Friday, July 29, 2022

लाशऊर को शऊर की तालीम 

हिन्दी के वरिष्ठ कवि उपेन्द्र कुमार के पहले कविता-संग्रह ‘बूढ़ी जड़ों का नवजात जंगल’ (सन् 1980, आकांक्षा प्रकाशन, नई दिल्ली) में उनकी उनतीस कविताएँ संगृहीत हैं। सन् 1970-80 तक के दस वर्षों में लिखी गई इन कविताओं में न केवल एक युवा मन की उत्तेजनाएँ भरी हैं, बल्कि समसामयिक चुनौतियों से भरे कथ्य और कविता के मुहावरे इनकी गहनता को पुष्ट करते हैं। सृजन सम्बन्धी कवि-घोषणा ‘कविता मेरे लिए वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध व्यवस्थित ढंग से लड़ने के लिए व्यवस्था-प्रदत्त एक हथियार है’ का सावधान संज्ञान लेते हुए उस दौर के शिखरस्थ कवि हीरानन्द सच्चिदानन्द वात्सायन अज्ञेय ने सम्मति दी कि ‘कवि का यह कथन अवश्य भविष्य द्वारा परीक्षणीय रहेगा...यह भी कवि-कथ्यों का चालू मुहावरा तो है, पर जिसने व्यवस्था की रक्षा की शपथ भी ली हो, उसके मुँह से कुछ दूसरा अर्थ रखता है।’ अज्ञेय के सम्भावना-वक्तव्य को कवि उपेन्द्र कुमार ने चुनौती के रूप में ग्रहण किया और अपने आगे की रचना-प्रक्रिया में गम्भीरतापूर्वक इसका सम्मान किया। उस वक्त उनकी आयु तीस वर्ष के आसपास थी और ये कविताएँ बीस से तीस वर्ष की आयु के बीच लिखी गई थीं। आपातकाल की त्रासद स्थितियों से बाहर निकलकर भारतीय नागरिक ने कांग्रेसी सत्ता की तख्ता-पलट और मध्यावधि चुनाव का ताण्डव देख लिया था। राष्ट्रीय मूल्य-मान की रक्षा का सपथ लेकर उपेन्द्र कुमार रक्षा मन्त्रालय में प्रशासनिक सेवा में तैनात थे। भारतीय लोकतन्त्र के दिशा-सूचक मूल्यों की रक्षा की कागजी घोषणाओं और राजनीतिक आचरणों की विसंगतियाँ उन्हें निरन्तर उद्वेलित करती थीं। उन्हें कल की झाड़ियाँ बढ़कर जंगल हो गई दिखती थीं, मगर सामुदायिक जीवन में जंगलराज कायम करनेवाले राजनीतिज्ञ मजे में दिख रहे थे। उन्हें साफ दिख रहा था कि ‘उपदेश देते हैं बगुले/नीति बनाते हैं सियार/मेमना करता है पुकार--मैंने नहीं जुठाया पानी...।’ भारतीय लोकतन्त्र के रक्षक बगुला, सियार और स्वार्थ-संलिप्ति में हिंसक हो जाने और ‘लोक’ को मेमना बना देने की तरकीब को वे सूक्ष्मता देख रहे थे; लोकतन्त्र के महापुरुषों को वे अपनी पेटी में सूरज को बन्द करते हुए देख रहे थे। पूरी धरती को एक समान ऊष्मा देने की नीयत से प्रकट हुए जिस सूरज को, अर्थात् वृहत्तर नागरिक जीवन के समस्त सुख-सौरभ को, पवन-पानी-प्रकाश को जो महापुरुष अपनी निजी सम्पत्ति बना लेने में तल्लीन थे, उन महापुरुषों पर उपेन्द्र कुमार धिक्कार उठे--‘हमारे सूरज माँगने पर/दिखाया तुमने वह प्रकाश जो/तुम्हारी खिड़कियों-दरवाजों से छनकर/बाहर आ रहा था।’ लोकतन्त्र के रक्षकों को वे इस तरह आइना दिखा रहे थे। सम्भवतः इसीलिए उस दौर की प्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम ने इस संग्रह के सम्बन्ध में लिखा कि ‘जब किसी शहर की, किसी प्रान्त की, किसी देश की ऊँचाइयाँ खाली पैडस्टलों से नापी जाने लगें, तो चेतना तड़पकर जो कुछ जड़ता से कहती है, वही सुलगते हुए हरफ ये नज्में हैं...ये नज्में नफरत ओढ़े, लपेटे, बुतों के बीच जेब से गिरी हुई एक गुलाबी मुस्कान को खोजने का यत्न है, इसलिए यह यत्न हम सबको मुबारक है।’

उपेन्द्र कुमार को अपने लेखन के शुरुआती पल में ही उस दौर के विशिष्ट रचनाकारों का ऐसा उदार स्नेह यूँ ही नहीं मिल गया। साहित्य की प्रचलित खेमेबाजी से निर्लिप्त रहकर उन्होंने साहित्यिक सामन्तों को अपनी सीमा भी दिख दी। सदैव अपने समय के सामुदायिक जीवन के गर्हित यथार्थ पर चिन्तन करते रहे और लिखते गए। उसका एक नुकसान भी उनको हुआ। अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति के लिए वे इतने बेचैन रहने लगे कि अनूभूति को कौशल की आवाँ में पकने की सुविधा नहीं दे पाए। इस कारण कविताई में तनिक अतिकथन के शिकार भी हुए। पर व्यंग्य, धिक्कार, फटकार, धमकी देकर कविता द्वारा जनचेतना को उद्बुद्ध करने का यत्न उन्होंने सदैव किया। परिवेश के त्रासद जनजीवन के भविष्य की चिन्ता में वे कुपित व्यंग्य और आत्मबल की घोषणा के साथ समकालीन समाज को आशान्वित करते रहे--‘कौन कहता है अब/रोशनी नहीं होगी/जरा मेरी उँगलियाँ/तो जलाना यारो!’ चतुर्दिक अन्धकार और हताशा के बावजूद यह घोषणा नागरिक-चेतना को उद्बुद्ध करने का कवि-उद्यम है।

अपनी समस्त ऊर्जा के साथ यहाँ कवि पुरजोर साहस और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ भविष्य की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त दिखते हैं; रोशनी नहीं होने की आशंका में वे मोमबत्ती या माचिस या मशाल की तरह अपनी उँगली जला लेने का आह्वान करते हैं। जनसामान्य को उद्बुद्ध करने का यह अद्भुत काव्य-कौशल है।

इस संग्रह का आमुख में कविता की सहज सम्प्रेषणीयता के लिए सुविख्यात कवि भवानीप्रसाद मिश्र ने उपेन्द्र कुमार को विचार को प्रेरणा की तरलता देकर जीवन्त लय में प्रवाहित करनेवाले और फिर उस प्रवाह को टूटने-बिखरने से बचानेवाले के रूप में देखा। उपेन्द्र कुमार की कविता में गम्भीरता और व्यंग्य के सुसंगत आनुपातिक संजोग देखकर भवानीप्रसाद मिश्र ने आश्वस्त होकर इन कविताओं को समकालीन गण्य कविता का अंश माना।

स्वाधीन भारत की स्वदेशी सत्ता के तिलिस्म में वस्तु-प्रसंग-मूल्य के रहस्यमय परिवर्तन को देखकर किंचित क्लेश से उन्होंने लिखा कि--‘उड़ाए तो गए थे/केवल कबूतर/क्या करें/इन लौटे हुए कौवों के झुण्ड का/बोई तो नहीं गई थी/नफरत कभी/कौन काटे इस उगी फसल को?’ कविता वस्तुतः कवि की काव्य-दृष्टि और जनसरोकार को मुखरित करती है। बीसवीं सदी के ढलते चरण में देश की जैसी स्थिति बन गई थी, स्वातन्त्रयोत्तर काल की लोकतान्त्रिक सरकार ने जनता को जिस तरह छला था, प्रलोभन देकर जिस तरह सामुदायिक जीवन को वंचना का शिकार बनाया था, सब के सब झूठे साबित हुए। शान्ति के प्रतीक कबूतर उड़ाए तो गए, पर लौटकर आ गए दूसरों का आहार झपटनेवाले कौवे। समाज में प्रेम बाँटने के बदले नफरत की खेती होने लगी। लोकतान्त्रिक चेतना मुखर करने का नारा लगानेवाली स्वदेशी सरकार और शासन व्यवस्था नफरत और क्रूरता बाँटने लगी। ‘क्रान्ति’ के ध्वजवाहक रेल-लाइनों पर बिछें, प्रदर्शनों में शामिल हों, डण्डों के आगे रहें, वर्दीधारी भाइयों की संगीनों पर टंगे रहें...सत्ता इसका संज्ञान भूल गई थी। पर कवि की आशा नहीं टूटी। लाख अन्याय, शोषण, हिमपात, भूस्खलन, बाढ़, सूखा, महामारी, भ्रष्टाचार, अभाव, अकाल से जर्जर होने के बावजूद उनके आन्दोलनकारी अपनी माँ को आश्वासन देते हैं--‘मेरी माँ/आँसुओं और खून से लथपथ/अपने आँचल को देख/मत रो/हिरण्यगर्भा धरती/और एक बार सह ले तू/यह असह्य वेदना/शायद तेरे गर्भ से पुनः/उदित होना चाहता है/सत्यम शिवम का सूरज।’ जीवन के लिए ऊष्मा अरजने के जिद्दी कवि उपेन्द्र कुमार कारुणिक विपत्तियों के बीच भी आशा और प्रेम के दीप के साथ निरन्तर अपनी कविताओं में आगे बढ़ते रहने की आस्था जगाते हैं।

अपनी बासठ ग़ज़लों के संकलन ‘अपना घर नहीं आया’ (सन 1991, पुस्तकायन, नई दिल्ली) की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया कि ‘जीवन में मैं जब भी रोया हूँ, मेरी कविता मेरे साथ रोई है; मैं जिन बातों से क्रुद्ध हुआ हूँ, मेरी कविता ने भी उस पर भृकुटि तानी है। जब हँसा हूँ तो मेरी कविता भी मेरे साथ-साथ हँसी है। जीवन के सहारे मैं कविता तक पहुँचा हूँ और कविता के सहारे मैंने जीवन को समझने की मैंने कोशिश की है।’ इस संकलन की ग़ज़लों में व्यक्त उनका दर्द उनकी इस चेतना का प्रमाण है कि कोई कविता बेशक कवि के जीवन का कारण न बने, पर कविता यदि उनके होने का एहसास दिला दे, आश्वस्ति दे, तो कविता की सार्थकता यहीं पूरी हो जाती है। वस्तुतः हर समय की कविता परम-चरम उद्देश्य सामाजिक सरोकार की सघनता और लोकहित की सतत चिन्ता रहती है। कवि की स्वानुभूति को यही चिन्ता व्यष्टि से समष्टि में प्रवेश देती है। ‘बाहर चमक-दमक खुशियों की, भीतर है दुख का अँधियारा/गाँवों के इस देश में आए, ढंग बदल कैसे शहराती/प्रजातन्त्र की दुल्हन जैसे, रौनक काले पैसे की/कैसा है ये दूल्हा आखिर, कैसे-कैसे बाराती?’ लोकतन्त्र की जिस आभा में सामाजिक जीवन और ग्रामीण समुदाय को वंचना का शिकार बनाया जा रहा था; सामान्य नागरिक की चेतना में चकाचौंध उत्पन्न कर उसे अपने उद्देश्य से भटकाया जा रहा था; उन्हें अपने सपनों से दूर करने की तरकीब रची जा रही थी; काले-धन का बोलबाला बढ़ रहा था; ऐसे में उपेन्द्र कुमार की यह व्यंग्यात्मक उक्ति उनके जनसरोकार को रेखांकित करती है। ‘हमने अपने जीवन में हर क़दम पर देखे हैं, जाने किस कदर तूफाँ/क्या मिजाज है अपना जिस पर आज तक यारो कुछ असर नहीं आया/जिन्दगी की राहों में बस्तियाँ कई आईं, अपना घर नहीं आया।’

अपनी पूरी कविताई में उपेन्द्र कुमार को ‘अपना घर’ पदबन्ध की तलाश रही है। अपना घर उनकी दृष्टि में एक खास परिभाषा के साथ उपस्थित होता है, जहाँ घर के सुखद, मनोरम सौविध्य की कामना रहती है, पर गौरतलब है कि इसमें यह ‘अपना’ शब्द उन्हें आत्मकेन्द्रित नहीं करता, वे पूरे सामुदायिक जीवन के रहवास को भी ‘अपना घर’ का विस्तार देते हैं। विवेचक चाहें तो यहाँ अतियथार्थवाद की इकाई भी ढूँढ सकते हैं और यथार्थवाद की समग्रता भी। क्योंकि घर का अर्थ अब पूरी तरह सुरक्षित स्थान नहीं रह गया है, जहाँ सब कुछ के बावजूद, सारे सगे-सम्बन्धियों और सारी सुविधाओं के बावजूद, आदमजात के सिर सर्वदा आतंक मँडराता रहता है। अत्यधिक से अत्यधिक पा लेने के उद्योग में निरन्तर हिंस्र होते जा रहे आखेटक बन्धुओं के प्रकोप से खुद को बचा पाने की आशंका आज के नागरिकों को अपने घर में भी सताती रहती है। आज का मनुष्य इस बचाव की चिन्ता में कई बार स्वयं को भी ढूँढने लगता है। चाहत के इस आधिक्य में कवि को मनुष्य से मनुष्य को जोड़ने का काम करनेवाले पुल टूट गए-से दिखते हैं। अर्थात् सामुदायिक जीवन की अर्थवत्ता नष्ट, अर्थात् सामाजिकता निरर्थक; फिर लोकतन्त्र और जंगल-राज्य में क्या फर्क़ रह गया? ‘वह जो पुल था, आजकल टूटा हुआ है/आना-जाना उस तरफ छूटा हुआ है/...उठ ही जाते हैं क़दम उनकी तरफ/जिनसे मिलना आजकल छूटा हुआ है।’ सम्बन्ध-मूल्य एवं सम्पर्क-सूत्र के लोप से अपनों के पराए हो जाने, अपनों से कटकर एकाकी हो जाने की इस सामुदायिक पीड़ा की अभिव्यक्ति कवि के जनसरोकार का द्योतक है। ‘सब भागने लगे थे फिर अपने घरों की ओर/कितने बिदक गए थे वो जलते मकान से/ये महल देखकर ही बहल जाइए कि ये/उजड़ा हुआ खड़ा है मगर आन बान से/...ऐ देश अब ठीक ग़लत का नहीं है सवाल/सब लोग जी रहे हैं तेरे संविधान से।’ आजादी और स्वदेशी शासन-व्यवस्था में साँस ले रही जनता को जब द्रोह-दंगों का ऐसा वातावरण दिखाया लाने लगा था, जहाँ उसे हर साँस आतंक के साए में खींचनी पर रही थी, एक दूसरे को आहत करने की पद्धति बदस्तूर कायम हो गई थी, सारी परम्पराएँ एवं नैतिकता सिरे से गायब थीं, वहाँ संविधान का मूल्य भी कहाँ सुरक्षित था! यहाँ लोगों के संविधान से जीने का उल्लेख भी सत्ता द्वारा संविधान की अवहेलना को रेखांकित करता है।

अपनी छियालीस कविताओं के संग्रह ‘चुप नहीं है समय’ (सन् 1996, शुभकामना प्रकाशन, दिल्ली) के पुरोवाक् में कवि ने लिखा है कि ‘कविता मनुष्य की, मनुष्यता की, पहचान होती है। आदमी को आदमी से; पेड़-पौधों, जमीन, आकाश-पाताल, चाँद, सूरज, सितारों से जोड़ती है कविता। यह मनुष्य के जीने की उत्कट इच्छा की पहचान होती है, तो साथ ही उसकी अपराजेयता का प्रमाण भी। जीवन के हर दुख-सुख की साक्षी। सत्य की सनातन, निरन्तर खोज का नाम है कविता, जो भावुकता के चरम शिखर पर चढ़ती तो है परन्तु बुद्धि की मशाल सदा हाथ में लिए हुए।’ इस संग्रह की कविताएँ कवि-कथन की उक्त पंक्तियों को पुष्ट भी करती हैं। दुहाई दी जानेवाली देश-दशा, इतिहास, परम्परा, शासन-व्यवस्था...सब कुछ की धज्जियाँ उड़ाते, दुर्गति करते व्यवस्थापतियों के आचरण से वे खिन्न हो उठते हैं। कर्तव्य के प्रति संरक्षकों का ऐसा घृणित नैराश्य कवि को पीड़ित करता है। किन्तु यह ‘पीड़ा’ उनकी निजी भर नहीं है--‘पीड़ित हैं सब/सोच के उत्पात से/बहुत-सी चीजों के/बिगड़े अनुपात से।’ अर्थ, नीति, विवेक, जीवन, वस्तु, परम्परा, विरासत...जैसे समस्त मूल्यगत प्रसंगों से विरत, किन्तु आत्मसुखलीन देवताओं के पण्डे उन्हें लोभ-मोह-अविवेक के पुजारी और विरासत के ध्वंसक दिखते हैं। सामुदायिक जीवन-व्यवस्था को बाजार और मनुष्य को संख्या में तब्दील कर देनेवाले लुब्ध व्यापारियों का झुण्ड उन्हें आक्रामक दिखता है। ‘मूल्यों के ये व्यापारी/करते हैं घोषित/गलत था सारा अतीत/कौटिल्य का अर्थशास्त्र/महज एक धोखा है/और सारे पण्डित महात्मा/मात्र अव्यावहारिक स्वप्नदर्शी/...कि अब यहाँ/नहीं है कोई राष्ट्र/नहीं है कोई देश/है तो है/केवल एक बाजार/सौदागरों के स्वागत में/हिमालय से कन्याकुमारी तक फैला हुआ/जिसमें लोग नहीं रहते/रहती है संख्याएँ।’ गौरतलब है कि इस संग्रह की सारी ही कविताएँ सन् 1996 से पहले लिखी जा चुकी थीं, जब बाजारवाद का चलन इस देश में बहुत पुराना तो नहीं हुआ था, किन्तु अपने आक्रामक स्वभाव से क्रियाशील हो चुका था, नागरिक को संख्या में तब्दील कर देने का उद्यम मुखर था, सत्ता चुप और जनता हतप्रभ थी। इस दारुण दुर्दशा से कवि पीड़ित हुए। पूर्वजों के अवदान को किनारे कर, राष्ट्र और देश के हित को परे कर, सिर्फ अनैतिकता और आर्थिक मानदण्डों पर निहित व्यापारिक स्वार्थों द्वारा, आकर्षक विज्ञापनों की रंगीनी, जुलूस की आयातित प्रशंसा से व्यथित होना जायज ही था। इस निजी व्यथा को उन्होंने आम मनुष्य की तरह एक राष्ट्रीय भूल की तरह देखा।

अपनी इक्यावन कविताओं के संकलन ‘प्रतीक्षा में पहाड़’ (सन् 1998, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली) में भी उपेन्द्र कुमार इसी तरह भारतीय समाज के जीवन-व्यवस्था की उखड़ी-बिखरी दशा सुधारने में चिन्तित दिखते हैं। अपनी कविताओं में वे जब कभी अपने लिए चिन्तित दिखते हैं तो उनका ‘स्व’ कोई और नहीं पूरे देश का ‘स्व’ है, प्रवंचन के शिकार समुदायिक जीवन की त्रासदी में उन्हें साफ दिखता है कि सत्ताधीश, राजकीय बुद्धिजीवी, प्रशासनिक अधिकारी, हिसाब-किताब रखनेवाले लेखाधिकारी...सब के सब बही-खाते समेट चुके हैं। समेटने से पहले वे जनता के हिस्से का पवन-पानी-प्रकाश सब कुछ अपने पक्ष में बटोर चुके हैं--‘वो सब कुछ/जो बटोर सकते हैं/उनके हाथ/और मनाया जा रहा होगा जश्न/तब जो होगा शेष/वही होगा/हमारा हासिल!’ इस ‘हासिल’ से कवि की मुराद वैसी बची-खुची चीजों से है, जो वस्तुतः है ही नहीं। और, जो बचा ही नहीं, वही उनके हिस्से में आया। ऐसे सांकेतिक हासिल के हिस्सेदार, सामान्य-जन की पीड़ा से कवि व्यथित हैं। यात्रा, कवि उपेन्द्र कुमार के जीवन का एक अहम शगल है। इस ‘यात्रा’ के प्रति उनकी राय है कि ‘यात्राओं में/गन्तव्य तो/सदा होता है/सहयात्री/अनभिज्ञ, फिर भी/चलते जाते हैं/अदृश्य की तलाश में...।’ इस अदृश्य की तलाश में कवि का चलता जाना, जीवन की यात्रा भी है। और इसी यात्रा में एक ‘पहचान का डर’ रेखांकित होता है; क्योंकि ‘क्या-क्या करतब/करता है आदमी/पहचाने जाने के डर से/दूसरों द्वारा/पहचान लिए जाने के/डर से भी ज्यादा/स्वयं द्वारा/पहचान लिए जाने का डर/कितना बड़ा होता है?’ परन्तु खेद है कि दूसरों के लिए खाई खोदने वाले व्यक्ति स्वयं के लक्ष्य हो जाने के भय से तो परेशान रहते हैं कि कहीं मैं पहचान न लिया जाऊँ, यहाँ तक कि घात लगाए फिरते आतंकी भी पहचान लिए जाने के डर से आक्रान्त रहते हैं। ‘मंजिलों से मुक्ति’ शीर्षक एक कविता इस संकलन में एक तरह से गीता का सन्देश देती दिखाई देती है कि अपने मार्ग की सही पहचान मनुष्य खुद कर ले, अपने रास्ते खुद समझ ले, अपने आचरणों को खुद सहेज ले तो कैसा बेहतर वातावरण बने--‘कौन चुनता है/मार्ग? कभी-कभी आदमी के आगे/वे स्वयं आ जाते हैं/और हम उन्हें ही गन्तव्यों के/सारथी समझ/गले लगा लेते हैं।’ रास्ते, गन्तव्य, भटकन...इन सब के लिए मनुष्य स्वयं को कभी जिम्मेदार नहीं मानते, जबकि वे होते ही हैं। दुर्बुद्धिवश इस जिम्मेदारी के समय इनकी सही पहचान नहीं हो पाती, मनुष्य अपने विवेक पर संयम नहीं रख पाते। बेशक वह इस अहंकार में रहता है कि रास्ता उसने खुद चुना, किन्तु गीता में कहा गया है कि ‘अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्/विविधश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।’ किसी भी कार्य के पूरा होने में कर्ता का अंशदान पंचमांश ही होता है। चार पंचमांश का श्रेय तो अन्य घटकों को है। पर मनुष्य पूरे का पूरा श्रेय लेकर अहंकार में डूबा रहता है। सचमुच यदि अपने विवेक से मनुष्य सामने आए मार्ग का चयन स्वयं करे तो परिवेश में कोई विसंगति आए ही नहीं। उपेन्द्र कुमार की सन्तावन गजलों के संग्रह ‘खुशबू उधार ले आए’ (सन् 1998, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली) का स्वागत करते हुए प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर ने लिखा है कि ‘उपेन्द्र ने जगह-जगह अपने और समय के मन और इच्छाओं को टटोला है और बात के जरिए शुभ की तलाश करते हुए या शुभ के लिए सवाल उठाते हुए अपनी बात को दाहक प्रतिरोध के सीमान्तों तक पहुँचाया है।’ कथाकार कमलेश्वर की तरह कहने में कोई दिक्कत किसी को नहीं होनी चाहिए कि उपेन्द्र कुमार की इन गजलों में सूरत बदलने की चेष्टा दिखती है। समय की विपरीत परिस्थितियाँ झेलने का क्रोध तो उनके यहाँ बरवक्त दिखता है, हताशा या निराशा कभी नहीं दिखती। ‘कुहरे से ढँका हुआ यारो कैसा ये सवेरा देखा है/जो बीत गई है रात मगर हर ओर अन्धेरा देखा है/...क्या-क्या एहसास दिलाते हैं, क्यूँ तोड़ न दें ये दर्पण हम/हमने तो इन्हीं आइनों में टूटा हुआ चेहरा देखा है।’ लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जीवन-बसर करने वाले नागरिकों के खण्डित चेहरे प्रस्तुत करनेवाले इस आइने, अर्थात् अधिकारियों और व्यवस्थापतियों पर यह नागरिक क्रोध प्रेरणास्पद है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था के रक्षक उन्हें रक्षक नहीं, भक्षक लगते हैं, टूटे आइने में जनता का खण्डित चेहरा दिखानेवाला घटक। ऐसे लोकतन्त्र के दर्पण में अनाज पानी की स्वघोषित देवताओं से, टूटे हुए चेहरे से अलग होने की, इस दर्पण को बदल लेने की प्रेरणा देती हैं ये ग़ज़लें। उनकी ग़ज़लें क्षणानुभूति के सुख-सौरभ और दुख-दुविधा का भी संज्ञान लेती हैं। ‘सावन के मौसम में जब भी चमक-दमक कर आई धूप/बैठ गई बादल के रथ पर होने लगी पराई धूप/...नजर कहीं ना लग जाए फिर उसकी प्यारी दुल्हन को/भादो ने ले जाकर जाने हमसे कहाँ छुपाई धूप!’ भारत की किसानी संस्कृति में बारिश बेहतरीन मौसम माना जाता है। सावन-भादो के मौसम की चमक-दमक से धूप के चले जाने का यह रूपक एक बड़ी ध्वनि की ओर इशारा करता है कि उन्हें धूप के छुप जाने का कचोट है, सावन से तकलीफ नहीं। यह क्षणिक आवेश है। इसमें बारिश के प्रति कोई विरोधी भाव नहीं। इन गजलों पर विस्तार से बात की जा सकती है। उनकी इक्यावन महत्त्वपूर्ण कविताओं के संग्रह ‘गान्धारी पूछती है’ (सन 2000, पुस्तक सदन, दिल्ली) की छोटी-सी भूमिका लिखते हुए श्रेष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने लिखा है कि ये ‘समकालीन सन्दर्भों से उपजी ऐसी कविताएँ हैं जो फिर से नए सवाल उठाती हैं। किसी कवि के लिए यह अपने आप में बड़ी बात है कि उसके सृजन में प्रश्नों से जूझने की एक लगातार कोशिश दिखाई देती है।’ कवि उपेन्द्र कुमार वस्तुतः प्रश्नाकुलता के कवि हैं। ये सवाल वे न केवल खुद से, बल्कि जनता और सत्ता से जब-तब करते रहते हैं। कई बार उन्हें अपना वर्तमान समय और परिवेश चुप दिखता है, तो वे इतिहास, पुराण एवं मिथकीय प्रसंगों में जवाब ढूँढने पहुँच जाते हैं। मिथकीय एवं पौराणिक प्रसंगों के रूपक उनकी काव्य-दृष्टि को अत्यधिक सुविधा देती है। मिथकीय भावलोक अक्सर आधुनिक सवालों के उत्तर सहजता से दे भी देते हैं। इन्हीं बिम्बों-प्रतीकों के सहारे वे गान्धारी-धृतराष्ट्र संवाद के रूपक द्वारा मनुष्य की अत्यन्त घृणास्पद लिप्सा व्यक्त करने में सफल होते हैं। आज के मनुष्य का सहज स्वभाव यही कि वह अपने अगोचर को वैसा नहीं देखता जैसा वह होता है, उसे वह वैसा मान लेता है, जैसा वह चाहता है, और उसकी सत्यता पर आग्रहपूर्वक मुहर भी लगाता है। मनुष्य की ‘प्रतिबद्धता’ यहीं से स्पष्ट होती है--‘कैसा जवान/निकला है दुर्योधन?/पूछा गान्धारी ने/अपने सम्राट से/बहुत सुन्दर/लम्बा ऊँचा/गठा बदन/सिंह-सा वक्ष/हाथी का बल/हस्तिनापुर का/सर्वोत्तम युवराज/सुनती हूँ/बहुत सुन्दर हैं/वासुदेव कृष्ण/हाँ, परन्तु दुर्योधन का/वर्ण है ज्यादा गोरा/व्यक्तित्व ज्यादा वीरोचित/कैसे जाना?/उनकी आवाजें सुन।’ गान्धारी-धृतराष्ट्र के इस विचित्र संवाद से एक बड़े परिदृश्य की तरफ इशारा किया गया है। कुछ भी देख सकने में असमर्थ दो व्यक्ति अपनी पक्षपाती दृष्टि से अपने पुत्र को कृष्ण से भी ज्यादा सुन्दर और शक्तिमान और हस्तिनापुर के सर्वोत्तम युवराज मानते हैं। वे वैसा कुछ भी नहीं देखते जो हस्तिनापुर देखता, सोचता, चाहता है। वैसा कुछ भी सुनना, मानना, चाहना उनके बस में नहीं है, अपनी सन्तान को सत्तासीन होने के सिवा वे कुछ भी नहीं सुनना चाहते। गत शताब्दी के अन्तिम चरण, अर्थात् इस संकलन के सृजन-काल के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्थाओं के मूल्य-विरोधी, विवेक-वधिक अनुशासकों के चरित्र का इससे बेहतर रूपक और कुछ भी नहीं हो सकता था। परवर्ती अनुशासकों ने भी अपने पूर्ववर्तियों के चरित्र का अनुगमन किया। बीते समय के राजनीतिज्ञों ने अपने कुटुम्बों के हित-साधन के लिए राष्ट्र एवं जनजीवन के साथ जितने भी धोखे किए हैं, उन पर ऐसा व्यंग्यात्मक प्रहार प्रशंसनीय है। राजनीति के बाजीगरों की चाल-ढाल ने नागरिकों को भी तनिक हैवानी सिखाई है। उस हैवानी की जड़ें खोदने का उपेन्द्र कुमार का कौशल ‘छतरियाँ’ शीर्षक कविता में एकदम अनूठा है--‘समुद्र के पार से/आई हवाएँ/रूपान्तरित कर स्वयं को/वर्षा की बूँदों में/बरसती हैं जब हमारे सिरों पर/तो तानते हैं/उनके विरुद्ध हम/अपनी छतरियाँ।’ ये छतरियाँ तानते हुए हमारे बुद्धि-विचार में सिर्फ उन बूँदों की चोट या उससे भींग जाने का डर रहता है। हमें उस बादल और हवा के सुदीर्घ समुद्र-यात्रा की थकान या विफलता के अवसाद की कोई परवाह नहीं होती। ‘...मेरे लिए/सबसे विस्मयकारी सूचना है--/सुबह जो आदमी मिला था/चौराहे पर/भीख का कटोरा लिए/वह एक खाते-पीते घर का/बुजुर्ग है।’ यह पंक्ति, महज एक सूचना नहीं, हमारे समय के सामुदायिक जीवन का तथ्य है; ऐसे बुजुर्गों की बड़ी संख्या हमारे समाज में है, जो कई समुद्रों के पार की यातनादायी यात्रा तयकर अपनी सन्तानों के जीवन में रंग भरते हैं, पर समय आने पर उनकी सन्तानें उन्हें अपने शरीर पर नहीं टिकने देतीं, उसके स्पर्श तक को रोकने के लिए छतरियाँ तान लेती हैं।

उपेन्द्र कुमार की चुनी हुई छियालीस कविताओं के संग्रह ‘उदास पानी’ (सन् 2002, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली) में बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में मुखर हुए विमर्शों के स्पर्श आसानी से मिल सकते हैं। इन काव्य-पंक्तियों से निष्कर्ष निकालना आसान होगा कि व्यतीत हो जाने पर भी किसी व्यक्ति-विषय-वस्तु-प्रसंग का अतीत उसके वर्तमान से सटा ही रहता है। जैसे ‘जंगल से लकड़ियाँ काट/जब बना रहा होता है वर्तमान/एक सुन्दर-सा पालना/भविष्य के लिए/तो अतीत/लगा होता है सदा साथ उसके/समझता और/सावधान करता।’ ‘व्यतीत होता’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ एक बड़े दर्शन को रेखांकित करती हैं; जहाँ मनुष्य अपनी सन्तान के लिए सुन्दर पालना बनवाते हुए भूल जाता है कि इसके वर्तमान का मूल रिश्ता अतीत से तो है ही, भविष्य से भी है। यह पालना अपने अतीत में लकड़ी का एक टुकड़ा भर नहीं था, हरे भरे जंगल में तनकर खड़ा-खिला जीवन्त पेड़ था, जरूरतमन्दों को छाया, भूखों को फलाहार, जीव-जन्तुओं के ठहराव का आधार था। मिट्टी से जीवन-रस लेकर अपना विकास और समाज एवं वातावरण का हित करता था। पेड़ काटकर, निर्जीव बनाकर, पालने के रूप में प्रस्तुत कर कारीगर ने अपनी कला दिखाई, भरण-पोषण का संसाधन जुटाया; अगली पीढ़ी के झूलने के साधन जुटे, मगर इस साधन का भविष्य क्या होगा? यह पालना फिर से पेड़ नहीं हो सकता, लोकहित में यह पालना अपना विकास नहीं कर सकता। यह पालना अब एक व्यक्ति या एक परिवार के हित की निजी वस्तु हो गई है। अब यह समुदाय के लिए उपादेय नहीं रही। व्यतीत हो जाने के संयोग-दुर्योग पर चिन्तित कवि उपेन्द्र कुमार सदैव समय द्वारा उठाए गए प्रश्नों के उत्तर ढूँढने में तल्लीन रहते हैं--‘समय द्वारा उठाए/प्रश्नों का उत्तर/न तो धरती ने दिया/न आसमान ने/वैसे भी माटी/कहाँ देती है जवाब/आसमान कब सुझाता है समाधान/फिर भी ये जो कर सकते थे किया/धरती ने धारण किया/बीज बना सारे प्रश्न/आसमान/गाहे-बगाहे/रहा उन्हें सींचता/बीजों से फसलें/फसलों से विकसित बीज/विकसित बीजों से...।’ बीज और धरती के इस पारस्परिक चक्र को समझने की जो चिन्ता इन दिनों समाज से गायब हो गई है; जमीन-आसमान की जो समझ जन-मन का जरूरी विषय नहीं रह गया है, उसी जमीन-आसमान की पारस्परिकता बताकर कवि यहाँ सामाजिक जीवन के बुनियादी सवालों को रेखांकित करते हैं और समाधान भी दिखाते हैं कि धरती और बीज की पारस्परिक संगति बनी रहे, एक-दूसरे के गुण-धर्म की चिन्ता बनी रहे तो सभी सुव्यवस्था सम्भव है। धरती यदि बीज को उगाकर उसे सार्थक साबित करती है, और अगली पीढ़ी का वंशज पैदा करवाती है, तो बीज भी धरती में समाकर, खुद को गलाकर उसकी ऊर्वरता सिद्ध करता है।

संवाद शैली में व्यक्त कवि के प्रेम-डगर की यात्रा की कोमल स्मृतियों के वृतान्त का समायोजन ‘प्रेम प्रसंग’ (सन 2005, डायमण्ड बुक्स, नई दिल्ली) के पाँच पल्लवों--प्रेम आसंग, मनुहार, अभिसार, रत्यंग, सीमन्त--में कौशल से हुआ है। इस संकलन के आमुख में लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ने सही ही लिखा कि इस ‘संग्रह में शास्त्रीय नख-शिख वर्णन और आधुनिक नख-चित्रों की तरह प्रवहमान चलचित्रों में कवि ने एक के बाद एक प्रणय, परिणय, संयोग और वियोग के प्रसंगों के चित्र उकेरे हैं।’ यह संकलन सचमुच कवि-स्मृतियों का खूबसूरत संग्रह है। प्रतीत होता है कि जिस तरह समाज और सामाजिकता के लिए कवि के मन में अनुरक्ति भरी है, उसी तरह उनका हृदय प्रेम की ऊष्मा से लबालब है। वस्तुतः क्रान्ति भी वही कर सकता है, जिसका हृदय प्रेमासक्ति से भरा हो, वही व्यक्ति समाज में सुसंगत व्यवस्था की स्थापना के लिए चिन्तित होगा।

भारतीय स्वाधीनता के छह दशक बीत जाने के बाद भी समाज में छाए गहन अन्धकार का सर्वेक्षण है उपेन्द्र कुमार की छह लम्बी कविताओं का संकलन ‘गहन है यह अन्धकारा’ (सन् 2010, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली); में जनविरोधी प्रशासनिक धारा के विरुद्ध संघर्ष की मुद्रा में खड़ा है। इन कविताओं में छोटी-सी वस्तु या छोटे-से प्रसंग के बहाने बात शुरू कर, क्रूर एवं जटिल जीवन-यथार्थ की गहन पड़ताल कर, जनचेतना को उद्बुद्ध करने का यत्न है। इस संग्रह की पहली कविता ‘सत्तू’ में कवि की विलक्षण संवेदना एवं कौशल के कारण अभिजात शहरी परिवेश के लिए तिरस्कृत खाद्य-वस्तु ‘सत्तू’ की पहचान को रूपान्तरित कर इस तरह पेश किया गया है कि यह अमीरी-गरीबी की विराट खाई की चुनौती बन गई है। बिहार एवं पूर्वी उत्तर-प्रदेश के अभावग्रस्त किसान-मजदूरों के लिए यह बेशक सर्वदा तैयार खाद्य हो, पर चिन्तन के स्तर पर यह सामुदायिक क्षमता के विषमीकरण का अपूर्व रूपक है। ‘सत्तू को/केवल सत्तू/समझनेवालों के लिए/जरूरी है जानना/कि सत्तू का भी/अपना एक इतिहास है/गौरवशाली और महान/मगध साम्राज्य जैसा/स्वाद लाजवाब।’ राजनीतिक दृष्टि से आज इसकी सोंधी सुगन्ध एयर बैग के बन्द आवरण से भी अपने अस्तित्व को अर्थ-व्यंजक बना देता है, साधन-सम्पन्न लोगों की नाक में घुसकर अपने होने का प्रमाण दे देता है। इसकी सोंधी सुगन्ध वस्तुतः उस मिट्टी की हनक है, जिसकी ताकत सम्पन्नता की तामझाम फैलानेवालों की क्षमता पर भारी पड़ती है। वायु-मार्गीय यात्रा में भी कभी-कभी सत्तू ‘आ बैठता है एकदम बगल में/किसी पोटली में बँधा/किसी झोले में ठूँसा/...ताजा पीसे सत्तू की सोंधी खुशबू/कभी कैद हो सकती है क्या/किसी पोटली या एयर बैग में?’ सत्तू के इस रूप की प्रशंसा द्वारा कवि ने यहाँ भारतीय परिवेश की वर्गीय दूरी और अर्थिक भेद-भाव को गहरे विश्वास से रेखांकित किया है। ‘गहन है यह अन्धकारा’ शीर्षक कविता में कवि की कामना लोक-हृदय में एकता, कर्म की सार्थकता और लोक-जीवन का शास्त्र बनाने की है। वे समकालीन समाज की अमानवीय व्यवस्था के आतंक से चिन्तित हैं। पूरे देश में फैले आतंक के गहन अन्धकार में वे रोशनी की तलाश में जुटे हैं। ‘सदी की कविता’ में जिधर नजर दौड़ाएँ बिके हुए लोगों की जमात अपनी ओछी स्वार्थ-सिद्धि में लगी दिखती है। ‘बाहर से भरे-पूरे इनसान/अन्दर से हैवानियत के मनसबदार’ की दसकन्धरी लीला में ‘शील, सद्गुण और समानता की सीता/हरी जा रही है।’ ‘गाँधी, नेहरू, लोहिया का देश’ ‘भ्रष्टाचारी दलालों के हाथ की कठपुतली’ बन गया है। इस संकलन की कविताओं में कवि ने चारो ओर छाए उसी गहन अन्धकार को विभिन्न रूपकों से भासित किया है, जिसमें दारुण घटनाओं से नैतिकता का दामन दागदार हो रहा है, चेतनाशील प्राणी शर्मसार हो रहा है। इन कारनामों में हमारी जाति-व्यवस्था और पंचायत से लेकर बड़े-बड़े प्रशासकीय अभिकरण दुर्वृत्ति में शामिल हैं। इस पीड़ा से मुक्ति के प्रयास में उपस्थित गतिरोधों का सहज समाधान आज के मनुष्य को अपनी परम्परा के जीवन्त तत्त्वों से संजीवनी की तरह मिलता है, इसीलिए आज के रचनाकार अपनी दुर्वह प्रश्नाकुलता के साथ अतीत में झाँकते हैं, उन्हें अतीत-वर्तमान के संवाद से समाधान की आशा होती है। ‘इतिहास का मुड़ा हुआ वरक़’ शीर्षक कविता के नायक को आँधी से उजड़ी अपने गृह-वाटिका को पुनः सँवारने और घटोत्कच के चरित्र पर लिखने में एक आन्तरिक संगति दिखती है। काव्य-नायक की आस्था वस्तुतः कवि की आस्था है। परम्परा में गहरे पैठकर जीवन-दर्शन, विवेकशील बुद्धि एवं दृष्टिकोण को सन्तुलित और धारदार बनाना आसान होता है। उपेन्द्र कुमार की कविताएँ परम्परा के इस सामर्थ्य का बोध देती है। ‘का खाऊँ, का पीऊँ’ शीर्षक कविता में एक पुरानी लोककथा को नए पाठ में प्रस्तुत कर समकालीन समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों के विघटन और पतनशील वृत्तियों की लोकोन्मुखता को जीवन-सन्दर्भ से कुशलतापूर्वक जोड़ा गया है। कथ्य एवं लोक-संवेदना में लोक को केन्द्र में रखकर यहाँ यथार्थ को इस तरह चित्रित किया गया है कि पक्षधरता स्वयमेव स्पष्ट हो जाती है। भूख मिटाने के लिए एक दाने के उद्योग में एक चिड़िया की मशक्कत रूपकार्थ में इस कविता को जनजीवन का केन्द्रीय विषय बना देती है। हर प्रयास में विफल होकर निराश बैठी उस चिड़िया की मनोदशा अन्याय के प्रतिकार का द्योतक तो है, पर भूख की कीमत पर उस चिड़िया को कोई प्रलोभन स्वीकार्य नहीं! हमारे लोक और शास्त्र-पुराणों में ऐसे प्रतीकों की भरमार है।

मिथकीय, पौराणिक और लोकाधारित रूपक आधुनिक समय के अनेक रचनाकारों के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हुए हैं। इस विधि से कथ्य प्रभावी होता है। उपेन्द्र कुमार ने इस शैली का विदोहन बड़े कौशल से किया है। ‘गहन है यह अन्धकारा’ संग्रह की कविताएँ अमानवीय व्यवस्था के बीच बची हुई मानवीयता और सामाजिकता की सुरक्षा का बोध जनचेतना में प्रविष्ट कराकर उससे मुठभेड़ के लिए प्रेरित करती है, एक बेहतर समाज के सपने को साकार करने की दिशा में अग्रसर करती है, भारतीय लोकतन्त्र की विसंगतियों के बीच पिसती जनता के जीवन-यथार्थ को अभिव्यक्ति देती है। समकालीन काव्य-रूढ़ियों से बचकर लोक-भाषा के प्रचलित शब्दों, मुहावरों की प्रयुक्ति उनकी कविताओं में चमक पैदा करती है।

उनकी इकतालीस कविताओं का संग्रह ‘नंगे पाँव...चाँदनी’ (सन् 2012, विजया बुक्स, दिल्ली) का पुरोवाक् लिखते हुए प्रसिद्ध कवि, कथाकार, उपन्यासकार गंगा प्रसाद विमल ने कहा है कि उपेन्द्र कुमार की ‘कविताओं में आकर्षण का पहला केन्द्र उनका अपना अलग-सा निजी विन्यास है जिस पर पूरब की अपूर्व छाप है। यह पूर्वीय छाप भाषिक संरचना की उतनी नहीं है जितनी वह संवेदना के निजपन की है। परन्तु यह निजता घोर व्यक्तिवादी निजता नहीं है अपितु अपनी छोटी लोक-इकाई के अलग व्यक्तित्व का निजपन है।’ एकदम अनुपस्थित-सी तर्ज पर वह पुरानी परम्पराओं के दोहराव के रूप में उपस्थित नहीं है। रचनाओं में वे कहीं पुरानी परम्परा का अनुगमन करते नहीं दिखते। उनकी कविताओं की संवेदना उनकी निजता और अपनी छोटी-सी लोक-इकाई से उद्भूत है, पर अपनी प्रभावान्विति में यह संवेदना उस निजता के छोटे-से दायरे को पारकर सार्वत्रिक हो जाती है। ऐसा उनके अन्य संग्रहों की कविताओं पर भी लागू होता है। विमलजी की इस स्थापना से भी सहमति अनिवार्य है कि इस संग्रह से उनकी कविताई एक नए उत्साह के साथ पुनर्नवा होकर नए मोड़ की ओर बढ़ चली है। लोक-धाराओं एवं लोकाधारों की निजता-सम्भूत प्रयुक्ति उन्हें औरों से एकदम अलग साबित कर देती है। भोजपुरी समाज की स्थानीय संवेदना एवं प्रयुक्ति बार-बार उनकी कविताओं के गुण-धर्म को विशिष्ट बनाती हैं। राजनीतिक हित-साधन में असंगत सन्दर्भों से भारतीय संविधान की अवहेलना, बाजार के मोल-भाव के आवाँ में फड़फड़ाता जनसमूह, राजनीतिक वादों-छलावों से प्रवंचित समुदाय की हताशा और आतंक से सुरक्षा-नीति की जुगलबन्दी...उनकी कविताई का मुख्य विषय है। इस क्रम में पतनशील सांस्कृतिक समझ को सहलानेवाले भारतीय नागरिक के दयनीय अभिमान पर भी उन्हें क्रोध आता रहता है। साँढ़ और बैल का फर्क न समझनेवाले भारतीय यदि खुद को कृषि-प्रधान भारत का नागरिक माने तो दया स्वाभाविक है। इस संग्रह की अन्तिम कविता ‘लउर’ अपेक्षाकृत लम्बी है। ‘लउर है प्रतीक/आन-बान, शान का/हमले का हथियार नहीं/सम्बल शक्ति है/लउर ढाल है/किसी भी आपदा-विपदा के विरुद्ध।’ विशिष्ट प्रबन्धन-कौशल और पारिभाषिक उद्योग से उन्होंने इस कविता में ‘लउर’ की स्पष्ट ध्वनि प्रकट करने की सजग कोशिश की है, पर चूँकि यह शब्द नहीं, संस्कृति है, इसलिए इसके अर्थ नहीं, सन्दर्भ समझने होंगे। ‘लउर’ कभी-कभी राजनीतिक दुष्चक्र की मानसिकता में समृद्धि के प्रतीक की तरह घुसता है और वर्गीयता की ओर धकेलकर अच्छे-भले चेतन मनुष्य को हिंस्र बना देता है। भारत में भाषिकता की यही गरिमा है। उपेन्द्र कुमार की कविताई में बात कौशल से व्यक्त हुई कि सचमुच कविता आह्लादित करनेवाली कला भी है, और शिक्षित करनेवाला शास्त्र भी।

यथार्थ के मिथक

यथार्थ के मिथक

मिथिकों एवं पुरा-कथाओं के सन्दर्भों से ओत-प्रोत होने के बावजूद उपेन्द्र कुमार का प्रबन्ध-काव्य वायु पुरुष’ (सन 2018, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली) रूपकार्थ में आधुनिक संसार की मंगल-कामना करता एक अनुपम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का अवगाहन समकालीन वैश्विक संकट एवं प्रदूषण से जूझते समाज के लिए प्रेरणास्पद है। आज की वैश्विक चिन्ता जिस ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण और पारिस्थितिकी से जुड़ी हुई और वायु-प्रदूषण जिस तरह प्राण लेने पर तुला है, उसके उद्भव-स्रोत कोई और नहीं हम ही हैं।

इस कृति के शीर्षनाम से ही स्पष्ट है कि इसके कई सन्दर्भ वायु-पुराण से मिलते हैं। वायुदेव इसमें चरित-नायक हैं, किन्तु कवि ने इन्हें पौराणिक से लेकर आधुनिक समय तक के सभी सन्दर्भों में निरूपित किया है। तथ्यतः एक ही वायु जनजीवन में समयानुरूप विभिन्न रूपों में--कभी प्राण-वायु, कभी पवन, कभी वृष्टि के घटक, कभी आँधी-तूफान के कारण, कभी शीतलता-ऊष्मा-ऊष्णता के साधन बनकर... प्रविष्ट होता है। भौतिक रूपों में वह उन्हीं के अनुरूप स्वयं को ढाल लेता है। इस कृति में नायकत्व तो वायुको मिला है, पर जो वायु हमारे इतिहास पुराण से लेकर दिनचर्या के विभिन्न प्रसंगों में उपस्थित है, उस पर कवि की राय है कि प्रकृति और पवन के लिए प्रदूषण हिंसा है, अभिशाप है, जैसे संसार के लिए आतंकवाद। ऐसा अभिशाप या आतंकवाद, एक मनुष्य या एक देश का नहीं होता। वह तो एक सभ्यता विनाशक है।

इस प्रबन्ध-काव्य के दसवें सर्ग में एक वैश्विक विडम्बना के कारण डरती है इसी बात से प्रकृति/कि वे मानव कर तो पाएँगे नया कुछ नहीं/परन्तु देगी वह उन्हें जो भी उत्तम, विरासत में/करेंगे क्रोध उसी के प्रति/होना था जिन आँखों में प्रेम/स्वार्थ में वे ही बनेंगीं अन्धी/छा जाएगा अविवेक सभ्यता की समझ पर/वे अदूरदर्शी/उठा लेंगे बन्दूकें विध्वंसक उन्हीं हाथों में/जिनमें होने चाहिए थे हल।हाथ में हल होने का प्रतीक यहाँ कृषि-संस्कृति के संवर्द्धन और पवन-पावस के संकेत निरूपित हैं। इस अदृश्य वायु-देव का दर्शन तो किसी को नहीं हुआ, पर वे सबको जानते हैं। वे सभी मनुष्य को, पशु, पक्षी, फसल, पेड़, पौधे, जड़ी-बूटी, वन-उपवन को वे छूते हैं। हर किसी के संग चलते हैं, ऋतुओं की अगुआई-विदाई वही करते हैं। उनके अनेक रूप हैं--सौम्य, प्रशान्त, भीषण प्रलयंकारी।

पर, लोग हैं कि पवन प्रदूषित करने के महापाप के भागी/अपने कष्ट मिटाने को भागेंगे/मन्दिर-मन्दिर/हनुमान के आगे हाथ जोड़े प्रसाद चढ़ाएँगे/परन्तु अपने-अपने पिता के हत्यारों को/क्यों कर पवनपुत्र उबारेंगे?’ ध्यान रहे कि हनुमान का नाम ही है पवनपुत्र। अंजना और पवन के संयोग से उनका जन्म हुआ। इसी बात को रेखांकित करते हुए इस काव्य के प्रथम सर्ग में वायु के आत्मकथ्य का विलक्षण निरूपण है, जिसमें आधुनिक समाज-व्यवस्था के अनुकूल सारी बातें सामने आ गई हैं। विभिन्न रूपों में पवन हमारे चतुर्दिक प्रसारित हैं, वे सारे पौराणिक प्रसंग यहाँ आधुनिक सन्दर्भ में, आज के समाज की जीवन-लीला रूप में वैज्ञानिक ढंग से निरूपित हैं। वायु पुरुषको नया अर्थ देते हुए, ग्यारह सर्गों में रचित इस प्रबन्ध-काव्य को हम न तो खण्डकाव्य कह सकते, न महाकाव्य। परिभाषाओं के यत्न से बचते हुए इसकी प्रबन्धकता के मद्देनजर इसे प्रबन्ध-काव्य कहना ही श्रेयस्कर है। हर सर्ग का कथा-सूत्र अगले-पिछले से सम्बद्ध है। वायुदेव की आत्मकथात्मकता इसकी प्रबन्धात्मकता को निर्देशित कर एक लक्ष्य तक पहुँचाती है जो अन्ततः कवि का चरम लक्ष्य है। और, कवि का लक्ष्य इतिहास-पुराण सम्बन्धी अपना ज्ञान बघारना नहीं बल्कि इतिहास-पुराण के सन्दर्भों से प्रेरित होकर, नई व्याख्या के साथ उस पाठ को समयानुकूल और उपादेय बनाना है।

पहले सर्ग में, वायु स्वयं उपस्थित होकर अपना परिचय देते हैं कि मैं वायु हूँ/कहाँ हुआ जन्म मेरा/...मैं जानता हूँ और नहीं भी/एक अबूझ पहेली है या स्वप्न।इस अबूझ पहेली को रेखांकित करते हुए कवि कई भारतीय प्रसंगों के साथ-साथ मिस्र की सभ्यता तक पहुँच जाते हैं। और, वायु के पुलिंग होने और हवा के स्त्रीलिंग होने का उल्लेख करते हुए, वायुपुत्र भीम और पवनपुत्र हनुमान तक की चर्चा करते हुए, मिस्र के मातृदेवीपूजक निवासियों की ओर चल पड़ते हैं, जहाँ पुरातनता के इतिहास में उल्लिखित एकलिंगी दिव्य-भृंग की पूजा सभी प्राचीन काल के मिस्रवासी करते रहे। माना जाता रहा कि तब पुरुष मात्र ही मौजूद थे। फिर वहाँ चीलको माँ का प्रतीक भी माना जाता रहा, जिसका धर स्त्री का और सिर चील का होता है। इस तरह कई ऐतिहासिक सन्दर्भों से एकत्र इन प्रसंगों को रेखांकित करते हुए कवि उस सन्दर्भ की ओर भी जाते हैं जहाँ चीलों के गर्भवती होने की क्रिया सम्भव हुई। प्रसंग रोचक है कि चील हवा में उड़ती, अठखेलियाँ करती, आकाश की असीम ऊँचाइयों में वायु को रिझाकर उससे गर्भवती होती थी। वायु-पुराणऔर अग्नि-पुराणके सन्दर्भों से रचित इस काव्य के कथ्य से आज के वैज्ञानिक समय में भावकों को चिन्तित नहीं होना चाहिए। उन्हें चिन्ता करनी चाहिए अपने समय के वायु-प्रदूषण की। सभी दिशाओं से चलनेवाले वायु का अधुनातन रूप इस काव्य में पाठकों को अवश्य उद्बुद्ध करेगा, जहाँ मानव-जीवन और प्रकृति-विकास में वायु के अवदान मोहक ढंग से निरूपित हैं।

 भिन्न-भिन्न दिशाओं एवं पर्यवस्थितियों से चलनेवाले वायु दखिन या दखिनैया/और उत्तर से आने वाले उत्तरा या उत्तरैया/दक्खिन-पछाही या नरेती कहे जाते हैं/जो लपट लिए गर्मी में चलते हैं झकझोरते/...बर्फीली गिरि-कन्दराओं से वात का आगमन हो तो/हिमवात...।प्रकृति में पवन-पावस के तालमेल से किसानी संस्कृति ऐसा गहन लगाव, वायु-संचरण की दिशा से बारिस और फसल का मिजाज भाँप लेने की कला लोकोक्तियों में उल्लेखनीय है। मनुष्य की शारीरिक अवस्था पर भी वायु-पुरुष के छुअन की अलग-अलग तासीर से लौकिक चेतना अवगत है। ऐसे विवरणों से किसानी संस्कृति के प्रति कवि का लगाव पहचाना जा सकता है।

चन्द्रदेव को अपना परिचय देते हुए वायु पुरुष कहते हैं कि ‘...मैं वह हूँ/जो मनुष्य से पहले आया था/और फिर हुए मेरे कई पुनर्जन्म/मैं हवा हूँ और उससे अधिक भी बहुत कुछ हूँ।हस्तिनापुर साम्राज्ञी कुन्ती से वायुदेव का समागम और भीमसेन के जन्म का उल्लेख तो उपेन्द्र कुमार ने अपने पूर्वरचित प्रबन्ध-काव्य इन्द्रप्रस्थमें भी किया है, पर यहाँ उन्होंने वाल्मीकि रामायण के सन्दर्भ से अंजना-पवनदेव के प्रेम-प्रणय का अत्यन्त माँसल और मोहक चित्र निरूपित किया है--एक दिन की बात है/सुशोभित रूप और यौवन से/धारण कर मानव स्त्री का रूप अंजना कर रही थी भ्रमण/काले बादलों की कान्तिवाले/पर्वत शिखर पर/...गुजरे तभी वहाँ से वायुदेव/मोहित हो उनके रूप से/वायुदेव ने उड़ा दिए देवी अंजना के वस्त्र/...लगाई नहीं वायुदेव ने तनिक भी देर/बाहों में भर हृदय से लगा लिया/उस अनिन्द्य सुन्दरी को/...हुई देवि अंजना प्रसन्न/उन्होंने दिया जन्म एक पुत्र को।पौराणिक सन्दर्भों से निरूपित पवनदेव के शौर्य-पराक्रम का उल्लेख इस काव्य में ऐसे है कि ‘...महाक्रोध किया वायुदेव ने/और छोड़ दिया/प्रवाहित होना तीनों लोकों में/वायु के प्रकोप से/बन्द हो गया लोगों का साँस लेना/हाहाकार मच गया समस्त सृष्टि में/अवरुद्ध होने से वायु के/तीनों लोकों में मच गई खलबली/अनुनय विनय में वायुदेव के लग गए/समस्त लोकपाल...।सुनने में यह वायु-कथा जितनी भी पौराणिक और अव्यवहारिक लगे, पर हम कल्पना करके देखें कि दो पल के लिए ऐसा हो ही जाए, तो जीव-जन्तु की जीवन-लीला का क्या हाल होगा? ऐसे में कवि यहाँ सन्देश देना चाहते हैं कि जिस वायु के कारण हमारी साँस अवरुद्ध हो सकती है उस वायु की प्रकृति को सौन्दर्य-सम्पन्न रहने दें, अपने कुकृत्य से उसे प्रदूषित न करें, क्योंकि उस प्रदूषण का अन्तिम दण्ड हमें ही भोगना पड़ेगा। क्योंकि--जब सृष्टि की सर्वोत्तम रचना/मानव प्रजाति ही बन उठेगी/सृष्टि-हन्ता, आत्म-हन्ता/आकाशगंगा तक छूने लगेंगे/मानव के विध्वंसक कारनामे/बना तो पाएँगे बेहतर कुछ भी/परन्तु नासमझी में खाते और खोते रहेंगे/प्राकृतिक संसाधनों को। 

मिथक-पुराण के रूपक और इन्द्रप्रस्थ

मिथक-पुराण के रूपक और इन्द्रप्रस्थ

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में दर्ज प्रसंगों के रूपक से बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के समकालीन यथार्थ पर प्रबन्ध-काव्य की रचना हिन्दी में कोई नई बात नहीं है, होती रही है। बड़े-बड़े रचनाकारों ने रामायण, महाभारत, उपनिषद की कथा पर रचनाएँ की हैं--तुलसीदास, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, कुँवर नारायण...जैसे कई उदाहरण हैं। वरिष्ठ कवि उपेन्द्र कुमार का प्रबन्ध-काव्य ‘इन्द्रप्रस्थ’ (सन् 2017, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली) इसी धारा की विशिष्ट किन्तु चिन्तन में भिन्न स्वरूप की रचना है। उपेन्द्र कुमार वस्तुतः अधिकार, प्यार एवं चेतना के प्रखर कवि हैं, उनकी अब तक कुल तेरह काव्य-कृतियाँ--दो गजल-संग्रह, दो प्रबन्ध-काव्य, एक लम्बी कविता और आठ कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। अज्ञेय, अमृता प्रीतम, कमलेश्वर, केदारनाथ सिंह, गंगा प्रसाद विमल जैसे विशिष्ट रचनाकारों ने उनकी कविताई की बलइयाँ ली हैं। काव्य-सृजन के लिए अनेक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी होने के बावजूद नौकरशाही कभी उनके मन-मिजाज पर नहीं चढ़ी। वे सदैव जनोन्मुख कविता रचते रहे हैं। इन जनोन्मुखता ने ही उन्हें समकालीन परिवेश के निरूपण के लिए ‘इन्द्रप्रस्थ’ की ओर आकर्षित किया। पाण्डवों के श्रमशील उद्यम से खाण्डव-प्रस्थ उजाड़कर बसाया गया ‘इन्द्रप्रस्थ’ महज एक राजधानी नहीं है, इसमें स्त्री-विमर्श के सूक्ष्म चिन्तन दबे पड़े हैं। हस्तिनापुर के महामान्यों के नीति-न्याय-विवेक के समक्ष महाभारत-कथा के स्त्री पात्रों की वेदना ज्वलन्त प्रश्नों के साथ दम्भ से खड़े होते हैं। इस कृति में द्रौपदी के साथ हुए अत्याचार की शिनाख्त बेशक महाभारत-कथा के लिए अप्रासंगिक, अतार्किक या अनैतिहासिक हों, पर आज के भारतीय समाज के स्त्री-विमर्श के लिए चिन्तनीय है। विषय-वस्तु, प्रस्तुति, भाषा का ओज और विवरण की रोचकता रमणीय है। एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृति की भाँति यह अपने समय और समाज की आँखों से परम्परा का अन्वेषण, आविष्कार, मूल्यांकन और समकालीन सन्दर्भों की सार्थकता प्रमाणित करती है। महाभारत-कथा के चुने हुए मोहक, माँसल, प्रसंगानुकूल चित्रों को अनुकूलित कर इसमें छवि-प्रसंगों का कोलाज बनाया गया है, जिसकी अर्थ-छवियाँ समकालीन समाज के जीवन-यापन को विवेकी दृष्टि से देखने पर ही स्पष्ट होंगी। स्वातन्त्र्योत्तर काल में युवा हुए उपेन्द्र कुमार बीसवीं सदी के सही जीवन-दृष्टिवाले उन सृजनधर्मियों में से जिन्हें महाभारत-कथा सदैव आकर्षित करती रही। पौराणिक प्रतीकों से रचनाओं को समकालीन और माँसल बनाने की क्रिया उनके मानस में इस तरह बसा हुआ है कि ये प्रसंग उनकी अनेक मुक्तक कविताओं में दिखते हैं। नए अर्थ-संवाहक प्रतीक बनकर महाभारत के विभिन्न चरित्र उपेन्द्र कुमार के यहाँ भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में आते हैं। इस काव्य के शाश्वत पुरुष कभी युधिष्ठिर के रूप में सामने आते हैं, तो कभी अर्जुन, कर्ण या कृष्ण के रूप में। आधुनिक भारत का राजनीतिक परिवेश प्रकटतः इन्हीं नीति-धर्मवेत्ताओं और वीरों के कर्माचार का रूपांकन है। कर्ण की बहुमुखी पीड़ा के वर्णन द्वारा आज के वंचित-शोषित समुदाय की त्रासद अनुभूति की सच्ची छवि यहाँ कौशलपूर्ण प्रतीकार्थ में नियोजित है। इसी तरह यहाँ शाश्वत स्त्री कभी कुन्ती की पीड़ा प्रकट करती है, तो कभी द्रौपदी की। अभिधान कुछ भी हो--राजकुमारी, कुँआरी माँ, राजरानी, अशक्य पति की पत्नी, विवाहेतर समागम से राजहित में सन्तति जुटाने का दायित्व ढोनेवाली कुन्ती; या राजकुमारी, दुर्लभ वस्तु की संज्ञा से पाँच-पाँच पतियों में बँटने की पीड़ा झेलनेवाली, जुए के दाँव में हार दी गई वस्तु, भरी सभा में श्वशुरों, गुरुओं की उपस्थिति में नृशंस देवरों से अपमानित होने वाली द्रौपदी...हर हाल में यह काव्य, पुरुषों की धर्म-रक्षा के पाखण्ड और स्त्री-जीवन की त्रासदी को रेखांकित करता है। कर्ण और द्रौपदी का चरित्रांकन तो इस काव्य में सचमुच विशेष व्याख्या की माँग करता है। वैसे ‘इन्द्रप्रस्थ’ के सुख-दुख के सहभागी पुरुष या स्त्री और भी हैं, पर कवि ने उनकी भूमिका उल्लेख मात्र तक सीमित रखी। मूक-दृष्टि से आज्ञानुगमन के सिवा उन सबने पूरे प्रसंग में कुछ किया भी तो नहीं! तथ्यतः चतुर्दिक व्याप्त नीति-अनीति, विवेक-अविवेक, पक्षधरता-तटस्थता, राजरक्षा-मूल्यरक्षा, सत्तामद-मनुष्यपद, स्त्रीमन-पुरुषमन, तर्क-भावुकता...के शाश्वत संघर्षों को बीच बहस में लाने की इच्छा किसी विचारवान को ही हो सकती है। ‘इन्द्रप्रस्थ’ प्रबन्ध-काव्य में यह काम सूक्ष्मता से हुआ है, जहाँ भोग और विवेक का सघन द्वन्द्व दिखता है। इन द्वन्द्वों के सुचिन्तित घटक--पुरुष और स्त्री के अन्तस् में झाँकने पर स्पष्ट होता है कि भोगी का कोई विवेक नहीं होता; भोगेच्छा सहलाने के हर आचरण उनकी दृष्टि में विवेकशील होते हैं, पर यह सच नहीं है। स्वयंवर-सभा से लौटकर धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा कुन्ती को सूचना देना कि ‘माँ देखो हम आज एक दुर्लभ वस्तु लाए हैं’ धर्मराज के किस धर्म का अनुगमन था? कुन्ती भी तो जानती थी कि उनकी सन्तानें स्वयंवर सभा से लौटी हैं, उन्होंने किस विवेक से एक स्त्री के पाँच पुरुषों में बँटने की आज्ञा दी? इस प्रबन्ध की इसी विसंगति को आज के सन्दर्भ में देखते हुए उपेन्द्र कुमार ने नई व्याख्या दी है। रोचक है कि इस प्रबन्ध-काव्य की कोई कथा नहीं है, भिन्न-भिन्न उपाख्यानों से उठाए गए प्रसंगों को सूत्रबद्ध करने का एक प्रबन्ध है, जिसमें कहीं तो अन्य पुरुष में कवि का बखान है, कहीं प्रथम पुरुष में पात्र के वेदना की अभिव्यक्ति। तेरह छोटे-छोटे प्रसंगों के इस प्रबन्ध-काव्य के पहले प्रसंग में ‘इन्द्रप्रस्थ’ की पहचान सुनिश्चित करने की चेष्टा है--‘शायद यही इन्द्रप्रस्थ है/...समय के साथ दौर में स्पर्धा करता/...अगर इतनी मिठास है इन्द्रप्रस्थ में/तो फिर स्वर्ग क्या है/...प्रेम तो धरती का उपहार है/परन्तु मनुष्य है उस देवलोक से चमत्कृत/जो बादलों में ऐसे छुपा है/जहाँ प्रेमियों की आँखें पहुँच नहीं पातीं।’ यह उसी इन्द्रप्रस्थ की भव्यता का वर्णन है, जिसकी प्रतिस्पद्र्धा में हस्तिनापुर ने अन्याय की सारी हदें पार कर दीं, पर इन्द्रप्रस्थ भी कोई पीछे नहीं रहा। जिस इन्द्रप्रस्थ-हस्तिनापुर का पूरा परवर्ती आचरण घृणा, ईष्र्या और कामान्धता से भरा हो, स्त्री का मान-मर्दन हो, जाति-निर्णय न होने के कारण शौर्य का सम्मान न हो, उससे प्रेरणा तो ली जा सकती है, प्रशंसा कतई नहीं की सकती! इसीलिए उपेन्द्र कुमार ने पाण्डव-कौरव के घृणास्पद आचरण के प्रतिकूल इसी पृथ्वी पर जुटाए प्रेम के उपहार से हमारे समय को भर देने की प्रेरणा दी है--‘हमारी सदियों ने देखा नहीं कुरुक्षेत्र/पर उसके घाव बाकी हैं/और सहमत कोई नहीं/...मैं मनुष्य हूँ/क्या चाहूँ सिवा प्रेम के/क्या माँगूँ/समय से डर भी लगता है।’ वस्तुतः कोई प्रेमाकुल हृदय कुरुक्षेत्र के घाव को सहमति नहीं देगा। इसीलिए कवि धिक्कार के साथ इन्द्र को भी आमन्त्राण देते हैं--‘आइए इन्द्र आइए/प्रेम का उपहार पाइए/देखिए धरती का प्रेम/आँखों में आँखें डालिए/आपके स्वर्ग से इन्द्रप्रस्थ ही अच्छा है।’ इन्द्रप्रस्थ असल में एक प्रतीक है। देवताओं के राजा इन्द्र के रहने की जगह। अब राजा के रहने की जगह तो वही होगी, जहाँ सबके लिए प्रेम, प्रतिष्ठा, सुख-सम्मान की व्यवस्था हो, पर इन्द्रप्रस्थ की कथा ने तो उसे ऐसा बनने नहीं दिया! मिथकों में इन्द्र तो स्वयं कई दुष्कृत्यों के जनक होते रहे हैं। इधर धृतराष्ट्र की नेत्रहीनता नहीं, उनकी दृष्टिहीनता और स्वार्थपरता को रेखांकित करते हुए कवि लिखते हैं कि--‘धृतराष्ट्र/जिसे नहीं दिखता था वह सब कुछ/जो दिखता है नेत्रधारियों को/परन्तु शायद सुन लेता था वह समय की पगचाप/उसी ने दिया पाण्डवों को यह अन्धा न्याय/किया बँटवारा दो भागों में राज्य का/इन्द्रप्रस्थ पाण्डवों को/हस्तिनापुर कौरवों को।’ प्राचीन रूपकों से निरूपित सत्ताधीश के कलुष वस्तुतः जनसामान्य को सहजता से सम्प्रेषित होते हैं। इसीलिए उपेन्द्र कुमार ने स्वातन्त्रयोत्तरकालीन भारत के सत्ताधीशों की राजनीतिक स्वार्थपरता और पुरुषवादी अहं के वैचित्रय को ‘इन्द्रप्रस्थ’ के उपाख्यानों के रूपकार्थ में उजागर करने का मार्ग अपनाया है। राजा की लिप्सा, कामान्धाता एवं अन्य दुर्वृत्तियों को निरूपित करने के इस अनूठे कौशल में कवि ने अलग से कुछ नहीं किया, बस प्रतीकार्थ की पलकें तनिक खोल दीं। फिर तो घटनाओं के सिलसिले समयानुकूलता से जुड़ने लगे। अत्याधुनिक भारत की शासन-व्यवस्था की दुर्वृत्तियाँ स्पष्ट होने लगीं। नीति, धर्म, विवेक, न्याय की धज्जियाँ उड़ानेवाले चेहरों की पहचान होने लगी। बेटे के हित में भतीजे के साथ अन्याय करने की वृत्ति, लोकतन्त्रा का मजाक है, राजा की कामान्धता है। कामान्धाता केवल यौनिक-दुराचार ही नहीं, ‘काम’ का अन्यार्थ आसक्ति और लिप्सा भी है। लिप्सा के कारण हर समय के महाप्रतापी कलंकित होते रहे हैं। लिप्सा के वशीभूत स्त्री-मर्यादा के हनन के आरोप से पुरुरवा, नहुष, ययाति जैसे परम-प्रतापी राजाओं पर भी लगे। इन बहुविध प्रतीकों से ‘इन्द्रप्रस्थ’ रचते हुए उपेन्द्र कुमार ने आधुनिक भारतीय समाज की छवि प्रस्तुत कर विलक्षण कार्य किया है। यज्ञ से उत्पन्न पवित्र कन्या, पांचाल नरेश की पुत्री, महाबली धृष्टद्युम्न की बहन, कृष्ण की सखी, अर्जुन की भार्या जैसे अभिधान के बावजूद‘इन्द्रप्रस्थ’ में निरूपित द्रौपदी की दारुण पीड़ा आज की सामान्य स्त्री की पीड़ा की तरह उपस्थित होती है। स्वयंवर सभा में उसने वरण तो किया अर्जुन को, पर पाँच-पाँच पुरुषों में बाँटी गईं। ज्येष्ठ-स्थानीय कर्ण और कौरव देवरों से अपमानित हुईं, श्वशुुर स्थानीय बुद्धिजीवियों एवं राज-मन्त्राणा के विशेषज्ञों की उपस्थिति में क्रूरता से उनका चीर-हरण हुआ। किसी धर्मवेत्ताओं ने उसके सम्मान की रक्षा का सांकेतिक प्रयास भी नहीं किया। हस्तिनापुर से बँधी अपनी सारी निष्ठा की दुहाई देनेवाले भीष्म चुप बैठे रहे। वह कौन-सी निष्ठा थी? कुन्ती के उस वचन का क्या ‘मूल्य’ था कि एक स्त्री की अस्मिता-रक्षा के लिए तोड़ा न जाए। एक विवश स्त्री की अस्मिता न बचा पानेवाले प्रतापियों का क्या पराक्रम? इस काव्य के ‘चुम्बन ही चुम्बन’ प्रकरण में कवि ने द्रौपदी के अनुरक्ति भरे स्वप्न को अत्यन्त माँसल बनाकर स्त्रिायों की कामनाओं का उत्कृष्ट समावेश किया है। कामाशक्ति के प्रबल संवेग के बावजूद सपने में ही सही, किन्तु मर्यादित कामकला का सम्पूर्ण समन्वय इस काव्य को मोहक, मनोरंजक और मार्मिक बनाता है। लोकमान्यता में दिवास्वप्न का खण्डित होना ही उसकी नियति है, इसलिए कवि-विवेक की रक्षा करते हुए उपेन्द्र कुमार ने लोक-मान्यता की भी रक्षा की है। द्रौपदी की समस्त कामनाओं को तृप्त करवाकर दासी द्वारा स्वप्न भंग करवाया। यह दृश्य बेशक ऐतिहासिक सत्य न हो, किन्तु काव्य-सत्य के रूप में, स्त्री-मनोवेग के रूप में सदैव सत्य माना जाएगा। यहाँ कवि-चिन्ता जायज है कि--‘द्रौपदी/एक मर्यादापूर्ण स्त्री.../जिसे करना पड़ा साझा/पाँचों के बीच समान रूप से/...कैसे हुआ होगा सम्भव/...बाँटना बराबर-बराबर अपने/मनोभाव, भावातिरेक, कामोन्माद/पाँच पुरुष देहों को।’ नियति-विधान को रेखांकित करते हुए ‘जब तक जीवन है’ प्रकरण में उन्होंने परमज्ञानी, नीतिवेत्ता, धर्मनिष्ठा के अधिष्ठाता धर्मराज युधिष्ठिर की माया-लिप्सा में संलिप्ति की खबर भली-भाँति ली है, जिनका ‘अतिचार’ ‘काल के पन्नों पर दर्ज हो चुका है...’ जिन्होंने द्रौपदी के प्रसंग में नीति-रक्षा का यत्न कभी नहीं किया! द्रौपदी-स्वयंवर में लक्ष्य-वेध के बाद ‘अर्जुन की सफलता ने/फैला दी थी एक अपूर्व आभा द्रौपदी के मुख पर/...कुन्ती के होठों पर/वर्षों बाद आई मुस्कान।’ मगर इस अपूर्व आभा की परिणति कितनी लज्जास्पद हुई! इस चिर-प्रतीक्षित मुस्कान का नेपथ्य कितना वीभत्स हो गया! ‘माँ देखो हम आज एक दुर्लभ वस्तु लाए हैं!’ जैसी घोषणा द्रौपदी के लिए धर्मराज ने ऊँचे स्वर में कैसे की? माँ ने उसे पाँचो भाइयों में बाँट लेने की आज्ञा कैसे दी? इन अपराधों पर कवि उपेन्द्र कुमार ने युधिष्ठिर के समक्ष यक्ष-प्रश्न लेकर उपस्थित हुए कि जीवन भर न्याय, सत्य, निष्ठा की दुहाई देनेवाले युधिष्ठिर की न्याय-प्रिय ध्वनि क्यों नहीं बच पाई? ‘बार-बार वापस लौटना द्रौपदी-कक्ष से सूर्योदय के साथ/...रस-लोभी लम्पट मन प्रेरित सहवास?...जैसे धर्मराज का प्रखर तेज मद्धिम होता गया/...बचा नहीं उनमें कोई प्रतिरोध/शकुनि के उकसाने पर काँपे नहीं उनके हाथ/द्रौपदी को दाँव पर लगाते।’ महाभारत-कथा का पाठ हम निरन्तर धर्म-कथा के रूप में करते आए हैं। पर इस धर्म में जितने अधर्म-पथ अपनाए गए, आज हमें उनसे प्रेरणा लेने की जरूरत है। आज के नायकों/पाठकों को उपेन्द्र कुमार इस ओर बार-बार उन्मुख कर नीति अपनाने की प्रेरणा देते हैं। इस काव्य में अर्जुन का अन्तस्संघर्ष बड़ी सूक्ष्मता से रेखांकित हुआ है। कवि की राय में अर्जुन की अटल धारणा है कि सारी बातें ‘माँ जानती थी।’ यह धारणा कोई अतार्किक भी नहीं है। जब माँ जानती थी कि पाँचो भाई स्वयंवर सभा से लौटे हैं, उन्हें अपने पुत्रों के पराक्रम पर आस्था भी थी, फिर उन्होंने द्रौपदी को ‘वस्तु’ कैसे समझ लिया? युधिष्ठर द्वारा पुत्र के विजयी होकर लौटने का अर्थ उन्होंने बहू का आगमन क्यों नहीं समझा? या कि युधिष्ठिर ने क्यों नहीं कहा कि--माँ पार्थ ने स्वयंवर जीता है!...प्रश्नों का अम्बार है इस काव्य में। ऐसे प्रश्न भारतीय लोकतन्त्रा की चर्याओं में बिखरे पड़े हैं। यह विडम्बना सम्भवतः द्रौपदी के सौन्दर्य से भी उपजी थी। कौरवों के विरुद्ध डटकर खड़े होने के लिए पाण्डवों में अटूट एकता की जरूरत थी। ऐसे में ‘सिर्फ अर्जुन को मिले कृष्णा/तो निश्चय ही ईष्र्यान्वित होंगे अन्य भ्राता/उपजेगा भ्रातृ-विवाद पाँचो पाण्डवों में/सम्भव नहीं हो पाएगा फिर दमन दुष्ट दुराचारी कौरवों का/...समझ-बूझ धर्मराज ने शायद उत्पन्न कर दी ऐसी परिस्थिति/ताकि हो सके धर्म की स्थापना पृथ्वी पर/कृष्णा का तो जन्म ही हुआ है धर्म की रक्षा हेतु।’ इसे नीति कहें, तो सचमुच इससे घृणा की जानी चाहिए। मनुष्यता की पंचायत में किसी भी एक स्त्री को पाँच पुरुषों से विवाह करने का निर्णय देना अमानुषिक कृत्य है, पाश्विक आचरण है। धर्म-रक्षा कदापि नहीं है। किन्तु ऐसी विकृत मनःस्थिति को धर्म के रूप में प्रतिस्थापित करने का चातुर्य भारतीय राजवंश की कथाओं में सदैव होती रही है। सम्भवतः इसीलिए भारतीय प्रशासनिक समाज में आज ऐसा हो रहा है। यही सत्योत्तर (पोस्ट ट्रूथ) प्रसंग है, जो भारतीय समाज में प्राचीन काल से था, वैश्विक चिन्तन में तो अब आया है! कई पौराणिक ग्रन्थों से जुटाए तथ्य के आधार पर उपेन्द्र कुमार ने कुन्ती के जीवन की विडम्बनाओं को मार्मिकता से रेखांकित किया है। कौमार्यावस्था में सूर्यदेव के आवाहन और संसर्ग से कर्ण की माँ बनने की घटना, कर्ण को नदी में बहाकर सुरक्षित कौमार्य का भ्रम देने का आचरण, विवाहोपरान्त तीन-तीन देवों से सन्तान उत्पन्न करना, सौतन के लिए गन्धर्वों का आवाहन करना, पाँच भाइयों के बीच द्रौपदी के बँटवारे की आज्ञा जैसे कुछेक आरोप कुन्ती की चर्या पर अवश्य ही विकार के निशान लगाते हैं; पर प्रतीत नहीं होता कि अटल विडम्बनाओं से घिरी कुन्ती अपनी चर्या में कहीं तार्किक रूप से दोषी है। वस्तुतः समस्त विकारों की जननी उस समय की व्यवस्था और पुंशत्ववादी मनोवृति थी। उपेन्द्र कुमार का यह काव्य सुबुद्ध पाठकों को एक बार फिर से प्रेरणा देता है कि महाभारत-कथा के इन प्रसंगों को सावधानी से पढ़ा जाए। कामना वस्तुतः सारे ही अपराधों की जननी होती है। जिस परम्परा में देवताओं का पुंशत्व भी कामनाओं से विरत न हो, कुन्ती की भूल को सूर्यदेव क्षमादान न दें, उनकी कौमार्यावस्था भंग कर दें, वहाँ सामाजिक अपवाद से बचाव के लिए सूर्य से प्राप्त पुत्र कर्ण को नदी में बहा देना एक माँ की विवशता थी। इस कारुणिक प्रसंग को उपेन्द्र कुमार ने बड़ी वेदना से रेखांकित किया है--‘होती है इच्छा तैरकर जाए/खींच लाए टोकरी/उस शिशु को छाती से लगाए/जिसे उसने जन्म दिया/परन्तु कुछ भी न कर पाने के दुख ने/कुन्ती को कितना छला होगा!’ जीवन भर वह ढूँढती रही खाली आँखों से अपने सुन्दर बेटे को, नीन्द में भी सुनती रही उसकी आवाज। तिलमिला जाती थी अपने यौवन को कोसती हुई। राजकुमारी से महारानी बनने पर भी उसके जीवन की वेदना डटी रही। एक क्लीव पति की अक्षमता झेलती रही। पिता बनने की उसकी महत्त्वाकांक्षा, वंश-वृद्धि का दायित्व, खोए हुए राज्य वापस लेने की धधकती ज्वाला...सारी दुविधाओ से लड़ती हुई कुन्ती ने विवशता में ही सम्भवतः द्रौपदी के बँटवारे की घोषणा की होगी। घोषणा अमानुषिक थी, पर स्त्री के प्रति पुरुष समाज की निर्दयता की परिणति थी। इस काव्य से यह धारणा पुनः पुष्ट होती है कि किसी भी उपलब्धि के लिए अमानुषिक आचरण काम्य नहीं। बेशक कुन्ती या गान्धरी या माद्री या द्रौपदी ने इसका प्रतिकार नहीं किया; पर आज की स्त्रिायाँ करें! समाज इसी प्रतिकार से सुधरेगा। सड़ी-गली परम्पराएँ टूटेंगीं। नए आचार-विचार, समानता और सम्मान के विधान बनेंगे। इन्द्रप्रस्थ की द्रौपदी और कुन्ती की पीड़ा का ऐसा विवरण वस्तुतः रूपकार्थ में आज के समय में स्त्री के प्रति सम्मानपूर्ण व्यवहार का आह्वान है। बल्कि आज के आजाद भारत के सभी प्रसंगों को रेखांकित करते हुए कवि का आह्वान है कि हर मनुष्य को अपनी कामना, स्वप्न, उद्वेग के विवेक के प्रति सावधान रहने की जरूरत है। जाति-मूल-गोत्र-वंश स्पष्ट न होने के कारण यदि सामन्तशाही समाज किसी धुरन्धर पराक्रमी का तिरस्कार करेगा, उसे मान्यता नहीं देगा तो उसे निश्चय ही कोई अविवेकी अपनी टोली में जगह देगा! और फिर धर्मयुद्ध लड़नेवालों को उसे विफल करने के लिए कभी उत्तरा-पुत्र अभिमन्यु, कभी हिडिम्बा-पुत्र घटोत्कच, कभी बर्बरीक जैसे पराक्रमी योद्धाओं को, कभी निरपराध हाथी अश्वत्थामा को अकारण मरवाना पड़ेगा। कल की पीड़ा को आज का प्रेरणा-स्रोत बनाने का कवि-कौशल इस प्रबन्ध-काव्य में कहीं-कहीं ऐतिहासिक तथ्य नहीं भी लग सकता है, क्योंकि यह इतिहास या पुराण की पुनप्र्रस्तुति नहीं है, पौराणिक मिथकों के सहारे आज के समाज के लिए एक सन्देश है कि जो समाज अपने तेजस्वी और प्रतिभा सम्पन्न पराक्रमी लोगों का उपहास करेगा, जाति-वंश और सामाजिक पदक्रम के कारण उसका अपमान करेगा, वह तेजस्वी मनुष्य निश्चय ही अपने स्वाभिमान-रक्षा के लिए किसी ऐसी शक्ति के साथ जा लगेगा जो राष्ट्र के हित में नहीं होगा। ऐसा होता रहा है, होता रहेगा। तार्किक रूप से भले सत्य न हो, पर हर मनुष्य ऋषि नहीं होता, हरदम विवेकशील नहीं रहता, उग्र स्वाभिमान जगने पर कोई भी व्यक्ति आत्मघाती रास्ते की ओर चला जा सकता है। यह सोचना हमारे समाज में आज के बौद्धिकों, समाजसेवियों, अनाज-पानी के देवता बन बैठे सत्तधीशों का दायित्व है। काव्य के अन्तिम अंश में कौरवों के प्रति द्रौपदी का प्रतिकार भरा स्वर आज के आखेटकों के लिए भी आक्रोशपूर्ण धिक्कार है--‘लो कौरवो, हो गई पूरी तुम्हारी इच्छा/निकल गया आगे हस्तिनापुर इन्द्रप्रस्थ से/अन्याय अत्याचार में/या शायद है यह इन्द्रप्रस्थ ही/जो कभी फैला रहता मेरे बाहर/कभी सिमट आता मेरे भीतर/चलता ही रहता सदा मेरे साथ/हर स्त्री के साथ...।’ तय है कि छल-छद्म सदैव छुद्र वृत्तियों को आमन्त्राण देता है, हमारे समाज को पूर्वजों की नैतिकता ही नहीं, भूलों से भी कुछ सकारात्मक सीखना चाहिए। उपेन्द्र कुमार ने ‘इन्द्रप्रस्थ’ प्रबन्ध-काव्य रचकर हमें यही सीखने की प्रेरणा दी है।

मुद्दों से भटके समय में उपेन्द्र कुमार की कविताई

मुद्दों से भटके समय में उपेन्द्र कुमार की कविताई 

हिन्दी के वरिष्ठ कवि उपेन्द्र कुमार वस्तुतः अधिकार, प्यार, असंगत व्यवस्था को धिक्कार, जनजीवन के परिष्कार, चेतना के उभार और उपादेय परम्परा के स्वीकार के कवि हैं। ये सभी समुज्ज्वल भाव उनकी कविताओं में हर स्थिति में रेखांकित होते हैं। उनकी अब तक कुल तेरह काव्य-कृतियाँ प्रकाशित हैं--दो गजल-संग्रह--अपना घर नहीं आया (सन् 1991, पुस्तकायन, नई दिल्ली) और खुशबू उधार ले आए (सन् 1998, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली); दो प्रबन्ध-काव्य--इन्द्रप्रस्थ (सन् 2017, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली), वायु पुरुष (सन 2018, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली); एक लम्बी कविता--मैं बोल पड़ना चाहता हूँ (लम्बी कविता, सन् 1994, मगध प्रकाशन, दिल्ली); और आठ कविता-संग्रह--बूढ़ी जड़ों का नवजात जंगल (सन् 1980, आकांक्षा प्रकाशन, नई दिल्ली), चुप नहीं है समय (सन् 1996, शुभकामना प्रकाशन, दिल्ली), प्रतीक्षा में पहाड़ (सन् 1998, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली), गान्धारी पूछती है (सन 2000, पुस्तक सदन, दिल्ली), उदास पानी (सन् 2002, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली), प्रेम-प्रसंग (सन 2005, डायमण्ड बुक्स, नई दिल्ली), गहन है अन्धकारा (सन् 2010, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली), नंगे पाँव चाँदनी (सन् 2012, विजया बुक्स, दिल्ली)...; पर हिन्दी के वक्तव्य-वीरों की दृष्टि में ये कविताएँ आकर भी टिकी नहीं रहीं। इसे उपेन्द्र कुमार की कविताई का तिरस्कार मानना मुनासिब नहीं होगा। स्मृति-भ्रंश अपने यहाँ कोई व्याधि नहीं मानी जाती। भुला देने जैसी सुविधापरक राजनीतिक क्रिया सन् 1967, 74, 77, 80, 91, 92 के बाद साहित्यिक सामन्तों को भी भाने लगा था। उनके छुटभैयों की चालबाजी तो परवान चढ़ने लगी। आठवें दशक की हिन्दी काव्यधारा के दिग्दर्शकों की दाखिल-खारिज और समूह-निर्माण की नीति इस प्रसंग में गौरतलब होगा। इस विषय पर विस्तार से चर्चा कभी और होगी, अभी के विषय तो उपेन्द्र कुमार हैं।

उक्त विस्मृति में मामूली-सा दोष कवि उपेन्द्र कुमार का भी है। पहला दोष यह कि वे जो कुछ लिखते गए, संकलित कर प्रकाशित कराते गए, चयन की कोई सावधानी नहीं रखी। क्योंकि मान्यतादाताओं के अखाड़े की मानक-नीति से वे कतई परिचित नहीं थे। वर्ना जिनकी कविताओं के पहले संग्रह की संस्तुति अज्ञेय और अमृता प्रीतम जैसे कवि-कवयित्री ने लिखी हो, भवानीप्रसाद मिश्र ने आमुख लिखा हो, उनकी कविताएँ विवेचकों के संज्ञान से बाहर रहतीं! बहरहाल...

हिन्दी अकादेमी, दिल्ली द्वारा सन् 1994 में मैं बोल पढ़ना चाहता हूँ (लम्बी कविता) के लिए ‘कृति सम्मान’, फिर ‘साहित्यकार सम्मान’ के साथ-साथ उन्हें कई संस्थाओं ने ‘काव्य रचना सम्मान’, ‘नेशनल प्रेस इण्डिया सम्मान’, ‘राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ आदि से सम्मानित किया। उनका प्रबन्ध-काव्य इन्द्रप्रस्थ तथा वायु पुरुष अपनी समकालीन सामाजिक उपादेयता एवं वैशिष्ट्य के लिए महत्त्वपूर्ण है। बीते दशक भर में लिखी उनकी विशिष्ट कविताओं का एक संग्रह शीघ्र ही ‘हवा की नदी में’ शीर्षक शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाले हैं। इंजीनियरिंग एवं विधि में स्नातक, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में विभिन्न मन्त्रालयों की प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ उन्होंने लगभग पैंतीस वर्षों तक सँभाली।

बक्सर (बिहार) की पुण्य-भूमि में उनका जन्म सन् 1947 में हुआ। बाल्यावस्था से ही साहित्यिक गतिविधियों में उनकी रुचि थी, स्कूली जीवन से ही तुकबन्दी किया करते थे। अपने गृह-क्षेत्र की धरोहर ‘बक्सर के किले’ की बदहाली पर उन्होंने भावुकतावश एक कविता सन् 1967-68 के आसपास लिखी थी, जो वहीं के किसी स्थानीय पत्र में प्रकाशित हुई। यहीं से उनकी साहित्यिक यात्रा शुरू हुई। सन् 1970 में ‘कादम्बिनी’ पत्रिका में नवागन्तुक कवि के रूप में उनकी एक प्रेम-कविता प्रकाशित हुई; फिर तो काव्य-लेखन गतिशील हो उठा।

सन् 2012 तक उनकी ग्यारह काव्य कृतियाँ प्रकशित हो चुकी थीं। उसी वर्ष उनके ‘नंगे पाँव...चाँदनी’ शीर्षक कविता-संग्रह की भूमिका लिखते हुए प्रसिद्ध कवि गंगा प्रसाद विमल ने उनकी कविताई में नए मोड़ आने की स्थापना दी। उनसे सहमत होना मुनासिब होगा, क्योंकि यहाँ आकर उनके काव्य-शिल्प में लोक-धाराओं एवं लोकाधारों की निजता-सम्भूत प्रयुक्ति अनूठी दिखने लगी। वैसे तो अपने हर नए संग्रह के साथ एक खास नूतनता लेकर आए, पर इन कृतियों के बाद लिखी उनकी कविताओं का तेवर और अधिक सन्तुलन का बोध देता है। उनके शब्द-संसार अपनी खामोशी और मितव्ययिता से भी बहुत कुछ कहने लगे हैं।

हर सच को उजागर करने की अपनी-अपनी सीमा होती है, कवि की भी कविता की भी। ‘परिचय नाम और लिवास’ शीर्षक कविता में वे रिश्ते और आचरण की संगति के मान्य सत्य को दार्शनिक अन्दाज में देखते है--‘रिश्ते लिवास पहन अक्सर/निकल जाते हैं घूमने/लगा लाते हैं दाग धब्बे/न छूटने वाले।’ ये पंक्तियाँ कबीर को याद करने को विवश करती हैं--‘दास कबीर जतन से ओढ़ी/जस के तस रख दीनी चदरिया’ पर विश्वास करने वाले कवि उपेन्द्र कुमार को लिवास में रिश्तो के कारण लगे दाग पर क्लेश होता है। रिश्तेदारों को सन्तुष्ट करने, रिश्ता निभाने में मनुष्य चाहे-अनचाहे अपने आचरण पर या कि लिवास पर दाग लगा आता है। यह लिवास दरअसल मनुष्य का आचरण ही है। लोक-व्यवहार के ऐसे मामूली प्रसंगों पर गहन चिन्तन द्वारा उनका दार्शनिक भाव पैदा करना स्पृहणीय है।

‘कोट बदलने से नहीं बदलता सच’ कविता में वे आगाह करते हैं कि लिबास बदलने से रूप बदलता है, मौलिकता नहीं। सत्ता के बहुरूपिए आचरण के कर्ता देश का रूपान्तरण विकास से नहीं लिबास से करना चाहते हैं। राष्ट्र और समाज को मूलोच्छिन्न करने के उत्सव देखकर वे झूठ का नया व्याकरण रचनेवालों, चाटुकारों को वे धमकाते हैं--‘तुम समझते हो/मुसाहिब हैं तुम्हारे वे ढीठ/जो घूम रहे हैं/दरबारे-खास से दरबारे-आम तक।’ गरीबी, इनसानियत, भूख, वहशत की बेशर्म परिभाषा देनेवालों को सावधान करते हैं--‘भूल गए हो तुम कि/सदा नहीं रहेगा यह मौसम/प्रचण्ड गर्मी के बाद बरसती है गाभिन घटा/दहकती धरती पर बदल जाता है मौसम/और अँखुआते हैं हरे-भरे मोथे/आखिर कहाँ छुपे थे/ये सत्य के बीज?’ यह कविता आततायी किन्तु भंगुर शासकों और उनके चमचों को चुनौती देती है। उन्हें तथ्य-बोध कराती है कि मौसम सदा एक ही के अनुकूल नहीं रहता। सृष्टि-चक्र पर उन्हें अटूट आस्था है। भारतीय लोक परिवेश में कहावत प्रचलित है कि ‘घूरे के भी दिन बहुरते हैं।’ जब घूरे के भी दिन बहुरते हैं, तो देश के तो बहुरेंगे ही! अर्थात नागरिक परिदृश्य में जब सही चेतना आएगी, वे आतंकियों के अहाते में सामान्य लोगों का प्रवेश बन्द कर देंगे, स्थिति निश्चय बदलेगी।

‘अपने हिस्से की रोटी’ की चिन्ता करते हुए कवि धमाचौकड़ी करनेवाले गिरोहबन्द बन्दरों को झपट्टा मारकर रोटी छीनते देखकर खुद को धिक्कारते हैं--‘जाने कैसा इनसान हूँ/छीन नहीं पाया कभी/अपने हिस्से की रोटी।’ यहाँ वे खुद पर ही नहीं, सकल समाज पर भी व्यंग्य करते हैं कि इनसानों को अपने हिस्से की रोटी छीनने का उद्यम करना चाहिए। ये बन्दर प्रकृति में उछल-कूद मचाते बन्दर नहीं है, लोकतन्त्रा के मन्दिर में बैठकर मनुष्य के हिस्से की रोटी छीननेवाले सांकेतिक बन्दर हैं। ‘हिरना सँभल-सँभल कर चलना’ कविता अनेक स्तरों पर दार्शनिकता के भाव खोलती है। बाल सूरज के कन्धे पर बैठकर सुकवा (तोते) के साथ शिशु का जगना, खेलते हुए बड़ा होना, खेल में जीतना-हारना...सब कुछ उन्हें अच्छा लगता है। किन्तु इन सारे परिदृश्य में आसपास का खूँखारपन और जोखिम...उस बालक, अर्थात की एक चंचल हिरण, अर्थात मनुष्यता का स्वातन्त्रय बचने नहीं देगा--‘खेल में क्या जीत क्या हार/स्मृति शेष केवल खेल का खेलना/हिरणा का सँभल सँभल कर चलना/जन्म, जवानी, जरा, मृत्यु से निस्पृह/धूरी पर घूमती/प्रत्येक दिन को बुलाती विदा करती/निरन्तर अग्रसर परिक्रमा पथ पर पृथ्वी।’ यहाँ सबके प्रति समभाव रखनेवाली पृथ्वी की उदारता और समदर्शिता में अपनत्व का अनुराग मोहक है। कवि को अपनी परम्परा और संस्कृति की जनोपयोगी शुचिता से बेहद प्यार है। किन्तु ‘पुरोधा नई सभ्यता के’ आमादा हैं प्राचीन सभ्यताओं के सर्वनाश को--‘झेल लेना अपमान हँसकर/अन्याय को छोटी-सी बात कहकर टाल देना/और आजादी को गिरवी रखने के/एवज में मिली सुविधाओं पर इतराना/आवश्यक शर्तें हैं, आधुनिक और सभ्य होने की।’ आधुनिक और सभ्य होने की ऐसी कीमत चुकानेवाले हमारे देश में सभ्यताओं के उद्घोषकों की सूची के मुताबिक मनुष्य स्वयं एक साँचे में ढल गया है--‘सभ्यताओं को मन मुताबिक साँचों में ढालना आसान नहीं/रौंदते हुए बढ़ना पड़ता है/मानवता को जीवित रखनेवाली कलाओं को/कितनी ही परम्पराओं और विश्वासों को/रेखांकित करें, किन्तु वह यह कहते हुए नहीं चूकते कि/इसीलिए नई सभ्यता के पुरोधाओं ने/इस बार पूरा ध्यान दिया है मशीनों पर/और लगाया है सारा धन बाजारों में।’

स्वातन्त्रयोत्तरकालीन भारत की हीरक जयन्ती मनाते हुए हम देख रहे हैं कि--‘जब हम लड़ रहे होते हैं अपनी असफल लड़ाइयाँ/कितनी सहजता से सीख लेते हैं बच्चे हमारे/घनघोर अभावों के साथ जीना/आफतों के भँवर से/किनारे छिटक, बाहर निकल आना/ललचाने वाली हसरतों से आँखें फेर/आपदाओं को अवसर में बदलने की कला/...सबसे पहले वे सीखते हैं/आँसुओं को रोकना/कि निकले नहीं कोई सिसकी/न पड़े गालों पर निशान उनके सूखने का/वे बहुत समय नहीं गँवाते/बचपन और किशोरावस्था के चोंचलों के लिए/हमारे असफल सपनों और भूली चाहतों की गठरियाँ/कहीं बहुत भीतर अपने चौड़े सीनों में दबाए/वे अचानक आ खड़े होते हैं सामने।’ ऐसे अभाव में पलता बचपन आखिर किस अनुरागी क्षण में एक समृद्ध राष्ट्र की कल्पना करेगा? उसका सपना कितना ऊँचा होगा?‘उपहार लिए आए नए अवतार’ कविता में कवि को चिन्ता है कि--‘सत्ता या विपक्ष किसी को भी ताकत का एहसास नहीं हैं/जिन्हें है उन्हें कैद कर रखा है नीति ने/घेरे में है विचारों की दुनिया/वोट की कोई कीमत नहीं है/गोपनीयता की शपथ लेकर भी करवट बदल लेते हैं।’ राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति इस तरह सचेत कवि उपेन्द्र कुमार की राय में--‘यह भी एक बात है कि--/जमीन से गेहूँ, समुद्र से तेल, पहाड़ों से रत्न लो/लेकिन असली मुद्दों से लोगों का ध्यान दूर रक्खो/जो करते तो कुछ भी नहीं/फिर भी अखबारों में उनके बयान देखो/नहीं है तेल जिन तिलों में उनके तेल की धार देखो।’ अखबारों और विज्ञापनों में एक को तीन बनाकर कहने की जैसी व्यवस्था हमारे समाज में चल पड़ी है और सच को सच की तरह नहीं स्वीकार कर कल्पित सच की घोषणा की जा रही है, मजबूरन उपेन्द्र कुमार की कविताएँ ‘सत्योत्तर’ (पोस्ट-ट्रूथ) प्रसंग देखने लगती है।

युद्ध उपेन्द्र कुमार को कतई पसन्द नहीं। किसी को पसन्द नहीं आते। किन्तु वर्तमान से अतीत तक के सभी युद्ध-प्रसंगों, पुराणों-धर्मकथाओं-नीतिकथाओं को रेखांकित करते हुए वे हर समय के युद्ध को निरर्थक और अमानवीय मानते हैं। वे आधुनिक सियासी आचरणों के लिए महाभारत के नीतिकार कृष्ण का रूपक गढ़ते हुए ‘युद्ध’ के नायक कृष्ण से पूछते हैं--‘फिर वह धर्म युद्ध कहाँ रहा, कृष्ण!/जब एक ही बाण से पूरे वृक्ष के बिंधे पत्तों को देख/बर्बरीक से भयभीत होकर उसकी बलि ले ली/कर्ण से कवच कुण्डल छिनवाया/मलयुद्ध में जरासन्ध को चीरकर हिंसा की/जयद्रथ भी तो सूर्यास्त के छलावे में था/अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो क्या था?/मुझे छल से जीते महाभारत की कथा नहीं चाहिए व्यास/कुछ और कहो!’ उनकी कविताओं में गाहे-बगाहे धर्म-ग्रन्थों से भी शिकायतें साँस लेने लगती हैं--‘ईटों का चूल्हा, बोरसी के आग/हाँड़ी में पानी, आम का अचार/कथरी पुरानी, चूता छप्पर-छानी/गोबर से लिपे-पुते/घर से उठते धुएँ के भकोल से चेहरे/कभी हाथी, कभी ऊँट, कभी बैल और फिर/जादू से हवा में घुलते जाना/तीनों बच्चे चूल्हा तापते हुए/हाँड़ी में पकते कोदोभात की खदबद/और ढक्कन की जुगलबन्दी सुन रहे थे।’ एक अभावग्रस्त परिवार के तीन बच्चों को चूल्हे पर पकते भात के भाप में झूलते हाथी, ऊँट, बैल के जादुई चित्र सम्मोहित करते हैं, इधर बालपन की स्मृति में भावकों को भावुक।

‘हवा की नदी में उड़ते पाखी’ में विरोधाभासी रूपक द्वारा वे एक बड़े विमर्श को सामने ले आते हैं। हवा और नदी--दोनों प्रकृति के अवयव हैं, किन्तु पाखी नदी में नहीं उड़ सकता, हवा में उड़ता है, पर नदी यदि हवा की हो तो उसमें उड़ने की जुगत कोई पाखी कैसे बैठाए--‘हवा की उस नदी में/जिसकी धारा में पंख खोले खुद-ब-खुद/चीलें चक्कर लगाती रहती हैं दिन भर/गोल-गोल तैरती हैं--।’ अब पक्षी यदि चील हो तो हवा क्या, नदी क्या, वह तो किसी घर, किसी गुफा में भी तैर/उड़ सकती है, क्योंकि यह पाखी, पाखी नहीं, पाखी का रूपक है। जो अदृश्य मुद्रा में जाकर कहीं भी शिकार झपट सकता है। ‘चील’ और अन्य पक्षियों के इस रूपक की पहचान कविता में और समाज में जरूरी है। ‘अदृश्य शून्य’ कविता में मुक्ति सम्बन्धी कवि-प्रश्न उचित है कि--‘मुक्ति अन्त है/या किसी और अन्त तक पहुँचने के लिए/एक नया प्रारम्भ।’ भय, भ्रम, पाप, पुण्य, प्रेम, घृणा, घमण्ड और अधैर्य...की गिरफ्त में पड़े हुए मनुष्य की धारणाओं पर उनकी राय है कि ऐसी चीजों से मुक्ति के लिए मनुष्य की मृत्यु जरूरी नहीं, चेतना जरूरी है। चेतना विवेकशील हो तो मनुष्य को मुक्ति का भाव स्वयमेव स्पष्ट हो जाएगा। चेतना साथ छोड़ दे तो इन सबसे मुक्ति असम्भव। उपेन्द्र कुमार को वनवासी जीवन की पवित्रता और पूर्वकालिक समाज के वीरों के प्रति यथेष्ट सम्मान है--‘पता नहीं कौन-कौन-सा राज/मिला भारत-माता को वनवास, हुए उसके बेटे उदास/जाने कहाँ बिला गई अंगद, हनुमान की महापराक्रमी टोली/गो उनके जाने के बाद नहीं रहे जंगल उतने हरे-भरे/रहे वनवासी भी सदा डरे-डरे/इस जैसे किसी दिन लौटेंगे अपने धाम/रघुपति राघव राजा राम!’ ‘रघुपति राघव राजा राम’ शीर्षक इस कविता में कवि नीति एवं धर्म की संस्थापना के निमित्त हुए राम-रावण युद्ध के सहयोगी योद्धाओं की विडम्बनाओं को एक रूपक में स्मरण करते हैं, जहाँ अब जंगल का अस्तित्व क्षीण किया जा रहा है, वर्गीय समाज और भेद-भाव की दुनिया में वनवासी वीरों का सम्मान रौंदा जा रहा रहा है। अटूट आस्था के साथ कवि उपेन्द्र कुमार, हर मनुष्य के भीतर के आदमी को जगाने की चेष्टा करते हैं--‘हर आदमी के भीतर होती है आत्मा/या शायद/आदमी जैसा ही एक और.../भीतर का आदमी/बाहर के दृश्यों को देख/कभी-कभी जग जाता है/यही भीतर का आदमी/पहले शायद बेहतर था समय/जागता था कभी-कभी/आजकल तो देते हैं दृश्य ऐसे दिखाई/अक्सर जगा ही रहता है/अन्दर का आदमी।’ यह अन्दर का आदमी कौन है? आदमी को आतंकी आचरण में क्या यही प्रवृत्त करता है? आतंकी आचरण के विरुद्ध खड़े होने की ताकत भी क्या यही देता है? सचमुच विवेक की तलाश बहुत जरूरी है। तभी तो उनसे--‘कहा कंप्यूटर ने, मोबाइल ने, संजाल ने/छूना है आकाश तो छोड़ो भूमि/कहा व्यवस्था ने/और दे दी जमीन लूटने की छूट/मेरे खुरदरे हाथों से प्रसन्न/समय ने सौंपी/एक चमचमाती खुरपी और कहा--/ये है सबसे पुरानी परन्तु सबसे बड़ी तकनीक/ऐसे ही चमकता रहेगा इसका लोहा/जब तक पसीना रहेगा इसे धोता/खोद डालो सारी जमीन एक बार फिर/नए विचारों के लिए।’ इस कवि को नई तकनीक या नवता से कोई विरोध नहीं है। विरोध उसके अमानुषिक उपयोग से है।

इस समय हम ऐसे सामाजिक पर्यावरण में जी रहे हैं, जहाँ हर कोई निडर होना चाहता है। पर निडर होने का उसका कौशल और प्रशिक्षण शैली विचित्र है। निडर होने की कामना से भरा हर मनुष्य बार-बार वही-वही काम करता है, जिससे उसे सबसे ज्यादा डर लगता है--‘जो होना चाहते हैं निडर/लगे रहते हैं ऐसा कुछ करते रहने में/जिससे लगता है उन्हें डर/जैसे हत्याएँ या बलात्कार बार-बार/जब तक निकल ना जाए, उनका डर/डरने नहीं लग जाएँ दूसरे/माँगने लगें दया की भीख/दूसरों के डरते ही हो जाते हैं ये निडर/मान लिया जाता है कि/पूरा हुआ रियाज/सफल हुई साधना/इस भयमुक्त माहौल में लिए जा सकते हैं/वे सारे निर्णय जो थे अब तक के लम्बित।’ इस लम्बित निर्णय को पूरा करने के लिए जो आतंकी समाज, अमानवीय समुदाय मनुष्य को भयभीत करने की चेष्टा करता है, उपेन्द्र कुमार की ऐसी कविताएँ उन कलुषों पर चोट करती हैं। ‘हाशिए की सचाई’ शीर्षक कविता में संचार-माध्यमों में देश की असंगत तस्वीरें प्रस्तुत करने वाले पत्रकारों पर उँगली उठाते हुए, उनके खिलाफ निर्णय देते हुए वे घोषित करते हैं कि यह दुनिया केवल तुम्हारी नहीं है, सिर्फ तुम्हें ही नहीं जीना है यहाँ--‘मेरे देश का नाम बेहयाई नहीं है/और ना यह सिर्फ तुम्हारा है/मैं तुम्हारे अखबारों और टेलीविजन के फैलाए/झूठ पर यकीन नहीं करता/मैं तुम्हारे आँकड़ों पर यकीन नहीं करता/मैं तुम्हारे वायदों और आश्वासनों पर यकीन नहीं करता/मैं तुम्हारे उत्सवों पर यकीन नहीं करता।’ एक समय था जब पत्रकारिता को लोकतन्त्रा का चौथा स्तम्भ माना जाता था, पत्रकारों द्वारा संचार-माध्यमों द्वारा प्रसारित बात सत्य मानी जाती थी, लोक-चेतना को उद्बुद्ध करने का एक माध्यम माना जाता था। किन्तु बीते कुछ वर्षों में लालची पत्रकारों ने जैसी चारण-वृत्ति अपना ली है, उसे रेखांकित करते हुए कवि फटकारते हैं कि राष्ट्र की सच्ची छवि प्रस्तुत करो, चारण-गीत मत गाओ। समाज और परम्परा के विरुद्ध आचरण करनेवाले व्यवस्थापकों को वे ‘बचता भी क्या है पत्थर के सिवा’ शीर्षक कविता में धमकाते भी हैं--‘तुमने बनाए हैं गलत पंचांग/तुमने स्थापित किए हैं धूर्त देवता/तुमने लिखवाया है फर्जी इतिहास/झूठ के पुलिन्दे हैं तुम्हारे दिक् शास्त्रा/तुमको नहीं पता कि/मेरे पास बचता भी क्या है पत्थर के सिवा।’ फिर वे उन्हें इस धमकी के अन्दाज में कहते हैं--‘लेकिन देख लेना तुम/तुम्हारी निरंकुशता और फर्जी अधिकारों के विरुद्ध/खड़ा रहूँगा वहीं और हर कहीं/पत्थर और इच्छा-शक्ति दोनों हैं मेरे पास/निशाना साधने की कूबत और नैतिक बल भी।’ गौरतलब है कि सारी प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद कवि कभी निराशा की ओर कदम नहीं बढ़ाते; अपने पाठकों को भी नई जमीन, नई चेतना देने का प्रयास करते हैं।

 उनकी कविताओं में चिड़िया, पहाड़, पर्वत, नदी, रिश्ते, लिवास, नाम, पहचान, घर, अन्धकार-विरोध, व्यवस्था-विरोध, संचार...जैसे प्रसंगों को पूरी अर्थवत्ता के साथ जगह मिलती है। इनके मूलार्थ आहत करनेवालों पर वे आँखें तरेरते हैं। उनके जनसरोकार और उनकी काव्य-दृष्टि विस्तृत विवेचन की हकदार है।

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