लाशऊर को शऊर की तालीम
हिन्दी के वरिष्ठ कवि उपेन्द्र कुमार के पहले कविता-संग्रह ‘बूढ़ी जड़ों का नवजात जंगल’ (सन् 1980, आकांक्षा प्रकाशन, नई दिल्ली) में उनकी उनतीस कविताएँ संगृहीत हैं। सन् 1970-80 तक के दस वर्षों में लिखी गई इन कविताओं में न केवल एक युवा मन की उत्तेजनाएँ भरी हैं, बल्कि समसामयिक चुनौतियों से भरे कथ्य और कविता के मुहावरे इनकी गहनता को पुष्ट करते हैं। सृजन सम्बन्धी कवि-घोषणा ‘कविता मेरे लिए वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध व्यवस्थित ढंग से लड़ने के लिए व्यवस्था-प्रदत्त एक हथियार है’ का सावधान संज्ञान लेते हुए उस दौर के शिखरस्थ कवि हीरानन्द सच्चिदानन्द वात्सायन अज्ञेय ने सम्मति दी कि ‘कवि का यह कथन अवश्य भविष्य द्वारा परीक्षणीय रहेगा...यह भी कवि-कथ्यों का चालू मुहावरा तो है, पर जिसने व्यवस्था की रक्षा की शपथ भी ली हो, उसके मुँह से कुछ दूसरा अर्थ रखता है।’ अज्ञेय के सम्भावना-वक्तव्य को कवि उपेन्द्र कुमार ने चुनौती के रूप में ग्रहण किया और अपने आगे की रचना-प्रक्रिया में गम्भीरतापूर्वक इसका सम्मान किया। उस वक्त उनकी आयु तीस वर्ष के आसपास थी और ये कविताएँ बीस से तीस वर्ष की आयु के बीच लिखी गई थीं। आपातकाल की त्रासद स्थितियों से बाहर निकलकर भारतीय नागरिक ने कांग्रेसी सत्ता की तख्ता-पलट और मध्यावधि चुनाव का ताण्डव देख लिया था। राष्ट्रीय मूल्य-मान की रक्षा का सपथ लेकर उपेन्द्र कुमार रक्षा मन्त्रालय में प्रशासनिक सेवा में तैनात थे। भारतीय लोकतन्त्र के दिशा-सूचक मूल्यों की रक्षा की कागजी घोषणाओं और राजनीतिक आचरणों की विसंगतियाँ उन्हें निरन्तर उद्वेलित करती थीं। उन्हें कल की झाड़ियाँ बढ़कर जंगल हो गई दिखती थीं, मगर सामुदायिक जीवन में जंगलराज कायम करनेवाले राजनीतिज्ञ मजे में दिख रहे थे। उन्हें साफ दिख रहा था कि ‘उपदेश देते हैं बगुले/नीति बनाते हैं सियार/मेमना करता है पुकार--मैंने नहीं जुठाया पानी...।’ भारतीय लोकतन्त्र के रक्षक बगुला, सियार और स्वार्थ-संलिप्ति में हिंसक हो जाने और ‘लोक’ को मेमना बना देने की तरकीब को वे सूक्ष्मता देख रहे थे; लोकतन्त्र के महापुरुषों को वे अपनी पेटी में सूरज को बन्द करते हुए देख रहे थे। पूरी धरती को एक समान ऊष्मा देने की नीयत से प्रकट हुए जिस सूरज को, अर्थात् वृहत्तर नागरिक जीवन के समस्त सुख-सौरभ को, पवन-पानी-प्रकाश को जो महापुरुष अपनी निजी सम्पत्ति बना लेने में तल्लीन थे, उन महापुरुषों पर उपेन्द्र कुमार धिक्कार उठे--‘हमारे सूरज माँगने पर/दिखाया तुमने वह प्रकाश जो/तुम्हारी खिड़कियों-दरवाजों से छनकर/बाहर आ रहा था।’ लोकतन्त्र के रक्षकों को वे इस तरह आइना दिखा रहे थे। सम्भवतः इसीलिए उस दौर की प्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम ने इस संग्रह के सम्बन्ध में लिखा कि ‘जब किसी शहर की, किसी प्रान्त की, किसी देश की ऊँचाइयाँ खाली पैडस्टलों से नापी जाने लगें, तो चेतना तड़पकर जो कुछ जड़ता से कहती है, वही सुलगते हुए हरफ ये नज्में हैं...ये नज्में नफरत ओढ़े, लपेटे, बुतों के बीच जेब से गिरी हुई एक गुलाबी मुस्कान को खोजने का यत्न है, इसलिए यह यत्न हम सबको मुबारक है।’
उपेन्द्र कुमार को अपने लेखन के शुरुआती पल में ही उस दौर के विशिष्ट रचनाकारों का ऐसा उदार स्नेह यूँ ही नहीं मिल गया। साहित्य की प्रचलित खेमेबाजी से निर्लिप्त रहकर उन्होंने साहित्यिक सामन्तों को अपनी सीमा भी दिख दी। सदैव अपने समय के सामुदायिक जीवन के गर्हित यथार्थ पर चिन्तन करते रहे और लिखते गए। उसका एक नुकसान भी उनको हुआ। अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति के लिए वे इतने बेचैन रहने लगे कि अनूभूति को कौशल की आवाँ में पकने की सुविधा नहीं दे पाए। इस कारण कविताई में तनिक अतिकथन के शिकार भी हुए। पर व्यंग्य, धिक्कार, फटकार, धमकी देकर कविता द्वारा जनचेतना को उद्बुद्ध करने का यत्न उन्होंने सदैव किया। परिवेश के त्रासद जनजीवन के भविष्य की चिन्ता में वे कुपित व्यंग्य और आत्मबल की घोषणा के साथ समकालीन समाज को आशान्वित करते रहे--‘कौन कहता है अब/रोशनी नहीं होगी/जरा मेरी उँगलियाँ/तो जलाना यारो!’ चतुर्दिक अन्धकार और हताशा के बावजूद यह घोषणा नागरिक-चेतना को उद्बुद्ध करने का कवि-उद्यम है।
अपनी समस्त ऊर्जा के साथ यहाँ कवि पुरजोर साहस और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ भविष्य की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त दिखते हैं; रोशनी नहीं होने की आशंका में वे मोमबत्ती या माचिस या मशाल की तरह अपनी उँगली जला लेने का आह्वान करते हैं। जनसामान्य को उद्बुद्ध करने का यह अद्भुत काव्य-कौशल है।
इस संग्रह का आमुख में कविता की सहज सम्प्रेषणीयता के लिए सुविख्यात कवि भवानीप्रसाद मिश्र ने उपेन्द्र कुमार को विचार को प्रेरणा की तरलता देकर जीवन्त लय में प्रवाहित करनेवाले और फिर उस प्रवाह को टूटने-बिखरने से बचानेवाले के रूप में देखा। उपेन्द्र कुमार की कविता में गम्भीरता और व्यंग्य के सुसंगत आनुपातिक संजोग देखकर भवानीप्रसाद मिश्र ने आश्वस्त होकर इन कविताओं को समकालीन गण्य कविता का अंश माना।
स्वाधीन भारत की स्वदेशी सत्ता के तिलिस्म में वस्तु-प्रसंग-मूल्य के रहस्यमय परिवर्तन को देखकर किंचित क्लेश से उन्होंने लिखा कि--‘उड़ाए तो गए थे/केवल कबूतर/क्या करें/इन लौटे हुए कौवों के झुण्ड का/बोई तो नहीं गई थी/नफरत कभी/कौन काटे इस उगी फसल को?’ कविता वस्तुतः कवि की काव्य-दृष्टि और जनसरोकार को मुखरित करती है। बीसवीं सदी के ढलते चरण में देश की जैसी स्थिति बन गई थी, स्वातन्त्रयोत्तर काल की लोकतान्त्रिक सरकार ने जनता को जिस तरह छला था, प्रलोभन देकर जिस तरह सामुदायिक जीवन को वंचना का शिकार बनाया था, सब के सब झूठे साबित हुए। शान्ति के प्रतीक कबूतर उड़ाए तो गए, पर लौटकर आ गए दूसरों का आहार झपटनेवाले कौवे। समाज में प्रेम बाँटने के बदले नफरत की खेती होने लगी। लोकतान्त्रिक चेतना मुखर करने का नारा लगानेवाली स्वदेशी सरकार और शासन व्यवस्था नफरत और क्रूरता बाँटने लगी। ‘क्रान्ति’ के ध्वजवाहक रेल-लाइनों पर बिछें, प्रदर्शनों में शामिल हों, डण्डों के आगे रहें, वर्दीधारी भाइयों की संगीनों पर टंगे रहें...सत्ता इसका संज्ञान भूल गई थी। पर कवि की आशा नहीं टूटी। लाख अन्याय, शोषण, हिमपात, भूस्खलन, बाढ़, सूखा, महामारी, भ्रष्टाचार, अभाव, अकाल से जर्जर होने के बावजूद उनके आन्दोलनकारी अपनी माँ को आश्वासन देते हैं--‘मेरी माँ/आँसुओं और खून से लथपथ/अपने आँचल को देख/मत रो/हिरण्यगर्भा धरती/और एक बार सह ले तू/यह असह्य वेदना/शायद तेरे गर्भ से पुनः/उदित होना चाहता है/सत्यम शिवम का सूरज।’ जीवन के लिए ऊष्मा अरजने के जिद्दी कवि उपेन्द्र कुमार कारुणिक विपत्तियों के बीच भी आशा और प्रेम के दीप के साथ निरन्तर अपनी कविताओं में आगे बढ़ते रहने की आस्था जगाते हैं।
अपनी बासठ ग़ज़लों के संकलन ‘अपना घर नहीं आया’ (सन 1991, पुस्तकायन, नई दिल्ली) की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया कि ‘जीवन में मैं जब भी रोया हूँ, मेरी कविता मेरे साथ रोई है; मैं जिन बातों से क्रुद्ध हुआ हूँ, मेरी कविता ने भी उस पर भृकुटि तानी है। जब हँसा हूँ तो मेरी कविता भी मेरे साथ-साथ हँसी है। जीवन के सहारे मैं कविता तक पहुँचा हूँ और कविता के सहारे मैंने जीवन को समझने की मैंने कोशिश की है।’ इस संकलन की ग़ज़लों में व्यक्त उनका दर्द उनकी इस चेतना का प्रमाण है कि कोई कविता बेशक कवि के जीवन का कारण न बने, पर कविता यदि उनके होने का एहसास दिला दे, आश्वस्ति दे, तो कविता की सार्थकता यहीं पूरी हो जाती है। वस्तुतः हर समय की कविता परम-चरम उद्देश्य सामाजिक सरोकार की सघनता और लोकहित की सतत चिन्ता रहती है। कवि की स्वानुभूति को यही चिन्ता व्यष्टि से समष्टि में प्रवेश देती है। ‘बाहर चमक-दमक खुशियों की, भीतर है दुख का अँधियारा/गाँवों के इस देश में आए, ढंग बदल कैसे शहराती/प्रजातन्त्र की दुल्हन जैसे, रौनक काले पैसे की/कैसा है ये दूल्हा आखिर, कैसे-कैसे बाराती?’ लोकतन्त्र की जिस आभा में सामाजिक जीवन और ग्रामीण समुदाय को वंचना का शिकार बनाया जा रहा था; सामान्य नागरिक की चेतना में चकाचौंध उत्पन्न कर उसे अपने उद्देश्य से भटकाया जा रहा था; उन्हें अपने सपनों से दूर करने की तरकीब रची जा रही थी; काले-धन का बोलबाला बढ़ रहा था; ऐसे में उपेन्द्र कुमार की यह व्यंग्यात्मक उक्ति उनके जनसरोकार को रेखांकित करती है। ‘हमने अपने जीवन में हर क़दम पर देखे हैं, जाने किस कदर तूफाँ/क्या मिजाज है अपना जिस पर आज तक यारो कुछ असर नहीं आया/जिन्दगी की राहों में बस्तियाँ कई आईं, अपना घर नहीं आया।’
अपनी पूरी कविताई में उपेन्द्र कुमार को ‘अपना घर’ पदबन्ध की तलाश रही है। अपना घर उनकी दृष्टि में एक खास परिभाषा के साथ उपस्थित होता है, जहाँ घर के सुखद, मनोरम सौविध्य की कामना रहती है, पर गौरतलब है कि इसमें यह ‘अपना’ शब्द उन्हें आत्मकेन्द्रित नहीं करता, वे पूरे सामुदायिक जीवन के रहवास को भी ‘अपना घर’ का विस्तार देते हैं। विवेचक चाहें तो यहाँ अतियथार्थवाद की इकाई भी ढूँढ सकते हैं और यथार्थवाद की समग्रता भी। क्योंकि घर का अर्थ अब पूरी तरह सुरक्षित स्थान नहीं रह गया है, जहाँ सब कुछ के बावजूद, सारे सगे-सम्बन्धियों और सारी सुविधाओं के बावजूद, आदमजात के सिर सर्वदा आतंक मँडराता रहता है। अत्यधिक से अत्यधिक पा लेने के उद्योग में निरन्तर हिंस्र होते जा रहे आखेटक बन्धुओं के प्रकोप से खुद को बचा पाने की आशंका आज के नागरिकों को अपने घर में भी सताती रहती है। आज का मनुष्य इस बचाव की चिन्ता में कई बार स्वयं को भी ढूँढने लगता है। चाहत के इस आधिक्य में कवि को मनुष्य से मनुष्य को जोड़ने का काम करनेवाले पुल टूट गए-से दिखते हैं। अर्थात् सामुदायिक जीवन की अर्थवत्ता नष्ट, अर्थात् सामाजिकता निरर्थक; फिर लोकतन्त्र और जंगल-राज्य में क्या फर्क़ रह गया? ‘वह जो पुल था, आजकल टूटा हुआ है/आना-जाना उस तरफ छूटा हुआ है/...उठ ही जाते हैं क़दम उनकी तरफ/जिनसे मिलना आजकल छूटा हुआ है।’ सम्बन्ध-मूल्य एवं सम्पर्क-सूत्र के लोप से अपनों के पराए हो जाने, अपनों से कटकर एकाकी हो जाने की इस सामुदायिक पीड़ा की अभिव्यक्ति कवि के जनसरोकार का द्योतक है। ‘सब भागने लगे थे फिर अपने घरों की ओर/कितने बिदक गए थे वो जलते मकान से/ये महल देखकर ही बहल जाइए कि ये/उजड़ा हुआ खड़ा है मगर आन बान से/...ऐ देश अब ठीक ग़लत का नहीं है सवाल/सब लोग जी रहे हैं तेरे संविधान से।’ आजादी और स्वदेशी शासन-व्यवस्था में साँस ले रही जनता को जब द्रोह-दंगों का ऐसा वातावरण दिखाया लाने लगा था, जहाँ उसे हर साँस आतंक के साए में खींचनी पर रही थी, एक दूसरे को आहत करने की पद्धति बदस्तूर कायम हो गई थी, सारी परम्पराएँ एवं नैतिकता सिरे से गायब थीं, वहाँ संविधान का मूल्य भी कहाँ सुरक्षित था! यहाँ लोगों के संविधान से जीने का उल्लेख भी सत्ता द्वारा संविधान की अवहेलना को रेखांकित करता है।
अपनी छियालीस कविताओं के संग्रह ‘चुप नहीं है समय’ (सन् 1996, शुभकामना प्रकाशन, दिल्ली) के पुरोवाक् में कवि ने लिखा है कि ‘कविता मनुष्य की, मनुष्यता की, पहचान होती है। आदमी को आदमी से; पेड़-पौधों, जमीन, आकाश-पाताल, चाँद, सूरज, सितारों से जोड़ती है कविता। यह मनुष्य के जीने की उत्कट इच्छा की पहचान होती है, तो साथ ही उसकी अपराजेयता का प्रमाण भी। जीवन के हर दुख-सुख की साक्षी। सत्य की सनातन, निरन्तर खोज का नाम है कविता, जो भावुकता के चरम शिखर पर चढ़ती तो है परन्तु बुद्धि की मशाल सदा हाथ में लिए हुए।’ इस संग्रह की कविताएँ कवि-कथन की उक्त पंक्तियों को पुष्ट भी करती हैं। दुहाई दी जानेवाली देश-दशा, इतिहास, परम्परा, शासन-व्यवस्था...सब कुछ की धज्जियाँ उड़ाते, दुर्गति करते व्यवस्थापतियों के आचरण से वे खिन्न हो उठते हैं। कर्तव्य के प्रति संरक्षकों का ऐसा घृणित नैराश्य कवि को पीड़ित करता है। किन्तु यह ‘पीड़ा’ उनकी निजी भर नहीं है--‘पीड़ित हैं सब/सोच के उत्पात से/बहुत-सी चीजों के/बिगड़े अनुपात से।’ अर्थ, नीति, विवेक, जीवन, वस्तु, परम्परा, विरासत...जैसे समस्त मूल्यगत प्रसंगों से विरत, किन्तु आत्मसुखलीन देवताओं के पण्डे उन्हें लोभ-मोह-अविवेक के पुजारी और विरासत के ध्वंसक दिखते हैं। सामुदायिक जीवन-व्यवस्था को बाजार और मनुष्य को संख्या में तब्दील कर देनेवाले लुब्ध व्यापारियों का झुण्ड उन्हें आक्रामक दिखता है। ‘मूल्यों के ये व्यापारी/करते हैं घोषित/गलत था सारा अतीत/कौटिल्य का अर्थशास्त्र/महज एक धोखा है/और सारे पण्डित महात्मा/मात्र अव्यावहारिक स्वप्नदर्शी/...कि अब यहाँ/नहीं है कोई राष्ट्र/नहीं है कोई देश/है तो है/केवल एक बाजार/सौदागरों के स्वागत में/हिमालय से कन्याकुमारी तक फैला हुआ/जिसमें लोग नहीं रहते/रहती है संख्याएँ।’ गौरतलब है कि इस संग्रह की सारी ही कविताएँ सन् 1996 से पहले लिखी जा चुकी थीं, जब बाजारवाद का चलन इस देश में बहुत पुराना तो नहीं हुआ था, किन्तु अपने आक्रामक स्वभाव से क्रियाशील हो चुका था, नागरिक को संख्या में तब्दील कर देने का उद्यम मुखर था, सत्ता चुप और जनता हतप्रभ थी। इस दारुण दुर्दशा से कवि पीड़ित हुए। पूर्वजों के अवदान को किनारे कर, राष्ट्र और देश के हित को परे कर, सिर्फ अनैतिकता और आर्थिक मानदण्डों पर निहित व्यापारिक स्वार्थों द्वारा, आकर्षक विज्ञापनों की रंगीनी, जुलूस की आयातित प्रशंसा से व्यथित होना जायज ही था। इस निजी व्यथा को उन्होंने आम मनुष्य की तरह एक राष्ट्रीय भूल की तरह देखा।
अपनी इक्यावन कविताओं के संकलन ‘प्रतीक्षा में पहाड़’ (सन् 1998, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली) में भी उपेन्द्र कुमार इसी तरह भारतीय समाज के जीवन-व्यवस्था की उखड़ी-बिखरी दशा सुधारने में चिन्तित दिखते हैं। अपनी कविताओं में वे जब कभी अपने लिए चिन्तित दिखते हैं तो उनका ‘स्व’ कोई और नहीं पूरे देश का ‘स्व’ है, प्रवंचन के शिकार समुदायिक जीवन की त्रासदी में उन्हें साफ दिखता है कि सत्ताधीश, राजकीय बुद्धिजीवी, प्रशासनिक अधिकारी, हिसाब-किताब रखनेवाले लेखाधिकारी...सब के सब बही-खाते समेट चुके हैं। समेटने से पहले वे जनता के हिस्से का पवन-पानी-प्रकाश सब कुछ अपने पक्ष में बटोर चुके हैं--‘वो सब कुछ/जो बटोर सकते हैं/उनके हाथ/और मनाया जा रहा होगा जश्न/तब जो होगा शेष/वही होगा/हमारा हासिल!’ इस ‘हासिल’ से कवि की मुराद वैसी बची-खुची चीजों से है, जो वस्तुतः है ही नहीं। और, जो बचा ही नहीं, वही उनके हिस्से में आया। ऐसे सांकेतिक हासिल के हिस्सेदार, सामान्य-जन की पीड़ा से कवि व्यथित हैं। यात्रा, कवि उपेन्द्र कुमार के जीवन का एक अहम शगल है। इस ‘यात्रा’ के प्रति उनकी राय है कि ‘यात्राओं में/गन्तव्य तो/सदा होता है/सहयात्री/अनभिज्ञ, फिर भी/चलते जाते हैं/अदृश्य की तलाश में...।’ इस अदृश्य की तलाश में कवि का चलता जाना, जीवन की यात्रा भी है। और इसी यात्रा में एक ‘पहचान का डर’ रेखांकित होता है; क्योंकि ‘क्या-क्या करतब/करता है आदमी/पहचाने जाने के डर से/दूसरों द्वारा/पहचान लिए जाने के/डर से भी ज्यादा/स्वयं द्वारा/पहचान लिए जाने का डर/कितना बड़ा होता है?’ परन्तु खेद है कि दूसरों के लिए खाई खोदने वाले व्यक्ति स्वयं के लक्ष्य हो जाने के भय से तो परेशान रहते हैं कि कहीं मैं पहचान न लिया जाऊँ, यहाँ तक कि घात लगाए फिरते आतंकी भी पहचान लिए जाने के डर से आक्रान्त रहते हैं। ‘मंजिलों से मुक्ति’ शीर्षक एक कविता इस संकलन में एक तरह से गीता का सन्देश देती दिखाई देती है कि अपने मार्ग की सही पहचान मनुष्य खुद कर ले, अपने रास्ते खुद समझ ले, अपने आचरणों को खुद सहेज ले तो कैसा बेहतर वातावरण बने--‘कौन चुनता है/मार्ग? कभी-कभी आदमी के आगे/वे स्वयं आ जाते हैं/और हम उन्हें ही गन्तव्यों के/सारथी समझ/गले लगा लेते हैं।’ रास्ते, गन्तव्य, भटकन...इन सब के लिए मनुष्य स्वयं को कभी जिम्मेदार नहीं मानते, जबकि वे होते ही हैं। दुर्बुद्धिवश इस जिम्मेदारी के समय इनकी सही पहचान नहीं हो पाती, मनुष्य अपने विवेक पर संयम नहीं रख पाते। बेशक वह इस अहंकार में रहता है कि रास्ता उसने खुद चुना, किन्तु गीता में कहा गया है कि ‘अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्/विविधश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।’ किसी भी कार्य के पूरा होने में कर्ता का अंशदान पंचमांश ही होता है। चार पंचमांश का श्रेय तो अन्य घटकों को है। पर मनुष्य पूरे का पूरा श्रेय लेकर अहंकार में डूबा रहता है। सचमुच यदि अपने विवेक से मनुष्य सामने आए मार्ग का चयन स्वयं करे तो परिवेश में कोई विसंगति आए ही नहीं। उपेन्द्र कुमार की सन्तावन गजलों के संग्रह ‘खुशबू उधार ले आए’ (सन् 1998, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली) का स्वागत करते हुए प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर ने लिखा है कि ‘उपेन्द्र ने जगह-जगह अपने और समय के मन और इच्छाओं को टटोला है और बात के जरिए शुभ की तलाश करते हुए या शुभ के लिए सवाल उठाते हुए अपनी बात को दाहक प्रतिरोध के सीमान्तों तक पहुँचाया है।’ कथाकार कमलेश्वर की तरह कहने में कोई दिक्कत किसी को नहीं होनी चाहिए कि उपेन्द्र कुमार की इन गजलों में सूरत बदलने की चेष्टा दिखती है। समय की विपरीत परिस्थितियाँ झेलने का क्रोध तो उनके यहाँ बरवक्त दिखता है, हताशा या निराशा कभी नहीं दिखती। ‘कुहरे से ढँका हुआ यारो कैसा ये सवेरा देखा है/जो बीत गई है रात मगर हर ओर अन्धेरा देखा है/...क्या-क्या एहसास दिलाते हैं, क्यूँ तोड़ न दें ये दर्पण हम/हमने तो इन्हीं आइनों में टूटा हुआ चेहरा देखा है।’ लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जीवन-बसर करने वाले नागरिकों के खण्डित चेहरे प्रस्तुत करनेवाले इस आइने, अर्थात् अधिकारियों और व्यवस्थापतियों पर यह नागरिक क्रोध प्रेरणास्पद है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था के रक्षक उन्हें रक्षक नहीं, भक्षक लगते हैं, टूटे आइने में जनता का खण्डित चेहरा दिखानेवाला घटक। ऐसे लोकतन्त्र के दर्पण में अनाज पानी की स्वघोषित देवताओं से, टूटे हुए चेहरे से अलग होने की, इस दर्पण को बदल लेने की प्रेरणा देती हैं ये ग़ज़लें। उनकी ग़ज़लें क्षणानुभूति के सुख-सौरभ और दुख-दुविधा का भी संज्ञान लेती हैं। ‘सावन के मौसम में जब भी चमक-दमक कर आई धूप/बैठ गई बादल के रथ पर होने लगी पराई धूप/...नजर कहीं ना लग जाए फिर उसकी प्यारी दुल्हन को/भादो ने ले जाकर जाने हमसे कहाँ छुपाई धूप!’ भारत की किसानी संस्कृति में बारिश बेहतरीन मौसम माना जाता है। सावन-भादो के मौसम की चमक-दमक से धूप के चले जाने का यह रूपक एक बड़ी ध्वनि की ओर इशारा करता है कि उन्हें धूप के छुप जाने का कचोट है, सावन से तकलीफ नहीं। यह क्षणिक आवेश है। इसमें बारिश के प्रति कोई विरोधी भाव नहीं। इन गजलों पर विस्तार से बात की जा सकती है। उनकी इक्यावन महत्त्वपूर्ण कविताओं के संग्रह ‘गान्धारी पूछती है’ (सन 2000, पुस्तक सदन, दिल्ली) की छोटी-सी भूमिका लिखते हुए श्रेष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने लिखा है कि ये ‘समकालीन सन्दर्भों से उपजी ऐसी कविताएँ हैं जो फिर से नए सवाल उठाती हैं। किसी कवि के लिए यह अपने आप में बड़ी बात है कि उसके सृजन में प्रश्नों से जूझने की एक लगातार कोशिश दिखाई देती है।’ कवि उपेन्द्र कुमार वस्तुतः प्रश्नाकुलता के कवि हैं। ये सवाल वे न केवल खुद से, बल्कि जनता और सत्ता से जब-तब करते रहते हैं। कई बार उन्हें अपना वर्तमान समय और परिवेश चुप दिखता है, तो वे इतिहास, पुराण एवं मिथकीय प्रसंगों में जवाब ढूँढने पहुँच जाते हैं। मिथकीय एवं पौराणिक प्रसंगों के रूपक उनकी काव्य-दृष्टि को अत्यधिक सुविधा देती है। मिथकीय भावलोक अक्सर आधुनिक सवालों के उत्तर सहजता से दे भी देते हैं। इन्हीं बिम्बों-प्रतीकों के सहारे वे गान्धारी-धृतराष्ट्र संवाद के रूपक द्वारा मनुष्य की अत्यन्त घृणास्पद लिप्सा व्यक्त करने में सफल होते हैं। आज के मनुष्य का सहज स्वभाव यही कि वह अपने अगोचर को वैसा नहीं देखता जैसा वह होता है, उसे वह वैसा मान लेता है, जैसा वह चाहता है, और उसकी सत्यता पर आग्रहपूर्वक मुहर भी लगाता है। मनुष्य की ‘प्रतिबद्धता’ यहीं से स्पष्ट होती है--‘कैसा जवान/निकला है दुर्योधन?/पूछा गान्धारी ने/अपने सम्राट से/बहुत सुन्दर/लम्बा ऊँचा/गठा बदन/सिंह-सा वक्ष/हाथी का बल/हस्तिनापुर का/सर्वोत्तम युवराज/सुनती हूँ/बहुत सुन्दर हैं/वासुदेव कृष्ण/हाँ, परन्तु दुर्योधन का/वर्ण है ज्यादा गोरा/व्यक्तित्व ज्यादा वीरोचित/कैसे जाना?/उनकी आवाजें सुन।’ गान्धारी-धृतराष्ट्र के इस विचित्र संवाद से एक बड़े परिदृश्य की तरफ इशारा किया गया है। कुछ भी देख सकने में असमर्थ दो व्यक्ति अपनी पक्षपाती दृष्टि से अपने पुत्र को कृष्ण से भी ज्यादा सुन्दर और शक्तिमान और हस्तिनापुर के सर्वोत्तम युवराज मानते हैं। वे वैसा कुछ भी नहीं देखते जो हस्तिनापुर देखता, सोचता, चाहता है। वैसा कुछ भी सुनना, मानना, चाहना उनके बस में नहीं है, अपनी सन्तान को सत्तासीन होने के सिवा वे कुछ भी नहीं सुनना चाहते। गत शताब्दी के अन्तिम चरण, अर्थात् इस संकलन के सृजन-काल के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्थाओं के मूल्य-विरोधी, विवेक-वधिक अनुशासकों के चरित्र का इससे बेहतर रूपक और कुछ भी नहीं हो सकता था। परवर्ती अनुशासकों ने भी अपने पूर्ववर्तियों के चरित्र का अनुगमन किया। बीते समय के राजनीतिज्ञों ने अपने कुटुम्बों के हित-साधन के लिए राष्ट्र एवं जनजीवन के साथ जितने भी धोखे किए हैं, उन पर ऐसा व्यंग्यात्मक प्रहार प्रशंसनीय है। राजनीति के बाजीगरों की चाल-ढाल ने नागरिकों को भी तनिक हैवानी सिखाई है। उस हैवानी की जड़ें खोदने का उपेन्द्र कुमार का कौशल ‘छतरियाँ’ शीर्षक कविता में एकदम अनूठा है--‘समुद्र के पार से/आई हवाएँ/रूपान्तरित कर स्वयं को/वर्षा की बूँदों में/बरसती हैं जब हमारे सिरों पर/तो तानते हैं/उनके विरुद्ध हम/अपनी छतरियाँ।’ ये छतरियाँ तानते हुए हमारे बुद्धि-विचार में सिर्फ उन बूँदों की चोट या उससे भींग जाने का डर रहता है। हमें उस बादल और हवा के सुदीर्घ समुद्र-यात्रा की थकान या विफलता के अवसाद की कोई परवाह नहीं होती। ‘...मेरे लिए/सबसे विस्मयकारी सूचना है--/सुबह जो आदमी मिला था/चौराहे पर/भीख का कटोरा लिए/वह एक खाते-पीते घर का/बुजुर्ग है।’ यह पंक्ति, महज एक सूचना नहीं, हमारे समय के सामुदायिक जीवन का तथ्य है; ऐसे बुजुर्गों की बड़ी संख्या हमारे समाज में है, जो कई समुद्रों के पार की यातनादायी यात्रा तयकर अपनी सन्तानों के जीवन में रंग भरते हैं, पर समय आने पर उनकी सन्तानें उन्हें अपने शरीर पर नहीं टिकने देतीं, उसके स्पर्श तक को रोकने के लिए छतरियाँ तान लेती हैं।
उपेन्द्र कुमार की चुनी हुई छियालीस कविताओं के संग्रह ‘उदास पानी’ (सन् 2002, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली) में बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में मुखर हुए विमर्शों के स्पर्श आसानी से मिल सकते हैं। इन काव्य-पंक्तियों से निष्कर्ष निकालना आसान होगा कि व्यतीत हो जाने पर भी किसी व्यक्ति-विषय-वस्तु-प्रसंग का अतीत उसके वर्तमान से सटा ही रहता है। जैसे ‘जंगल से लकड़ियाँ काट/जब बना रहा होता है वर्तमान/एक सुन्दर-सा पालना/भविष्य के लिए/तो अतीत/लगा होता है सदा साथ उसके/समझता और/सावधान करता।’ ‘व्यतीत होता’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ एक बड़े दर्शन को रेखांकित करती हैं; जहाँ मनुष्य अपनी सन्तान के लिए सुन्दर पालना बनवाते हुए भूल जाता है कि इसके वर्तमान का मूल रिश्ता अतीत से तो है ही, भविष्य से भी है। यह पालना अपने अतीत में लकड़ी का एक टुकड़ा भर नहीं था, हरे भरे जंगल में तनकर खड़ा-खिला जीवन्त पेड़ था, जरूरतमन्दों को छाया, भूखों को फलाहार, जीव-जन्तुओं के ठहराव का आधार था। मिट्टी से जीवन-रस लेकर अपना विकास और समाज एवं वातावरण का हित करता था। पेड़ काटकर, निर्जीव बनाकर, पालने के रूप में प्रस्तुत कर कारीगर ने अपनी कला दिखाई, भरण-पोषण का संसाधन जुटाया; अगली पीढ़ी के झूलने के साधन जुटे, मगर इस साधन का भविष्य क्या होगा? यह पालना फिर से पेड़ नहीं हो सकता, लोकहित में यह पालना अपना विकास नहीं कर सकता। यह पालना अब एक व्यक्ति या एक परिवार के हित की निजी वस्तु हो गई है। अब यह समुदाय के लिए उपादेय नहीं रही। व्यतीत हो जाने के संयोग-दुर्योग पर चिन्तित कवि उपेन्द्र कुमार सदैव समय द्वारा उठाए गए प्रश्नों के उत्तर ढूँढने में तल्लीन रहते हैं--‘समय द्वारा उठाए/प्रश्नों का उत्तर/न तो धरती ने दिया/न आसमान ने/वैसे भी माटी/कहाँ देती है जवाब/आसमान कब सुझाता है समाधान/फिर भी ये जो कर सकते थे किया/धरती ने धारण किया/बीज बना सारे प्रश्न/आसमान/गाहे-बगाहे/रहा उन्हें सींचता/बीजों से फसलें/फसलों से विकसित बीज/विकसित बीजों से...।’ बीज और धरती के इस पारस्परिक चक्र को समझने की जो चिन्ता इन दिनों समाज से गायब हो गई है; जमीन-आसमान की जो समझ जन-मन का जरूरी विषय नहीं रह गया है, उसी जमीन-आसमान की पारस्परिकता बताकर कवि यहाँ सामाजिक जीवन के बुनियादी सवालों को रेखांकित करते हैं और समाधान भी दिखाते हैं कि धरती और बीज की पारस्परिक संगति बनी रहे, एक-दूसरे के गुण-धर्म की चिन्ता बनी रहे तो सभी सुव्यवस्था सम्भव है। धरती यदि बीज को उगाकर उसे सार्थक साबित करती है, और अगली पीढ़ी का वंशज पैदा करवाती है, तो बीज भी धरती में समाकर, खुद को गलाकर उसकी ऊर्वरता सिद्ध करता है।
संवाद शैली में व्यक्त कवि के प्रेम-डगर की यात्रा की कोमल स्मृतियों के वृतान्त का समायोजन ‘प्रेम प्रसंग’ (सन 2005, डायमण्ड बुक्स, नई दिल्ली) के पाँच पल्लवों--प्रेम आसंग, मनुहार, अभिसार, रत्यंग, सीमन्त--में कौशल से हुआ है। इस संकलन के आमुख में लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ने सही ही लिखा कि इस ‘संग्रह में शास्त्रीय नख-शिख वर्णन और आधुनिक नख-चित्रों की तरह प्रवहमान चलचित्रों में कवि ने एक के बाद एक प्रणय, परिणय, संयोग और वियोग के प्रसंगों के चित्र उकेरे हैं।’ यह संकलन सचमुच कवि-स्मृतियों का खूबसूरत संग्रह है। प्रतीत होता है कि जिस तरह समाज और सामाजिकता के लिए कवि के मन में अनुरक्ति भरी है, उसी तरह उनका हृदय प्रेम की ऊष्मा से लबालब है। वस्तुतः क्रान्ति भी वही कर सकता है, जिसका हृदय प्रेमासक्ति से भरा हो, वही व्यक्ति समाज में सुसंगत व्यवस्था की स्थापना के लिए चिन्तित होगा।
भारतीय स्वाधीनता के छह दशक बीत जाने के बाद भी समाज में छाए गहन अन्धकार का सर्वेक्षण है उपेन्द्र कुमार की छह लम्बी कविताओं का संकलन ‘गहन है यह अन्धकारा’ (सन् 2010, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली); में जनविरोधी प्रशासनिक धारा के विरुद्ध संघर्ष की मुद्रा में खड़ा है। इन कविताओं में छोटी-सी वस्तु या छोटे-से प्रसंग के बहाने बात शुरू कर, क्रूर एवं जटिल जीवन-यथार्थ की गहन पड़ताल कर, जनचेतना को उद्बुद्ध करने का यत्न है। इस संग्रह की पहली कविता ‘सत्तू’ में कवि की विलक्षण संवेदना एवं कौशल के कारण अभिजात शहरी परिवेश के लिए तिरस्कृत खाद्य-वस्तु ‘सत्तू’ की पहचान को रूपान्तरित कर इस तरह पेश किया गया है कि यह अमीरी-गरीबी की विराट खाई की चुनौती बन गई है। बिहार एवं पूर्वी उत्तर-प्रदेश के अभावग्रस्त किसान-मजदूरों के लिए यह बेशक सर्वदा तैयार खाद्य हो, पर चिन्तन के स्तर पर यह सामुदायिक क्षमता के विषमीकरण का अपूर्व रूपक है। ‘सत्तू को/केवल सत्तू/समझनेवालों के लिए/जरूरी है जानना/कि सत्तू का भी/अपना एक इतिहास है/गौरवशाली और महान/मगध साम्राज्य जैसा/स्वाद लाजवाब।’ राजनीतिक दृष्टि से आज इसकी सोंधी सुगन्ध एयर बैग के बन्द आवरण से भी अपने अस्तित्व को अर्थ-व्यंजक बना देता है, साधन-सम्पन्न लोगों की नाक में घुसकर अपने होने का प्रमाण दे देता है। इसकी सोंधी सुगन्ध वस्तुतः उस मिट्टी की हनक है, जिसकी ताकत सम्पन्नता की तामझाम फैलानेवालों की क्षमता पर भारी पड़ती है। वायु-मार्गीय यात्रा में भी कभी-कभी सत्तू ‘आ बैठता है एकदम बगल में/किसी पोटली में बँधा/किसी झोले में ठूँसा/...ताजा पीसे सत्तू की सोंधी खुशबू/कभी कैद हो सकती है क्या/किसी पोटली या एयर बैग में?’ सत्तू के इस रूप की प्रशंसा द्वारा कवि ने यहाँ भारतीय परिवेश की वर्गीय दूरी और अर्थिक भेद-भाव को गहरे विश्वास से रेखांकित किया है। ‘गहन है यह अन्धकारा’ शीर्षक कविता में कवि की कामना लोक-हृदय में एकता, कर्म की सार्थकता और लोक-जीवन का शास्त्र बनाने की है। वे समकालीन समाज की अमानवीय व्यवस्था के आतंक से चिन्तित हैं। पूरे देश में फैले आतंक के गहन अन्धकार में वे रोशनी की तलाश में जुटे हैं। ‘सदी की कविता’ में जिधर नजर दौड़ाएँ बिके हुए लोगों की जमात अपनी ओछी स्वार्थ-सिद्धि में लगी दिखती है। ‘बाहर से भरे-पूरे इनसान/अन्दर से हैवानियत के मनसबदार’ की दसकन्धरी लीला में ‘शील, सद्गुण और समानता की सीता/हरी जा रही है।’ ‘गाँधी, नेहरू, लोहिया का देश’ ‘भ्रष्टाचारी दलालों के हाथ की कठपुतली’ बन गया है। इस संकलन की कविताओं में कवि ने चारो ओर छाए उसी गहन अन्धकार को विभिन्न रूपकों से भासित किया है, जिसमें दारुण घटनाओं से नैतिकता का दामन दागदार हो रहा है, चेतनाशील प्राणी शर्मसार हो रहा है। इन कारनामों में हमारी जाति-व्यवस्था और पंचायत से लेकर बड़े-बड़े प्रशासकीय अभिकरण दुर्वृत्ति में शामिल हैं। इस पीड़ा से मुक्ति के प्रयास में उपस्थित गतिरोधों का सहज समाधान आज के मनुष्य को अपनी परम्परा के जीवन्त तत्त्वों से संजीवनी की तरह मिलता है, इसीलिए आज के रचनाकार अपनी दुर्वह प्रश्नाकुलता के साथ अतीत में झाँकते हैं, उन्हें अतीत-वर्तमान के संवाद से समाधान की आशा होती है। ‘इतिहास का मुड़ा हुआ वरक़’ शीर्षक कविता के नायक को आँधी से उजड़ी अपने गृह-वाटिका को पुनः सँवारने और घटोत्कच के चरित्र पर लिखने में एक आन्तरिक संगति दिखती है। काव्य-नायक की आस्था वस्तुतः कवि की आस्था है। परम्परा में गहरे पैठकर जीवन-दर्शन, विवेकशील बुद्धि एवं दृष्टिकोण को सन्तुलित और धारदार बनाना आसान होता है। उपेन्द्र कुमार की कविताएँ परम्परा के इस सामर्थ्य का बोध देती है। ‘का खाऊँ, का पीऊँ’ शीर्षक कविता में एक पुरानी लोककथा को नए पाठ में प्रस्तुत कर समकालीन समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों के विघटन और पतनशील वृत्तियों की लोकोन्मुखता को जीवन-सन्दर्भ से कुशलतापूर्वक जोड़ा गया है। कथ्य एवं लोक-संवेदना में लोक को केन्द्र में रखकर यहाँ यथार्थ को इस तरह चित्रित किया गया है कि पक्षधरता स्वयमेव स्पष्ट हो जाती है। भूख मिटाने के लिए एक दाने के उद्योग में एक चिड़िया की मशक्कत रूपकार्थ में इस कविता को जनजीवन का केन्द्रीय विषय बना देती है। हर प्रयास में विफल होकर निराश बैठी उस चिड़िया की मनोदशा अन्याय के प्रतिकार का द्योतक तो है, पर भूख की कीमत पर उस चिड़िया को कोई प्रलोभन स्वीकार्य नहीं! हमारे लोक और शास्त्र-पुराणों में ऐसे प्रतीकों की भरमार है।
मिथकीय, पौराणिक और लोकाधारित रूपक आधुनिक समय के अनेक रचनाकारों के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हुए हैं। इस विधि से कथ्य प्रभावी होता है। उपेन्द्र कुमार ने इस शैली का विदोहन बड़े कौशल से किया है। ‘गहन है यह अन्धकारा’ संग्रह की कविताएँ अमानवीय व्यवस्था के बीच बची हुई मानवीयता और सामाजिकता की सुरक्षा का बोध जनचेतना में प्रविष्ट कराकर उससे मुठभेड़ के लिए प्रेरित करती है, एक बेहतर समाज के सपने को साकार करने की दिशा में अग्रसर करती है, भारतीय लोकतन्त्र की विसंगतियों के बीच पिसती जनता के जीवन-यथार्थ को अभिव्यक्ति देती है। समकालीन काव्य-रूढ़ियों से बचकर लोक-भाषा के प्रचलित शब्दों, मुहावरों की प्रयुक्ति उनकी कविताओं में चमक पैदा करती है।
उनकी इकतालीस कविताओं का संग्रह ‘नंगे पाँव...चाँदनी’ (सन् 2012, विजया बुक्स, दिल्ली) का पुरोवाक् लिखते हुए प्रसिद्ध कवि, कथाकार, उपन्यासकार गंगा प्रसाद विमल ने कहा है कि उपेन्द्र कुमार की ‘कविताओं में आकर्षण का पहला केन्द्र उनका अपना अलग-सा निजी विन्यास है जिस पर पूरब की अपूर्व छाप है। यह पूर्वीय छाप भाषिक संरचना की उतनी नहीं है जितनी वह संवेदना के निजपन की है। परन्तु यह निजता घोर व्यक्तिवादी निजता नहीं है अपितु अपनी छोटी लोक-इकाई के अलग व्यक्तित्व का निजपन है।’ एकदम अनुपस्थित-सी तर्ज पर वह पुरानी परम्पराओं के दोहराव के रूप में उपस्थित नहीं है। रचनाओं में वे कहीं पुरानी परम्परा का अनुगमन करते नहीं दिखते। उनकी कविताओं की संवेदना उनकी निजता और अपनी छोटी-सी लोक-इकाई से उद्भूत है, पर अपनी प्रभावान्विति में यह संवेदना उस निजता के छोटे-से दायरे को पारकर सार्वत्रिक हो जाती है। ऐसा उनके अन्य संग्रहों की कविताओं पर भी लागू होता है। विमलजी की इस स्थापना से भी सहमति अनिवार्य है कि इस संग्रह से उनकी कविताई एक नए उत्साह के साथ पुनर्नवा होकर नए मोड़ की ओर बढ़ चली है। लोक-धाराओं एवं लोकाधारों की निजता-सम्भूत प्रयुक्ति उन्हें औरों से एकदम अलग साबित कर देती है। भोजपुरी समाज की स्थानीय संवेदना एवं प्रयुक्ति बार-बार उनकी कविताओं के गुण-धर्म को विशिष्ट बनाती हैं। राजनीतिक हित-साधन में असंगत सन्दर्भों से भारतीय संविधान की अवहेलना, बाजार के मोल-भाव के आवाँ में फड़फड़ाता जनसमूह, राजनीतिक वादों-छलावों से प्रवंचित समुदाय की हताशा और आतंक से सुरक्षा-नीति की जुगलबन्दी...उनकी कविताई का मुख्य विषय है। इस क्रम में पतनशील सांस्कृतिक समझ को सहलानेवाले भारतीय नागरिक के दयनीय अभिमान पर भी उन्हें क्रोध आता रहता है। साँढ़ और बैल का फर्क न समझनेवाले भारतीय यदि खुद को कृषि-प्रधान भारत का नागरिक माने तो दया स्वाभाविक है। इस संग्रह की अन्तिम कविता ‘लउर’ अपेक्षाकृत लम्बी है। ‘लउर है प्रतीक/आन-बान, शान का/हमले का हथियार नहीं/सम्बल शक्ति है/लउर ढाल है/किसी भी आपदा-विपदा के विरुद्ध।’ विशिष्ट प्रबन्धन-कौशल और पारिभाषिक उद्योग से उन्होंने इस कविता में ‘लउर’ की स्पष्ट ध्वनि प्रकट करने की सजग कोशिश की है, पर चूँकि यह शब्द नहीं, संस्कृति है, इसलिए इसके अर्थ नहीं, सन्दर्भ समझने होंगे। ‘लउर’ कभी-कभी राजनीतिक दुष्चक्र की मानसिकता में समृद्धि के प्रतीक की तरह घुसता है और वर्गीयता की ओर धकेलकर अच्छे-भले चेतन मनुष्य को हिंस्र बना देता है। भारत में भाषिकता की यही गरिमा है। उपेन्द्र कुमार की कविताई में बात कौशल से व्यक्त हुई कि सचमुच कविता आह्लादित करनेवाली कला भी है, और शिक्षित करनेवाला शास्त्र भी।
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