Saturday, April 18, 2020

पुष्टिमार्ग एवं अष्टछाप



पुष्टिमार्ग एवं अष्टछाप

शुद्धाद्वैतवाद दर्शन के आधार पर महाप्रभु वल्लभाचार्य (सन् 1479-1530) द्वारा संस्थापित भक्ति-सम्‍प्रदाय पुष्टिमार्ग कहलाता है। इसे वल्लभ सम्‍प्रदाय या वल्लभ मत भी कहते हैं। भक्ति की इस साधना-व्यवस्था दृष्‍टि‍ में उन्‍होंने श्रीमद्भागवत के 'पोषणं तदनुग्रह:' के  भगवत् अनुग्रह के लि‍ए 'पुष्टि' शब्द का प्रयोग किया। पुष्टिमार्ग की भक्‍ति‍ कर्म निरपेक्ष होती है, इसमें भगवान के प्रति आत्मसमर्पण कर भक्त सुखी होता है। वह फल की कामना नहीं करता। इसे प्रेमलक्षणा-भक्ति भी कहते हैं। इसमें दृढ़ता लाने के लि‍ए प्रीति‍ अनि‍वार्य है। यह भक्‍ति‍-साधना कुसंग और वि‍षय के त्‍याग से सम्‍पन्‍न होती है। यह भगवान के भजन, गुण-श्रवण, कीर्तन तथा महापुरुषों के सत्‍संग से साधि‍त होती है। सूरदास के यहाँ इसका समुचि‍त उल्लेख है। पुष्‍टि‍मार्ग साक्षात् पुरुषोत्तम श्रीकृष्‍ण के शरीर से उत्‍पन्‍न हुआ माना गया है। शुद्धाद्वैत के अनुसार ब्रह्म सत्, चित्, आनन्‍द स्वरूप है। उसका अनुयायी आत्‍म-समर्पण के रसात्‍मक प्रेम से भगवान की आनन्‍दलीला में लीन होने का इच्‍छुक होता है। वह भगवान के अनुग्रह पर नि‍र्भर होता है। जीवो पर अनुग्रह करने के लिए ही भगवान अवतार होता है। जीव के लि‍ए भगवान के इस अनुग्रह या पोषण की आवश्यकता बताते हुए वल्लभाचार्य कहते हैं कि‍ लीला-विलास के लिए जब एक से अनेक होने की ब्रह्म की इच्छा होती है, तो अक्षर-ब्रह्म के अंश-रूप असंख्‍य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इस जीव में केवल सत् और चित् अंश होता है, आनन्‍द अंश तिरोहित रहता है, इस कारण उनमें भगवान के छह गुण ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य नहीं होते; वे दीन, हीन, पराधीन, दुखी, जन्म-मरण के दोष से युक्त, अहंकारी, विपरीत ज्ञान में भ्रमित और आसक्तिग्रस्त रहते हैं। भगवान अपने अनुग्रह से उसे पुष्‍ट कर उसकी दुर्बलता दूर कर देते हैं। कि‍न्‍तु इस अनुग्रह के अधिकारी सभी जीव नहीं होते। केवल कर्म और ज्ञान द्वारा मुक्ति सुलभ हो सकती है; दुष्ट आसुरी जीवों का उद्धार नहीं होता, वे निरन्‍तर जन्म-मरण के बन्‍धन में पड़े रहते हैं। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होते समय ही भक्त गुरु-आज्ञा से 'श्रीकृष्ण: शरणम् नमः' मन्‍त्र के उच्चारण द्वारा अपने तन-मन-धन-पुत्र-कलत्र आदि श्रीकृष्ण को समर्पि‍त करने का संकल्प करता है और समस्त सांसारिक दोषों से निवृत्ति पा लेता है। इसके बाद भगवान को समर्पित किए बिना वह कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं कर सकता।
पुष्‍टि‍मार्ग के नि‍रूपण में जीव-सृष्‍टि‍ को दैवी और आसुरी दो वर्गों में बाँटा गया है। दैवी जीव के भी दो वर्ग हैं पुष्‍टि‍जीव और मर्यादाजीव। पुष्‍टि‍जीव फि‍र चार प्रकार के होते हैं शुद्धपुष्‍ट, पुष्‍टि‍पुष्‍ट, मर्यादापुष्‍ट, प्रवाहपुष्‍ट। ये चारो जीव भगवान की सेवा के लि‍ए ही जन्‍म लेते हैं। परमानन्‍द ब्रह्म श्रीकृष्‍ण के साथ लीन रहनेवाले सि‍द्ध भक्‍त शुद्धपुष्‍ट और सहज भगवत्‍कृपा के अधि‍कारी भक्‍त पुष्‍टि‍पुष्‍ट जीव होते हैं। मर्यादापुष्‍ट और प्रवाहपुष्‍ट जीवों को सदैव भगवान के अनुग्रह की अपेक्षा रहती है। विषयभोग के साथ निरन्‍तर जन्म-मरण के प्रवाह में पड़े रहनेवाले सांसारिक जीवन का ही दूसरा नाम प्रवाहमार्ग है, जबकि‍ वेद-विहित कर्म का अनुसरण और ज्ञानप्राप्ति का प्रयत्न करना मर्यादामार्ग कहलाता है।
समय की आवश्यकता देखते हुए ही वल्लभाचार्य ने पुष्टि‍मार्ग की स्थापना की थी। इसका विशद चित्रण उनके 'कृष्णाश्रय' शीर्षक प्रकरण ग्रन्‍थ में है। वह ऐसा समय था, जब समस्त देश म्‍लेच्‍छाक्रान्‍त था, गंगादि‍ तीर्थ भ्रष्ट हो रहे थे। अधिष्ठाता देवता अन्‍तर्धान हो गए थे। वेद-ज्ञान का लोप हो गया था, यज्ञादि‍-अनुष्ठान सम्‍भव नहीं था, ऐसे अवसर पर भक्ति-मार्ग ही एकमात्र वि‍कल्‍प था। उन्होंने भक्ति का ऐसा प्रशस्त मार्ग बनाया, जि‍स पर चलने के लिए सभी श्रेणियों, वर्गों, सम्‍प्रदायों के लोग सहज रूप से आमन्‍त्रित थे, पुष्टिमार्ग में कि‍सी का ति‍रस्‍कार नहीं था। इससे कृष्ण-भक्ति आन्‍दोलन को व्यापकता मि‍ली। इस नवीन नागरि‍क चेतना के परि‍णामस्‍वरूप तत्कालीन समाज के सामुदायि‍क जीवन में नई चेतना का संचार हुआ, सदैव से ति‍रस्‍कृत-उपेक्षि‍त वर्ग के लोगों को सम्‍मान दि‍या गया; जाति‍, लिंग, सम्‍प्रदाय का भेद-भाव समाप्‍त हुआ, रूढ़ि-जर्जर समाज के नवीकृत रूप की सम्‍भावना दि‍खी। इस निष्काम प्रेम-भक्ति में कर्मकाण्‍ड की कोई चि‍न्‍ता नहीं थी, संन्यासी होने की वि‍वशता नहीं थी, धार्मिक आचार्य भी सम्‍पूर्ण गृहस्थ होते थे; इसमें त्याग का नहीं, समर्पण का महत्त्व था। माना जाता था कि‍ समर्पण से ही मानसिक वैराग्य दृढ़ होता है। इसमें सदाचार का कोई स्वतन्‍त्र अस्तित्व नहीं था, भगवन्मय जीवन में वह स्वत:सिद्ध माना जाता था। अर्थात्, पुष्टिमार्ग एक प्रवृत्ति-मार्ग है, जिसमें मानसिक निवृत्ति पर ही विशेष बल दिया जाता है।  
इसी पुष्टिमार्ग के संस्थापक आचार्य वल्लभ के चार प्रमुख शिष्यों -- कुम्‍भनदास (सन् 1468 से 1582), सूरदास (सन् 1478 से 1580 या 1585), कृष्णदास (सन् 1495 से 1575 या 1581), परमानन्‍द दास (सन् 1491 से 1583) और उनके पुत्र विट्ठलनाथ (सन् 1515 से 1585) के चार प्रमुख शिष्यों -- गोविन्‍दस्वामी (सन् 1505 से 1585), छीतस्वामी (सन् 1510 से 1585), नन्‍ददास (सन् 1533 से 1586) और चतुर्भुजदास (सन् 1540 से 1585) को मि‍लाकर आठ कृष्‍ण भक्त-कवियों के समूह द्वारा रचे/गाए गए पदों, कीर्तनों के संग्रह को हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य में अष्टछाप (आठ मुद्राएँ) शीर्षक से जाना जाता है। इन गीतों में श्रीकृष्ण की लीलाओं का गुणगान है। ये सभी अष्टछाप के कवि एवं सम्‍प्रदाय के इष्टदेव श्रीनाथजी के अत्यन्‍त निकटवर्ती रूप में प्रसिद्ध थे। भक्ति की प्रबलता और सम्‍पूर्ण समर्पण के कारण इनकी प्रसि‍द्धि‍ श्रीनाथजी के अष्टसखा के रूप में थी। इन्‍हें भगवदीय भी कहा जाता था। इन भक्‍त कवियों का रचनाकाल सन् 1500 से 1586 के बीच का अनुमान किया गया है। इस सम्‍प्रदाय का संस्‍थापन सन् 1565 के आसपास हुआ। ये सभी भि‍न्‍न-भिन्न जातियों, वर्गों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण, कृष्णदास शूद्र, कुम्भनदास राजपूत (कि‍सान), चतुर्भुजदास कुम्‍भनदास के पुत्र और वंश-परम्‍परा के सम्‍पोषक कि‍सान, सूरदास सारस्वत ब्राह्मण या ब्रह्मभट्ट, गोविन्ददास और नन्‍ददास (कुछ लोग नन्‍ददास को गोस्वामी तुलसीदास के चचेरे भाई समझते हैं) सनाढ्य ब्राह्मण, छीतस्वामी माथुर चौबे थे। ये लोग बड़े उदार स्‍वभाव के थे।
कहा जाता है कि‍ सन् 1492 में गोवर्धन पर श्रीनाथजी प्रकट हुए, उन्‍हीं दि‍नों महाप्रभु वल्लभाचार्य ब्रज आए थे, उन्‍होंने गोवर्धन के एक छोटे-से मन्‍दिर में श्रीनाथजी को प्रतिष्ठित किया। उन्‍हीं दि‍नों गोवर्धन के निकटवर्ती गाँव जमुनावती के निवासी गोरवा क्षत्रिय कुम्‍भनदास उनकी संगति‍ में आए, जि‍न्‍हें वल्लभाचार्य ने दीक्षा देकर श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा में नियुक्त कर दि‍या। जब वे दूसरी बार ब्रज आए, तब सन् 1499 में श्रीनाथजी के बड़े मन्‍दिर की नींव पड़ी। तीसरी ब्रज-यात्रा में वे आगरा-मथुरा के बीच गऊघाट पर मि‍ले संन्यासी सूरदास को साथ ले आए और मन्‍दिर में कीर्तन-सेवा में लगा दि‍या। इसी अवसर पर सन् 1509 में श्रीनाथजी की मूर्ति नए मन्‍दिर में स्थापित की गई और गुजरात के एक गाँव के कुनबी वंश के कृष्णदास को भी कीर्तन-सेवा में लगाया। अपनी जगन्नाथपुरी-यात्रा में चैतन्य महाप्रभु से मि‍लने के बाद जब वल्लभाचार्य सन् 1519 के आसपास अपने स्थाई नि‍वास अडैल पहुँचे, तो कान्यकुब्ज ब्राह्मण परमानन्‍दस्वामी नाम के एक प्रसिद्ध कवि-कीर्तनकार को स्वप्न देकर अपनी ओर आकृष्ट किया और अपने सम्‍प्रदाय में दीक्षित किया
सन् 1530 में महाप्रभु वल्लभाचार्य के दिवंगत होने के बाद पुष्टिमार्ग के आचार्य पद पर उनके ज्‍येष्‍ठ पुत्र गोपीनाथ प्रतिष्ठित हुए। आठ वर्ष बाद सन् 1538 में उनका भी निधन हो गया। गोपीनाथ के पुत्र पुरुषोत्तम का देहावसान पहले ही हो चुका था, फलस्‍वरूप गोपीनाथ के छोटे भाई विट्ठलनाथ ने आचार्य पद सँभाला और बड़ी नि‍ष्‍ठा से सम्‍प्रदाय के संघटन का दायि‍त्‍व नि‍भाया। सन् 1566 से वे स्थाई रूप से अडैल छोड़कर ब्रज में रहने लगे। इसी वर्ष उन्हें शहंशाह अकबर की ओर से अभयदान का आज्ञा-पत्र भी प्राप्त हुआ। श्रीनाथजी के मन्‍दिर में कीर्तन-सेवा के साथ-साथ उन्होंने सम्‍प्रदाय के प्रचार-प्रसार और साहित्य-संगीत की उन्नति में अपूर्व योगदान दि‍या। उन्होंने पि‍ता तथा अपने सैकड़ों शिष्‍यों में से काव्य-प्रतिभा-सम्‍पन्न 'परम भगवदीय' चार-चार शि‍ष्‍य छाँटकर आठ भक्‍तों की प्रति‍ष्‍ठा 'अष्टछाप' नाम से दी, जो सम्‍प्रदाय-हित में विट्ठलनाथ की सर्वाधि‍क महत्त्वपूर्ण सेवा मानी जाती है। पुष्टिमार्गीय भक्ति का जैसा वि‍स्‍तार इन भक्त कवियों के कारण हुआ, वैसा सम्‍भवत: अन्य कि‍सी साधन से संभव नहीं था।
'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' तथा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' से प्राप्‍त सूचनानुसार इस सम्‍प्रदाय में दीक्षित होने के पूर्व इनमें से कई भक्तों का जीवन अत्यन्‍त हीन कोटि का था। किंवदन्‍ती के अनुसार सूरदास किसी स्त्री पर मुग्‍ध थे, उसी से उन्होंने अपनी आँखें फोड़वा लीं; कि‍न्‍तु‍ इस तथ्‍य की पुष्‍टि‍ कि‍सी प्रमाणि‍क स्रोत से नहीं होती। यद्यपि‍ तरुणाई में सूरदास का रसि‍क होना अकल्पनीय भी नहीं है। कृष्णदास के चरित्र में गुणावगुण का अद्भुत मिश्रण है। नन्‍ददास भी दीक्षित होने से पूर्व किसी स्त्री के अनुचित प्रेम में फँसे थे। अर्थात् समर्पणपूर्वक श्रीनाथ-शरण में आने से पतित चरित्र भी पावन होने की योग्‍यता पा जाते हैं। इस सम्‍प्रदाय में सूरदास, परमानन्‍ददास, गोविन्‍दस्वामी और नन्‍ददास का वि‍शेष महत्त्‍व था; इनके दीक्षा-गुरु भी इन्‍हें उतने ही सम्मानित भाव से देखते थे, जितने स्‍वयं को।
धन, मान, मर्यादा की इच्छाओं से पूरी तरह विरक्त कुम्भनदास मूलत: किसान थे। पुष्टिमार्ग में दीक्षित तथा श्रीनाथ मन्दिर के कीर्तनकार पद पर होने के बावजूद उन्होंने अपनी वृत्ति नहीं छोड़ी; अन्त-अन्‍त तक कि‍सानी करते हुए निर्धनावस्था में अपने परिवार का भरण-पोषण कि‍या। परिवार में पत्नी, सात पुत्र, सात बहुओं के अलावा एक विधवा भतीजी भी थी। उन्‍होंने कभी कोई दान स्वीकार नहीं कि‍या। राजा मानसिंह ने उन्हें एक बार सोने की आरसी और एक हज़ार मोहरों की थैली भेंट करनी चाही, कि‍न्तु कुम्भनदास ने उसे अस्वीकार कर दिया। जनश्रुति‍ है कि एक बार उन्‍हें अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी बुलाया था। अपने इष्टदेव के अलावा अन्य किसी का यशोगान नहीं करने की कुम्भनदास की प्रवृत्ति‍ से अकबर परि‍चि‍त थे, फिर भी उन्होंने कुम्भनदास से कुछ माँगने का अनुरोध किया; कुम्‍भन दास ने माँग की कि मुझे फिर कभी न बुलाया जाए। कहते हैं कि‍ एक बार गोस्वामी विट्ठलनाथ ने उनसे जब पुत्रों की संख्‍या पूछी, तो उन्होंने कहा कि वास्तव में उनके डेढ़ ही पुत्र हैं, क्योंकि पाँच लोकासक्त हैं, एक चतुर्भुजदास भक्त हैं और आधे कृष्णदास हैं, क्योंकि वे भी श्रीनाथ की गायों की सेवा करते हैं। 'राग-कल्पद्रुम' 'राग-रत्नाकर' तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में संकलि‍त पदों से कुम्भनदास के लगभग 500 पदों की जानकारी मि‍लती है। कृष्णलीला से सम्बद्ध प्रसंगों में कुम्भनदास के पद नित्यसेवा, प्रभुरूप वर्णन आदि विषयों से सम्बद्ध हैं।
अग्रणी कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास वात्सल्य रस-सम्राट माने जाते हैं। शृंगार और शान्त रस की भी उन्होंने मर्मस्पर्शी रचनाएँ की हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल उनका काल सन् 1483-1563 के आसपास मानते हैं। अभि‍लेखों में कई सूरदास के उल्‍लेख के कारण उनके परि‍चय में जन्‍म, जन्‍म-स्‍थान, जाति‍ और जीवन-वृत्त सम्‍बन्‍धी कई असहमति‍याँ हैं। कुछ लोग उनका जन्म-स्‍थान मथुरा-आगरा के बीच रुनकता गाँव मानते हैं, जबकि‍ कुछेक की राय में उनका जन्‍म सीही गाँव में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ, बाद में वे आगरा-मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे। 'आईना-ए-अकबरी' और 'मुंशियात अब्बुलफजल' में बनारस के एक सन्‍त सूरदास का उल्लेख है। जनुश्रुति के अनुसार सूरदास का यशोगान सुनकर शहंशाह अकबर (सन् 1542-1605) उनसे मिलने को प्रवृत्त हुए; सुवि‍ख्‍यात संगीतवि‍द् तानसेन के माध्यम से मथुरा में दोनों की भेंट सम्‍भव भी हुई। सूरदास के भक्तिपूर्ण पद-गान सुनकर अकबर बहुत प्रसन्न हुए; उन्होंने सूरदास से अपने यशोगान का नि‍वेदन भी कि‍या, कि‍न्‍तु सूरदास ने एक पद गाकर उन्‍हें सूचित कर दिया कि कृष्ण के अलावा वे अन्‍य कि‍सी का यशोगान नहीं करते। सूरदास के काव्यानुशीलन से स्‍पष्‍ट होता है कि‍ वे राधा-कृष्ण के न केवल परम भक्‍त थे, बल्‍कि‍ उन्‍हीं के रंग में ढले हुए थे। उनमें कृष्ण जैसी गम्भीरता एवं विदग्धता तथा राधा जैसा वाक्चातुर्य एवं आत्मोत्सर्ग भरा हुआ था। वे अनुभवी, विवेकवान एवं चिन्तनशील भक्‍त थे। उनका हृदय सरल, संवेदनशील, स्नेह-कातर था। 'भक्तमाल' एवं 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' से मि‍ली सूचना के अनुसार वे मेधा-चक्षु थे, साधु की तरह रहते थे। गऊघाट पर वल्लभाचार्य से भेंट होने तक वे कृष्ण की आनन्दमय ब्रजलीला से परिचित नहीं थे, दास्य-भाव से पतितपावन हरि-भक्ति में अनुरक्त थे, उसी भाव की पद-रचना कर गाते थे। वल्लभाचार्य से पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने और लीलागान का उपदेश सुनने के बाद वे कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। वल्लभाचार्य उनकी आशु-कवि प्रतिभा और मधुर पद-गायन से सम्‍मोहि‍त हो गए; उन्होंने उन्‍हें भागवत की सम्‍पूर्ण अनुक्रमणिका सुनाई; सूरदास इस ज्ञानयुक्त प्रेम-भक्ति का रहस्य हृदयंगम कर पदों में गाकर सुनाने लगे। सूरदास के रचे-गाए कृष्ण-लीलापरक हजारों पद पुष्टिमार्ग के शास्त्र के रूप में सम्‍मानि‍त हैं। कहा जाता है कि पुष्टिमार्ग का जैसा विषद् परिचय सूरसागर से मि‍लता है, वैसा अन्य किसी एक साधन से सम्‍भव नहीं है। उनकी सर्वसम्मत प्रामाणिक रचना 'सूरसागर' में प्रस्‍तुत कृष्ण-लीलाओं का वर्णन सदि‍यों से सुधी-जनों की चि‍त्त-वृत्ति‍ पर छाया हुआ है। कि‍सी भी महाकाव्‍य की रचना कि‍ए बि‍ना भी वे जन-चि‍त्त में महाकवि‍ वि‍शेषण से वि‍राजमान हैं, यही उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है। पुष्टिमार्ग में उनके कथन का स्‍वागत सिद्धान्त की तरह होता था। उन्‍हें अष्टछाप का जहाज, पुष्टिमार्ग का जहाज, खंजन नयन, भावाधिपति, वात्सल्य रस सम्राट आदि‍ जन-वि‍शेषणों से भी जाना जाता है।
कृष्णदास का जन्म गुजरात के एक कुनबी परिवार में हुआ था। सन् 1509 में वे पुष्टिमार्ग में दीक्षित हुए। बाल्यकाल से ही वे असाधारण धार्मिक प्रवृत्ति के थे। बारह-तेरह वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता की एक चोरी पकड़वा दी थी; जि‍स कारण उन्हें घर से निकाल दिया गया था। वे घूमते-भटकते ब्रज आ गए। वहीं उनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई। उनकी बुद्धिमत्ता, व्यवहार-कुशलता और संघटन से प्रसन्‍न होकर वल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मन्दिर का अधिकारी पद सौंपा। भली-भाँति इस दायित्व का निर्वाह करते हुए उन्‍हें मन्दिर से गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के बंगाली ब्राह्मणों को बाहर निकालने में सफलता मि‍ली। अपने सम्‍प्रदाय मेंवे सिद्धान्‍तों के श्रेष्‍ठ ज्ञाता माने जाते थे। जन्मना शूद्र होने के बावजूद वल्लभाचार्य ने उन्‍हें श्रीनाथ मन्दिर का प्रधान बनाया। अन्‍य कृष्‍णभक्‍त कवि‍यों की तरह उन्होंने भी राधाकृष्ण प्रेमवि‍षयक शृंगारि‍क पद गाए। जुगलमान चरित, भ्रमरगीत, प्रेमतत्त्व निरूपण उनकी प्रमुख कृति‍याँ हैं। 'राग-कल्पद्रुम', 'राग-रत्नाकर' और सम्प्रदाय के कीर्तन संग्रहों में संकलि‍त इनके पदों के विषय लगभग वही है जो कुम्भनदास के हैं।
परमानन्ददास का जन्म कन्नौज (उत्तर प्रदेश) के एक निर्धन कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ। बाल्यावस्था से ही वे विरक्त होकर भगवत भजन में जीवन बिताने लगे थे। उन्होंने अपने पदों में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है। परमानन्दसागर में उनके 835 पद हैं। इसके अलावा उनकी दो और कृतियाँ 'ध्रुव चरित्र' और 'दानलीला' हैं। महाकवि सूरदास के बाद अष्टछाप में इनका नाम श्रद्धा से लि‍या जाता है।
गोविन्दस्वामी का जन्म अँतरी गाँव (भरतपुर, राजस्थान) के सनाढ्य ब्राह्मण परि‍वार में हुआ। उनका रचनाकाल सन् 1543 से 1568 के आसपास माना जाता है। वे कवि के साथ-साथ अच्‍छे गायक भी थे। जनश्रुति‍ है कि‍ तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे। ये गोवर्धन पर्वत पर रहते थे। सन् 1585 में ये गोस्वामी विट्ठलनाथ से पुष्टि‍मार्ग की विधिवत दीक्षा लेकर अष्टछाप में सम्मिलित हुए। इनके पदों में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन है।
छीतस्वामी का जन्म मथुरा के एक सम्‍पन्‍न चतुर्वेदी ब्राह्मण परिवार में हुआ। पारि‍वारि‍क पेशा यजमानी था। प्रारम्‍भ में ये बड़े द्दण्ड थे। जनश्रुति‍ में इनके बीरबल के पुरोहित होने की बात भी आती है। इनके पदों में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन है। वि‍भि‍न्‍न स्रोतों से उपलब्‍ध इनके सभी 64 पदों की मधुर सांगीति‍कता, ताल और पदलालि‍त्‍य अत्‍यन्‍त सम्‍मोहक है।
सोलहवीं शताब्‍दी के अन्‍तिम चरण के कवि नन्‍ददास को जड़िया कवि के नाम से भी जाना जाता है। सूरदास के बाद सर्वाधि‍क प्रसिद्धि‍ इन्‍हीं की हुई। कुछ चर्चा में इन्‍हें तुलसीदास का भाई भी माना जाता है, जि‍सकी प्रमाणिकता संन्‍दि‍ग्‍ध है। किंवदन्‍ती है कि‍ द्वारिका जाते समय ये सि‍न्‍धुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्ति‍ के कारण उसके घर का चक्कर लगाने लगे थे। घरवाले तंग आकर गोकुल चले गए, तो ये वहाँ भी पहुँच गए। वहीं इनकी भेंट गोस्‍वामी विट्ठलनाथ से हुई, और उनके उपदेश से उस स्‍त्री से इनकी आसक्‍ति‍ समाप्‍त हुई और ये भगवत्‍भजन में तल्‍लीन हुए। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं -- भागवत दशमस्कन्‍ध, रुक्मिणीमंगल, सिद्धान्‍त पंचाध्यायी, रूपमंजरी, मानमंजरी, विरहमंजरी, नामचिन्‍तामणिमाला, अनेकार्थनाममाला, दानलीला, मानलीला, अनेकार्थमंजरी, ज्ञानमंजरी, श्यामसगाई, भ्रमरगीत, सुदामाचरित्र, हितोपदेश, नासिकेतपुराण।
कुम्भनदास के पुत्र, गोंडवाना के गढ़ा गाँव के निवासी चतुर्भुजदास ने अपने समय के दम्भ, पाखण्ड और रूढ़ि‍यों का दृढ़ता से खण्डन किया। उनकी ब्रजभाषा पर बैसवाड़ी और बुन्देली का गहन प्रभाव है। द्वादशयश, भक्तिप्रताप, हितजू को मंगल उनकी प्रमुख कृति‍याँ हैं।

Tuesday, April 14, 2020

नायिका के अनुभाव



नायिका के अनुभाव



मनोगत भाव की वाह्य क्रि‍याओं एवं गुण-वैशि‍ष्‍ट्य (गति‍हीनता, संज्ञाशून्‍यता, जड़ता, स्वेद, रोमांच आदि‍) के प्रभाव, प्रति‍क्रि‍या, चेष्‍टादि‍ को अनुभाव कहते हैं। इन चेष्‍टाओं से चित्त के भाव प्रकाशि‍त होते हैं। काव्य-रस के चार प्रमुख तत्त्‍वों में से यह एक है। 'भाव' में लगे 'अनु' उपसर्ग से यह शव्‍द बना है, क्‍योंकि‍ इसी के अनुसरण से कर्ता के चि‍त्त में भावों का वि‍स्‍तार होता है; उनके हावों, चेष्‍टाओं, क्रि‍याओं में वि‍वि‍धता आती है, रसोद्भव का मार्ग प्रशस्‍त होता है। कि‍न्‍तु अनुभाव अथवा नायिका के अनुभाव से सम्‍बन्‍धि‍त चर्चा से पूर्व इसकी उपादेयता की चर्चा आवश्‍यक है। इसलि‍ए सर्वप्रथम रस-नि‍ष्‍पत्ति‍ की सामान्‍य चर्चा करनी होगी।
भरतमुनि के रस-सूत्र 'वि‍भावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:' से ज्ञात होता है कि‍ विभाव, अनुभाव और संचारी (व्यभिचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। ऐसा वस्‍तुत: सहृदय मनुष्‍य के चि‍त्त में बसे स्‍थायी-भाव के कारण होता है। वृत्ति‍-संलि‍प्‍ति‍ और परि‍स्‍थि‍ति के अनुसार मनुष्‍य के हृदय में जागृत वि‍कार प्रेम-अनुराग, हर्ष-वि‍षाद, शोक-सन्‍ताप आदि‍ को भाव कहा जाता है। उल्‍लेखनीय है कि‍ चि‍त्त मनुष्‍य के सारे वि‍कारों (भावों) का उद्गम-स्‍थल है; यहाँ बसे स्‍थायी भावों की संख्‍या मूलत: नौ मानी गई हैं -- रति‍, शोक, क्रोध, उत्‍साह, हास्‍य, भय, जुगुप्‍सा, वि‍स्‍मय, नि‍र्वेद। ये स्‍थायी-भाव ही वि‍भि‍न्‍न चेष्‍टाओं से परि‍पुष्‍ट होकर क्रमश: शृंगार, करुण, रौद्र, वीर, हास्‍य, भयानक, वीभत्‍स, अद्भुत, शान्‍त रस में परि‍वर्ति‍त हो जाते हैं। कि‍न्‍तु चि‍त्त-वृत्ति‍यों के अनुसार आचार्यों ने इसके चैंतीस रूप गि‍नाए हैं -- नि‍र्वेद (वैराग्‍य), ग्‍लानि‍, शंका, असूया (ईर्ष्‍या), मद, श्रम, आलस्‍य, दैन्‍य, चि‍न्‍ता, मोह, स्‍मृति‍, धृति (धैर्य)‍, व्रीड़ा (लज्‍जा, नम्रता), चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, वि‍षाद, औत्‍सुक्‍य, नि‍द्रा, अपस्‍मार (मूर्छा), सुप्‍त, वि‍बोध (चैतन्‍य), अमर्ष (असहि‍ष्‍णुता), अवहित्‍थ (भावगोपन), उग्रता, मति (इच्‍छा)‍, उपालम्‍भ, व्‍याधि‍, उन्‍माद, मरण, त्रास, वि‍तर्क आदि‍। चि‍त्त की ये समस्‍त वृत्ति‍याँ भाव हैं। भाव के तीन सोपान होते हैं -- वि‍भाव, अनुभाव, संचारी भाव ('संचारी' को कुछ लोग 'व्‍यभि‍चारी' भी कहते हैं, क्‍योंकि‍ ये स्‍थायी न रहकर सभी रसों में संचरण करते रहते हैं)। इन भावों के उदि‍त होने पर कर्ता (आश्रय या आलम्‍बन) द्वारा की गई चेष्‍टाएँ हाव कहलाती हैं।
मनुष्‍य के हृदय में भावोदय या भावोद्दीपन सामान्‍यतया कि‍सी प्रि‍य पात्र, परि‍चि‍त, स्‍मृति ‍में बस गए दृश्‍य के अनुस्‍मरण, चि‍त्त को उद्बुद्ध कर देनेवाले दृश्‍य, प्रसंगादि से सामना होने पर होता है। चि‍त्त में बसे इस स्थायी भाव को उदबुद्ध करनेवाले कारणों को विभाव कहते है। अर्थात् मन में भाव उत्‍पन्न करनेवाले व्यक्ति‍, वस्‍तु, प्रसंग, स्‍थि‍ति वि‍भाव कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं -- जिस पात्र, भाव या वस्तु के कारण भाव उदि‍त होते हैं, उन्‍हें आलम्‍बन और हृदय में स्थायी भाव जाग्रत करने वाले प्रसंग, दृश्‍यादि‍ को उद्दीपन कहते हैं। आलम्‍बन के दो स्रोत होते हैं -- जि‍स पात्र में भाव जागृत हो, उसे आलम्‍बन-आश्रय और जि‍स वृत्ति‍ में प्रवृत्त होने के लि‍ए भाव जागृत हो, उसे आलम्‍बन-विषय कहते हैं। उद्दीपन भी दो कारण से होते हैं -- आलम्‍बन (आश्रय) की उक्तियों एवं चेष्ठाओं से हुए उद्दीपन को आलम्‍बन-गत उद्दीपन और वातावरण आदि‍ के कारण उत्‍पन्‍न उद्दीपन को बर्हिगत उद्दीपन कहते हैं।
आलम्‍बन-आश्रय की जि‍न चेष्‍टाओं एवं आलम्‍बन-वि‍षय के प्रसार की जि‍न क्रि‍याओं से रति आदि भावों की उत्‍पत्ति‍ होती है, उन्‍हें अनुभाव कहते हैं। जैसे नायि‍का के कटाक्ष, संकोच आदि‍ चेष्टाओं से नायक के हृदय में रति‍ भाव की उत्‍पत्ति‍ होती है। कर्ता के यत्‍न की दृष्‍टि‍ से अनुभाव के दो प्रकार होते हैं -- यत्‍नज और अयत्‍नज -- आलम्‍बन (आश्रय) द्वारा यत्‍नपूर्वक की गई चेष्‍टा यत्‍नज अनुभाव है, जैसे नजरें फेरना, कटाक्ष करना आदि‍; कि‍न्‍तु बि‍ना कि‍सी यत्‍न के, अनायास कोई चेष्‍टा प्रकट हो जाए, तो उसे अयत्‍नज अनुभाव कहते हैं, जैसे कि‍सी भयकारी दृश्‍य के सामने आ जाने पर स्‍तब्‍ध हो जाना। व्‍यवहार की दृष्‍टि‍ से ये चार कोटि‍ के होते हैं -- कायिक, वाचिक, आहार्य, सात्विक। कोई-कोई मानसिक अनुभाव का भी उल्‍लेख करते हैं। अंगराई, कटाक्ष, मुस्‍कान, संकोच, भृकुटि‍-भंग आदि तन की कृत्रि‍म चेष्‍टाओं को कायि‍क अनुभाव; लुभावने और संकेतार्थक वाग्व्यापारों को वाचिक अनुभाव; मन में उठे भावों के अनुकूल भि‍न्‍न-भि‍न्‍न कृत्रि‍म वेश-रचना को आहार्य अनुभाव; अन्‍त:करण के वि‍शेष धर्म 'सत्त्‍व' से उत्‍पन्‍न हृदयगत भाव को प्रकट करनेवाले अंग-वि‍कारों (स्‍वेद, रोमांच, स्‍वरभंग, अश्रु, कम्‍प आदि‍) को सात्त्‍वि‍क अनुभाव; अन्‍त:करण की भावनाओं के अनुकूल मन में उठे हर्ष-वि‍षाद आदि‍ के उद्वेलनों को मानसि‍क अनुभाव कहते हैं। कुछ आचार्यों ने नायि‍का के अलंकारों और हावों की गणना भी अनुभाव के अन्‍तर्गत की है। चूँकि‍ आलम्‍बन-आश्रय की चेष्‍टाएँ अनुभाव की कोटि‍ में आती हैं, इसलि‍ए इन्‍हें उद्दीपक अनुभाव मानने में कुछ अनुचि‍त भी नहीं है।

काव्‍य में उपादेय नायिकाओं के कुछ प्रमुख अनुभाव हैं -- उद्दीपन, भाव, हाव, शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य, धैर्य, विभ्रम, मद, मौग्ध्य, लसित, चकित, केलि, लीला, विलास, विच्छति, बिब्बोक, संयोग, वियोग, साहचर्य, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव, अभिसार, आलिंगन, रति आदि‍। अवसर के अनुकूल नायिकाओं के इन्‍हीं अनुभावों के प्रभाव से नायक के हृदय का प्रेम उद्वेगमय होता है, घनीभूत होता है। शृंगार-काव्‍य के तत्त्‍व पुष्‍ट होते हैं। प्रमाता के हृदय में काव्‍य-रस की नि‍ष्‍पत्ति‍ होती है।

उल्‍लेख हो चुका है कि चि‍त्त में उत्‍पन्न होनेवाले वि‍कार ‍को भाव कहते हैं और भाव उदि‍त होने पर नायि‍का द्वारा की गई चेष्‍टा को हाव। नायि‍काएँ अपने हाव-भाव की इन वि‍भि‍न्‍न चेष्‍टाओं से नायक की वि‍ह्वलता को उत्तेजि‍त करती हैं। काम-भाव जगा-भड़काकर प्रेमी को उत्तेजि‍त करने की वृत्ति‍ को उद्दीपन कहते हैं। इससे नायक की व्‍याकुलता बेशक बढ़ती है, कुछ देर के लि‍ए वह छटपटाता है, कि‍न्‍तु आसन्‍न कामावेग में आनन्‍ददायी वृद्धि‍ होती है; काव्‍य में रस का पोषण-वर्द्धन तो होता ही है। संलि‍प्‍त क्रि‍या में, अर्थात्, प्रेम-व्‍यापार में सन्‍नद्ध कुशल, दक्ष, प्रत्युत्पन्नमतिसम्‍पन्‍न, स्पष्टवादी नायि‍का प्रगल्भा कहलाती है। ऐसी नायि‍का के इन गुणों को प्रगल्‍भता कहते हैं। इन्‍हें अपनी दक्षता, सौन्दर्य एवं प्रेमासक्ति पर पूर्ण विश्वास होता है। ये अपनी भावनाओं एवं क्रीड़ासक्ति‍ को अभि‍व्‍यक्त करने में मुखर, नि:शंक, कुशल और दक्ष होती हैं। प्रेमावेग के समय ये अपने धैर्य, माधुर्य, दीप्ति, कान्ति और शोभा को प्रकट करने में दक्ष होती हैं। नायि‍का के सौन्‍दर्य एवं मनोहर छवि को शोभा ‍। काम-भाव की चमक का प्रकाशि‍त होना दीप्ति कहलाता है, इसे प्रकारान्‍तर से कान्‍ति‍ भी कहते हैं। आवेग के बावजूद ये ऐसे क्षणों में धैर्य से काम लेती हैं, वि‍कारों के बावजूद चि‍त्त की वि‍कृति प्रकट नहीं होने देतीं, चि‍त्त से दृढ़ रहती हैं। लसित (क्रीड़ाशील) रहती हैं; मौग्ध्य (मुग्‍धता), मद (उन्‍माद), माधुर्य (लावण्‍यमय व्‍यवहार, सहज सौन्‍दर्य का भाव), औदार्य (कामवेग की उदारता या महत्ता) में रहती हैं; कि‍न्‍तु चकित (वि‍स्‍मि‍त, भौंचक, आश्‍चर्यि‍त) होना, विभ्रम (इधर-उधर भ्रमण करना, मँडराना) में पड़ना नहीं छोड़तीं। सदैव केलि (कामक्रीड़ा, रति‍, हँसी-मजाक), लीला (वि‍लास, वि‍हार, शृंगार-चेष्‍टा, प्रेमी का अनुकरण), विलास (आनन्द, प्रमोद, सुखोपभोग) की सघनता को सम्‍पुष्‍अ बनाने की चेष्‍टा करती हैं। विच्छि‍ति (थोड़े-से शृंगार में भी पुरुष को सम्‍मोहि‍त करने की कला) से भरी रहती हैं। मौका पड़ने पर बिब्बोक (सगर्व उपेक्षा, रूप-राशि ‍या यौवनादि ‍के गर्व में प्रि‍य की उपेक्षा) का उपयोग कर रति‍-भाव को और सघन और तृषि‍त बनाती हैं। प्रेमी-प्रेमि‍का के मि‍लन की स्‍थि‍ति‍ को संयोग; प्रेमी से पार्थक्‍य के कारण चि‍त्त की आकुल दशा या वि‍रह को वियोग; साथ-संगति‍में रहने को साहचर्य; लि‍पटने, गले लगने, अंक में भर लेने को आलिंगन; प्रेम, अनुराग, प्रीति‍, आसक्‍ति‍, सम्‍भोग, मैथुन, सौन्‍दर्य, शोभा आदि‍ भाव प्रकट करने को रति‍; प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए कि‍ए गय अभि‍सरण को अभिसार कहते हैं।
इस तरह विभाव, अनुभाव की इन सभी चेष्‍टाओं में गति‍शील रहकर, स्‍थायी-भाव को पुष्‍ट करते हुए वि‍लीन हो जाने वाला भाव संचारी भाव कहलाता है। इसके उदि‍त होने से कई नि‍यमों का उल्‍लंघन भी होता है। क्‍योंकि‍ भावोद्रेक की धारा तीव्र वेग के नदी की तरह बहती है, वह कि‍सी अनुशासन से नहीं अपने उद्वेग से नि‍र्देशि‍त होती है। सम्‍भवत: इसी कारण इसे व्यभि‍चारी भाव भी कहते हैं। 

Sunday, April 12, 2020

नायि‍का-भेद





नायिका-भेद

शृंगार रस में नायिका का विशिष्ट महत्त्व होता है। इसका कोशीय अर्थ अभिनेत्री, प्रेमिका, युवती, शृंगारी स्त्री, आगे ले जाने वाली, राह दिखाने वाली, नायक की पत्नी तथा वैसी स्त्री होता है, जिसका वर्णन किसी काव्य में हो। नाटक उपन्यास आदि साहित्यि विधाओं की प्रमुख पात्रा को; रूप-रस-यौवन से सम्पन्न स्त्री को नायिका कहा जाता है। सहित्य में नायिका के कई भेद वर्णित हैं। काव्य-रचना और नायक-नायिका सम्बन्धी समस्त अध्ययनों में नायक की अपेक्षा नायिका का महत्त्व प्रारम्भ से ही अधिक है। कारण सम्भवत: भावना के क्षेत्र में पुरुष की अपेक्षा नारी का अधिक संवेदनशील होना हो सकता है। काम-शास्त्र के सन्दर्भ में इसका सम्बन्ध आधुनिक मनोविज्ञान से भी है कि काम-भावना में नारी की स्थितियाँ और प्रतिक्रियाएँ अधिक वैविध्यपूर्ण होती हैं। यही कारण है कि इस विषय के अन्तर्गत नायिका-भेद का विस्तार अत्यधिक है।

इस क्षेत्र में कवियों, आचार्यों ने अपनी विवेचनात्मक शक्ति और काव्यात्मक प्रतिभा का विराट परिचय दिया है। हिन्दी साहित्य के रीति काल के अन्तर्गत नायिका-वर्णन का पूरा काव्य स्वतन्त्र रूप से विकसित हुआ। अधिकांश काव्य-ग्रन्थों का उद्देश्य नायिका-भेद प्रस्तुत करना हो गया। विस्तार तथा महत्त्व की दृष्टि से साहित्य में नायिका-भेद प्रधान है। हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में नायक-नायिका-भेद सम्बन्धी सम्पूर्ण काव्य नायिका-भेद के नाम से ही जाना जाता है।

जन्मजात रूप, गुण, वय, प्रतिभा, कौशल, कुल-वंश-पेशा, आचरण आदि के आधार पर इन सभी नायिका-भेदों के उपभेद भी आचार्यों ने गिनाए हैं। सभी उपभेदों को मिलाकर लगभग एक हजार बावन तरह की नायिकाएँ बताई गई हैं। नैसर्गि एवं जैवि विशेषताओं के अनुसार नायिका के चार भेद हैं पद्मिनी, चित्रिणी, शंखिनी, हस्तिनी। सदैव पद्म-सौरभ से सुवासि‍त श्रेष्ठ नायिका पद्मिनी; कला-निपुण, शृंगार में अधि‍क आसक्‍ति‍ रखनेवाली चित्रिणी; कामकला निपुण नायि‍का शंखिनी और हथिनी जैसे स्वभाव की कामातुरा स्त्री, वारांगना हस्तिनी कहलाती है। कि‍न्‍तु इस वर्गीकरण में कोई वैवि‍ध्‍य नहीं है, और यह चर्चि‍त भी नहीं है। सामाजिक मूल्यों पर आधारित नायक के साथ सम्बन्ध के अनुसार सर्वचर्चि नायिका-विवेचन में तीन कोटियों स्वकीया, परकीया, सामान्या -- का उल्लेख होता है; यद्यपि संस्कृत साहित्य में इसके कई अन्य रूप बताए गए हैं।

परिस्थिति के अनुसार नायिकाओं की तीन कोटि है ‍– गर्विता, अन्यसम्भोगदु:खिता, मानवती। अपने रूप-गुण और नायक का अपने प्रतिसम्मोहन से गौरवान्वि नायिका गर्विता; अन्य स्त्री के तन पर अपने प्रियतम के प्रीति-चिह्न से व्यथित नायिका अन्यसम्भोगदु:खिता और अन्य स्त्री पर आकर्षित अपने प्रियतम के अभि‍ज्ञान से ईर्ष्या और मान करने वाली नायिका मानवती कहलाती है।

निजी दशा के अनुसार दस प्रकार की नायिकाओं का उल्लेख होता है स्वाधीनपतिका, वासकसज्‍जा, उत्कण्ठिता, अभिसारिका, विप्रलब्धा, खण्डिता, कलहान्तरिता, प्रवत्स्यत्प्रेयसी, प्रोषितपतिका (प्रोषितभर्तृका) , आगतपतिका (आगतभर्तृका)। पति को अपने वश में रखनेवाली नायिका को स्वाधीनपतिका; प्रि-मिलन की सुनिश्चितिजानकर वासक (सुगन्धि एवं वस्त्रादि)‍ से सुसज्‍जि‍त होकर नायक की प्रतीक्षा करनेवाली को वासकसज्‍जा; प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए बेचैन, संकेति‍त स्‍थल पर प्रि‍य के न मि‍लने से चि‍न्‍ति‍त रहनेवाली को उत्कण्ठिता; प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए नि‍र्दि‍ष्ट स्‍थान पर जानेवाली परकीया नायि‍का को अभिसारिका कहते हैं। इस नायि‍का में अपनी यात्रा को गोपनीय रखने के भाव प्रमुख होते हैं। इसके कई भेद होते हैं कृष्‍णाभि‍सारि‍का, शुक्‍लाभि‍सारि‍का, दि‍वाभि‍सारि‍का, पावसाभि‍सारि‍का आदि‍। कृष्‍ण पक्ष की अन्‍धेरी रात में प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए जानेवाली को कृष्‍णाभि‍सारि‍का; शुक्‍ल पक्ष की चाँदनी रात में प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए जानेवाली शुक्‍लाभि‍सारि‍का; दि‍न में प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए जानेवाली को दि‍वाभि‍सारि‍का; वर्षा ऋतु की अन्‍धेरी रात में प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए जानेवाली को पावसाभि‍सारि‍का कहते हैं। संकेति‍त स्‍थान पर प्रि‍य के न मि‍लने से दुखी नायि‍का विप्रलब्धा; अपने नायक में कि‍सी अन्‍य स्‍त्री के साथ रमण करने के चि‍ह्न देखकर कुपि‍त हुई नायि‍का खण्डिता; कलह के कारण पति‍ या नायक का अपमान कर लेने के बाद अपने आचरण पर पछतानेवाली नायि‍का कलहान्तरिता कहलाती है। ऐसी नायि‍का के वर्णन में मनोव्‍यथा, पीड़ा, वि‍ह्वलता, पश्‍चाताप आदि‍ का वर्णन होता है। जिस नायि‍का का नायक परदेश जानेवाला हो, उसे प्रवत्स्यत्प्रेयसी; जि‍सका पति‍ या नायक परदेश (परदेश गए हुए को प्रोषित कहा जाता है) चला गया हो, उसे प्रोषितपतिका (प्रोषितभर्तृका); और जि‍सका पति‍ परदेश से लौट आया हो, उसे आगतपतिका, (आगतभर्तृका) कहते हैं।

प्रकृति-भेद के अनुसार -- उत्तमा, मध्यमा, अधमा -- तीन प्रकार की नायिकाओं का उल्लेख है। अग्निपुराण में -- स्वकीया, परकीया, सामान्या, पुनर्भू चार प्रकार की नायिकाओं का वर्णन है। आगे के कुछ आचार्यों ने पुनर्भू को मान्यता नहीं दी। आचार्य भरत ने यह वर्गीकरण -- कन्यका, कुलजा तथा वेश्या में; वाग्भट तथा केशव मिश्र ने -- अनूढा, स्वकीया, परकीया, पणांगना में कि‍या; नाट्यदर्पण में यह वर्गीकरण -- कुलजा, दिव्या, क्षत्रिया तथा पण्यकामिनी में कि‍या गया। उल्लेख सुसंगत होगा कि स्वकीया और पतिव्रता नायिका की मूल अर्थ-ध्वनि एक होने के बावजूद पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार पतिव्रता की ध्वनि थोड़ी अलग है। पर कुछ आचार्यों ने इनमें एक वैशिष्ट्य अलग से जोड़ा कि पतिव्रता नायिका अपने पति पर क्रोध नहीं करती। सम्भवत: यही कारण हो कि समाज में सदैव से रही पतिव्रता नायिका की धारणा का समावेश नायिका-भेद में नहीं किया गया।

अपने पति मात्र से प्रेम करनेवाली विवाहिता स्त्री स्वकीया कहलाती है; जबकि गुप्त रूप से पर पुरुष से प्रेम करनेवाली स्त्री परकीया। स्‍पष्‍टत: कुलजा (कुलवधू) और दिव्या (लोकोत्तर गुणों से युक्त) स्वकीया नायि‍का होंगी। कन्यका (कुँआरी कन्या, अविवाहि स्त्री), अनूढ़ा (अवि‍वाहि‍त युवती, स्‍त्री) परकीया होंगी। सामान्‍या, वेश्‍या, पणांगना, पण्यकामिनी की कोटि‍ एक ही होगी। क्षत्रिया (क्षत्रिय कुल की स्त्री) का समावेश स्वकीया, परकीया, सामान्या, पुनर्भू कि‍सी में हो सकता है।

उम्र के अनुसार स्वकीया के तीन भेद कि गए हैं -- मुग्धा, मध्या तथा प्रगल्भा (प्रौढ़ा)। कुछ आचार्यों ने परकीया के वर्गीकरण में भी इसका उपयोग किया।

शरीर में यौवन के नवसंचार से युक्‍त सरल स्वभाव वाली लज्जाशील, अपनी रति-भावना से परिचित, अपने ही गुण पर मोहित, सहजता से नायक के प्रति अनुरक्त होनेवाली, भोली और सुन्दर स्‍त्री मुग्धा कहलाती है। परकीया की स्‍थि‍ति‍ में अनूढ़ा के लिए भी इसका उपयोग होता है। यह वर्गीकरण उम्र के क्रम और नायिका की लज्जाशीलता के अनुपात पर किया जाता है। उल्लेखनीय है कि अवस्था विशेष में नारी में आकस्मिक परिवर्तन परिलक्षित होने लगते हैं; उस परिवर्तन का मनोरम वर्णन कई कवियों ने किया है। मुग्धा रूप में राधा का मनोहारी वर्णन विद्यापति और सूरदास के यहाँ दिखता है। प्रकृति-वर्णन करते हुए मुग्धा नायिका का भाव-आरोपण छायावादी कवियों ने विलक्षण ढंग से किया है। नायिका की यह अवस्था रीतिकालीन कवियों के यहाँ विशेष आकर्षण का वि‍षय है। मुग्ध शब्द का अर्थ होता है स्तब्ध, मूढ़, भ्रमित, विभ्रान्त तथा सुन्दर। मुग्धा नायिका में इन समस्त गुणों का समावेश माना गया है। अंकुरित यौवन एवं रूप की विशिष्टता के आधार पर मुग्धा के चार भेद बताए गए हैं अपने यौवनागम से अनभि‍ज्ञ नायि‍का को अज्ञातयौवना कहते हैं। यह स्‍थि‍त वय:सन्‍धि‍में आती है। ऐसी नायि‍का के शारीरि‍क वि‍कास का वर्णन कि‍या जाता है। अविदितयौवना, अविदितकामा भी इसी कोटि‍ में है। अपने तारुण्य के आगम का भरपूर ज्ञान रखनेवाली को ज्ञातयौवना कहते हैं। यह वय:सन्‍धि के बाद की स्‍थिति ‍होती है। इसमें नायि‍का के भावावेग का चि‍त्रण होता है। इसे विदितकामा या नवयौवना भी कहते हैं; अर्थात्, वह स्‍त्री, जि‍सकी जवानी चढ़ान पर हो, और उसे इस बात का ज्ञान भी हो। जि‍स नववि‍वाहि‍त स्‍त्री, युवती पर कामावेग का वसंचार हुआ हो, लज्‍जा और भय के कारण नायक के नि‍कट जाने में सकुचाती हो, उसे नवोढ़ा कहते हैं। इस नायि‍का को नवल-वधू या नवल अनंगा भी कहते हैं। अपने नायक पर गहन वि‍श्‍वास रखनेवाली, लज्‍जाशीलता और भयप्रीति ‍के कारण अपने नायक के नि‍कट जाने में सकुचानेवाली नववि‍वाहि‍ता भी इसी कोटि‍के अन्‍तर्गत आती है। इसे विश्रब्ध नवोढा कहते हैं। लज्जावती, लज्‍जाप्राया या सलज्‍जरति नायि‍का की गणना भी इसी कोटि‍ में होती है। ऐसी नायि‍का में लाज-संकोच का भाव बहुत रहता है। रति‍रत अवस्‍था में भी कि‍सी सीमा तक लजाती रहती है। नायक के नि‍कट रहने पर लज्‍जा होती है और अलग रहने पर मि‍लन की लालसा बलवती हो उठती है। विदित मनोभव (कामदेव), अर्थात्, प्रकट कामासक्‍ति‍वाली नायि‍का वि‍दि‍त मनोभवा कहलाएगी; नवोद्भूत कामासक्‍ति‍वाली स्‍त्री को नवमदना; उन्‍मत्त कामावेगवाली स्‍त्री को मदनमत्ता कहते हैं। वि‍नय और वि‍श्‍वास से परि‍पूर्ण नायि‍का सप्रश्रया कहलाती है। सुन्‍दर और कामि‍नी स्‍त्री ललिता कहलाती है; बाल्‍यावस्‍था पारकर तरुणाई की उम्र में प्रवि‍ष्‍ट नायि‍का वयःसन्धि और अपने यौवनोदय से मुग्ध नायि‍का उदितयौवना। इस सूची में कई और उपभेद शमि‍ल हैं -- अपने रूप-गुण के समग्र प्रभाव से जवान होती हुई नायि‍का को सकल तारुण्‍या कहते हैं। जि‍नके यौवन के चि‍ह्न प्रकट हो चुके वह आकृतयौवना या अंकुरितयौवना और नवधा-भक्‍ति‍ में भक्‍त की तरह नायक के गुण-वैशि‍ष्‍ट्य के श्रवण, कीर्तन, स्‍मरण, सहवास-सेवन, अर्चन, वन्‍दन, दास्‍य, सख्‍य और आत्‍मनि‍वेदन में प्रसन्‍न रहनेवाली प्रेमासक्‍त नायि‍का नवधा कहलाती है आभूषणों में अति‍रि‍क्‍त रुचि‍रखनेवाली को भूषणरुचि; रति‍क्रीड़ा की इच्‍छुक स्‍त्री को रतिवामा कहते हैं। कुछ आचार्यों ने मुग्‍धा का वर्गीकरण -- प्रथमावतीर्णयौवना, प्रथमावतीर्णमदनविकारा, रतौ वामा, मानमृदु, समधिकलज्जावती के रूप में कि‍या है। यौवन के प्रथम आगमन से अभि‍भूत नायि‍का को प्रथमावतीर्णयौवना; मदन-भाव के प्रथम आगमन से अभि‍भूत नायि‍का को प्रथमावतीर्णमदनविकारा; रति‍क्रि‍या में मनोहारिणी, भ्रूविलासि‍नी सुन्‍दरी, रमणी को रतौ; परि‍स्‍थि‍ति‍वश मृदुल क्रोध से मान करनेवाली स्‍त्री को मानमृदु; और अत्‍यधि‍क लजानेवाली स्‍त्री को समधिकलज्जावती कहेंगे। प्रि‍या या पत्‍नी को कान्ता और कामवेग का अनुभव करनेवाली कामनायुक्त सुन्दर स्‍त्री को कामिनी कहेंगे।

लज्‍जा और काम की मध्य स्थिति को प्रमुखता देनेवाली स्‍त्री को अधिकांश आचार्यों मध्या नाम दिया है 'समानलज्जामदनेत्यभिहिता' अर्थात् जि‍स नायिका में कामावेग और लज्जा समान रूप से होये अतिविश्रब्धनवोढा भी होती हैं। प्ररूढ़ यौवना, प्ररूढ़ स्मरा, विचित्रसुरता या सुरत-विचित्रा, ईशत्प्रगल्भवचना, मध्यम व्रीडिता, धीरा, धीराधीरा, अधीरा, अनंगवती, इच्छावती, उद्भट यौवना, प्रोषितपतिका अथवा प्रोषितभर्तृका की गणना इसी कोटि‍ में होती है। यौवन से भरी हुई वि‍कसि‍त वक्षवाली नायि‍का प्ररूढ़ यौवना; अपनी प्ररूढ़ावस्‍था को स्‍मरण कर मुग्‍ध और क्रि‍याशील स्‍त्री को प्ररूढ़ स्मरा; वि‍स्‍मि‍त, चकि, विलक्षण केलिक्रीड़ा करनेवाली को विचित्रसुरता या सुरत-विचित्रा; वर्चस्वपूर्वक प्रगल्भ वचन बोलने वाली अत्‍यधि‍क विश्वस्नायि‍का को ईशत्प्रगल्भवचना; प्रौढ़ता एवं व्रीड़ा (लाज, संकोच, विनम्रता) के बीच की स्थितिवाली को मध्यम व्रीडिता; व्‍यंग्य वचन से अपने क्रोध प्रकट करनेवाली को धीरा; रोदन और मुख-मुद्रा से क्रोध प्रकट करनेवाली को धीराधीरा; नायक में पर-स्त्री-संयोग के निशान पाकर अधीर, कुपित, उद्विग् और व्याकुल हो जानेवाली और उग्रता से क्रोध दि‍खानेवाली को अधीरा कहते है। अनंगवती, इच्छावती, उद्भट यौवना, प्रोषितपतिका भी इसी कोटि‍ में आती है। जि‍स नायि‍का पर उग्रता से अनंग (कामदेव) सवार हो, अर्थात्, कामावेग में हो, उसे अनंगवती कहते हैं। अनंगवती का अर्थ कामि‍नी स्‍त्री होता हैकेलि‍क्रीड़ा की कामना से भरी हुई नायि‍का इच्छावती; प्रचण्‍ड और असाधारण यौवन से परि‍पूर्ण नायि‍का उद्भट यौवना कहलाती है।

प्रगल्भ का अर्थ होता है कुशल, दक्ष, प्रतिभा-सम्पन्न, अर्थात जिसकी बुद्धि अवसर के अनुसार काम कर जाए, जो प्रत्युत्पन्नमति हो, साहसी हो, स्पष्ट बोलने में जिसे संकोच हो। वैसे इसका नकारात्मक अर्थ उद्दण्ड, उद्धत, निर्लज्ज, अभिमानी भी होता है; पर नायिका-भेद पर बात करते हुए इन अर्थ-ध्वनियों की उपेक्षा उपयुक्त होगी। इस अर्थ में अपनी दक्षता, सौन्दर्य एवं प्रेमासक्ति पर पूर्ण विश्वास करनेवाली, अपनी भावनाओं एवं क्रीड़ासक्ति की अभिव्यक्ति‍ में मुखर, चतुर, कुशल और नि:शंक नायिका प्रगल्भा कहलाएगी। प्रगल्भा के दो रूप होते हैं -- रतिप्रीतिमती तथा आनन्दसम्मोहिता। धीरा, धीराधीरा, अधीरा का उल्‍लेख प्रगल्‍भा के लि‍ए भी होता है। इसके अलावा स्मरान्धा, गाढ़तारुण्या, समस्तरकोविदा, भावोन्नता, स्वल्पव्रीड़ा, आक्रान्ता की चर्चा भी इसमें होती है। हर प्रकार की रतिकला में निपुण, अल्‍प-लज्जा किन्तु प्रचुर काम-वासना सम्‍पन्‍न तीस से पचास वर्ष तक की आयु की स्‍त्री प्रौढ़ा कहलाती है ऐसी स्‍त्री के लि प्रगल्भा शब् भी प्रयुक् होता है। इसे केलि‍कलाकलापकोवि‍दा भी कहते हैं; अर्थात् केलि‍ की समस्‍त कलाओं में प्रवीण। वि‍भि‍न्‍न आचार्यों द्वारा दी गई परि‍भाषाओं के अनुसार ऐसी नायि‍का स्वकीया ही होनी चाहि‍ए, कि‍न्तु वय और गुण के अनुसार कई परकीया भी ऐसी होती हैं। ऐसी नायि‍का के लि‍ए रति‍प्रीता, आनन्‍दसम्‍मोहि‍ता, समस्‍तरसकोवि‍दा, वि‍चि‍त्रवि‍भ्रमा, भावोन्‍नता, आक्रान्‍ता, लुब्‍धापति‍, लब्‍धापति‍ संज्ञाओं का भी उपयोग होता है।

ग्‍यारह से पन्‍द्रह वर्ष की आयु की कन्‍या किशोरी कहलाती है कुछ आचार्यों ने उम्र के आधार पर वर्गीकृत कर सात वर्ष तक की आयु की बालिका को देवी, सात से चौदह वर्ष तक की आयु की किशोरी को देवगन्धर्वी, चौदह से इक्कीस वर्ष तक की आयु की युवती को गन्धर्वी, इक्कीस से अट्ठाइस वर्ष तक की आयु की युवती को गन्धर्वमानुषी, अट्ठाइस से पैंतीस वर्ष तक की आयु की स्त्री को मानुषी कहा है। एक दूसरे आचार्य ने दस वर्ष तक की आयु की बालिका को गौरी, सवा बारह से साढ़े चौबीस वर्ष तक की आयु की युवती को लक्ष्मी और पैंतीस वर्ष तक की आयु की स्त्री को सरस्वती माना है। स्वकीया नायिका का विभाजन कुछ आचार्यों ने दुखिता के अन्तर्गत किया है -- मुधापति (नि‍रर्थक पति‍) दुखिता, बालपति दुखिता, वृद्धपति दुखिता, नपुंसकपति दुखिता। अनभिज्ञ नायक के समान इन नायिकाओं को भी रस का आलम्बन नहीं माना गया; क्योंकि यहाँ रति का अभाव है। स्पष्ट है कि स्वकीया नायिका सदैव विवाहिता ही होगी; इसलिए ऊढ़ा और अनूढ़ा को स्वकीया का भेद नहीं माना जा सकता, वह सदैव परकीया ही होगी।

सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर नायिका का दूसरा भेद परकीया है। परपुरुष से प्रेम सम्बन्ध स्थापित करनेवाली स्‍त्री परकीया नायिका कहलाती है। परकीया नायिकाओं को कवि‍यों ने विशेष गौरव दिया है, इसका कारण सम्‍भवत: यह हो कि परकीया प्रेम का क्षेत्र बहुत विस्तृत होता है और रति भाव की ऐसी तल्लीनता स्वकीया प्रेम में सम्‍भव नहीं होती है। उसमें प्रेम के विभिन्न रूपों और परिस्थितियों के वर्णन का अवकाश रहता है। दशा के अनुसार इसका वर्गीकरण -- मुदिता, विदग्धा, अनुशयना, गुप्ता, लक्षिता, कुलटा में कि‍या गया है। कि‍न्‍तु मूलत: इसे दो कोटि‍यों -- ऊढ़ा, अनूढ़ा में बाँटा जाना चाहि‍ए। शेष सभी कोटि‍याँ इन्‍हीं दोनों के उपभेद होंगी। भरत ने इस नायिका-भेद के लिए कन्यका नाम दिया है। केशव ने इसे कृष्ण के सम्बन्ध में परब्रह्म परमात्मा की प्रिया माना। हो हो कि परवर्ती काल के अधिकांश कवियों ने इसी धारणा के अधीन कृष्ण को नायक माना; किन्तु केशव द्वारा दी गई परकीया नायिका की परिभाषा अधिकांश आचार्यों को स्वीकार्य नहीं हुई। हिन्दी साहित्य का रीतिकाल परकीया प्रेम से भरा हुआ है, जि‍सके नायक प्राय: कृष्ण हैं। कृष्ण के प्रति‍ गोपियों का प्रेम, परकीया भाव का ही प्रेम है। विद्यापति की राधा परकीया की ही भाँति‍ भाव-विह्वल एवं उद्विग्न है, जयदेव के गीतगोविन्द की राधा स्व: परकीया रूप में अंकित है। सौन्दर्यानुभूतिकी सशक्त शैली के कारण यह परकीया प्रेम भक्ति-भावना भी उपस्थि कर देता है; चण्डीदास के भक्तिभाव में यही रूप दिखता है, इस प्रेम की पीड़ा की अनुभूतिविद्यापति की राधा में है। चण्डीदास की राधा में शरीर के स्थान पर हृदय की प्रधानता हो जाती है। सूरदास के यहाँ प्रस्तुत राधा का परकीया रूप अनुपम है। आचार्यों के यहाँ परकीया प्रेम करै परपुरुष सोंया परपुरुषरतया परगामित्वात्के रूप में परिभाषित है। किसी-किसी ने परपुरुष से प्रेम के उल्लेख के साथ-साथ अपने पति की अवहेलना की बात भी कही है; पर ऐसी स्थिति में तो अनूढ़ा को परकीया के अन्तर्गत नहीं रखा जाएगा, क्योंकि 'जाकी गति उपपति सदा, पति सों रतिगति नाहि' की स्थितिमें अथवा शृंगार-दर्पण के अनुसार 'निजपतिवंचन' की स्थितिमें अनूढ़ा की गिनती कैसे होगी? वह तो अविवाहि है, उसके तो पतिहैं ही नहीं। यहाँ तर्क किया जा सकता है किअनूढ़ा भी अपने माता-पिता या भाई-भौजाई देख-रेख में पालि होती है; किन्तु इनमें से किसी के साथ उसका नायिका-सम्मत प्रेम तो नहीं होता!

अनूढा का शाब्दि अर्थ होता है अविवाहिता। इसे कन्यका भी कह सकते हैं। 'अनव्याही केहु पुरुष सों अनुरागिनी जो होय' (अर्थात् कोई अनव्याही स्त्री जब किसी पुरुष की अनुरागिनी हो) कहकर 'रसराज' में मतिराम ने अविवाहितावस्था में किसी पुरुष से प्रेम करनेवाली कहा है। विवाहि नहीं होने बावजूद पिता की छत्रछाया में रहने के कारण अविवाहितावस्था में किसी पुरुष से प्रेम करनेवाली स्त्री को भानुदत्त ने परकीया नायिका ही माना। पहले पति की मृत्यु के बाद या पूर्व पति से मुक्त होकर सर्वथा, सर्वदा के लि दूसरे पुरुष के साथ तल्लीनता से जीवन बिताने की कामना रखनेवाली स्त्री पुनर्भू नायिका कहलाती है। प्ररूढ़ यौवना, प्ररूढ़ स्मरा, विचित्रसुरता या सुरत-विचित्रा, ईशत्प्रगल्भवचना, मध्यम व्रीडिता, धीरा, धीराधीरा, अधीरा नायि‍का की गणना इस कोटि‍ में भी होती है। इस सूची में और कोटि‍याँ भी हैं। प्रि‍य-मि‍लन के सुनि‍श्‍चि‍त स्‍थान के नष्‍ट हो जाने से दुखी अनुशयाना नायि‍का इसी कोटि‍ में हैं। इसमें नायि‍का के दुख के तीन कारण होते हैं एक में नायि‍का मि‍लन-स्‍थल को नष्‍ट होते देखकर दुखी होती है, दूसरे में सम्‍भावि‍त मि‍लन-स्‍थल के संकेत के लि‍ए चि‍न्‍तातुर रहती है, और तीसरे में मि‍लन-स्‍थल पर नहीं पहुँच पाने की वि‍वशता से दुखी रहती है। इनके अलावा ऊढ़ा, परोढ़ा, परपरिणीता, अन्यदीया, अन्या, कुलटा, कामुकी, पुंश्चली, वेश्‍या, गणिका, रूपाजीवा, गुप्ता, कामवती, कामकला कोविदा, कामासक्ता, वल्लभा, वचनवि‍दग्‍धा, क्रियाविदग्धा, विरहोत्कण्ठा, वियोगिनी या वि‍रहि‍णी, विविध भावा, सुवया, रतिकोविदा, मुदिता, मुदितावाग्विदग्धा, रमणी, लक्षिता की गणना इस कोटि‍ में होती है। अपने पति‍ से परांग्‍मुख होकर जो वि‍वाहि‍त स्‍त्री दूसरे पुरुष से प्रेम करे, उसे ऊढ़ा या परोढ़ा या परपरिणीता; जि‍स स्‍त्री की पहचान कि‍सी और पुरुष की प्रि‍या के रूप में हो, कि‍न्तु भोग-वि‍लास कि‍सी और से करे, उसे अन्यदीया; जो स्‍त्री कि‍सी भोग-वि‍लासी नायक के जीवन में इत्‍यादि की तरह रहे, उसे स्‍त्री अन्या कहा जाता है। अनेक पुरुष से प्रेम करनेवाली व्‍यभि‍चारि‍णी और कामातुरा स्‍त्री को कुलटा या कामुकी या पुंश्चली या वेश्‍या; धन-लोभ के कारण नायक से प्रेम करनेवाली स्‍त्री गणिका; रूप की बदौलत जीवि‍का चलानेवाली को रूपाजीवा; सुरति छि‍पाने में दक्ष रखेली को गुप्ता, काम-सुख की इच्‍छा से युक्‍त स्‍त्री को कामवती; कामावेग बढ़ाने, कामोद्दपन उग्र करने की कला में प्रवीण नायि‍का को कामकला कोविदा; काम-सुख की तीव्र आसक्‍ति‍ से भरी स्‍त्री को कामासक्ता कहते हैं। प्रि‍यतमा, प्रेयसी, प्‍यारी स्‍त्री को वल्लभा; वाक्‍पटुता से अपना अभि‍प्राय बताकर चतुराई से परपुरुष को अपने में अनुरक्‍त करनेवाली स्‍त्री को वचनवि‍दग्‍धा; क्रि‍याओं द्वारा अपना अभि‍प्राय बताकर परपुरुष को अनुरक्‍त करनेवाली स्‍त्री को क्रियाविदग्धा; कि‍‍सी कारण से नायक के न आने पर वि‍रह में उत्‍कण्‍ठित‍ और दुखी स्‍त्री को विरहोत्कण्ठा; प्रेमी से बि‍छुड़ी हुई स्‍त्री को वियोगिनी या वि‍रहि‍णी; वि‍‍भि‍न्‍न प्रकार के भाव प्रदर्शि‍त करनेवाली को विविध भावा; प्रौढ़ा स्‍त्री को सुवया; रति‍क्रीड़ा की समस्‍त कलाओं में नि‍पुण स्‍त्री को रतिकोविदा कहते हैं। परपुरुष-प्रेम सम्‍बन्धी आसक्ति और अभिलाषा की पूर्ति देखकर मुदि होनेवाली स्‍त्री मुदिता कहलाती है। ऐसी स्‍त्री को मनचाही स्थिति कि‍सी घात से प्राप्त होती है। वार्तालाप कला में नि‍पुण मुदि‍ता स्‍त्री को मुदितावाग्विदग्धा कहते हैं। सुन्‍दर स्‍त्री को रमणी हैं।

अर्थ-ध्वनि के अनुसार सामान्य जीवन व्यतीत करनेवाली सभी स्त्रियों को सामान्या माना जाना चाहिए; किन्तु आचार्यों ने इस शब्द का अर्थ ऐसी स्त्री से लिया जो स्त्री सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो। इस अर्थ में सामान्या का कोशीय अर्थ वारांगना या वेश्या होता है। भरत ने इसे वेश्या कहा, धनंजय और शारदातनय ने साधारण स्त्री; पद्माकर ने गणिका कहा। ऐसी नायिका केवल धन के लिए पर पुरुष से प्रेम करने का ढोंग करती है। इनमें प्रेम-भावना का समुचित रूप नहीं होने के कारण अधिकांश आचार्यों ने इस कोटि की स्त्री को नायिका मानने से इनकार कर दिया। पण का एक प्रकार का सिक्का होता है, किन्तु इसका अर्थ स्त्री, वेश्या, वेतन, मूल्य, प्रतिज्ञा, इकरार आदि भी होता है। इस तरह पण से बने विशेषण पण्य का अर्थ होगा क्रय-विक्रय के योग्य। इसलि पण्यपरिणीता को रखेली कहते हैं। अर्थात् प्रेम लुटाने के प्रतिदानस्वरूप परपुरुष से मूल्य की कामना करनेवाली स्त्री पण्यकामिनी कहलाएगी। पण्यकामिनी की दृष्टिमें प्रेम भी एक सौदा ही होता है। वेश्या या पणांगना भी ऐसा ही करती हैं, किन्तु पण्यकामिनी की पद्धति वेश्या से तनि भिन्न होती है। वेश्या अपनी देह एवं कला को जीवन-बसर का आधार मानती हैं; नाच, गान, नखरे, कसव, दैहि उन्माद आदि से ग्राहकों को रिझाकर धन का उपार्जन करती हैं, उनका ग्राहक कोई भी पुरुष हो सकता है; जबकि पण्यकामिनी के भोगी गिने-चुने पुरुष होते हैं। सामान्या नायि‍का में ऊढ़ा, अनूढ़ा, स्वयंवरा, स्वैरिणी, वेश्या, कुलटा, कामुकी, पुंश्चली, वेश्‍या, गणिका, रूपाजीवा की गणना होगी।

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