Thursday, August 4, 2022

वंचितों के अटूट आस्था की कहानियाँ

 

वंचितों के अटूट आस्था की कहानियाँ

भारतीय समाज में वर्गविहीन चेतना के प्रसार के प्रतिबद्ध कथाकार श्यौराज सिंह बेचैन की नौ कहानियों का ताजा संग्रह सन् 2020 में वाणी प्रकाशन द्वारा हाथ तो उग ही आते हैंशीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इससे पहले उनकी पुस्तकें--मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’ (आत्मकथा), ‘भरोसे की बहन’ (कहानी-संग्रह), ‘चमार की चाय’, ‘क्रौंच हूँ मैं’, ‘नई फसलऔर भोर के अन्धेरे में’ (कविता संग्रह) को पाठकों का पर्याप्त प्यार मिला। इनके अलावा श्यौराज के अनेक शोधालेख भी प्रकाशित-प्रशंसित हुए हैं। साहित्य और समाज सम्बन्धी उनकी चिन्ताएँ समकालीन पाठकों को चिन्तनशील बनाकर मानवीय-दृष्टि से सँवारती हैं। साहित्य-सेवा के लिए उन्हें कई विशिष्ट सम्मानों से विभूषित किया गया है। इस संग्रह की आठ कहानियाँ सन् 2011-2017 के सात वर्षों में और एक कहानी सन् 1996 में लिखी गई। संग्रह में आने से पूर्व अधिकांश कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो गई थीं।

उनके कहानी-लेखन का उद्देश्य समाज के उन बहुविध जीवनानुभवों से अपने पाठकों को परिचित कराना है, जिनकी अनेक छवियों का संज्ञान किसी कहानी आन्दोलन में नहीं लिया गया। ऐसे शेष रह गए अनुभवों की दुनिया अब बहुत बड़ी हो गई है। इसलिए कहानी लिख सकने की गुंजाइश बढ़ गई है। ढेरो जरूरी विषय और चरित-नायक लोगों को कहानी लिखने को प्रेरित करने लगे हैं। आम आदमी भी आम आदमी की कहानियाँ लिखने की इच्छा करने लगे हैं। अपनी या अपनों की कहानी। कहानी-लेखन में ऐसी तब्दीली का श्रेय श्यौराज सिंह भारतीय संविधान के आलोक में लोकतन्त्र के प्रभाव को देते हैं। शिक्षा के प्रसार से लोगों की चेतना उद्बुद्ध हुई, जनमानस में लोकतन्त्र की समझ विकसित हुई। जाति-धर्म के भेद-भाव की विसंगतियों पर सचेत नागरिक की विवेकी दृष्टि पड़ने लगी। वंचित समुदाय के प्रति सवर्णों की अमानुषिक, अनुदार और तिरस्कार भरा व्यवहार उन्हें खलने लगा। खुश्किस्मती से ये सारी बातें कहानियों में केन्द्रीय विषय के रूप में प्रकट होने लगीं। ऐसे परिवेश की कहानियाँ लिखनेवालों को शिल्प, संरचना, भाषा आदि के लिए अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ी। कहानीकारों ने विषय और परिवेश की जटिलता-सहजता के अनुरूप भाषा-शिल्प भी तय कर लिया, अपने परिवेश की भाषा से बाहर जाकर रचना की भाषा तय करना ईमानदारी नहीं होती।

दलित-साहित्य-सृजन के सन्दर्भ में श्यौराज सिंह सदैव विवेकी और आलोचनात्मक रुख अपनाते हैं। बाकी जो कुछ हो जाए, पर खिचड़ी को खिचड़ी के स्वाद में खाना ही पसन्द करते हैं, अर्थात् मूल्यवत्ता, वस्तुपरकता और मौलिकता के वे एकनिष्ठ हिमायती हैं। दलित-लेखन की बुनियाद में नीतिगत सेंधमारी करनेवालों के लिए वे स्पष्ट कहते हैं कि कुछ दलित कहानीकार, जिनसे मान्यता, प्रशंसा और महत्त्व पाने को विवश हैं, वे उसके लक्ष्यहीन लेखन को प्रेरणा देते हैं। मुद्दों से भटककर अमूर्त विषयों पर लिखने को बढ़ावा देना, लच्छेदार भाषा और कामोत्तेजक सेक्स चित्रण को प्रधानता देने से मुक्ति के महान उद्देश्य की कहानी का हनन होता है। शहर का अनुभव ग्रामीण अनुभव जैसा नहीं है। शहर में भेदभाव सतह पर नहीं है। कहीं तो स्पष्ट भी नहीं है, परन्तु ग्रामीण भारत में जुल्म और भेदभाव का खुला व्यवहार होता है। गाँव न संविधान जानता है, न इतिहास से सबक लेता है। वह परम्परा से चलता है। वहाँ जाति से ही मनुष्य का परिचय मिलता है।श्यौराज सिंह बेचैन ने यह बात कही तो दलित-लेखन की गुणवत्ता के लिए, किन्तु कायदे से यह लेखन के हर प्रसंग में लागू होती है।

कहानी ही नहीं, साहित्य मात्र की रचना का परम-चरम उद्देश्य सामाज को विसंगतियों से मुक्ति दिलाना और जनसामान्य में चेतना का प्रसार करना होता है। ऐसे में जो रचनाकार यौन-प्रसंग के अश्लील चित्रण से लोकप्रियता को प्रोन्नत करना चाहते हैं, वे निश्चय ही लेखन के उद्देश्य से परिचित नहीं हैं। श्यौराज सिंह ऐसी सस्ती लोकप्रियता से सहमत नहीं हैं। सामाजिक सन्तुलन की प्रेरणा के मार्ग में वे इसे बाधक मानते हैं। उनकी राय सही है कि कामुकता तो हर किसी के जीवन का अंश होता है, दलित-जीवन की समस्या सबकी समस्या नहीं है। वह अधिकार से वंचित बहुसंख्य समुदाय की समस्या है। इसके साथ-साथ यह भी सत्य है कि कहानी बेशक उसका समाधान न करे, पर परिवर्तन की चेतना का विकास अवश्य करती है।

श्यौराज सिंह के ताजा कहानी-संग्रह हाथ तो उग ही आते हैंकी कहानियाँ उनके इन रचनात्मक उद्देश्यों एवं वक्तव्यों को मुखरता से स्पष्ट करती हैं। ये कहानियाँ अवाक् नहीं हैं, बोलती-बतियाती रहती हैं, बल्कि कई बार पाठकों को अवाक् कर देती हैं। आग और फूँसकहानी विधुर श्वशुर के साथ जीवन-बसर करती हुई विधवा बहू सरवतीकी ऐसी ही कहानी है, जो विवाह से पूर्व ब्राह्मण जाति की थी। इस उज्ज्वल चेतना की विलक्षण कहानी में समाज के कलुष-चिन्तकों का मस्तिष्क अत्यधिक ऊर्वर है। वे सारे लाज-लिहाज छोड़कर श्वशुर दाताराम को फूस और बहू सरवती को आग के रूपक में देखने लगे। श्वशुर और बहू के बीच की आयु में ज्यादा फर्क नहीं था। क्योंकि सरवती, दाताराम की दिवंगता पत्नी के पूर्व विवाह से पैदा हुए पुत्र के साथ प्रेम-विवाह कर इस घर आई थी। इधर निविष्ट, निष्कपट, उदात्त चरित्र के धारक दाताराम अपनी युवा बहू के पूरे जीवन का लेखा-जोखा कर निवेदन कर बैठे कि तुम अभी तीस बरस की हो। सही मायने में तो अब आकर तुम विवाह योग्य हुई हो! तुम्हें अपने जीवन की लम्बी यात्रा तय करनी है। अपने जीवन के बारे में सोचो! अकेली चलोगी, तो इस समाज में रास्ते ही तुम्हें खा जाएँगे? तुम मन बनाओ तो मैं किसी जरूरतमन्द नौजवान को अपनाकर, तुम्हारा पुनर्विवाह करवाकर, तुम्हें इसी घर में रखकर पूर्वजों के आजीवक धर्म के प्रचार-प्रसार में चला जाऊँगा।...

वंचित-प्रवंचित समुदाय के निर्मल हृदय में खुद को मिटाकर भी किसी की जिन्दगी सँवारने की ऐसी मानवीयता उपजती रहती है। जिस समाज में किसी भोग्या स्त्री को देखते ही पुरुषों की लार टपकने लगे, ऐसे समाज में लेखक ने इस प्रसंग को रेखांकित कर पाठकों को एक महान संवेदना की ओर प्रेरित किया है। यह कहानी वस्तुतः रचनाकार के गहन सामाजिक सरोकार को रेखांकित करती है। पर ऐसे सन्दर्भ के लिए लेखक ने कोई हवाई-महल नहीं बनाया। कोई संयोग उपस्थित नहीं कराया। दाताराम के आचरण से ही उसके जाति-धर्म का संकेत देकर विधिवत व्यवस्था की। इस क्रम में उसकी विजातीय बहू में मानवीयता के वैसे उत्कर्ष भरे कि वह भी एक अतियथार्थवादी या प्रकृतवादी स्त्री की तरह अपने श्वशुर को प्रस्ताव दे बैठी कि आपको दर-बदर कर मैं अपना जीवन सँवारूँ, ऐसी खुदगर्जी मुझसे नहीं होगी। मुझसे पुनर्विवाह आप क्यों नहीं करते? दोनों ही पात्र पूरी कहानी में जर्जर परम्परा की सारी वाहियात मान्यताओं और अत्याधुनिक लिप्साओं, विकृतियों की ओर झाँकना नहीं चाहते; पर अपनी-अपनी समझ से निर्धारित मानवीयता के पल्लू धरे शेष जीवन बिताना चाहते हैं। दोनो ही पात्र की शिक्षा का स्पष्ट उल्लेख कहानी में नहीं है, पर दोनों के ज्ञान की उज्ज्वलता उनके आचरण में एक-एक हर्फ में स्पष्ट है।

यह कहानी पात्रों के चरित्रांकन द्वारा श्यौराज सिंह की उत्कृष्ट जीवन-दृष्टि को रूपायित करती है। दाताराम और सरवती--दोनो इस हकीकत से मुत्तफिक थे कि किसी वर्चस्वशाली राजनीतिक पृष्ठभूमि के ब्राह्मण परिवार की बेटी का किसी तथाकथित अछूत के बेटे से प्रेम-विवाह कर लेना स्वयं में समाज के लिए असहनीय है, ऊपर से वह विधवा भी हो जाए, तो उसके मैकेवाले उसे वापस अपने घर तो नहीं लेंगे। ऐसे में अपने प्रयासों से ही पुनर्विवाह की व्यवस्था बैठानी होगी! दाताराम की चिन्ता कि पत्नी के पूर्व पति का बेटा ही सही, था तो उसके साथ बेटा बनकर! इसलिए वह सरवती का श्वशुर है; किन्तु सरवती अलग ही राग की विवेकशील स्त्री; वह कतई नहीं चाहती कि अपने जीवन सँवारकर ऐसे निर्द्वन्द्व श्वशुर को दर-बदर कर दे। पर समाज तो कभी मानवीय होता नहीं! वह तो रोते हुओं को और रुलाना अपना पुनीत कर्तव्य मानता है! कानाफूसी चलती रही कि इन दोनो का रिश्ता श्वशुर-बहू का नहीं, कुछ और है! आग और फूस एक ठाँव रहे, तो जलना तय है। दोनों में निश्चय ही कुछ अलग सम्बन्ध है!

इन तमाम विकृत सोच से निर्लिप्त दाताराम किसी भी तरह सरवती को किसी स्वस्थ पुरुष से ब्याहकर उसका जीवन सुखी करना चाहता था। सरवती के संग अपने पुनर्विवाह के प्रस्ताव को अशोभनीय मानता है। इधर सरवती ऐसे ही निविष्ट पुरुष की भक्ति में अपना जीवन बिताना चाहती है।

पूरे घटना-प्रसंग के उतार-चढ़ाव की बुनावट में कहानीकार का रचनात्मक कौशल देखते ही बनता है। पर हाय रे भारतीय समाज! एक अधेर विधुर और युवा स्त्री का सहज जीवन उसे रास नहीं आया। दैहिक उन्माद और जातिगत दुराग्रह के वशीभूत गाँव के सवर्ण लफंगों ने बारिश में भीगती उस अकेली स्त्री का न केवल नृशंस बलात्कार किया, बल्कि उसके शरीर पर पाश्विक आघात कर अपनी राक्षसी वृत्ति और नामर्दगी का परिचय भी दिया। अब ऐसी स्थिति में रचनाकार का सामाजिक सरोकार बलइयाँ लेने लायक है कि उन्होंने ऐसी विपत्ति झेले अपने पात्रों को टूटने नहीं दिया। किसी सचेत जीवन-दृष्टिवाले रचनाकार से ही यह सम्भव होता है कि अपनी रचनाओं में वह सामाजिक यथार्थ की क्रूरता में भी अपने पात्रों के साहस और मानवीय सरोकार को टूटने नहीं देता। श्यौराज की रचनाओं के पात्र कभी हार नहीं मानते। क्रूरता के सामने घुटने नहीं टेकते। अन्तिम साँस तक संघर्ष करते हैं। दाताराम और सरवती ऐसे ही पात्र हैं, जो ऐसी नृशंसता झेलकर भी जीवन-संग्राम में फिर से जुट जाते हैं। गाँव का जमीन-जाल बेचकर दूसरे गाँव जाकर फूस के छप्पर तले स्कूल चलाने लगते हैं। पर समाज के विचित्र ठेकेदारोंको यह पसन्द नहीं आया। जिस दाताराम और सरवती का एक भी आचरण किसी मठाधीश को कोई नुकसान नहीं पहुँचाता, वे उसका स्कूल जला डालते हैं। इस हृदय विदारक दृश्य से बरवश इस कहानी के अन्त में सावित्रीबाई फुले की निश्छलता, शिक्षा के प्रति उनका ममत्व जीवन्त हो जाता है।

बहुस्तरीय घटनाओं का चिप्पी-चित्र (कोलाज) बनाते हुए कहानीकार ने इस कहानी में गन्दी राजनीति, जाति-भेद की नृशंसता, सामाजिक ठेकेदारों का अमानुषिक आचरण और इस अमानुषिकता को न रोकने की सामाजिक दुर्दशा अपने सच्चे स्वरूप में व्यक्त व्यक्त हुई है। इस कहानी के पाठक अनुभव करेंगे कि ऐसे समाज में सामुदायिकता का अर्थ अब वस्तुतः कलंकित हो गया है। यह कहानी एक बार फिर से इस तथ्य को उजागर करती है कि जिस समाज में पारम्परिकता का अर्थ जातिभेद की अमानुषिता और पदक्रम के दुराग्रह से संचालित हो, उसकी इकाई होने का गौरव कोई किस बात के लिए करे! समाज को नई चेतना की ओर उन्मुख करने के लिए यह एक बेहतरीन कहानी है। इसका सामूहिक पाठ नए अध्येताओं को निश्चय ही नई दृष्टि देगा। मेरी राय में हाथ तो उग ही आते हैंशीर्षक इस संकलन की सर्वश्रेष्ठ कहानी आग और फूँसहै।

श्यौराज सिंह बेचैन की कहानियों का विषय, कहें कि एकमात्र विषय विवेकशील मनुष्यता की तलाश है। यही उनकी कहानियों का मूल-सूत्र है। इसलिए प्रश्नाकुलता उनके यहाँ मुखर रहती है। वे भारतीय समाज के ऐसे अन्धेरे कोने से जीवन-चित्र निकालते हैं जो पुरातनता के बजाय स्वराज सापेक्ष सभ्य समाज के स्वप्न और छवियों के बिम्ब निर्मित करते हैं। सहजता, प्रवाहमयता और भावकों की चित्तवृत्ति का स्वाभाविक परिस्कार करती उनकी कहानियाँ कहानीकार की जीवन-दृष्टि का प्रमाण तो देती हैं; सामुदायिक जीवन के सहज विकास की राह के अवरोधक अन्धेरे को भी चिद्दित करती हैं। वे जब कभी उपेक्षित एवं अछूते विषय या पात्र की वेदनाएँ उकेरते हैं, साहित्य-संस्कृति के सामासिक संवर्धन अग्राभिमुख हो उठते हैं। हाथ तो उग ही आते हैंसंकलन की हर कहानी स्वयं में किसी उपन्यास का विस्तार लिए हुए है। यह देश की सांस्कृतिक बहुलता तथा साहित्यिक विविधता का प्रातिनिधिक उदाहरण है, जिसमें लगता है कि पात्र पृष्ठों के बाहर आकर पाठकों की चेतना में अपना सच बयान कर रहे हैं। सृजन-सन्दर्भ का स्वच्छ संज्ञान लेनेवाले पारखी जनों के लिए ये कहानियाँ स्वागतेय हैं। दाग तो चाँद में भी होते हैं, तो इनमें कोई न कोई दाग लोग ढूँढ सकते हैं।

श्यौराज सिंह बेचैन का लेखन सामाजिक संघर्षों का दस्तावेज है। वंचितों के जीवन-संग्राम की चुनौतियाँ, भावनाएँ और विचार का सही-सही लेखा-जोखा इनकी रचनाओं में दिखता रहता है। इस संग्रह की भूमिका में उन्होंने उल्लेख किया है कि इतिहास में कामगार हाथ के साथ बहुत कुछ बुरा होता रहा है। अद्भुत इमारतें बनाने वाले कारीगरों के हाथ कटवा लेने की कहानियाँ हम बचपन से सुनते आए हैं। चकित करनेवाली कलाकृतियाँ देनेवाले, अपनी तीरन्दाजी से भौंचक्का कर करनेवाले (एकलव्य) जैसे कितनों के हाथ असमर्थ बनाए गए हैं। हाथ कुछ अच्छा करते हैं तो पारितोषिक पाते हैं। कोई वैसी ही दूसरी कृति न बना दे, इसलिए मजदूरों के हाथ काट दिए जाते हैं। पर हम संस्कृतिकर्मी, लेखक, चित्रकार, गायक और कला कलाकार हाथों का आह्वान अच्छी बातों के लिए करते रहे हैं।

दलित हाथ के साथ जहाँ इस तरह के विनाशक संस्कार और क्रूर कार्य हुए, वहीं दुनिया में हाथ का साथ देने में नस्ल, जाति और धर्म का भेद भुलाकर मानव-सेवा का सकारात्मक काम भी ज्ञान-विज्ञान के विकास से सम्भव हुए हैं। अब कटे हाथ जोड़े जा रहे हैं। इस वैज्ञानिक प्रयास, पारम्परिक दुष्कृति और सामाजिक भेद-भाव के मिले-जुले सृजन से कहानीकार ने हाथ उगाने की प्रतीकात्मक कल्पना की है। हाथ तो उग ही आते हैंकहानी में लेखक ने मनुष्य के क्षतिग्रस्त जीवन में आशा के संचार को आश्वस्तिदायी एवं संवेदनात्मक भाषा दी है। एक समृद्ध परिवार में दाई का काम करनेवाली स्त्री रुक्खोके बच्चे के हाथ कटने की घटना अवसन्न कर देती है। एक न्यायसंगत काम करने, अर्थात पुलिस तक दंगाइयों की सूचना पहुँचाने के अपराध में जिसके निरपराध पति दंगाइयों के हाथ मारे जाएँ, उसके जीवन में कोई सपना तो शेष रह नहीं गया। अपने अबोध बच्चे के साथ वह निरक्षर, किन्तु दृष्टि-सम्पन्न दाई खुद को किसी जाति, किसी धर्म की नहीं मानती। मुसलमान उसे विधर्मी मानते हैं, और हिन्दू, जाति के कारण नीच। ऐसे में उसके घाव कौन सहलाए! दुख-दर्द को तनिक-सी छाँव, सपनों की तरफ प्रेरित करने की रत्ती भर संवेदना किसी के पास नहीं है। किन्तु वह ऐसे समाज में जीवन-बसर कर रही है, जहाँ जूठे बर्तन धोने के लिए भी जाति पूछी जाती है।

उसकी सेठानी, स्त्री होने के बावजूद उसके बच्चे को क्रूरता से देखती है। दूसरी तरफ व्यवस्था है कि लकीर का फकीर बने डॉक्टर गरीब के बच्चे के आपातकालीन इलाज के लिए भी समय-सारिणी को अनुगमन करते हैं, जिस लापरवाही के कारण उस बच्चे के हाथ काटने की स्थिति आ जाती है। बच्चे की माँ रुक्खो हाथ कटने की सूचना से दंग तो अवश्य होती है, पर नर्स की झूठी दिलासा से भोलेपन में आश्वस्त हो जाती हैै कि अस्पताल में कटे हाथ की जगह फिर से दूसरे हाथ जोड़ दिए जाते हैं, या ऐसी दवा पिलाई जाती है कि थोड़े दिनों में हाथ खुद-ब-खुद उग आते हैं। इस कुटिलता को सच मानकर वह दाई रुक्खो अपने बेटे का चेहरा देखते हुए आँसुओं की धारा रोककर दिलासा देती है--बेटा सुना तुमने? हाथ तो उग ही आते हैं!...इस कहानी की यह पंक्ति न केवल उस दाई में एक सपना जगाती है, बल्कि एक बड़ी विडम्बना को भी बीच बहस में लाकर खड़ा करती है।

इस संग्रह की पहली कहानी है घूँघट हटा था क्या?’ में पाँच सौ रुपए कर्ज के बदले गिरवी रखे गए एक छोटे-से बच्चे को भोला सिंह की बेटी के साथ दहेज के सामान की तरह उसकी ससुराल जाना पड़ता है। उसकी मृत्यु के बाद भी उसे वहीं रहना पड़ा। इस कहानी में सवर्ण समाज की एक दारुण विकृति उजागर हुई है, जहाँ स्त्रिायाँ भोग भर की वस्तु समझी जाती हैं। पकी उम्र के पुरुष अत्यन्त छोटी बच्ची ब्याहकर ले आते हैं, और एक जैविक विकृति को चरितार्थ करते हैं। सदैव घूँघट में रहने को मजबूर बालाधीन चौधरी की तीसरी पत्नी की अन्त्येष्टि में शामिल नहीं हो सकनेवाला सेवक बच्चू, हवेली के अन्य नौकर-चाकर से आहिस्ते से पूछता है--तुममें से किसी ने उनका मुखड़ा देखा था? मुखाग्नि के समय भी घूँघट हटा था क्या?...यह कहानी न केवल एक दलित बच्चे के त्रासद जीवन की विडम्बना बयान करती है, बल्कि संवेदना के स्तर पर सवर्ण समाज की घोर विकृति की दर्दनाक कथा को रूपायित करती है।

इस संग्रह की दूसरी कहानी है हमशक्ल’! जाति-विभेद तो श्यौराज सिंह बेचैन की हर कहानी में किसी न किसी रूप में आता है, किन्तु ध्यान रहे कि जाति-विभेद सम्बन्धी उनकी धारणा कहीं पक्षधरता की जिद नहीं पकड़ती। सदैव नैतिक और तार्किक होती है, हर समय विवेकशील चिन्तन से निर्देशित होती है। वे दलितों की जीवन-व्यवस्था के प्रति दिग्भ्रान्त नारेबाजों के आचरण से खिन्न रहते हैं। उनकी राय में दलित समुदाय के हित में न तो राजनीतिक दल चिन्ता करता है और न दलित स्वयं। वे मानते हैं कि जब दलित समुदाय के लोग सामर्थ्य-सम्पन्न हो जाते हैं, तो उनके भीतर एक अलग किस्म का ब्राह्मणवाद पैदा हो जाता है और वह अपने ही समाज के लोगों को अपने हित में औजार की तरह इस्तेमाल करने लगता है। इस तरह की चिन्ता उनके इस संग्रह की पाँचवीं कहानी कार्ड संख्या 2118में भी दिखाई गई है, जिसके नायक अशोक, अपना पूरा जीवन दलित, चिन्तन और दलितों के प्रति चिन्ता करते हुए बिताता है। मगर! उसकी मृत्यु के बाद पोस्टमार्टम रिपोर्ट से यह हैरानी हुई कि यह शख्स मरा कैसे? इसके शरीर पर तो किसी गम्भीर चोट के निशान नहीं! फिर पता चला कि वह पानी माँगते हुए मरा था। पर वह प्यास से नहीं, सदमे से मरा था। सदमा यह कि उसे मारने आए हमलावर वे नहीं थे जिनके खिलाफ वह दलित-हित में संघर्ष करता था, वे हमलावर वही थे जिनकी भलाई के लिए वह लड़ता था। वे हमलावर उसकी अपनी ही जाति के थे। श्यौराज सिंह ऐसे उन्मादी और दलित-द्रोहियों की खबर भली-भाँति लेते हैं।

हमशक्ल कहानी का विषय तो कुछ और है, पर इसमें भी दलितों के ऐसे छद्माचार पर विस्तार से विचार करने की गुंजाइश है। प्रेमराय की बेटी सवलीऔर नौकर कर्मदास की बेटी भोलीहमशक्ल है। दोनों जुड़वाँ बहनें दिखती हैं। पढ़ाई-लिखाई में दोनो अत्यन्त मेधावी हैं। प्रेमराय के बेटे प्रकेश और कुछ अन्य सवर्ण गुण्डों ने भोली के साथ बलात्कार कर उसकी लाश खण्ड-खण्ड कर गायब कर दिया। इस गायब भोली को ढूँढने की राजनीति में पूरी कहानी बीत जाती है, और अन्त में आकर पता चलता है कि भोली मिल गई। भोली समझकर जिसके साथ नृशंस बलात्कार किया गया था, वह असल में भोली की हमशक्ल सवली थी, प्रेमराय की बेटी थी, प्रकेश ने ऐसा जघन्य दुष्कर्म अपनी बहन के साथ किया था।

पूरी कहानी में राजनीतिक पार्टियाँ, चाहे वे दलित समुदाय के हितैषी, मसीहा हों या अन्य; सब के सब कर्मदास की गायब बेटी के नाम पर राजनीति करते रहे, पूरी राजनीति से मानवता, सत्य, विवेक, राष्ट्र-हित...सिरे से गायब रहा। यह कहानी अतिशय लम्बी है। कहना चाहिए कि इस कहानी में कहानीकार, उद्दण्ड सामाजिकता और विकृति से इतने पीड़ित हैं कि उनके कहानीकार पर उनका चिन्तक चढ़ बैठा है। फलस्वरूप कहानीपन को दबाकर कई बार विचारक, राजनीतिक विश्लेषक आगे आ गया है। इस कारण एक गहन संवेदना की कहानी का गसाव थोड़ा ढीला भी हुआ है। पर यह बड़ी बात है कि कहानी एक बड़े फलक को विस्तार देकर सभी राजनीतिक दलों को नंगा करने के यत्न मे सफल हुई है। पर ध्यातव्य है कि कहानी के किसी भी अंश में कहानीकार किसी मनगढ़न्त प्रवचन के फेरे में नहीं पड़े हैं। पिछले तीन दशकों में घटी राजनीतिक घटनाओं के यथार्थ निरूपण के सहारे ही जनोपयोगी विमर्श को बीच बहस में ला खड़ा किया है।

मैंशैली में लिखी होने की वजह से इस संग्रह की अस्थियों के अक्षरशीर्षक कहानी बेशक लोगों को श्यौराज सिंह का आत्मपरक बयान लगे, पर इसका अनुशीलन तो कहानी की तरह ही होगा, क्योंकि ऐसी कहानी का वाचक, कहानीकार स्वयं हो, यह हर समय जरूरी नहीं। और, हो भी, तो तटस्थ अनुशीलन में बुराई क्या है? आखिरकार है तो वह कहानी ही! पारिवारिक विग्रह, निरक्षर परिवार के मर्दों का निरर्थक पुशंत्ववादी अहंकार, स्त्रिायों पर बेवजह अत्याचार...इस कहानी में प्रमुखता से रेखांकित हुआ है। कथावाचक की माँ अपने पति की दूसरी पत्नी हैं। उनके देवर अविवाहित हैं। पूरे कुनबे को परिवार बनाने में उस अकेली स्त्री ने जान-प्राण लगा दिया। अपने और सौतेले बेटे, पति और देवर की सारी शुभग इच्छाओं को ममता से सँवारने में लगी रही; किन्तु उन्हें सदैव उनके पति और जुआरी देवर उन अपराधों के लिए प्रताड़ित करते रहे, जो उन्होंने कभी किए ही नहीं। परिवार के प्रति उनकी निष्ठा का सम्मान नहीं हुआ।

कथावाचक का सौतेला भाई मन्दबुद्धि है, स्कूल के अध्यापक कथावाचक की तारीफ और उनके बड़े भाई की बुराई करते थे। इसके दण्ड में कथावाचक की पढ़ाई रोक दी गई। उनकी माँ को गाली पड़ने लगी। मेरा-तेराका ऐसा फर्क पिता ही करे तो चाचा तो करेंगे ही! ऐसे विकारों से यद्यपि हमारा समाज अब तीन-चार दशक आगे आ गया है, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह हमारे अतीत की विडम्बना है। ऐसी परिस्थितियों में भी हमारे देश की रत्नगर्भा माँओं ने समाज को बहुत कुछ दिया है।

घर के आतंकी वातावरण में डर के मारे कथावाचक कभी कुछ बोल तो नहीं पाए, पर जब बोलने की स्थिति आई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ग्रेजुएशन की डिग्री ले लेने के बाद नौकरी पाकर कथावाचक जब माँ से मिलने पहुँचा, तो माँ का देहान्त हो चुका था। अपनी अस्थियाँ भस्म कर वे अस्थियों के ऐसे अक्षर लिखकर जा चुकी थीं, जो न केवल कथावाचक के लिए, बल्कि पूरे बच गए समाज के लिए प्रेरक प्रसंग हैं।

सिस्टरकहानी एक मामूली मजाक या कि भूलवश की गई असावधानी की परिणति है, जिसमें एक दम्पत्ति का जीवन स्वाहा हो गया। पाल चाचा और ईसाई सिस्टर के वैवाहिक जीवन की इस दारुण-कथा के बीच प्रयोजनवश मन्दिर-मस्जिद-गिरजाघर का फर्क और दलितों के मन्दिर-प्रवेश की वर्जना...का उल्लेख भी कहानीकार ने विलक्षणता से किया है। वह अम्मा जैसी थीकहानी विलक्षण मानवीयता का उज्ज्वल वर्णन है, जिसमें ममता ने नायक के अन्तर्द्वन्द्व को इतना सघन बनाकर उसके सद्पक्ष को विजयी बनाया है। कथानायक के मन में एक वृद्ध धनाढ्य महिला को ट्रेन से उतारकर, गंगा में स्नान करवाकर, फिर ट्रेन में चढ़ाने के क्रम में बार-बार पाप और पुण्य का संघर्ष होता है। उस वृद्ध अमीर महिला की पोटली लेकर भागने की धारणा का संघर्ष उसके भीतर बैठी उसकी मान्यता से होता रहता है और अन्ततः जब वह तय करता है कि अब पोटली लेकर भागना ही है, तब उसे निबोलियाँ बेचने जाती अपनी अम्मा के साथ की गई यात्रा की याद आती है, जब किसी ने उसकी पोटली गायब कर दी थी! उस वक्त उसे अपनी अम्मा की तकलीफ याद आई, और सोचा कि यह वृद्ध महिला बेशक अमीर हैं, पर इसे वैसी तकलीफ न हो, जैसी उसकी अम्मा को हुई थी, और उसने पोटली गायब करने का विचार त्याग दिया।...पर इस कहानी का अन्त आते-आते यहाँ भी एक विचित्र विसंगति आ गई। इतनी सुन्दर, इतनी सुशील, इतनी धर्मपरायण स्त्री भी उस बच्चे से सारी मानवीय जिज्ञासा--माता-पिता का काम-धाम, भाई-बहन की संख्या, उसकी पढ़ाई-लिखाई...कर लेने के बाद अन्तिम सवाल दागना नहीं भूली कि तेरी जात क्या है?’ और यह अन्तिम सवाल इस कहानी को फिर से सामाजिक चिन्ता के एक विचित्र मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है।

कई वर्ष पूर्व छपी श्यौराज सिंह बेचैन की कहानियों के संग्रह भरोसे की बहनपर मैंने अपनी राय बनाई थी कि वे एक विवेकशील दलित-चिन्तन के कवि, कहानीकार, विचारक हैं। उनकी दृष्टि में सम्पूर्ण सवर्ण समाज दलित-विरोधी नहीं हैं। यह बात उनकी कहानियों में खड़े अनेक सवर्णों के चरित्रांकन से स्पष्ट होता है। उनकी कहानियों के ऐसे पात्र जब-तब दलितों एवं स्त्रियों के समर्थन में अपनी चेतना-सम्पन्न अभिव्यक्ति देते रहे हैं। इसके विपरीत उनकी दृष्टि में मौका पाकर दलित भी दलितों के शत्रु हो जाते हैं। उनका यही विवेक दलित-चिन्तन को बड़े मुकाम तक पहुँचाने की दृष्टि स्पष्ट करता है। उनकी कहानियाँ भावकों को उद्वेलित कर उनकी चेतना को झकझोड़ती है।

हाथ तो उग ही आते हैंकहानी-संग्रह तक आते-आते ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी कुछ कहानियों में उनका विचारक कहीं-कहीं उनके कहानीकार को दबाने लगता है। यद्यपि वे विचार न तो भ्रामक होते हैं, न कहानी को आहत करते हैं, पर कहानियों में कहानी की अपनी ही वैचारिकता प्रखर रहे तो भाव-सम्प्रेषण प्रभावशाली से होता है; अधिक सूचनात्मक, विश्लेषणात्मक होने से प्रभाव शिथिल होने का जोखिम बढ़ जाता है। कवि-कथाकार-चिन्तक श्यौराज सिंह बेचैन को इस नए संग्रह के लिए बधाइयाँ।

 

 

 

 

 

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