Tuesday, March 17, 2020

तीसरे आदमी की तलाश (नारायण सिंह का कहानी संग्रह ‘तीसरा आदमी’)



तीसरे आदमी की तलाश

 (नारायण सिंह का कहानी संग्रह तीसरा आदमी’)

जब रक्षक ही भक्षक हो जाए, गहन आस्था के साथ जनसामान्य अपनी जीवन-व्यवस्था जिसके हाथ सौंपे, वही आस्तीन का साँप हो जाए, तो जनता सोई नहीं रह सकती। सहृदय होने के कारण भारतीय नागरिक का विश्वास जीतना राजनीतिज्ञों के लिए बड़ा आसान होता है। पर विडम्बना है कि वे जनता को सहृदय नहीं, मूर्ख समझ लेते हैं और शोषण में लिप्त हो जाते हैं। जनता ऐसी ही परिस्थिति में एक तीसरा आदमी’, खोजती है, जो उसकी सोचे, उसकी करे। तीसरा आदमीमें संकलित अपनी सात कहानियों में कथाकार नारायण सिंह समग्रता के साथ अपना समाज खड़ाकर इसी कड़ी की खोज करते दिखते हैं।
नारायण सिंह सातवें दशक से ही कहानी लिखते आ रहे हैं, बीच में कुछ दिनों इनका लेखन अवरुद्ध भी रहा। यद्यपि लेखनरत उम्र के हिसाब से नारायण सिंह प्रौढ़ कथाकार हैं, लेकिन इस संग्रह के जरिए, कथा लेखन के क्षेत्र में कोई सन्तोषप्रद छवि उपस्थित नहीं करते।
सामान्यतया उनकी कहानियों का परिवेश मेहनतकशों के पक्ष में आवाज बुलन्द करता हुआ, मानवीय मूल्यों की सुरक्षा तलाशता हुआ, व्यवस्था की विकृतियों पर आँसू बहाता हुआ प्रतीत होता है। आजादी के बाद से ही वोट-तन्त्र हमारे यहाँ एक विचित्र रहस्य बन गया है। जनतान्त्रिक विधि से प्रतिनिधियों के चुनाव की प्रक्रिया किस सीमा तक अपने सही रूप में है--संकलन में इस रहस्य की निर्लज्जता को उजागर किया गया है। अपनी विक्षिप्तता और एकाकीपन के बावजूद इस कहानी का अपंग पात्र चउरंगी बड़े जीवट वाला है।
अपनी तमाम विवशताओं के बावजूद वह इन नागनाथ और साँपनाथ के षड्यन्त्र के सामने घुटना नहीं टेकता, संघर्ष करता है। चउरंगी उन तमाम शोषितों की आँखों की रोशनी है, जो आज तक इन षड्यन्त्रकारियों के तीक्ष्ण प्रकाश की चकाचौंध में रास्ता भूलते रहे हैं। चउरंगी अपने समूह के साथ इन सामन्तों का दर्प चूसता है और संकेत देता है कि तुम्हारे ढोंग की पोल अब खुल चुकी है। लेकिन कथ्य को छोड़कर ज्यों ही कहानी कला के अन्य निकष की ओर बढ़ते हैं, कथाकार अत्यन्त निराश करते हैं। गाँव की इतिवृत्ति में कहानी का परिवेश गढ़ने का प्रयास तो लेखक ने किया है, ग्रामीण नीति मूल्य, मानव-मूल्य के लोप का ब्लू प्रिंट तो दिखाया है, लेकिन विषय उपस्थापन का माहौल ऐसा बनाया है, घटना संयोजन इस तरह किया है कि वे सारे तथ्य घोर काल्पनिक से लग रहे हैं। कहानी कृत्रिम हो जाती है, वास्तविकता आ ही नहीं पाती है।
अजगरकहानी में दस कट्ठा जमीन वाले अंगद के पिता को लोग किस उम्मीद पर कर्ज देते हैं, अंगद को अप्रत्याशित रूप से प्रतिभाशाली और पराक्रमी घोषित किए बगैर कहानी में क्या बिगड़ रहा था? कहानियों से इतना तो स्पष्ट होता है कि गाँव और खानदान का जीवन-क्रम कहानीकार का रच-रच कर देखा-परखा है। थोड़ी-सी सावधानी बरतकर लेखन की गम्भीरता को लेखक पकड़े, तो अच्छी कहानियाँ लिख सकते हैं। यदि वे अपनी बौद्धिकता और अतिरंजना का लोभ संवरण कर लें, तो एक अच्छे कहानीकार के गुण उनमें दिखते हैं। ऐसा होने के बाद उनकी पुस्तक के फ्लैप पर लिखी पंक्तियाँ सच साबित होंगी--नारायण सिंह के लिए लिखना शौक या कैरियर नहीं, एक मिशन है। वे जिन गाँव के बनिहारों और खदान मजदूरों की कहानियाँ लिखते हैं उन्हीं के बीच रहकर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जाग्रत करने का काम भी कर रहे हैं। इन कहानियों में गाँव की मिट्टी की महक के साथ-साथ खदान मजदूरों के पसीने की गन्ध का ताप अपने भीतर शिद्दत से महसूस करेंगे।
पागल’, ‘निषेधअथवा अन्य कहानियाँ भी इन त्रुटियों का अपवाद नहीं है। एक ओर जहाँ उनके विषय मिट्टी के कण-कण से, पात्र के रोम-रोम से अपनी आवाज बुलन्द करते हैं, सारे पात्र अपनी-अपनी सीमा में अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से जूझते हैं, लड़ते हैं अथवा दम तोड़ देते हैं, वहीं दूसरी ओर अतिरंजना के कारण ये कहानियाँ बोझिल भी बन गई हैं। जितने शानदार विषय को उठाकर नारायण सिंह अपनी कहानी प्रारम्भ करते हैं, अतिशय वक्तृता के कारण वे अपने कथ्य को भटकाव में डाल देते हैं।
अपवादस्वरूप कुछ कहानियों को छोड़कर आजकल हिन्दी में दो तरह की कहानियाँ छप रही हैं--एक तो ऐसी कहानी, जिसके प्रारम्भिक अंश में सृजनधर्मिता का दम-खम दिखता है, किन्तु एक-दो अनुच्छेद जाते-जाते लेखक की वास्तविकता दिखने लगती हैं और दूसरी ऐसी कहानी, जिसमें निष्प्रयोजनीय बातें भर-भरकर लम्बी कर दी जाती है और अन्त में एकाध पृष्ठों में शीघ्रता से कुछ कह लिया जाता है। लेखकीय परिपक्वता के अभाव अथवा जबर्दस्ती कहानी लिखने के उद्यम के कारण ऐसा होता है। नारायण सिंह की कहानियाँ एक खास सीमा तक इन दोनों कोटियों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
कहानी लेखन को प्रेमचन्द ने ध्रुपद की वह तान कहा है, जो अपने शुरू होने से पूर्व ही सारी कला प्रस्तुत कर डालता है। अर्थात् कहानी इस कदर पाठक को अपने कब्जे में ले ले कि वह किसी भी हाल में विचलित न हो। नारायण सिंह की कहानियों में पाठक इस सुख से वंचित रह जाते हैं। कहानीकार को इतना दायित्वबोध होना चाहिए कि पाठक जिस उत्साह और ललक से उनकी कहानी पढ़ना शुरू करते हैं, उसका सम्मान हो। नारायण सिंह को पाठक की कोई चिन्ता नहीं है। वे पाठक के धैर्य और मशक्कत की निर्मम परीक्षा लेते हैं। पाठक कसरत करते-करते मरे, नारायण सिंह अपनी बौद्धिकता, अपना दर्शन कूट-कूट कर भरेंगे और कहानी को बोझिल बनाएँगे। यों, कथोपकथन में भाषाई स्तर पर क्षेत्रीयता का पुट डालकर कहानी को चहटदार बनाने का प्रयास कहीं-कहीं है।
-तीसरे आदमी की तालाश, नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली, 06.09.1992

सदानन्द साही की दो कृति‍यां


असीम कुछ भी नहीं

असीम कुछ भी नहींकविता संग्रह कवि सदानन्द शाही की चौहत्तर कविताओं का पहला और ताजा संकलन है। आज के माहौल की अराजक स्थितियों की विकरालता से टक्कर लेती हुई इन कविताओं से कवि की आस्था इस बात के लिए आश्वस्त करती है कि भयावह स्थितियों के बावजूद असीम कुछ भी नहींहै।

अपनी सृजनशीलता में शब्द, बिम्ब, भाषा और अभिव्यक्ति शैली--हर स्तर पर कवि सामान्य जन के करीब हैं। भाषा सहजता और बेबाक टिप्पणियों की मदद से कई जगह कविता में सपाटबयानी भी है। पर, यह सपाटबयानी उद्दाम प्रवाह वाली नदी के बहाव की तरह इतनी उध्र्वगामी है कि वे सहज रूप से पाठकों के मनोमस्तिष्क पर छा जाती हैं। श्रेष्ठ कवि केदारनाथ सिंह इन कविताओं पर लिखते हैं: इस संग्रह की कविताएँ विराट या भव्य के विरुद्ध साधारण का पक्ष लेने वाली कविताएँ और एक खास अर्थ में भव्य या असीमके बिम्ब को तोड़ने वाली कविताएँ भी हैं। अभिधा के सहज ठाट में लिखी हुई ये कविताएँ मानो चुपचाप यह साबित करने का प्रयास करती हैं कि वर्तमान जीवन के गद्य को व्यक्त करने की सबसे अधिक क्षमता अभिधा में ही है। इस अभिधा वृत्ति को धार देने के लिए इस युवा कवि ने अक्सर व्यंग्यमय विडम्बना का सहारा लिया है। इस प्रकार इस पद्धति द्वारा एक अलग ढंग का शिल्प विकसित करने का प्रयास किया गया है।जब कवि कहते हैं कि
हथौड़ा चलाने वाले हाथ
धरती की छाती चीरकर
अन्न उगाने वाले हाथ
गुलामी की जंजीरें पहनने के लिए नहीं हैं
तो जाहिर है कि एक सन्देश और एक सपाटबयानी में कवि ने अपने और अपने आस-पास के साधारण जन की ताकत को व्यक्त किया है, जनशक्ति की प्रबलता की ओर इशारा किया है।
भरोसा
किसी पर्वत पर नहीं
हाथ की उस कुदाल पर करो
जो खोद सकती है पर्वत...
ऐसी पंक्तियाँ मानवीय शक्ति की बुनियाद से परिचय कराती हैं। पूरे संग्रह की सारी ही कविताएँ मनुष्य के हाथ, बुद्धि, ताकत, तरकीब, ज्ञान, उद्यम के वजूद की गाथा कहती हैं और उसकी शक्ति के प्रति आश्वस्त करती हैं। ये कविताएँ मानवीय जीवन में आए हर झंझावात से लड़ने की प्रेरणा देती हैं और विजयश्री की आश्वस्ति भी। नदी’, ‘स्त्री’, ‘देविका के लिए कविताऔर ईश्वर से मुलाकातशीर्षक से कवि ने शृंखला में कविता लिखी है। ये कविताएँ बडे़ सहज अन्दाज में, पास-पड़ोस में बिखरे विषयों पर व्यंग्यात्मक शैली में लिखी गई हैं। इनमें निरीहता भी है, प्राबल्य भी; दैन्य भी है और ताकत भी--पर, कुल मिलाकर ये और संग्रह की अन्य सभी कविताएँ एक मुठभेड़ की कविता है, जो बिना खून-खराबा, नारेबाजी, बारूद, बम-पिस्तौल के एक जंग की प्रेरणा और जय का बोध देती है। ये कविताएँ प्रमाणित करती हैं कि सचमुच असीम कुछ भी नहींहै, यदि मनुष्य को
प्यास भर पानी
भूख भर अन्न
देह भर धरती
आँख भर आकाश
साँस भर हवा
आँचल भर धूप
अँजुरी भर रूप
और जीवन भर प्यार मिल गया, तो उसे और कुछ नहीं चाहिए; असीम कुछ भी नहीं चाहिए, ‘सब कुछ सीमा में चाहिए।
 --ने.बु.ट्र.संवाद
असीम कुछ भी नहीं/सदानन्द साही/ वि.वि.प्रकाशन, वाराणसी/पृ. 88, रु. 100.00
 

दलित साहित्य की अवधारण और प्रेमचन्द

प्रेमचन्द का साहित्य हम भारतीयों के लिए ऐसा धरोहर है, जहाँ हम प्राचीन, अद्यतन हर समालोचनात्मक उपस्कर का उपयोग कर सकते हैं। इन दिनों दलित और स्त्री के समर्थन में सृजनात्मक, आलोचनात्मक--दोनों तरह के विपुल लेखन हो रहे हैं, पर तथ्यतः ऐसे  चिन्तन के बेशुमार सूत्र हमारे पूर्वजों ने पहले से दे रखे हैं। अकेले प्रेमचन्द के यहाँ दलित-चिन्तन के इतने दृष्टिकोण प्रकट होते हैं कि सारी सम्भावनाएँ आइने की तरह साफ दिखने लगती हैं।
दलित साहित्य की अवधारण और प्रेमचन्दपुस्तक ने इन्हीं सम्भावनाओं की तलाश की है। यह पुस्तक राजेश कुमार मल्ल के सहयोग से सदानन्द शाही ने सम्पादित की है। इन दिनों दलित लेखनपर खूब चर्चा हो रही है, किन्तु सतह पर सही काम करने वाले लोगों की कमी अभी भी है। ऐसे फैशनपरस्तों की कमी नहीं जो नेता तो मजदूरों के होंगे, चर्चा तो दलितों की करेंगे पर अपनी क्रिया में श्रमिकों को हीन दृष्टि से देखने में और उसकी मजदूरी मारने में कोई भी कसर नहीं उठाएँगे। इन सारी दृष्टियों से प्रेमचन्द का साहित्य शायद दलित साहित्य की अवधारणा को रेखांकित करने में ज्यादा सहायक होगा। आलोच्य पुस्तक में इस तथ्य का प्रमाण मिलता है।
इस पुस्तक में कुल अठारह निबन्ध हैं, जिन्हें तीन खण्डों में प्रस्तुत किया गया है। पहले खण्ड में विचार’, दूसरे खण्ड में विमर्शऔर तीसरे खण्ड में संवादहै। संवाद में नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, परमानन्द श्रीवास्तव से दलित लेखन पर बातचीत की गई है और दलित साहित्य पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट दी गई है। विमर्श खण्ड में नामवर सिंह, विजेन्द्र नारायण सिंह, मोहनदास नैमिशराय, सदानन्द शाही समेत कई विद्वानों के शोध सम्पन्न और विमर्श समृद्ध आलेख हैं जो प्रेमचन्द के साहित्य में दलित चेतना के ओर-छोर तलाश रहे हैं। विचार खण्ड में अय्यप्पा पणिक्कर, के. सच्चिदानन्द, मैनेजर पाण्डेय, ताराचन्द खण्डेकर प्रभृत्ति महान विचारकों के विचार रखे गए हैं।
--ने.बु.ट्र.संवाद

हिन्दी व्यंग्य का आइना (श्रीलाल शुक्ल और प्रेम जनमेजय के सम्पादन में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित व्‍यंग्‍य संग्रह ‘हिन्दी हास्य-व्यंग्य संकलन’)



हिन्दी व्यंग्य का आइना 

(श्रीलाल शुक्ल और प्रेम जनमेजय द्वारा सम्पादि‍त व्‍यंग्‍य संग्रह हिन्दी हास्य-व्यंग्य संकलन’)

युवा व्यंग्यकार सुभाष चन्दर द्वारा सम्पादित बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएँएक सौ नौ व्यंग्यकारों के एक-एक व्यंग्य का संकलन है। एक साथ इतनी व्यंग्य रचनाओं का संचयन इससे पूर्व कभी नहीं हुआ। सन् 1997 में श्रीलाल शुक्ल और प्रेम जनमेजय के सम्पादन में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित संग्रह में हिन्दी हास्य-व्यंग्य संकलनमें भारतेन्दु युग से लेकर आज तक के उनचास प्रतिनिधि व्यंग्यकारों की रचना संकलित हुईं। उस संकलन की कुछ रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की गई हैं।
उल्लेखनीय है रचनाकार पर सवार पाठकों को लुभाने का लोभ व्यंग्य को हास्य अथवा चटपटे चुटकुले में परिणत कर देता है, तो दूसरी तरफ चिन्तन-मन्थन का बोझ उसे ऊब से भरा हुआ भाषण बना देता है। अर्थात्, भारतेन्दु युग के बाद की सभी पीढ़ियों से गुजरते हुए आज हिन्दी व्यंग्य जहाँ पहुँच गया है, वह हिन्दी के लेखक और पाठक--दोनों के सम्मिलित प्रयास का परिणाम है। श्रीलाल शुक्ल के अनुसार व्यंग्य एक सुशिक्षित मस्तिष्क की देन है और पाठक के स्तर पर भी सुशिक्षित प्रतिक्रिया की माँग करता है। वह पाठक को गुदगुदाने के लिए नहीं, बल्कि किसी विसंगति या विडम्बना के उद्घाटन से उसके सम्पूर्ण संस्कारों को विचलित करने की प्रक्रिया है।... अतिशयोक्ति, विडम्बना, सन्दर्भशीलता, पैरोडी, अन्योक्ति, आक्रोश-प्रदर्शन, ऐलिगरी, फन्तासी आदि इसके प्रमुख उपादान हैं। व्यंग्य के पीछे लेखक का निश्चित चिन्तन तथा दृष्टिकोण होता है जिसका आधार लेकर वह स्थिति विशेष को अपनी प्रखर आलोचना का लक्ष्य बनाता है।
इन विशेषताओं से युक्त बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएँमें भारतेन्दु युग के दो महत्त्वपूर्ण व्यंग्यकार प्रताप नारायण मिश्र तथा भारतेन्दु की रचना नहीं होने का तर्क शायद यह हो कि उनका देहान्त उन्नीसवीं शताब्दी में ही हो गया। परन्तु गुलाब राय, जी.पी.श्रीवास्तव, हरिशंकर शर्मा, निराला, कुट्टिचातन, नागार्जुन, अमृत राय, धर्मवीर भारती, विद्यानिवास मिश्र, शान्ति मेहरोत्रा, सेरा यात्री, नामवर सिंह, हरिमोहन झा, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण व्यंग्यकारों को भी इसमें सम्मिलित किया गया होता तो हिन्दी व्यंग्य के ग्राफ की मुकम्मल तस्वीर देने में यह एक ही पुस्तक पर्याप्त होती। इन नामों में से कुछ तो ऐसे हैं, जो व्यंग्य ही लिखते रहे हैं और कुछ ऐसे हैं जो ख्यात तो अन्य विधा के कारण हैं, पर कुछेक श्रेष्ठ कोटि के व्यंग्य भी उन्होंने लिखे। इसलिए व्यंग्य के विकास में उनके समर्थन और योगदान की भूमिका को स्वीकृति देने हेतु यह उचित होता। हर संकलनकत्र्ता की कोई न कोई मजबूरी होती है। पर जो प्रस्तुत है, उसकी गुणवत्ता की परख से, कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि इस संकलन से हिन्दी व्यंग्य के विस्तृत फलक का चित्र सामने आया है। यद्यपि इसमें कई ऐसे व्यंग्यकारों को भी शरीक किया गया है, जो अभी अपने निर्माण काल की प्रारम्भिक अवस्था में हैं, उन्हें अभी परिपक्व होने देने की आवश्यकता थी, और कुछ ऐसी रचनाएँ भी शामिल हैं, जो नहीं शामिल करने लायक थीं। यद्यपि सम्पादक ने स्वयं इस बात का जिक्र अपने वक्तव्य में किया है।
भारतेन्दु युग से प्रारम्भ हुआ गद्यात्मक व्यंग्य आज जिस मुकाम पर है उसे जानने के लिए स्वातन्त्र्योत्तरकाल में प्रकाशित व्यंग्य पर गहरी नजर डालने की आवश्यकता है। इस क्रम में हरिशंकर परसाईं, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, बालेन्दु शेखर तिवारी, ज्ञान चतुर्वेदी...कई प्रसिद्ध व्यंग्यकारों के नाम लिए जा सकते हैं, जिनके अलग-अलग और कई-कई संकलन प्रकाशित और प्रशंसित हैं। आजादी से पूर्व व्यंग्य की स्थिति अच्छी और मुखर तो अवश्य रही है, पर अलग से यह विधा अपना वजूद कायम नहीं कर पाई इसका मूल कारण शायद यह रहा हो कि भारतेन्दु युग में और द्विवेदी युग में और उसके बाद के समय तक भी व्यंग्य एक शिल्प के रूप में कथा, कविता, उपन्यास आदि में इस्तेमाल होता रहा। इसी में कभी कभी कुछ रचनाकारों द्वारा व्यंग्य लेख भी लिखा जाता रहा। युग की विसंगतियों पर उपहासात्मक नजर, धिक्कारात्मक व्यवहार, प्रहारात्मक भाषा के साथ तीक्ष्ण प्रतिक्रिया व्यक्त करना ही तो व्यंग्य है। व्यंग्य ही ऐसी एक प्रविधि है, जहाँ रचनाकार स्वयं अपनी, अपने रिश्तेदारों की और स्वयं अपने ही क्रिया-कलापों की धज्जियाँ उड़ाने की व्यवस्था कर लेते हैं और फिर स्व से समष्टि का विस्तार देकर इसमें समाज-सत्य की नग्नता दिखा देते हैं। स्वातन्त्र्योत्तर काल के भारतीय समाज की जो दशा बनी वह स्वतन्त्रता पूर्व की दशा से अपेक्षाकृत अधिक विकृत और कलुषित होने लगी; इस काल में उदित और स्थापित रचनाकारों को शायद तब कथा, कविता, उपन्यास के फ्रेम में इस कलुष और इस विकृति को सम्पूर्णता में रख पाना सम्भव नहीं लगा होगा। फलतः कथा-कविता-उपन्यास के अन्तरंग तत्त्व के साथ-साथ स्वतन्त्र रूप से भी व्यंग्य का मुखर स्वरूप विकसित हुआ। बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएँमें संकलित व्यंग्य, व्यंग्य के इसी उतार-चढ़ाव और शैथिल्य-तीक्ष्णता का ग्राफ प्रस्तुत करता है। संकलन की करीब-करीब रचनाएँ आज के भारत की बेकारी, बेगारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, खुदगर्जी, अनैतिकता, लूट, शोषण, राजनीतिक विकृति, सामाजिक-पारिवारिक षड्यन्त्र, बौद्धिक पाखण्ड, धर्मान्धता, धोखा आदि का जीता-जागता नमूना है, जहाँ व्यंग्यकारों ने इन स्थितियों और उसके नुमाइन्दे की बखिया कभी अपने सहारे तो कभी रिश्तेदारों या दोस्तों के बहाने, उधेड़ी है।
कई विधाओं के तोड़-फोड़ से विकसित हुए व्यंग्य के महत्त्व को प्रस्तुत करने में इस संकलन का अभूतपूर्व योगदान है। यद्यपि, संकलनकत्र्ता ने बीसवीं सदी के व्यंग्य परिदृश्य पर लेख लिखते हुए कई ऐसी बातें कह डाली हैं, जिस पर मतामत अथवा कहिए कि विवाद भी उठाए जा सकते हैं, पर उन विवादास्पद बातों को नजरअन्दाज करके चलें तो यह भी बात सामने आती है कि इस आलेख में संकलनकत्र्ता ने व्यंग्य की पूर्व पीठिका पर भी यथासाध्य गम्भीरता से चर्चा की है। हर व्यंग्य के अन्त में रचनाकार का संक्षिप्त परिचय और तस्वीर भी पाठकों के लिए कम उपयोगी नहीं। कुछ कमियाँ अवश्य हैं, पर ढेरो अच्छाइयों के साथ प्रस्तुत इस पुस्तक के संकलक सुभाष चन्दर बधाई के हकदार हैं।
-बीसवीं सदी की व्यंग्य रचनाएँ/सुभाष चन्दर (सं)/भावना प्रकाशन/हिन्दुस्तान, 24 मई, 2000

चूके हुए निशाने का व्यंग्य (ओमप्रकाश कश्यप का व्‍यंग्‍य संकलन ‘ताकि मनोबल बना रहे’)



चूके हुए निशाने का व्यंग्य 

(ओमप्रकाश कश्यप का व्‍यंग्‍य संकलन ताकि मनोबल बना रहे’)

हिन्दी में व्यंग्य लेखन की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है, गद्य में तो और भी नहीं। गद्य समेत अन्य कई आधुनिक प्रवृतियों का विकास हिन्दी में भारतेन्दु काल से ही माना जाता है, व्यंग्य उन्हीं आधुनिक प्रवृतियों में से है। सन् 1857 के बाद का समय भारत देश के बुद्धिजीवियों के लिए बड़ा ही जटिल समय था। पूरे देश के बुद्धिजीवी नवोदित आकांक्षाओं और अभिलाषाओं से भरे हुए थे। ब्रिटिश हुकूमत से त्रस्त शिक्षित समुदाय उस संक्रमण काल में भयानक अन्तर्विरोध से ग्रस्त थे। राष्ट्रीय स्वाधीनता और भाषाई चेतना से सब भरे हुए थे। भारतीय अर्थव्यवस्था का अंग्रेजों द्वारा शोषण-दोहन हो रहा था। अशिक्षा, दरिद्रता, कुसंस्कार, रूढ़िग्रस्तता...पराकाष्ठा पर थी। ऊपर से अंग्रेजी सत्ता का क्रूर दबाव था। इन्हीं परिस्थितियों में हिन्दी व्यंग्य का उदय हुआ और भारतेन्दु युग से आगे बढ़ता हुआ प्रेमचन्द और निराला के समय को पार करता हुआ हरिशंकर परसाई तक आ पहुँचा। कालखण्ड के बदलते परिवेश ने व्यंग्य को काफी तीक्ष्णता और परिपक्वता दी। स्वातन्त्र्योत्तर काल की सामाजिक परिस्थितियाँ कुछ अधिक ही वीभत्स हो गईं। खासकर सन् 1977 के बाद का राजनीतिक द्वन्द्व, सत्तात्मक अनस्थिरता और मानवीय पापाचार, अराजकता की कगार पर आ गया। इसी दौर में हिन्दी व्यंग्य में ओमप्रकाश कश्यप का नाम सामने आया। उनकी शिक्षा-दीक्षा दर्शनशास्त्र में हुई, पर किताबों में उद्धृत दर्शनशास्त्रीय सूत्रों से अधिक जनाकांक्षाओं के दमन-उत्पीड़न को परखने में उनकी रुचि अधिक रही। लिखा तो उन्होंने अन्य विधाओं में भी, पर व्यंग्य-लेखन उनका मूलधर्म रहा।
ताकि मनोबल बना रहेउनके इक्यावन व्यंग्य लेखों का ताजा संग्रह है। इधर के तीन-चार दशकों में व्यंग्य कुछ अधिक ही महत्त्वपूर्ण हो गया है, पत्र-पत्रिकाओं में इसके लिए स्थान सुरक्षित होने लगे हैं, पर संकलन की तरफ फिर भी ढंग से सोचा नहीं गया। असल में हिन्दी में केन्द्रित होकर व्यंग्य लिखने वाले दो इतने बड़े मीनार (हरिशंकर परसाई और शरद जोशी) खड़े हो गए कि उनके प्रभामण्डल में कई प्रतिष्ठित व्यंग्यकार अलक्षित रह गए। हिन्दी प्रकाशन जगत की जो दशा है, उसमें सारे व्यंग्यकारों का अलग-अलग संकलन आ नहीं पाता, ऐसे में चयनित व्यंग्यकारों के चुने हुए व्यंग्यों का संकलन तैयार करना श्रेयस्कर होता है। सन् 1997 में  श्रीलाल शुक्ल तथा प्रेम जनमेजय के सहसम्पादन में प्रकाशित हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलनमें बालकृष्ण भट्ट से लेकर सुरेश कान्त तक के उनचास व्यंग्यकारों के व्यंग्य लेखों का संकलन प्रकाशित हुआ। उसके बाद सन् 2000 में भावना प्रकाशन से युवा व्यंग्यकार सुभाष चन्दर के सम्पादन में 109 व्यंग्यकारों की रचनाओं का संकलन बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएँप्रकाश में आईं। सीमाबद्धता के कारण हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलनमें  कई महत्त्वपूर्ण व्यंग्यकार दर्ज नहीं हुए। युवा सम्पादक सुभाष चन्दर के भी कुछ आग्रह रहे होंगे, जिस कारण कई महत्त्वपूर्ण व्यंग्यकार उस पुस्तक में शामिल नहीं हुए और कुछ कमतर व्यंग्य शामिल हुए। पर यह छोटी बात नहीं कि हिन्दी में नए-पुराने लगभग एक सौ व्यंग्यकार रचनारत हैं। और उनकी रचनाधर्मिता का परिचय मोटे तौर पर उस संकलन में एकत्र है, संयोग से ओमप्रकाश कश्यप भी वहाँ मौजूद हैं।
ओमप्रकाश कश्यप की किशोरावस्था की समाप्ति और देश में आपातकाल, राजनीतिक अराजकता, राजनीतिज्ञों की स्वार्थपरता और नृशंसता, पुलिस-पत्रकार-नेता, अफसर-वकील-शिक्षक-धार्मिक ठेकेदारों के बीच विचारशून्यता, तथा आम जनजीवन की निराशा, हताशा, भय, आतंक, शोषण, उत्पीड़न, मूल्यहीनता और दिग्भ्रम का समय एक ही है। अतः अलग से कहने की आवश्यकता नहीं कि ओमप्रकाश कश्यप के लेखन का मूल लक्ष्य इन्हीं विसंगतियों और विकृतियों पर प्रहार है। राजनीतिक तिकड़म और लफ्फाजी, चमचों की नीचता, घपलों-घोटालों के गलीज धन्धे, वोटतन्त्र का षड्यन्त्र, राजनेताओं की नृशंसता, जनता के साथ हो रहे प्रपंच इनके मुख्य विषय हैं।
सधे हुए हाथ, तीक्ष्ण जीवनदृष्टि, विलक्षण रचना कौशल से शुरू हुई व्यंग्य लेखन परम्परा; हरिशंकर परसाई एवं शरद जोशी के समय आते-आते एक मुकाम पर पहुँच गई। पर इतनी समृद्ध विरासत और इतने शानदार विषयों की खदान होने के बावजूद ओमप्रकाश अपने व्यंग्य को अपेक्षित ऊँचाई नहीं दे पाए--यह दुखद प्रसंग है। चूहों का निन्दा प्रस्ताव’, ‘बिल क्लिंटन का सहयात्री’, ‘सुखीराम की दुखी आत्माजैसे कुछ प्रभावकारी व्यंग्य लेखों के अलावा ज्यादातर लेखों में समृद्ध संसाधन भव्य भवन बनाता हुआ कारीगर अपने ही हाथों भवन ध्वस्त करता दिखता है। बयान ठूँसने के कारण अधिकांश व्यंग्य ऊब से भर गया है। पुरोवाक् पढ़कर व्यंग्यकार के रचना कौशल पर जो आस्था बनती है, वह मूल पाठ देखने पर टूट जाती है। यह संकलन ओमप्रकाश कश्यप के बेहतर व्यंग्य-समालोचक का संकेत तो देता है, बेहतर व्यंग्यकार का नहीं।
पाठ में आकर्षण बना रहना व्यंग्य की अनिवार्य शर्त है। आधुनिकता के प्रवेश से आम जनता का अनुराग कुछ कम हुआ है, पर व्यंग्य तो ऐसा हो कि उसमें काका हाथरसी और सुरेन्द्र शर्मा की फूहड़ कविताओं के पाठक-श्रोता भी रम जाएँ और मुक्तिबोध, हावरमास, सोस्यूर के भक्त भी।
विषय और संरचना के कलात्मक समावेश से व्यंग्य की व्यंजना को उत्कर्ष दिया जाता है। उपस्थापन-शैली की विफलता, अतिकथन और बयानबाजी से ओमप्रकाश कश्यप के व्यंग्य के सूत्र टूट गए हैं। संकलन का शीर्ष व्यंग्य ताकि मनोबल बना रहेमें भी यही हाल है; ‘देश में सूखा: राजा भूखा’, ‘एक तमाशा यह भी यारो’, ‘मेड़ पर बकरियाँआदि में तो है ही।
सृजन के एक लम्बे सफर में सध चुके हाथ और रचना-कौशल के बावजूद ओमप्रकाश कश्यप अपने पाठकों की अपेक्षा इस संकलन से पूरी नहीं कर पा रहे हैं। अगला संग्रह शायद हमें तोष दे।
व्यंग्य ही व्यवस्था को शिष्ट बनाएगी, हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, 29.12.2002
ताकि मनोबल बना रहे/ओमप्रकाश कश्यप/एराइज प्रकाशन, दिल्ली

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