मिथक-पुराण के रूपक और इन्द्रप्रस्थ
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में दर्ज प्रसंगों के रूपक से बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के समकालीन यथार्थ पर प्रबन्ध-काव्य की रचना हिन्दी में कोई नई बात नहीं है, होती रही है। बड़े-बड़े रचनाकारों ने रामायण, महाभारत, उपनिषद की कथा पर रचनाएँ की हैं--तुलसीदास, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, कुँवर नारायण...जैसे कई उदाहरण हैं। वरिष्ठ कवि उपेन्द्र कुमार का प्रबन्ध-काव्य ‘इन्द्रप्रस्थ’ (सन् 2017, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली) इसी धारा की विशिष्ट किन्तु चिन्तन में भिन्न स्वरूप की रचना है। उपेन्द्र कुमार वस्तुतः अधिकार, प्यार एवं चेतना के प्रखर कवि हैं, उनकी अब तक कुल तेरह काव्य-कृतियाँ--दो गजल-संग्रह, दो प्रबन्ध-काव्य, एक लम्बी कविता और आठ कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। अज्ञेय, अमृता प्रीतम, कमलेश्वर, केदारनाथ सिंह, गंगा प्रसाद विमल जैसे विशिष्ट रचनाकारों ने उनकी कविताई की बलइयाँ ली हैं। काव्य-सृजन के लिए अनेक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी होने के बावजूद नौकरशाही कभी उनके मन-मिजाज पर नहीं चढ़ी। वे सदैव जनोन्मुख कविता रचते रहे हैं। इन जनोन्मुखता ने ही उन्हें समकालीन परिवेश के निरूपण के लिए ‘इन्द्रप्रस्थ’ की ओर आकर्षित किया। पाण्डवों के श्रमशील उद्यम से खाण्डव-प्रस्थ उजाड़कर बसाया गया ‘इन्द्रप्रस्थ’ महज एक राजधानी नहीं है, इसमें स्त्री-विमर्श के सूक्ष्म चिन्तन दबे पड़े हैं। हस्तिनापुर के महामान्यों के नीति-न्याय-विवेक के समक्ष महाभारत-कथा के स्त्री पात्रों की वेदना ज्वलन्त प्रश्नों के साथ दम्भ से खड़े होते हैं। इस कृति में द्रौपदी के साथ हुए अत्याचार की शिनाख्त बेशक महाभारत-कथा के लिए अप्रासंगिक, अतार्किक या अनैतिहासिक हों, पर आज के भारतीय समाज के स्त्री-विमर्श के लिए चिन्तनीय है। विषय-वस्तु, प्रस्तुति, भाषा का ओज और विवरण की रोचकता रमणीय है। एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृति की भाँति यह अपने समय और समाज की आँखों से परम्परा का अन्वेषण, आविष्कार, मूल्यांकन और समकालीन सन्दर्भों की सार्थकता प्रमाणित करती है। महाभारत-कथा के चुने हुए मोहक, माँसल, प्रसंगानुकूल चित्रों को अनुकूलित कर इसमें छवि-प्रसंगों का कोलाज बनाया गया है, जिसकी अर्थ-छवियाँ समकालीन समाज के जीवन-यापन को विवेकी दृष्टि से देखने पर ही स्पष्ट होंगी। स्वातन्त्र्योत्तर काल में युवा हुए उपेन्द्र कुमार बीसवीं सदी के सही जीवन-दृष्टिवाले उन सृजनधर्मियों में से जिन्हें महाभारत-कथा सदैव आकर्षित करती रही। पौराणिक प्रतीकों से रचनाओं को समकालीन और माँसल बनाने की क्रिया उनके मानस में इस तरह बसा हुआ है कि ये प्रसंग उनकी अनेक मुक्तक कविताओं में दिखते हैं। नए अर्थ-संवाहक प्रतीक बनकर महाभारत के विभिन्न चरित्र उपेन्द्र कुमार के यहाँ भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में आते हैं। इस काव्य के शाश्वत पुरुष कभी युधिष्ठिर के रूप में सामने आते हैं, तो कभी अर्जुन, कर्ण या कृष्ण के रूप में। आधुनिक भारत का राजनीतिक परिवेश प्रकटतः इन्हीं नीति-धर्मवेत्ताओं और वीरों के कर्माचार का रूपांकन है। कर्ण की बहुमुखी पीड़ा के वर्णन द्वारा आज के वंचित-शोषित समुदाय की त्रासद अनुभूति की सच्ची छवि यहाँ कौशलपूर्ण प्रतीकार्थ में नियोजित है। इसी तरह यहाँ शाश्वत स्त्री कभी कुन्ती की पीड़ा प्रकट करती है, तो कभी द्रौपदी की। अभिधान कुछ भी हो--राजकुमारी, कुँआरी माँ, राजरानी, अशक्य पति की पत्नी, विवाहेतर समागम से राजहित में सन्तति जुटाने का दायित्व ढोनेवाली कुन्ती; या राजकुमारी, दुर्लभ वस्तु की संज्ञा से पाँच-पाँच पतियों में बँटने की पीड़ा झेलनेवाली, जुए के दाँव में हार दी गई वस्तु, भरी सभा में श्वशुरों, गुरुओं की उपस्थिति में नृशंस देवरों से अपमानित होने वाली द्रौपदी...हर हाल में यह काव्य, पुरुषों की धर्म-रक्षा के पाखण्ड और स्त्री-जीवन की त्रासदी को रेखांकित करता है। कर्ण और द्रौपदी का चरित्रांकन तो इस काव्य में सचमुच विशेष व्याख्या की माँग करता है। वैसे ‘इन्द्रप्रस्थ’ के सुख-दुख के सहभागी पुरुष या स्त्री और भी हैं, पर कवि ने उनकी भूमिका उल्लेख मात्र तक सीमित रखी। मूक-दृष्टि से आज्ञानुगमन के सिवा उन सबने पूरे प्रसंग में कुछ किया भी तो नहीं! तथ्यतः चतुर्दिक व्याप्त नीति-अनीति, विवेक-अविवेक, पक्षधरता-तटस्थता, राजरक्षा-मूल्यरक्षा, सत्तामद-मनुष्यपद, स्त्रीमन-पुरुषमन, तर्क-भावुकता...के शाश्वत संघर्षों को बीच बहस में लाने की इच्छा किसी विचारवान को ही हो सकती है। ‘इन्द्रप्रस्थ’ प्रबन्ध-काव्य में यह काम सूक्ष्मता से हुआ है, जहाँ भोग और विवेक का सघन द्वन्द्व दिखता है। इन द्वन्द्वों के सुचिन्तित घटक--पुरुष और स्त्री के अन्तस् में झाँकने पर स्पष्ट होता है कि भोगी का कोई विवेक नहीं होता; भोगेच्छा सहलाने के हर आचरण उनकी दृष्टि में विवेकशील होते हैं, पर यह सच नहीं है। स्वयंवर-सभा से लौटकर धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा कुन्ती को सूचना देना कि ‘माँ देखो हम आज एक दुर्लभ वस्तु लाए हैं’ धर्मराज के किस धर्म का अनुगमन था? कुन्ती भी तो जानती थी कि उनकी सन्तानें स्वयंवर सभा से लौटी हैं, उन्होंने किस विवेक से एक स्त्री के पाँच पुरुषों में बँटने की आज्ञा दी? इस प्रबन्ध की इसी विसंगति को आज के सन्दर्भ में देखते हुए उपेन्द्र कुमार ने नई व्याख्या दी है। रोचक है कि इस प्रबन्ध-काव्य की कोई कथा नहीं है, भिन्न-भिन्न उपाख्यानों से उठाए गए प्रसंगों को सूत्रबद्ध करने का एक प्रबन्ध है, जिसमें कहीं तो अन्य पुरुष में कवि का बखान है, कहीं प्रथम पुरुष में पात्र के वेदना की अभिव्यक्ति। तेरह छोटे-छोटे प्रसंगों के इस प्रबन्ध-काव्य के पहले प्रसंग में ‘इन्द्रप्रस्थ’ की पहचान सुनिश्चित करने की चेष्टा है--‘शायद यही इन्द्रप्रस्थ है/...समय के साथ दौर में स्पर्धा करता/...अगर इतनी मिठास है इन्द्रप्रस्थ में/तो फिर स्वर्ग क्या है/...प्रेम तो धरती का उपहार है/परन्तु मनुष्य है उस देवलोक से चमत्कृत/जो बादलों में ऐसे छुपा है/जहाँ प्रेमियों की आँखें पहुँच नहीं पातीं।’ यह उसी इन्द्रप्रस्थ की भव्यता का वर्णन है, जिसकी प्रतिस्पद्र्धा में हस्तिनापुर ने अन्याय की सारी हदें पार कर दीं, पर इन्द्रप्रस्थ भी कोई पीछे नहीं रहा। जिस इन्द्रप्रस्थ-हस्तिनापुर का पूरा परवर्ती आचरण घृणा, ईष्र्या और कामान्धता से भरा हो, स्त्री का मान-मर्दन हो, जाति-निर्णय न होने के कारण शौर्य का सम्मान न हो, उससे प्रेरणा तो ली जा सकती है, प्रशंसा कतई नहीं की सकती! इसीलिए उपेन्द्र कुमार ने पाण्डव-कौरव के घृणास्पद आचरण के प्रतिकूल इसी पृथ्वी पर जुटाए प्रेम के उपहार से हमारे समय को भर देने की प्रेरणा दी है--‘हमारी सदियों ने देखा नहीं कुरुक्षेत्र/पर उसके घाव बाकी हैं/और सहमत कोई नहीं/...मैं मनुष्य हूँ/क्या चाहूँ सिवा प्रेम के/क्या माँगूँ/समय से डर भी लगता है।’ वस्तुतः कोई प्रेमाकुल हृदय कुरुक्षेत्र के घाव को सहमति नहीं देगा। इसीलिए कवि धिक्कार के साथ इन्द्र को भी आमन्त्राण देते हैं--‘आइए इन्द्र आइए/प्रेम का उपहार पाइए/देखिए धरती का प्रेम/आँखों में आँखें डालिए/आपके स्वर्ग से इन्द्रप्रस्थ ही अच्छा है।’ इन्द्रप्रस्थ असल में एक प्रतीक है। देवताओं के राजा इन्द्र के रहने की जगह। अब राजा के रहने की जगह तो वही होगी, जहाँ सबके लिए प्रेम, प्रतिष्ठा, सुख-सम्मान की व्यवस्था हो, पर इन्द्रप्रस्थ की कथा ने तो उसे ऐसा बनने नहीं दिया! मिथकों में इन्द्र तो स्वयं कई दुष्कृत्यों के जनक होते रहे हैं। इधर धृतराष्ट्र की नेत्रहीनता नहीं, उनकी दृष्टिहीनता और स्वार्थपरता को रेखांकित करते हुए कवि लिखते हैं कि--‘धृतराष्ट्र/जिसे नहीं दिखता था वह सब कुछ/जो दिखता है नेत्रधारियों को/परन्तु शायद सुन लेता था वह समय की पगचाप/उसी ने दिया पाण्डवों को यह अन्धा न्याय/किया बँटवारा दो भागों में राज्य का/इन्द्रप्रस्थ पाण्डवों को/हस्तिनापुर कौरवों को।’ प्राचीन रूपकों से निरूपित सत्ताधीश के कलुष वस्तुतः जनसामान्य को सहजता से सम्प्रेषित होते हैं। इसीलिए उपेन्द्र कुमार ने स्वातन्त्रयोत्तरकालीन भारत के सत्ताधीशों की राजनीतिक स्वार्थपरता और पुरुषवादी अहं के वैचित्रय को ‘इन्द्रप्रस्थ’ के उपाख्यानों के रूपकार्थ में उजागर करने का मार्ग अपनाया है। राजा की लिप्सा, कामान्धाता एवं अन्य दुर्वृत्तियों को निरूपित करने के इस अनूठे कौशल में कवि ने अलग से कुछ नहीं किया, बस प्रतीकार्थ की पलकें तनिक खोल दीं। फिर तो घटनाओं के सिलसिले समयानुकूलता से जुड़ने लगे। अत्याधुनिक भारत की शासन-व्यवस्था की दुर्वृत्तियाँ स्पष्ट होने लगीं। नीति, धर्म, विवेक, न्याय की धज्जियाँ उड़ानेवाले चेहरों की पहचान होने लगी। बेटे के हित में भतीजे के साथ अन्याय करने की वृत्ति, लोकतन्त्रा का मजाक है, राजा की कामान्धता है। कामान्धाता केवल यौनिक-दुराचार ही नहीं, ‘काम’ का अन्यार्थ आसक्ति और लिप्सा भी है। लिप्सा के कारण हर समय के महाप्रतापी कलंकित होते रहे हैं। लिप्सा के वशीभूत स्त्री-मर्यादा के हनन के आरोप से पुरुरवा, नहुष, ययाति जैसे परम-प्रतापी राजाओं पर भी लगे। इन बहुविध प्रतीकों से ‘इन्द्रप्रस्थ’ रचते हुए उपेन्द्र कुमार ने आधुनिक भारतीय समाज की छवि प्रस्तुत कर विलक्षण कार्य किया है। यज्ञ से उत्पन्न पवित्र कन्या, पांचाल नरेश की पुत्री, महाबली धृष्टद्युम्न की बहन, कृष्ण की सखी, अर्जुन की भार्या जैसे अभिधान के बावजूद‘इन्द्रप्रस्थ’ में निरूपित द्रौपदी की दारुण पीड़ा आज की सामान्य स्त्री की पीड़ा की तरह उपस्थित होती है। स्वयंवर सभा में उसने वरण तो किया अर्जुन को, पर पाँच-पाँच पुरुषों में बाँटी गईं। ज्येष्ठ-स्थानीय कर्ण और कौरव देवरों से अपमानित हुईं, श्वशुुर स्थानीय बुद्धिजीवियों एवं राज-मन्त्राणा के विशेषज्ञों की उपस्थिति में क्रूरता से उनका चीर-हरण हुआ। किसी धर्मवेत्ताओं ने उसके सम्मान की रक्षा का सांकेतिक प्रयास भी नहीं किया। हस्तिनापुर से बँधी अपनी सारी निष्ठा की दुहाई देनेवाले भीष्म चुप बैठे रहे। वह कौन-सी निष्ठा थी? कुन्ती के उस वचन का क्या ‘मूल्य’ था कि एक स्त्री की अस्मिता-रक्षा के लिए तोड़ा न जाए। एक विवश स्त्री की अस्मिता न बचा पानेवाले प्रतापियों का क्या पराक्रम? इस काव्य के ‘चुम्बन ही चुम्बन’ प्रकरण में कवि ने द्रौपदी के अनुरक्ति भरे स्वप्न को अत्यन्त माँसल बनाकर स्त्रिायों की कामनाओं का उत्कृष्ट समावेश किया है। कामाशक्ति के प्रबल संवेग के बावजूद सपने में ही सही, किन्तु मर्यादित कामकला का सम्पूर्ण समन्वय इस काव्य को मोहक, मनोरंजक और मार्मिक बनाता है। लोकमान्यता में दिवास्वप्न का खण्डित होना ही उसकी नियति है, इसलिए कवि-विवेक की रक्षा करते हुए उपेन्द्र कुमार ने लोक-मान्यता की भी रक्षा की है। द्रौपदी की समस्त कामनाओं को तृप्त करवाकर दासी द्वारा स्वप्न भंग करवाया। यह दृश्य बेशक ऐतिहासिक सत्य न हो, किन्तु काव्य-सत्य के रूप में, स्त्री-मनोवेग के रूप में सदैव सत्य माना जाएगा। यहाँ कवि-चिन्ता जायज है कि--‘द्रौपदी/एक मर्यादापूर्ण स्त्री.../जिसे करना पड़ा साझा/पाँचों के बीच समान रूप से/...कैसे हुआ होगा सम्भव/...बाँटना बराबर-बराबर अपने/मनोभाव, भावातिरेक, कामोन्माद/पाँच पुरुष देहों को।’ नियति-विधान को रेखांकित करते हुए ‘जब तक जीवन है’ प्रकरण में उन्होंने परमज्ञानी, नीतिवेत्ता, धर्मनिष्ठा के अधिष्ठाता धर्मराज युधिष्ठिर की माया-लिप्सा में संलिप्ति की खबर भली-भाँति ली है, जिनका ‘अतिचार’ ‘काल के पन्नों पर दर्ज हो चुका है...’ जिन्होंने द्रौपदी के प्रसंग में नीति-रक्षा का यत्न कभी नहीं किया! द्रौपदी-स्वयंवर में लक्ष्य-वेध के बाद ‘अर्जुन की सफलता ने/फैला दी थी एक अपूर्व आभा द्रौपदी के मुख पर/...कुन्ती के होठों पर/वर्षों बाद आई मुस्कान।’ मगर इस अपूर्व आभा की परिणति कितनी लज्जास्पद हुई! इस चिर-प्रतीक्षित मुस्कान का नेपथ्य कितना वीभत्स हो गया! ‘माँ देखो हम आज एक दुर्लभ वस्तु लाए हैं!’ जैसी घोषणा द्रौपदी के लिए धर्मराज ने ऊँचे स्वर में कैसे की? माँ ने उसे पाँचो भाइयों में बाँट लेने की आज्ञा कैसे दी? इन अपराधों पर कवि उपेन्द्र कुमार ने युधिष्ठिर के समक्ष यक्ष-प्रश्न लेकर उपस्थित हुए कि जीवन भर न्याय, सत्य, निष्ठा की दुहाई देनेवाले युधिष्ठिर की न्याय-प्रिय ध्वनि क्यों नहीं बच पाई? ‘बार-बार वापस लौटना द्रौपदी-कक्ष से सूर्योदय के साथ/...रस-लोभी लम्पट मन प्रेरित सहवास?...जैसे धर्मराज का प्रखर तेज मद्धिम होता गया/...बचा नहीं उनमें कोई प्रतिरोध/शकुनि के उकसाने पर काँपे नहीं उनके हाथ/द्रौपदी को दाँव पर लगाते।’ महाभारत-कथा का पाठ हम निरन्तर धर्म-कथा के रूप में करते आए हैं। पर इस धर्म में जितने अधर्म-पथ अपनाए गए, आज हमें उनसे प्रेरणा लेने की जरूरत है। आज के नायकों/पाठकों को उपेन्द्र कुमार इस ओर बार-बार उन्मुख कर नीति अपनाने की प्रेरणा देते हैं। इस काव्य में अर्जुन का अन्तस्संघर्ष बड़ी सूक्ष्मता से रेखांकित हुआ है। कवि की राय में अर्जुन की अटल धारणा है कि सारी बातें ‘माँ जानती थी।’ यह धारणा कोई अतार्किक भी नहीं है। जब माँ जानती थी कि पाँचो भाई स्वयंवर सभा से लौटे हैं, उन्हें अपने पुत्रों के पराक्रम पर आस्था भी थी, फिर उन्होंने द्रौपदी को ‘वस्तु’ कैसे समझ लिया? युधिष्ठर द्वारा पुत्र के विजयी होकर लौटने का अर्थ उन्होंने बहू का आगमन क्यों नहीं समझा? या कि युधिष्ठिर ने क्यों नहीं कहा कि--माँ पार्थ ने स्वयंवर जीता है!...प्रश्नों का अम्बार है इस काव्य में। ऐसे प्रश्न भारतीय लोकतन्त्रा की चर्याओं में बिखरे पड़े हैं। यह विडम्बना सम्भवतः द्रौपदी के सौन्दर्य से भी उपजी थी। कौरवों के विरुद्ध डटकर खड़े होने के लिए पाण्डवों में अटूट एकता की जरूरत थी। ऐसे में ‘सिर्फ अर्जुन को मिले कृष्णा/तो निश्चय ही ईष्र्यान्वित होंगे अन्य भ्राता/उपजेगा भ्रातृ-विवाद पाँचो पाण्डवों में/सम्भव नहीं हो पाएगा फिर दमन दुष्ट दुराचारी कौरवों का/...समझ-बूझ धर्मराज ने शायद उत्पन्न कर दी ऐसी परिस्थिति/ताकि हो सके धर्म की स्थापना पृथ्वी पर/कृष्णा का तो जन्म ही हुआ है धर्म की रक्षा हेतु।’ इसे नीति कहें, तो सचमुच इससे घृणा की जानी चाहिए। मनुष्यता की पंचायत में किसी भी एक स्त्री को पाँच पुरुषों से विवाह करने का निर्णय देना अमानुषिक कृत्य है, पाश्विक आचरण है। धर्म-रक्षा कदापि नहीं है। किन्तु ऐसी विकृत मनःस्थिति को धर्म के रूप में प्रतिस्थापित करने का चातुर्य भारतीय राजवंश की कथाओं में सदैव होती रही है। सम्भवतः इसीलिए भारतीय प्रशासनिक समाज में आज ऐसा हो रहा है। यही सत्योत्तर (पोस्ट ट्रूथ) प्रसंग है, जो भारतीय समाज में प्राचीन काल से था, वैश्विक चिन्तन में तो अब आया है! कई पौराणिक ग्रन्थों से जुटाए तथ्य के आधार पर उपेन्द्र कुमार ने कुन्ती के जीवन की विडम्बनाओं को मार्मिकता से रेखांकित किया है। कौमार्यावस्था में सूर्यदेव के आवाहन और संसर्ग से कर्ण की माँ बनने की घटना, कर्ण को नदी में बहाकर सुरक्षित कौमार्य का भ्रम देने का आचरण, विवाहोपरान्त तीन-तीन देवों से सन्तान उत्पन्न करना, सौतन के लिए गन्धर्वों का आवाहन करना, पाँच भाइयों के बीच द्रौपदी के बँटवारे की आज्ञा जैसे कुछेक आरोप कुन्ती की चर्या पर अवश्य ही विकार के निशान लगाते हैं; पर प्रतीत नहीं होता कि अटल विडम्बनाओं से घिरी कुन्ती अपनी चर्या में कहीं तार्किक रूप से दोषी है। वस्तुतः समस्त विकारों की जननी उस समय की व्यवस्था और पुंशत्ववादी मनोवृति थी। उपेन्द्र कुमार का यह काव्य सुबुद्ध पाठकों को एक बार फिर से प्रेरणा देता है कि महाभारत-कथा के इन प्रसंगों को सावधानी से पढ़ा जाए। कामना वस्तुतः सारे ही अपराधों की जननी होती है। जिस परम्परा में देवताओं का पुंशत्व भी कामनाओं से विरत न हो, कुन्ती की भूल को सूर्यदेव क्षमादान न दें, उनकी कौमार्यावस्था भंग कर दें, वहाँ सामाजिक अपवाद से बचाव के लिए सूर्य से प्राप्त पुत्र कर्ण को नदी में बहा देना एक माँ की विवशता थी। इस कारुणिक प्रसंग को उपेन्द्र कुमार ने बड़ी वेदना से रेखांकित किया है--‘होती है इच्छा तैरकर जाए/खींच लाए टोकरी/उस शिशु को छाती से लगाए/जिसे उसने जन्म दिया/परन्तु कुछ भी न कर पाने के दुख ने/कुन्ती को कितना छला होगा!’ जीवन भर वह ढूँढती रही खाली आँखों से अपने सुन्दर बेटे को, नीन्द में भी सुनती रही उसकी आवाज। तिलमिला जाती थी अपने यौवन को कोसती हुई। राजकुमारी से महारानी बनने पर भी उसके जीवन की वेदना डटी रही। एक क्लीव पति की अक्षमता झेलती रही। पिता बनने की उसकी महत्त्वाकांक्षा, वंश-वृद्धि का दायित्व, खोए हुए राज्य वापस लेने की धधकती ज्वाला...सारी दुविधाओ से लड़ती हुई कुन्ती ने विवशता में ही सम्भवतः द्रौपदी के बँटवारे की घोषणा की होगी। घोषणा अमानुषिक थी, पर स्त्री के प्रति पुरुष समाज की निर्दयता की परिणति थी। इस काव्य से यह धारणा पुनः पुष्ट होती है कि किसी भी उपलब्धि के लिए अमानुषिक आचरण काम्य नहीं। बेशक कुन्ती या गान्धरी या माद्री या द्रौपदी ने इसका प्रतिकार नहीं किया; पर आज की स्त्रिायाँ करें! समाज इसी प्रतिकार से सुधरेगा। सड़ी-गली परम्पराएँ टूटेंगीं। नए आचार-विचार, समानता और सम्मान के विधान बनेंगे। इन्द्रप्रस्थ की द्रौपदी और कुन्ती की पीड़ा का ऐसा विवरण वस्तुतः रूपकार्थ में आज के समय में स्त्री के प्रति सम्मानपूर्ण व्यवहार का आह्वान है। बल्कि आज के आजाद भारत के सभी प्रसंगों को रेखांकित करते हुए कवि का आह्वान है कि हर मनुष्य को अपनी कामना, स्वप्न, उद्वेग के विवेक के प्रति सावधान रहने की जरूरत है। जाति-मूल-गोत्र-वंश स्पष्ट न होने के कारण यदि सामन्तशाही समाज किसी धुरन्धर पराक्रमी का तिरस्कार करेगा, उसे मान्यता नहीं देगा तो उसे निश्चय ही कोई अविवेकी अपनी टोली में जगह देगा! और फिर धर्मयुद्ध लड़नेवालों को उसे विफल करने के लिए कभी उत्तरा-पुत्र अभिमन्यु, कभी हिडिम्बा-पुत्र घटोत्कच, कभी बर्बरीक जैसे पराक्रमी योद्धाओं को, कभी निरपराध हाथी अश्वत्थामा को अकारण मरवाना पड़ेगा। कल की पीड़ा को आज का प्रेरणा-स्रोत बनाने का कवि-कौशल इस प्रबन्ध-काव्य में कहीं-कहीं ऐतिहासिक तथ्य नहीं भी लग सकता है, क्योंकि यह इतिहास या पुराण की पुनप्र्रस्तुति नहीं है, पौराणिक मिथकों के सहारे आज के समाज के लिए एक सन्देश है कि जो समाज अपने तेजस्वी और प्रतिभा सम्पन्न पराक्रमी लोगों का उपहास करेगा, जाति-वंश और सामाजिक पदक्रम के कारण उसका अपमान करेगा, वह तेजस्वी मनुष्य निश्चय ही अपने स्वाभिमान-रक्षा के लिए किसी ऐसी शक्ति के साथ जा लगेगा जो राष्ट्र के हित में नहीं होगा। ऐसा होता रहा है, होता रहेगा। तार्किक रूप से भले सत्य न हो, पर हर मनुष्य ऋषि नहीं होता, हरदम विवेकशील नहीं रहता, उग्र स्वाभिमान जगने पर कोई भी व्यक्ति आत्मघाती रास्ते की ओर चला जा सकता है। यह सोचना हमारे समाज में आज के बौद्धिकों, समाजसेवियों, अनाज-पानी के देवता बन बैठे सत्तधीशों का दायित्व है। काव्य के अन्तिम अंश में कौरवों के प्रति द्रौपदी का प्रतिकार भरा स्वर आज के आखेटकों के लिए भी आक्रोशपूर्ण धिक्कार है--‘लो कौरवो, हो गई पूरी तुम्हारी इच्छा/निकल गया आगे हस्तिनापुर इन्द्रप्रस्थ से/अन्याय अत्याचार में/या शायद है यह इन्द्रप्रस्थ ही/जो कभी फैला रहता मेरे बाहर/कभी सिमट आता मेरे भीतर/चलता ही रहता सदा मेरे साथ/हर स्त्री के साथ...।’ तय है कि छल-छद्म सदैव छुद्र वृत्तियों को आमन्त्राण देता है, हमारे समाज को पूर्वजों की नैतिकता ही नहीं, भूलों से भी कुछ सकारात्मक सीखना चाहिए। उपेन्द्र कुमार ने ‘इन्द्रप्रस्थ’ प्रबन्ध-काव्य रचकर हमें यही सीखने की प्रेरणा दी है।
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