Saturday, April 4, 2020

नकेनवाद : प्रपद्यवाद : प्रयोगवाद



नकेनवाद : प्रपद्यवाद : प्रयोगवाद

नकेनवाद के सन्‍दर्भ में प्रयोगवाद पर चर्चा करते हुए 'आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ' शीर्षक अपनी पुस्तक में नामवर सिंह ने लिखा कि "प्रयोगवाद का एक दूसरा पहलू बिहार के नलिन विलोचन शर्मा, केशरी और नरेश के 'नकेनवादी' प्रपद्यों द्वारा आया जो अपनी समझ से अज्ञेय के और प्रयोगवाद का विरोध करते हुए भी वस्तुतः उसी की एक शाखा है।" हि‍न्‍दी के तीन वि‍शि‍ष्‍ट कवि-चि‍न्‍तक -- नलिन विलोचन शर्मा, केशरी कुमार, नरेश -- के आद्यक्षर से बने शब्‍द 'नकेन' से इसका नामकरण हुआ। हिन्‍दी साहित्य में इस काव्‍य-धारा को प्रयोगवाद की एक शाखा के रूप में प्रपद्यवाद नाम से भी जाना जाता है। हि‍न्‍दी काव्‍य-क्षेत्र में नकेनवाद की घोषण नलिन विलोचन शर्मा ने सन् 1956 में की।
साहित्य के इतिहास-दर्शन पर केन्‍द्रि‍त साहि‍त्‍यालोचन के द्वारा अपने समय की स्‍थापि‍त आलोचना-पद्धति‍ से अलग हिन्‍दी आलोचना की नई जमीन तैयार करने में नलिन विलोचन शर्मा ने वि‍शि‍ष्‍ट योगदान किया। उनके अनुसार भौतिकता, यथार्थता, मानवता, मानववाद और धार्मिकता -- भारतीय साहित्य की मूल विशेषता है। लि‍हाजा उनके आलोचना-कर्म के मानदण्‍ड भी भि‍न्‍न हैं; उस दौर की प्रगतिवादी और आधुनिकतावादी आलोचनात्मक पद्धति‍यों से बि‍ल्‍कुल भिन्न। मुक्ति और स्वच्छन्‍दता -- उनकी आलोचनात्मक कसौटी के मुख्य उपस्‍कर थे। रचना की विषयगत नवीनता को वे स्वच्छन्‍दता और रूपगत नवीनता को मुक्ति से जोड़कर देखते थे। विषय और रूप की दृष्‍टि ‍से उन्‍होंने कभी कि‍सी रूढ़ि को स्वीकार नहीं कि‍या। इसी कसौटी पर वे निराला को आधुनिक युग का सबसे बड़ा कवि, प्रेमचन्‍द को आधुनिक युग का सबसे बड़ा कथाकार और रामचन्‍द्र शुक्ल को श्रेष्‍ठ आलोचक मानते थे। नवीनता के आग्रही आलोचक के रूप में उन्होंने पुरानी जंजीरें तोड़ने, गुरु-पूजा, मूर्ति-पूजा, शास्त्र की संकीर्णता त्‍यागने के बावजूद जन-पूजा के कर्मकाण्‍ड और सिद्धान्‍त के शि‍कंजे में फँसे होने के कारण उस दौर की आलोचना पद्धति ‍की एकांगी दृष्टि की कड़ी आलोचना की। इसे उन्‍होंने हाथ-पैर से मुक्‍त कि‍न्‍तु हृदय और मस्तिष्क से बद्ध देखा। उनकी राय में आलोचना 'कृति का निर्माण करनेवाला 'सृजन' और 'कला का शेषांश थी। उनकी ऐसी आलोचनात्‍मक दृष्‍टि‍ का संकेत उनके काव्‍य-चि‍न्‍तन में भी दि‍खता है।

'नकेन के प्रपद्य शीर्षक से सन् 1956 में प्रकाशित पहले प्रपद्यवादी संकलन में नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश की कविताएँ संकलित हुईं। 'पद्य' में 'प्र उपसर्ग लगाकर प्रपद्यवादियों ने 'प्रयोगवादी पद्य' को प्रपद्य माना। वे स्‍वयं को प्रयोगवादी और अज्ञेय (मण्‍डल) को प्रयोगशील कवि मानते थे। उनके अनुसार 'प्रयोग' प्रपद्यवादियों उनका साध्य था, जबकि अज्ञेय आदि के लिए साधन। प्रपद्यवाद तीन सुशिक्षित कवियों द्वारा संचालि‍त एक संगठित काव्यान्दोलन था। इस उद्यम से वे हिन्‍दी कविता को विश्व कविता के बौद्धिक धरातल तक ले जाना चाहते थे। वे कविता में भावुकता के विरोधी और बौद्धिकता एवं वैज्ञानिकता के नएपन के पक्षधर थे। उल्‍लेखनीय है कि ‍'प्रपद्यवाद' या 'नकेनवाद' इन तीनों कवियों द्वारा स्‍वयमेव अपनाए गए नाम हैं, कि‍सी आलोचक द्वारा दी हुई संज्ञा नहीं। 'नकेन के प्रपद्य शीर्षक संकलन में 'प्रपद्य द्वादश सूत्री शीर्षक से जारी उनकी घोषणाओं के अनुसार प्रपद्यवाद भाव और व्यंजना का स्थापत्य है, जो सर्वतन्‍त्र-स्वतन्‍त्र है, सभी शास्त्रों या दलों के निर्धारक मूल्‍यों से नि‍र्बन्‍ध है। पूर्ववर्तियों की परिपाटियों को निष्प्राण मानता है। न केवल दूसरों के, बल्‍कि ‍अपने अनुकरण को भी वर्जित मानता है। स्वच्छन्‍द काव्य की स्थिति इसका अभीष्ट है। यह प्रयोग को, प्रयोगशीलों (अज्ञेय मण्‍डल के कवि‍) की तरह साधन नहीं, साध्य मानता है। इसकी प्रणाली दृक्वाक्यपदीय है। इसके लिए जीवन और कोष कच्चे माल की खान है। अपने द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छन्‍द का यह स्वयं निर्माता है। यह दृष्टिकोण का अनुसन्धान है। इनके अनुसार चूँकि ‍पद्य में उत्कृष्ट केन्द्रण होता है, इस कारण पद्य, गद्य से भि‍न्‍न होता है। इनके अनुसार चीजों का एकमात्र सही नाम होता है।...इसके आगे 'नकेन-2 के प्रकाशि‍त संस्‍करण में छः और सूत्र जोड़कर 'प्रपद्य अष्टादश सूत्री की घोषणा हुई। तदनुसार -- प्रपद्यवाद भाव एवं व्यंजना के स्थापत्य के साथ-साथ आयाम की खोज भी करता है, अभिनिष्क्रमण भी। यह सम्पूर्ण अनुभव है और अविभक्त काव्य-रुचि। इसमें मिथक का संयोजन नहीं, सृष्टि ‍होती है। यह बिम्ब का काव्य नहीं, काव्य का बिम्ब है।
प्रपद्यवादियों के अनुसार नए विचारों और नए शब्दों के केन्द्रण से कविता बनती है। कविता जीवन के रोजमर्रे की भाषा एवं अनुभव के आगे की भाषा एवं अनुभव को प्रकट करती है। इसके लिए जीवन की जागृति आवश्यक है, प्रतिष्ठित व्यवस्था नहीं। केसरी कुमार ने इसकी व्याख्या की कि ‍''प्रपद्यवाद प्रयोग का दर्शन है...प्रयोग के वाद से तात्पर्य यह है कि वह भाव और भाषा, विचार और अभिव्यक्ति, आवेश और आत्मप्रेषण, तत्त्व और रूप, इनमें से कई में या सभी में प्रयोग को अपेक्षित मानता है।'' अर्थात् उनकी दृष्‍टि‍ में सतत प्रयोग करते रहना ही प्रपद्यवाद है। काव्य-रचना में बुद्धि की सत्ता स्वीकारते हुए केसरी कुमार ने लिखा कि ‍''जब कविता अपने समय की बौद्धिकता से सम्‍पर्क-विच्छेद कर लेती है, तब भाव-प्रवण, जाग्रत-मति समाज की उसमें दिलचस्पी नहीं रह जाती। यह अत्यन्‍त खेदजनक स्थिति है, क्योंकि यह समाज यद्यपि अल्पसंख्यकों का होता है, पर यही बड़े समाज को गति देने वाला सिद्ध होता है।''
इनके अनुसार रचना के भाव-बोध के समय भावकों का रचनाकार की भाव-सत्ता में जाना अनि‍वार्य नहीं। वे भावकों के मन में साधारणीकरण की स्‍थि‍ति‍ को आनि‍वार्य नहीं मानते। ज्ञान के अन्य क्षेत्रों की तरह वे कविता में भी रसानुभूति या साधारणीकरण के बजाय विशिष्टीकरण को महत्त्व देते थे, जि‍सका आधार विज्ञान है। सम्‍भवत: इसीलि‍ए नलिन विलोचन शर्मा ने कविता का उद्देश्य सत्य का सन्‍धान माना और 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं 'विज्ञान-सम्मत दर्शन को कवि कवि‍कर्म की अनि‍वार्य योग्‍यता।
हिन्‍दी कविता के इतिहास में यह धारा अपना वि‍हि‍त स्‍थान नहीं बना पाई। इस धारा की रचनाएँ भी बहुत कम हुईं। कि‍सी भी आन्दोलन का विस्तार उस वि‍चार में समावि‍ष्‍ट समर्थकों की संख्‍या-वि‍स्‍तार से आकलि‍त होता है; जो इस धारा में सम्‍भव नहीं हुआ, इनकी संख्‍या तीन कवियों तक ही सीमित रही। कि‍न्‍तु अपनी अल्‍प पूँजी की बदौलत ही प्रपद्यवादी कविताओं ने विशिष्ट भंगिमा के कारण सन् 1960 के दशक में हिन्‍दी कविता को नई चमक से भर दिया। नलिन विलोचन शर्मा और केसरी कुमार की काव्य-नवीनता को रेखांकित करते हुए सच्चिदानन्‍द हीरानन्‍द वात्स्यायन 'अज्ञेय' ने साफ शब्‍दों में लिखा कि ‍''वैसी कविताएँ जैसी केसरी कुमार की 'साँझ अथवा नलिन विलोचन शर्मा की 'सागर सन्‍ध्या है, ऐसे बिम्ब उपस्थित करती हैं, जिनके लिए परम्‍परा ने हमें तैयार नहीं किया है और जो उस अनुभव के सत्य को उपस्थित करना चाहते हैं, जो उसी अर्थ में अनन्य है, जिस अर्थ में एक व्यक्ति अनन्य होता है।'' 'सागर सन्‍ध्या' शीर्षक कविता में नलिन विलोचन शर्मा ने लि‍खा कि‍
बालू के ढूह हैं जैसे बिल्लियाँ सोई हुई,
उनके पंजों से लहरें दौड़ भागतीं।
सूरज की खेती चर रहे मेघ-मेमने
विश्रब्ध, अचकित।
मैं महाशून्य में चल रहा...
पीली बालू पर जंगम बिन्‍दु एक --
तट-रहित सागर एवं अम्बर और धरती के
काल-प्रत्न त्रयी-मध्य से होकर।
मेरी गति के अवशेष एकमात्र
लक्षित ये होते :
सिगरेट का धुँआ वायु पर;
पैरों के अंक बालू पर
टंकित, जिन्हें ज्वार भर देगा आकर।

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