पुस्‍तकों से, या कि‍ अध्‍यवसाय से मुँह मोड़ लेना चाहि‍ए?...बि‍ल्‍कुल नहीं। अन्‍तत: पुस्‍तकों के प्रति‍ अनुराग ही हमें सही राह दि‍खाएगा। यह अनुराग मनुष्‍य को अनेक अच्छे सन्दर्भों से जोड़ता है, और अनेक बुरे सन्दर्भों से काटता है। हाँ, इसमें पात्रता की जरूरत तो होती है! मनुष्‍य ने यदि‍ खुद को न बदलने की जि‍द न ठान ली हो; और अध्‍यवसाय के लि‍ए उसके पाठ का चयन सुचि‍न्‍ति‍त हो; तो प्रमाणि‍त सच है कि‍ पाठक हर पुस्तक के अवगाहन से नव-स्नात हो उठेगा।
कहा जाने है कि इधर आकर पुस्तक-पाठक के अनुराग का स्तर घटा है। सम्‍भव है कि यह बात कुछ हद तक सच हो, पर यह अधूरा सच है। आज के पाठकों की संख्या को कम कहने से एक अनुत्तरि‍त सवाल सामने आएगा कि यह संख्या इससे अधिक कब थी? सम्पूर्णता में पाठकों की संख्या बढ़ी है। शिक्षा का क्षेत्र बढ़ा है, ज्ञान की शाखाएँ बढ़ी हैं, लोगों की रुचि, पढ़ने की जरूरत और विशेषज्ञता का फलक बढ़ा है, लेखकों और प्रकाशकों की संख्या बढ़ी है, इस विविधमुखी विस्तार की परिधि में साहित्य के पाठकों की संख्या में अपेक्षित वृद्धि न देखकर लोग घोषणा कर डालते हैं कि पाठकों की संख्या में ह्रास हुआ है। वैसे संज्ञान में तो यह बात भी आनी चाहिए कि बरसाती मेढक की तरह टर्राने वाले लेखकों की संख्या बढ़ गई है! मुद्रण-सुवि‍धा के वि‍स्‍तार और शौकि‍या लेखकों की आर्थि‍क उन्‍नति‍ के कारण बाजार में कि‍ताबों की संख्‍या भी बढ़ी है। नि‍स्‍सन्‍देह पाठकों की संख्या लगातार बढ़ी है। विगत पाँच-सात दशकों में विभिन्न विषयों और विभिन्न विधाओं की पुस्तकों का पाठक निश्चित रूप से बढ़ा है। पाठकों के इस रुचि‍-वि‍स्‍तार में पुस्तक-मेला-संस्कृति ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। मगर इस सत्‍य से मुँह छि‍पाना असम्‍भव है कि‍ कि‍ताबों के नाम पर बाजार में रद्दी के ढेर से औसत पाठक अक्‍सर दि‍ग्‍भ्रम का शि‍कार हो जाते हैं।  
मेला और प्रर्दशनी जैसे अवसर पाठकों को मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से प्रभावित करते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि लोग मेला देखने यूँ ही चले आते है। बिना किसी कारण के, और देखते-देखते अचानक उन्हें कोई पुस्तक पसन्द आ जाए तो बगैर खरीदे नहीं रहते, और जब पुस्तक खरीदी गई, तो पढ़ी तो जाएगी ही।
ग्रामीण-शहरी क्षेत्र में संचालि‍त कि‍ताबों की दुकानों से पाठकों के अध्‍यवसाय की भूख का सम्‍पूर्ण नि‍राकरण नहीं होता। दुकानों में रखी पुस्तकें, पाठ्यक्रम की पुस्तकें खरीदनेवालों के लिए लाभप्रद होती हैं। कस्बाई क्षेत्र एवं छोटी जगहों की दुकानों में सामान्यतः ऐसी ही किताबें होती हैं। पुस्तक-मेला या पुस्तक-प्रदर्शनी में लोगों के सामने सारी किताबें फैली रहती हैं। उन्हें चयन की पूरी सुविधा रहती है। ऐसे अवसर पर लोग यह सोचकर नहीं चलते कि अमुक किताब ही खरीदनी है। वे किताबें ढूँढते हैं, जो पसन्द आ जाए, वह खरीद लाते हैं।
मेले में छोटे-छोटे बच्चों का आना, और भी मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करता है। बच्चे यहीं से अपने संस्कार का सम्वर्द्धन करते हैं। मेले के दौरन शहर के लोगों का जैसा रुझान देखा जाता है, वह वहाँ की सांस्कृतिक विरासत के प्रति आम लोगों को आश्वस्त करता है।
इन दि‍नों पुस्तकों के प्रति लोकरुचि के ह्रास की बात किम्बदन्ती की तरह फैल गई है, बड़े  ऊँचे स्वर में लोग कहते पाए जाते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दवाब ने समाज में पुस्तकों की जगह संकुचित कर दी है, पठन रुचि का अत्यधिक ह्रास हुआ है। पर लोग इसके गणित से खुद को निरपेक्ष रखते हैं; वे इस ह्रास की नियामक शक्ति की तरफ नहीं देखते। गौर करें तो पूरा परिवेश इसके लिए जि‍म्‍मेदार दि‍खेगा। पाठक, प्रकाशक, लेखक, वितरक--हर कोई थोड़ा-थोड़ा दोषी दि‍खेगा। पर सर्वाधिक दोषी लेखक दि‍खेंगे। अगले दोषी, व्‍यावसायि‍क शिष्टाचार सीखे बगैर प्रकाशन के क्षेत्र में कूद आए अयोग्य प्रकाशक दि‍खेंगे। आज के अधिकांश लेखकों को आम पाठकों की चिन्ता नहीं रहती, उन्हें पाठकों की मान्यता गैरजरूरी लगती हैं। उपभोक्तावादी समाज-व्यवस्था में उनकी दृढ़ मान्यता है कि पाठकों की मान्यता अमूर्त्त गहना है, उसे कहाँ-कहाँ दिखाएँ? असली और मूर्त्त गहना है पुरस्कार! पुरस्कार मिल जाए तो हर कोई बड़ा लेखक मानेगा। पुरस्कार देती हैं संस्थाएँ, पुरस्कार देते हैं धन्ना सेठ, पुरस्कार दिलाते हैं आलोचक, पुरस्कार-दातृ समिति के विशेषज्ञ, जो खुद तरह-तरह के अहंकारों के बोझ तले दबे रहते हैं। जनोपयोगी या उपयोगी या महत्त्वपूर्ण साहित्य की परिभाषा आज जनता नहीं तय करती, आलोचक तय करते हैं, वे प्रमाण-पत्र दें तो लेखक का जनसरोकार साबित हो वर्ना बौखते रह जाएँगे। कोई पुरस्कार नहीं मिल पाएगा। किसी भी पुरस्कार के निर्णय में जनता की भगीदारी नहीं होती। जाहिर है कि निर्णायक समिति के उच्‍च कुल-शीलोद्भव विशेषज्ञों का नयनतारा बनना अधिकांश लेखकों को फलदायी लगता है, उनके मिजाज और उनके एजेण्डों के अनुसार लिखना सार्थक लगता है। तुलसीदास या निराला या नागार्जुन हो जाना उनके धर्म-कर्म-मर्म के लिए अनैतिक है। पुरस्कार झपटने की तरकीब में व्यस्त इस दुनिया के लेखक चतुर-सुजान हो गए हैं। शायद यही कारण हो कि पुस्तक बाजार में वर्गीय साहित्य की भरमार होती जा रही है। रचनाओं की सहजता और बोधगम्यता इस तरह गायब हो गई है कि पाठक कृति से दूर होने लगे हैं। घोषित रूप से महान-महान लेखकों की रचनाएँ दिमाग की नसें हिला देती हैं, अकारण ही सामान्य जन साहित्य छोड़कर पापुलर राइटिंग की ओर तो नहीं भाग जा रहा है, कुछ तो कारण होगा? उपभोक्तावादी समाज के लेखक-आलोचक-प्रकाशक इस ओर नजर दें तो साहित्य का भला होगा। या कहें कि उनका ही भला होगा। और एक बेहतर समाज की पुनर्संरचना में उनकी भूमिका उल्लिखित होगी।
दरअसल सारी बातें जीवन-दृष्टि पर निर्भर होती है। जीवन संग्राम की लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए इसी दृष्टि की जरूरत होती है। यह दृष्टि इन्सान को कई-कई दिशाओं से सहारा देती है। केवल वैयक्तिक अनुभव भर इसके लिए पर्याप्त नहीं है। प्रतिभा, परिश्रम, अध्ययनशीलता, कल्पनाशीलता, बौद्धिक-स्तर, सामाजिक समझ, मानवीय सरोकार, शील-संस्कार, संगति, साहित्य, समाज...सबका योगदान इसमें होता है। जाहिर है कि किसी व्यक्ति को अपनी जीवन-दृष्टि निर्धारित करने में समकालीन साहित्य से प्रभूत सहयोग मिलता है। ऐसे में यदि किसी काल के साहित्य का आचरण वर्गीय हो जाए, तो निश्चय ही उस काल का नागरिक परिवेश दिग्भ्रमित होगा, पुस्तकों से दूर भागेगा, पुस्तकों के विकल्प के रूप में वांछित-अवांछित उपकरण ढूँढेगा। इसलिए लेखकों, प्रकाशकों का सामाजिक कर्तव्य बनता है कि वे समाज और समय की जरूरत को देखते हुए पुस्तकें लिखें, और छापें; तथा आलोचकों का कर्तव्य बनता है कि वे सही समय में समाज को सही पुस्तक की सूचना दें। उनके उपदेशक होने का अहं और उस अहं की गरिमा तभी सुरक्षित रह पाएगी। इस स्थापना में कोई संशय नहीं कि पुस्तकें ज्ञान हैं, पुस्तकें आग हैं, पुस्तकें लाठी हैं, पुस्तकें एक प्रभालोक हैं, पुस्तकें बहुत कुछ हैं, लेकिन ये सारी चीजें तभी सम्भव हैं, जब वे पढ़ी जाएँ। इसके साथ यह तथ्य भी शाश्वत है कि साहित्य बोधगम्य हो, तो पुस्तकें जनोपयोगी होंगी; और किफायती कीमत पर उपलब्ध हो तो अधिक लोग पुस्तकें खरीद पाएँगे।
पुस्तक से आम पाठकों के सम्बन्ध तो फिर भी ऐच्छिक हैं, जिन शि‍क्षार्थि‍यों के सम्बन्ध अनिवार्य होने चाहिए, वे भी काफी दयनीय हो गए हैं। उनका काम अब कुँजी और प्रश्नोत्तरी से चल जाता है, पूरी किताब खरीदने, पढ़ने की अब न तो उन्हें इच्छा होती, न जरूरत। बैकडोर से काम हो, कम श्रम से अधिक लाभ हो, ऐसा कौन नहीं चाहता? स्थिति तो यह है कि शिक्षक वर्ग के अधिकांश लोग भी अब पुस्तक से सम्बन्ध रखना अच्छा नहीं समझते। आने वाली सन्ततियों और भावी पीढ़ियों के लिए यह खतरे की घण्टी है। विश्वविद्यालयीय और विद्यालयीय शिक्षा पद्धति की ओर सरकार को ध्यान देना चाहिए और पाठक-पुस्तक सम्बन्धों में दूरी उत्पन्न करने वाले घटकों को समाप्त करना चाहिए, ताकि आनेवाली पीढ़ियों की दृष्टि और ज्ञान कुन्द होने से बच जाए।
पुस्तक हमारा अलोकपुंज है। यही जीवन को जीने का आचार सिखाती है और आगे बढ़ने को हमारा पथ आलोकित करती है।

डि‍रेल्‍ड साहि‍त्‍यि‍क विवाद की हानि‍याँ Harms of Derailed Literary Controversy





'विवाद' का अर्थ यहाँ झगड़ा-झंझट नहीं है। विवादास्पद लेखन का अभि‍प्राय हिन्दी के साहित्यिक विवाद से है। साहित्यिक विवाद झगड़े की सीमा तक पहुँचकर झगड़ा नहीं होता। यह बौद्धिक बहस है, किसी विषय विशेष पर विचार-विमर्श है, विद्वानों के बीच तर्क-वितर्क है। प्राचीन परम्परा तो विद्वानों का समय इसी से कटता था--काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्/व्यसनेन च मूर्खानां निद्रया कलहेन वा।
इस नीति श्लोक में एक यह अर्थ भी छिपा हुआ है कि मूर्खों के बीच हो रही बहस कलह में परिणत हो सकती है, पर विद्वानों के बीच हो रहे कलह भी सृजनात्मक बहस का रूप ले लेता है।  
हिन्दी साहित्य में विवादों की दीर्घ परम्परा है। भारतेन्दु काल से ही विद्वानों के बीच वाद-विवाद होते रहे हैं। हमारे यहाँ वाद-विवाद बुद्धिजीवियों-विद्वानों का वैशिष्ट्य बना रहा है-- विरासत में झाँकें तो साबित होने में देर नहीं लगेगी कि शास्त्रों की प्राचीन परम्परा इसी का उदाहरण है। भरत, भामह, दण्डी, रुद्रट, शूद्रक...संस्कृत के समस्त लक्षणकारों के बीच दृश्य-काव्य, श्रव्य-काव्य, जैसी विधागत और रस, रीति, अलंकार जैसी काव्य की तत्त्वगत बातों को लेकर सहमति-असहमति, तर्क-वितर्क होते रहे हैं। आगे चलकर विद्वानों को दी जाने वाली उपाधियों का आधार भी वाद-विवाद अर्थात् शास्त्रार्थ ही होता था, धौत परीक्षा जैसा अनुष्ठान इस शास्त्रार्थ का ही एक रूप होता था। समय-समय पर सामन्तों, जमीन्दारों, शासकों के दरबार में बुद्धि विलास के लिए भी शास्त्रार्थ का आयोजन होता था, जिसमें ढिंढोरा पीटकर दूर-दूर के विद्वानों को विषय विशेष पर शास्त्रार्थ के लिए बुलाया जाता था। पर चूँकि ये सारी बातें वाचिक परम्परा में ही रह गईं, इसलिए आज लोक-कण्ठ के जरिए हम तक पहुँची हुई कई बातें किम्बदन्ती जैसी लगती हैं। इस तरह की बहसों का कोई आशुलेखन अथवा ध्वन्यांकन होता नहीं था, इसलिए यह परम्परा आगे तक जानी-समझी नहीं जा सकी, खड़ी बोली हिन्दी में भारतेन्दु युग में आकर यह वाद-विवाद, अर्थात यह शास्त्रार्थ, अर्थात् विषय विशेष पर विद्वानों का मतामत लिखित रूप में सामने आने लगा।
विवादास्पद लेखन से तात्पर्य वैसे लेखन से है, जो अन्य विद्वानों को तर्क-वितर्क करने के लिए उत्प्रेरित करे। यह परम्परा लिखित रूप में विकसित हो, इसकी गुंजाईश सर्वप्रथम सन् 1881 में लिखे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के निबन्ध 'नाटक' से बनी और द्विवेदी युग, छायावाद युग, प्रगतिवादी युग, नई कविता-नई कहानी होती हुई आज तक चली आ रही है। अन्तर सिर्फ इतना आया है कि प्रारम्भिक वाद-विवाद साहित्य के स्वरूप और साहित्य की श्रेष्ठता-पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के निमित्त होता था, एक विद्वान के अभिमत को ध्वस्त कर दूसरे विद्वान, अपने मत की स्थापना हेतु ऐसा करते थे। पर, आज के विद्वान किसी विचार को ध्वस्त या स्थापित करने के लिए नहीं, व्यक्ति विशेष को ध्वस्त करने के लिए, योजनाबद्ध ढंग से भरास निकालने और व्यक्ति को कलंकित या खारिज करने के लिए विवादास्पद लेखन करते हैं। व्यक्ति केन्द्रित कहानी-कविता-निबन्ध लिखकर उसके चारित्रिक हनन का आयोजन आज कोई नई बात नहीं है। पत्रिकाओं में ऐसे दृश्य मौके-बेमौके दिखते रहते हैं।
विवादास्पद लेखन के आधार कई हैं। समय के बदलते तेवर के साथ इस कोटि के लेखन का कारण बनता रहा है। कभी साहित्य के रूप-स्वरूप, लक्षण-प्रयोजन को लेकर, कभी भाषा के स्वरूप निर्धारण को लेकर, कभी तथ्य के सम्भव-असम्भव को लेकर, कभी सामाजिक आचार-संहिता के खण्डन-मण्डन को लेकर, कभी साहित्य की श्लीलता-अश्लीलता को लेकर, कभी रचनाकार विशेष की श्रेष्ठता-हीनता पर व्यक्त स्थापना को लेकर, कभी स्थापित साहित्यिक धारा को लेकर, कभी साहित्य के शब्द संस्कार और विषय चयन को लेकर, कभी स्थापित सत्ता और धार्मिक भावना को लगी ठेस को लेकर साहित्य में वाद-विवाद होते रहे हैं। समय-समय पर साहित्य द्वारा राज-सत्ता अथवा समाज-सत्ता के विरुद्ध उठाए गए मुद्दों को लेकर कृति विशेष को प्रतिबन्धित भी किया जाता रहा है। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण में सखाराम गणेश देउसकर द्वारा बंगला में लिखी गई पुस्तक 'देसेर कथा' (पं. माधव प्रसाद मिश्र द्वारा हिन्दी में अनूदित) अंग्रेजों द्वारा प्रतिबन्धित हुई, 'हिन्दू पंच' का 'बलिदान अंक', 'चाँद' का 'फाँसी अंक' आदि स्वतन्त्रता से पूर्व प्रतिबन्धित कर दी गई थी, प्रेमचन्द को बुलाकर उनके लेखन के लिए उन्हें खरी-खोटी सुनाई गई और उन्हें कुछ भी लिखने के लिए अनुमति लेने को कहा गया, तो उन्होंने नाम बदलकर लिखना शुरू किया और अब तो यह है कि उनका बदला हुआ नाम ही मूल नाम हो गया है। छद्म नाम से लिखने की परम्परा तो अभी भी है, जो विवाद से बचने की लेखकीय प्रवृत्ति को दर्शाता है। स्वातन्त्र्योत्तर काल में मुक्तिबोध की पुस्तक को प्रतिबन्धित किया गया। बिहार में डॉ. जगन्नाथ मिश्र के मुख्यमन्त्रित्व में प्रेस बिल लगाया गया था। सम्पूर्ण भारत में आपातकाल के दौरान सेन्सर बोर्ड की स्थापना हुई, जिसमें छपने वाली हर रचना उस बोर्ड से पास करवानी पड़ती थी। उस काल की कई ऐसी रचनाएँ अभी भी लेखकों के पास पड़ी हुई हैं, जिसे उस काल में उन्होंने सेन्सर बोर्ड के 'ज्ञानमुक्‍त' वि‍शेषज्ञों से सम्पादि‍त करवाकर प्रकाशि‍त करवाना अपने लेखकीय स्वाभिमान के वि‍रुद्ध समझा।...खैर, इन बातों की सूची लम्बी हो सकती है, हिन्दी में तो अब स्वतन्त्रता पूर्व की प्रतिबन्धित रचनाओं की मोटी-मोटी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अन्य भाषाओं पर नजर दें तो सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन इसके उदाहरण हो सकते हैं। पर, यहाँ हमारा उद्देश्य विवादास्पद लेखन है, प्रतिबन्धित साहित्य नहीं। साहित्य पर प्रतिबन्धन जहाँ हमारे मन में निरंकुश शासक की दुर्वृत्ति का चित्र अंकित करता है, वहीं विवादास्पद लेखन उदारता और विद्वता और जनतान्त्रिक बोध का। इस अर्थ में हम प्रतिबन्धित साहित्य की चर्चा से बच निकलें तो बेहतर है।
हिन्दी के विवादास्पद लेखन पर चर्चा अभी तक न के बराबर हुई है। जबकि हिन्दी के सृजनात्मक और आलोचनात्मक--दोनों साहित्य के स्वरूप निर्धारण में इस घटना का महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिन्दी-आलोचना के उद्भव का सारा श्रेय हिन्दी के प्रारम्भिक वाद-विवाद को ही जाता है। पर लोग इसे भूल गए हैं। सुखद है कि सन् 1857-1920 तक के साहित्यिक वाद-विवाद पर केन्द्रित डा. रमेश कुमार का शोध प्रबन्ध 'आरम्भिक हिन्दी आलोचना के विकास में साहित्यिक विवादों का योगदान'; सन् 1910-1940 तक के समय पर केन्द्रित डा. गोपालजी प्रधान का शोध-प्रबन्ध 'छायावाद युगीन साहित्यिक वाद-विवाद'; और उसके बाद के समय को ध्यान में रखते हुए डा. मृत्युंजय सिंह का शोध-प्रबन्ध 'प्रगतिशील आन्दोलन के साहित्यिक विवाद' जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में पी-एच.डी की उपाधि हेतु लिखे गए। पर्याप्त श्रम और निष्ठा से लिखी गई ये पुस्तकें जब प्रकाश में आएँगी, तो साहित्यिक विवादों के प्रयास और परिणाम स्पष्ट होंगे।
भारतेन्दु ने अपने 'नाटक' निबन्ध में भारतीय परम्परा, सामाजिक वर्तमान आर पाश्चात्य प्रभाव को रेखांकित करते हुए हिन्दी के नाट्य लेखन पर बातें कीं थीं; समकालीन विद्वानों ने उस पर पर्याप्‍त तर्क-वितर्क किया। परिणामस्वरूप उस समय की रचनाशीलता और विधाओं का स्वरूप निर्धारित हुआ। उसी काल में सन् 1885 में लाला श्रीनिवास दास द्वारा लिखित नाटक 'संयोगिता स्वयंवर' प्रकाश में आया। कई विद्वानों ने इस नाटक की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस नाटक पर बदरी नारायण चौधरी प्रेमघन तथा बालकृश्ण भट्ट ने लिखकर अपनी बात रखी। प्रेमघन ने ऐतिहासिक नाटक के रूप में इसकी समीक्षा लिखते हुए न केवल इस नाटक के दोष बताए बल्कि उन विद्वानों के होश भी ठिकाने लगाए, जिन्होंने इसकी तारीफ की थी। इस विवाद से ऐतिहासिक नाटक के स्वरूप और नाट्य-समीक्षा, आलोचना आदि के प्रतिमान निर्मित होने लगे। इन सबसे पूर्व सन् 1876 में ही एक घनघोर साहित्यिक विवाद चला था; जिसके कुछ सूत्र अभी भी जीवित हैं। यह विवाद 'पृथ्वीराज रासो' को लेकर चला था। 'पृथ्वीराज रासो' नाम से छपी एक पुस्तक की पूर्व मौजूदगी के कारण चन्दवरदायी कृत 'पृथ्वीराज रासो' के प्रकाशन पर एशियाटिक सोसाइटी वालों ने रोक लगा दिया। पूरा विद्वान महकमा दो खेमों में बँट गया। एक चन्दवरदायी रचित इस कृति को मौलिक साबित करने के लिए अखाड़े में उतरे हुए थे, दूसरे इसे नकली साबित करने के लिए जान दे रहे थे। इसी बीच एक तीसरा खेमा निकल आया। यह खेमा 'चन्द' और 'पृथ्वीराज रासो' का अस्तित्व और उसकी मौलिकता तो स्वीकारते थे, पर प्रस्तुत पुस्तक को मौलिक न मानकर मौलिक का संक्षिप्त संस्करण मानते थे। इस विवाद के अनसुलझे सूत्र आज भी साहित्यिक खेमे में जहाँ-तहाँ लम्बित पड़े हैं।
भारतेन्दु युग में ही गद्य-लेखन और पद्य-लेखन की भाषा को लेकर वाद-विवाद शुरू हुआ था। खड़ी बोली हिन्दी को गद्य की भाषा के रूप में तो स्वीकार कर लिया गया था, पर पद्य इसमें नहीं लिखे जाते थे। खड़ी बोली के इतने बड़े पोषक स्वयं भारतेन्दु के लिए कविता की भाषा, ब्रजभाषा थी। ब्रजभाषा की कोमलकान्त शब्दावलियों के माधुर्य कविता के लिए आवश्यक समझे जा रहे थे। अयोध्या प्रसाद खत्री, बाबू महेश नारायण सिन्हा, गौरीदत्त आदि के अकूत प्रयास के बावजूद यह विवाद का विषय बना ही रहा कि पद्य की भाषा खड़ीबोली हिन्दी हो या न हो। अन्त में द्विवेदी युग में आकर इन लोगों की यह अभिलाषा पूरी हुई और लम्बे विवाद के बाद पद्य की लिए खड़ी बोली को स्वीकृति मिली।
उपन्यास का उदय काल भी भारतेन्दु युग ही है। सन् 1889 में भारतेन्दु का उपन्यास 'पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा' प्रकाशित भी हुआ, जिसके मौलिक अथवा अनूदित होने पर विचार-विमर्श भी हुआ। प्रकाशकों द्वारा पुस्तक पर दी गई अपूर्ण और अपुष्ट जानकारी के कारण यह समस्या उत्पन्न हुई। किन्तु सन् 1882 में हिन्दी का प्रथम मौलिक उपन्यास 'परीक्षा गुरु' (लाला श्रीनिवास दास) प्रकाशित हो चुका था। भारतेन्दु युग सन् 1850-1900 तक के समय को माना गया है, भारतेन्दु का जीवन काल सन् 1850-1885 है। इस काल में कई अनूदित उपन्यास अथवा अन्य भाषाओं की कृतियों पर आधारित उपन्यास प्रकाशित हुए, पर सन् 1891 में जब देवकी नन्दन खत्री का उपन्यास 'चन्द्रकान्ता' प्रकाश में आया, 'चन्द्रकान्ता सन्तति' प्रकाशित हुआ, तिलिस्मी घटनाओं से भरे इस उपन्यास की कथा संरचना और घटनाक्रम पर उस काल के विद्वानों ने 'सम्भव-असम्भव' जैसे पदबन्धों के सहारे बहस करना शुरू किया, जिसका सीधा सम्बन्ध यथार्थवाद से जुड़ता था। अर्थात् उपन्यास की कथाओं में यथार्थ चित्रण की बात को लेकर लम्बी बहस चली। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में इस पर विस्तार से विचार-विमर्श हुआ। सुदर्शन, समालोचक, श्री व्यंकटेश समाचार आदि के साथ-साथ अन्य पत्रिकाओं ने भी इस विवाद में रुचि दिखाई। पं. माधव प्रसाद मिश्र तथा चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने गम्भीरता से इस बहस में भाग लिया और उपन्यास की कथाभूमि और घटनाक्रम को समाज के हितकारी बनाने की प्रवृत्ति पर बल दिया। इसी काल में किशोरी लाल गोस्वामी के उपन्यासों पर वृन्दावनलाल वर्मा और चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने खूब चर्चा की। घटनाओं की यथार्थता और पवित्रता को लेकर गम्भीर बहस चली। आगे आकर प्रेमचन्द के उपन्यास 'प्रेमाश्रम' पर जब रघुपति सहाय फिराक ने प्रशंसात्मक टिप्पणी की तो हेमचन्द्र जोशी ने इस उपन्यास की धज्जियाँ उड़ाने की हर कोशिश की।
बाद के दिनों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय में 'भाषा की अनस्थिरता' को लेकर वाद-विवाद लम्बा चला। आचार्य द्विवेदी 'भाषा की अनस्थिरता' को ध्यान में रखकर अपने विचार रख रहे थे, पर बालमुकुन्द गुप्त 'भाषा के व्याकरण' पर जोर दे रहे थे। सन् 1905 में 'सरस्वती' में प्रकाशित निबन्ध 'भाषा और व्याकरण' के ध्वन्यार्थ से बालमुकुन्द गुप्त को जब ऐसा आभास हुआ कि यहाँ भारतेन्दु को पूरा सम्मान नहीं दिया गया है, तो वे बड़े कुपित हुए। उन दिनों वे 'भारत मित्र' के सम्पादक थे। पत्रिका के नौ अंकों तक वे इस विषय पर निबन्ध लिखते रहे। उस समय द्विवेदी जी का एक निबन्ध छपा था--'कालिदास की निरंकुशता।' बालमुकुन्द गुप्त को यह बात नहीं सुहाई। उन्होंने इसके विरोध में 'निरंकुशता निदर्शन' शीर्षक से कई लेख लिखे। 'भाषा की अनस्थिरता' के सम्बन्ध में बाद में बदरीनारायण चैधरी प्रेमघन ने खीजकर 'मूर्ख' आदि जैसे शब्दों का प्रयोग करते हुए डाँट-डपट की भाषा में 'आनन्द कादम्बिनी' में 'नागरी समाचार और उसके सम्पादकों का समाज' शीर्षक से सम्पादकीय निबन्ध लिखा और विरोध किया।
भारतेन्दु युग का साहित्यिक विवाद बड़ी नाजुक परिस्थिति का विवाद था, यह दीगर बात है कि हिन्दी साहित्य का हर काल किसी-न-किसी कारण नाजुक बना रहा है। भारतेन्दु का काल साहित्य की भिन्न-भिन्न विधाओं के स्वरूप निर्धारण और तदनुकूल रचनाशीलता का काल था। इसलिए उस काल का विवाद उन्हीं परिस्थितियों के हिसाब से चला। द्विवेदी युग का विवाद 'साहित्य शास्त्र के निर्माण प्रक्रिया' से जुड़ी बातों पर बहस करते हुए दिख रहा है। इस बहस में मुख्यतया महावीर प्रसाद द्विवेदी, मिश्रबन्धु, बालमुकुन्द गुप्त, पद्मसिंह शर्मा, लाला भगवानदीन, कृष्ण बिहारी मिश्र के साथ और भी कई साहित्य-प्रेमी और भाषा-प्रेमी थे। इन्हीं दिनों देव-बिहारी विवाद चला। सारे शीर्षस्थ विद्वान दो खेमों में बँट गए। एक खेमा अपने तर्कों से यह मनवाने को आमादा था कि देव, इस काल का सबसे महत्त्वपूर्ण कवि है। इस खेमे में मिश्रबन्धु और कृष्णबिहारी मिश्र थे। दूसरे खेमे में पद्म सिंह शर्मा और लाला भगवानदीन थे। वे ठीक उनके विपरीत 'बिहारी' को सर्वश्रेष्ठ साबित करने पर तुले हुए थे। इस विवाद ने भी गम्भीर रुख पकड़ लिया। देव-बिहारी विवाद आज भी एक प्रतीक के रूप में चर्चा में आता है। इन्हीं दिनों मिश्रबन्धुओं का प्रथम आलोचना ग्रन्थ 'हिन्दी नवरत्न' प्रकाशित हुआ। इसमें हिन्दी के नौ श्रेष्ठतम कवियों पर आलोचनात्मक लेख था। इन नौ को भी वृहत्त्रयी, मध्यत्रयी, लघुत्रयी करके तीन खण्डों में बाँटा गया था। पर, कबीर का उल्लेख इसमें नहीं था। पूरे हिन्दी-जगत में इस बात को लेकर इतना बावेला मचा कि हारकर 'हिन्दी नवरत्न' के दूसरे संस्करण में मिश्रबन्धु को कबीर का समावेश करना पड़ा।
इसी काल के आस-पास पीछे से चल रही रीतिवादी काव्यधारा से समकालीन विद्वानों का मन खिन्न हुआ। लगातार नारी-देह, यौनोन्माद, नख-शिख वर्णन ने विद्वानों के मन में एक वितृष्णा-सी भावना उत्पन्न की। ध्येय यह था कि साहित्य में यदि जन जीवन की समग्र भावनाओं का चित्रण न हो, तो वह साहित्य किस काम का। रीतिवाद बनाम स्वच्छन्दतावाद का विवाद इसी धारणा के पक्ष-विपक्ष से शुरू हुआ और रीतिवाद से पिण्ड छूटा। फिर छायावाद युग प्रारम्भ हुआ। छायावाद काल में भी साहित्यिक विवाद हिन्दी कविता के स्वरूप, भाषा और छन्द को लेकर चलता रहा। फिर प्रगतिवाद का प्रवेश हुआ। राजनीतिक धारणा, यथार्थवाद, कलावाद, जनपक्षधरता, रसवाद, रूपवाद आदि कई जरूरी-गैरजरूरी मसलों पर काफी विचार-विमर्श हुए, तर्क-वितर्क हुए, भिन्न-भिन्न रचनकारों ने अपने-अपने मन्तव्यों को स्थापित करने की कोशिश की। 'उर्वशी विवाद' इसी दौर की एक उल्लेखनीय घटना है। इसी बीच देश आजाद हुआ। प्रयोगवाद की बुनियाद डाली गई। अकविता जैसी कई धाराओं को स्थापित करने की कोशिश हुई। नई स्थापना के साथ सप्तकों की कड़ी चली। नई कविता आई। नई कहानी, समान्तर कहानी, सचेतन कहानी, सक्रिय कहानी, अकहानी आदि-आदि कई कहानी आन्दोलन भी चले। और साहित्यिक विवाद चलता रहा।
यह कहने में कोई दुविधा नहीं रहनी चाहिए कि समय-समय पर चले इस साहित्यिक विवादों ने समकालीन विद्वानों के बीच तू-तू, मैं-मैं जितना चलवाया हो, आपसी सम्बन्धों को जितना भी रुखड़ा किया हो, पर साहित्यकारों के बीच सहनशीलता और तर्कशक्ति को प्रोन्नत करने का बहुत ही कारगर काम किया और हिन्दी आलोचना का आधार काफी मजबूत हुआ, हिन्दी आलोचना समर्थ हो गई।
सन् उन्नीस सौ साठ के बाद जो कुछ विवाद सामने आए, उनमें ज्यादातर कहानी और कविता को लेकर हुए। इस प्रसंग में कहा जाना चाहिए कि इस काल में स्‍वयं को समय का देवता बनाने की ललक बहुतों पर सवार थी, जिस कारण हर चौथे पाँचवें लेखक एक नए आन्दोलन का मैनीफेस्टो प्रस्तुत कर देते थे। यूँ, इस काल में साहित्य सृजन की स्तरीयता लगातार बढ़ती गई, साहित्य जनोन्मुख होता गया। थोड़ा बहुत कमजोर और वाहियात लेखन तो हर समय में होता रहा है।
बीसवीं शताब्दी के नौवें और अन्तिम दशक के साहित्यिक विवाद को साहित्य केन्द्रित कम, वैयक्तिक राग-द्वेष केन्द्रित ज्यादा कहा जाना चाहिए। यूँ तो इनमें से कुछ बातें छठे दशक से ही शुरू हो गई थी। कविता और कहानी को लेकर थोडे़ ही समयान्तराल में जितनी नई-नई स्थापनाएँ दी गईं, उनमें से हरेक में किसी न किसी स्थापित मान्यता को खण्डित करने की मंशा रहती थी। 'नई कहानियाँ' के वर्षगाँठ विशेषांक, मई 1961 में राजेन्द्र यादव का एक लेख छपा था 'आज की कहानी : परिभाषा के नए सूत्र।' इस लेख में राजेन्द्र यादव ने उस दशक की कहानियों की कुछ विशेषताएँ बताई थीं, कुछ स्थापनाएँ दी थीं, जो आपसी द्वैध और दिग्भ्रान्ति से भरी हुई थी। हरेक पंक्ति अपनी पिछली पंक्ति को खण्डित करती थी। इस निबन्ध के जवाब में 'लहर' के नई कहानी विशेषांक, अगस्त-सितम्बर 1961 में राजकमल चौधरी ने एक लेख लिखा--'कहानी : नई कहानी : पुरानी कहानी'। इस निबन्ध में राजकमल चौधरी ने न केवल राजेन्द्र यादव की, बल्कि फतबेवाजी करनेवाले हर व्यक्ति की प्रवृत्ति की ढंग से खबर ली। 'ज्ञानोदय' के जुलाई 1961 के अंक में 'बंगला की चार आधुनिक प्रेम कविताएँ' शीर्षक के अन्तर्गत दूधनाथ सिंह द्वारा अनूदित, टिप्पणी समेत कविताएँ प्रकाशित हुईं। ज्ञानोदय, अगस्त 1961 में प्रकाशित अपनी टिप्पणी में राजकमल चौधरी ने दी गई भ्रामक स्थापनाओं, और भ्रष्ट अनुवाद पर तीखी प्रतिक्रिया लिखी। प्रकाशन की सुविधा के कारण इस तरह के विवाद बाद में खूब हुए। पाठकीय प्रतिक्रियाओं की चर्चा और गिनती की जाए तो यह निबन्ध, एक शोध-प्रबन्ध हो जाएगा। 'राजेन्द्र यादव' द्वारा प्रकाशित, सम्पादित मासिक पत्रिका 'हंस' के दो स्तम्भ ही इस प्रथा को पुष्ट-सुपुष्ट करते हैं। 'बीच बहस में' तथा 'अपना मोर्चा' की हरेक रचना में वाद-विवाद की तीक्ष्णता दिखाई देती है। सन् 2000 में राजेन्द्र यादव ने नागार्जुन पर एक लेख लिखा, जो मैथिली की पत्रिका 'अन्तिका' में (अनूदित) छपा, साथ ही जून 2000 के 'हंस' के सम्पादकीय के रूप में हिन्दी में भी छपा। 'हंस' के ही 'बीच बहस में' स्तम्भ में उसके विरुद्ध नागार्जुन की सृजनशीलता को अपमानित करने वाली हरकतों का खण्डन किया गया।
हिन्दी में घटनाएँ होती रही हैं। फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास 'मैला आँचल' जब प्रकाशित हुआ, तब उसके प्रभाव और लोकप्रियता से ढेर सारे लोग कुपित हो उठे। उन कुपितों में कुछ वैसे नौसिखिए भी थे, जिन्होंने कदाचित 'रेणु' को पढ़कर लिखना सीखा हो! उन्होंने कलंक लगाना शुरू कर दिया कि यह उपन्यास सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास 'ढोढ़ाइ चरित' का अनुवाद है, बाद में स्वयं सतीनाथ भादुड़ी ने इस बकवासपूर्ण टिप्पणियों का खण्डन किया। उन्हीं दिनों राजकमल चौधरी की रचनाओं पर अश्लीलता का आरोप लगना शुरू हुआ, फिर कुछ उसके पक्ष में, कुछ विपक्ष में बातें आती रहीं, बाद में राजकमल चौधरी को घोषणा करनी पड़ी कि 'साहित्य में अश्लीलता आरोपित करने वाली 'पुलिस' मनोवृत्ति के लोग यह किताब न पढ़ें, उनकी सेहत के लिए यह अच्छा रहेगा।'
असल में छठे दशक के बाद हिन्दी साहित्य के लेखन संसार में दबी साँस से एक प्रवृत्ति जीवन पा गई, वह यह कि, जिस पेड़ को लाँघ नहीं सकते, उसे काट कर गिरा दो। ध्वस्त करने की यह परम्परा इसी प्रवृत्ति के कारण शुरू हुई और सदी के अन्तिम डेढ़ दो दशकों में इसकी साँस इतनी तेज हो गई कि नए तो क्या, पुराने लेखकों में भी यह प्रवृत्ति पूरी औकात के साथ जीने लगी। हो सकता है कि इन सबके लिए सबसे बड़े दोषी फणीश्वरनाथ रेणु और राजकमल चौधरी हों। ये दोनों अपने समय के इतने अधिक प्रतिभाशाली और अपने दायित्व के प्रति इतने अधिक ईमानदार निकले, कि इनके समकालीनों पर इनका आतंक छा गया। जब उन्हें लगा कि इनसे आगे जाना हमारे वश का नहीं, तब टीम बनाकर, आलोचकों की बाँह पकड़ कर, पूँजीपति साहित्य प्रेमियों की खुशामद कर, पत्रिका निकलवा कर, दोनों को ध्वस्त करने में लग गए। चूँकि इन दोनों के पास कोई पत्रिका नहीं थी, इनकी वकालत करने के लिए कोई धृतराष्ट्र आलोचक नहीं थे, इनमें आत्मप्रशंसा की प्रवृत्ति नहीं थी, खेमेबाजी पर विश्वास नहीं था, इसलिए इन पर लगाए गए आरोपों का खण्डन कम ही हो पाता था। बाद के रचनाधर्मियों में वैयक्तिक-ध्वस्तीकरण-यज्ञ की प्रतिभा ही प्रधान हो गई, शायद उसका मूल कारण यही हुआ हो।दशकों पूर्व डॉ. रामविलास शर्मा और नागार्जुन में मैथिली भाषा के अस्तित्व को लेकर एक विवाद चला था। दोनों की आपस में अच्छी मित्रता भी थी। पर मैथिली भाषा पर उठाए गए सारे सवाल रामविलास जी ने डॉ. जयकान्त मिश्र की पुस्तक 'ए हिस्ट्री आफ मैथिली लिटरेचर' से निकाले थे, जाहिर है कि वे इतने कमजोर सवाल थे कि नागार्जुन ने अपने एक निबन्ध से रामविलास जी की सारी जिज्ञासाएँ शान्त कर दीं और बाद में फिर यह चर्चा आगे नहीं बढ़ी। यूँ आज भी किसी मैथिली विरोधी को रामविलास जी का वह लेख कहीं दिख जाता है, तो आनन-फानन में वे बहस में कूद पड़ते हैं।
पवित्र धारणा से शुरू किए गए यज्ञ में होमकुण्ड बनाते, होमाग्नि डालते, हविस देते हुए यदि सावधान नहीं रहा गया, तो उस यज्ञ-कुण्ड की एक छोटी सी चिनगारी केवल यज्ञ-मण्डप नहीं, आसपास के गाँव को भी जलाकर राख कर देती है। इसका सीधा उदाहरण हिन्दी का साहित्यिक विवाद है। एक पुनीत धारणा के साथ भारतेन्दु युग से चली आ रही इस विशिष्ट परम्परा का ऐसा धर्म परिवर्तन हो जाएगा, प्रतिभा के मल्लयुद्ध का स्वरूप इतना घटिया हो जाएगा, यह बात भारतेन्दु, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुन्द गुप्त, द्विवेदी, गुलेरी, निराला तो क्या, रेणु, नागार्जुन, राजकमल, रामविलास तक ने भी कल्पना नहीं की होगी। सारी असहमतियों के बीच इन लोगों का मूल धर्म साहित्य ही था। वैयक्तिक राग द्वेष और चारित्र-हनन की धारणा से प्रभावित वाद-विवाद की परम्परा पहले कभी नहीं हुई। पर वि‍गत तीन-चार दशकों की पत्र-पत्रिकाओं पर नजर डालें तो स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी, विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पाण्डेय किसी न किसी की तलवार की धार पर हैं।
गरज यह, कि वाद-विवाद से हिन्दी साहित्य को जो कुछ प्राप्त करना था, वह कर लिया। इस वाद-विवाद के जरिए जिस तरह समय-समय पर साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन आए, अब उसी तरह 'वाद-विवाद' की मूल अवधारणा में कोई वैचारिक क्रान्ति आनी चाहिए। उदय प्रकाश को लक्ष्य बनाकर उपेन्द्र कुमार की एक कहानी पिछले दिनों प्रकाशित हुई 'झूठ की मूठ'। मेरी समझ से इस कहानी के जरिए यदि समाज को कुछ देने का अभिप्राय ढूँढ़ा जाए, तो वह दिखाई नहीं देगा। हाँ, इतना अवश्य दिखाई देता कि इस कहानी के जरिए उन्होंने उदय प्रकाश, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, गंगा प्रसाद विमल, राजेन्द्र यादव, भारत भारद्वाज आदि की खबर ले ली। उपेन्द्र कुमार जैसे प्रतिभाशाली कवि, कथाकार, समीक्षक से यह बात पूछी जाए कि उनकी मंशा क्या थी, तो किसी रंजिश के कारण बदले की भावना के अलावा और कुछ नहीं बता पाएँगे वे। पर स्वयं उदय प्रकाश भी अपने लेखन में इन हरकतों से बाज नहीं आए हैं--उनकी कई कहानियाँ इस बात का द्योतक हैं।
बहरहाल, वाद-विवाद की इस दीर्घ परम्परा ने हिन्दी आलोचना को बहुत कुछ दिया। आगे भी यह विवाद देता ही रहे, लेखन के सरोवर को गन्दा न करे, इसके लिए सम्पादकों को विवेकशील होने की ज्यादा जरूरत है। क्योंकि ज्यादातर लेखक अब शुक्राचार्य की तरह क्रोधाग्नि से जल रहे हैं, वे अब कुण्ठा का जीवन जी रहे हैं और क्रोध में गालियाँ देते समय सारा विवेक खो बैठते हैं। उनके गाली-गलौज से साहित्य प्रेमी भ्रष्ट न हों, इसके लिए जरूरी है कि वे उन्हें न परोसे जाएँ। जिम्मेदारी अभी सम्पादकों की बढ़ गई है, क्योंकि उन्हें किसी राम या रावण को नहीं, शुक्राचार्य को सम्भालना है।

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