थके हारे मनुष्य का आर्त्तस्वर
(अनिल कुमार सिंह का कविता संग्रह ‘जाडे़ की धूप’)
जाडे़ की धूप बड़ी प्यारी होती है, सबके लिए, इसके
इस अनुभव का कोई अपवाद नहीं होता। सुबह से लेकर शाम तक यह धूप हर तबके और हर
स्वभाव के लोगों को पल-पल अपना सुखद और आरामदेह स्पर्श देती रहती है और उनमें
ऊर्जा का संचार करती रहती है। पर अनिल कुमार सिंह की काव्य पुस्तक ‘जाडे़ की धूप’ इस मायने में अपने नाम की सार्थकता
साबित नहीं करती। उनासी कविताओं का यह संकलन अनिल की कविताओं की पहली पुस्तक है।
पुस्तक के प्रारम्भ में अपनी बात लिखते हुए उन्होंने स्वयं सूचित किया है कि ‘मेरी कविताएँ पत्रिकाओं में बिल्कुल
नहीं देखी गईं’, ‘इस संग्रह हेतु कविताओं का चयन स्वयं
किया’, ‘जाडे़ की धूप में चेतनामूलक
आध्यात्मिकता के साथ-साथ वर्तमान जीवन की विसंगतियाँ भी कविताओं का आधार बिन्दु
रही हैं।’
इन स्वीकरोक्तियों की पृष्ठभूमि जो भी हो, पर यहाँ सामने कविताओं में जीवन की
विसंगतियाँ कम महत्त्व की हैं,
चेतनामूलक
आध्यात्मिकता अधिक। यूँ अनिल अपनी कविताओं और अपने कवि कर्म से इतने आश्वस्त हैं
कि उन्हें किसी आलोचक,
समीक्षक या पाठक की
परवाह नहीं। तुलसी,
टैगोर की ‘भावना’ और
मिल्टन, इलियट के ‘सकारात्मक सोच’ से परिचित रहने के बावजूद अनिल का कहना
है कि ‘आज के ह्रासमान मानवीय नैतिकता के युग
में कुछ प्रगतिशील आलोचकों और पाठकों को हो सकता है कि मेरी इन अधिकांश रचनाओं में
आध्यात्मिकता एवं परम्परा की झलक मिले, लेकिन
मेरा कवि तो इन्हें चेतनामूलक आध्यात्मिकता ही मानता है, फलतः आत्मबोध को केन्द्र में रखकर
रचनाओं को समझने में आसानी होगी। बावजूद इसके अगर कोई मेरे कवि को परम्परावादी
कहता हो तो कहे, ऐसा परम्परावादी कहलाने में गर्व ही
होगा, निराशा कदापि नहीं।’
कवि अनिल के इस वक्तव्य के बाद उनकी कविताओं के सम्बन्ध में
किसी संवाद की कोई गुंजाइश बची नहीं रहती। अपनी रचनाओं और अपने रचनाकर्म के प्रति
आत्ममुग्ध करीब-करीब हर लेखक होता है, परन्तु
लगभग सारे लेखक अपनी कृति के सम्बन्ध में विचार की एक सम्भावना रहने देते हैं।
अनिल के यहाँ सम्भावना के सारे रास्ते बन्द हैं। उनका मानना है कि लिखना कभी
व्यर्थ नहीं जाता और सही अर्थों में उनके जैसा लिखना ही लिखना है।
मैं समझता हूँ कि अनिल को अपनी पहली कृति के साथ ही इतना महान
हो जाने का भ्रम हिन्दी में नहीं पाल लेना चाहिए। किसी भी रचनाकार को महत्त्व उसका
पाठक देता है, प्रकाशक या वितरक या आलोचक तो मात्र
निमित्त होता है। हर रचनाकार ऐसा मानते हैं कि कोई भी रचना जब लिख जाती है, तो वह उस रचनाकार और उसके अनुभव से
मुक्त हो जाती है, रचना की दूसरी मुक्ति उसके प्रकाशन के
बाद होती है और जब रचना पाठक के हृदय तक पहुँच जाती है तो वहाँ वह रचनाकार से
तीसरी बार मुक्त होती है और यह मुक्ति उसकी ऐसी मुक्ति है, जहाँ रचनाकार के पास सफाई देने का कोई
हक लगभग नहीं रहता। रचना पाठकों के पास अपना भेद स्वयं खोलती है। कई बार यह पाठक
के ज्ञान-लोक पर भी निर्भर करता है,
पर वहाँ रचना की
मुखबिरी के लिए लेखक मौजूद नहीं रहते, इसलिए
रचना के बारे में कहने से ज्यादा बेहतर है रचना के बारे में कहना। अनिल ने यह भी
सूचित किया है कि अपनी रचनाशीलता में उन्होंने भावपक्ष की प्रधानता दी है, कलापक्ष की नहीं। मैं समझता हूँ कि
कलावादियों की लाख बुराई आज के विविध वाद वाले लेखक भले कर लें पर ‘वस्तु’ या
‘भाव’ की
अपेक्षा उपस्थापन-कला अर्थात् शिल्प और शैली किसी अर्थ में कम महत्त्वपूर्ण नहीं
है। ‘माँ’ और
‘बाप की बीवी’--दोनों एक ही अर्थ को ध्वनित करता है, यह कहने की कला ही है कि एक उच्चारण
सभ्य है, दूसरा असभ्य।
अनिल की इन कविताओं में से कुछ को छोड़कर, सारी कविताएँ किसी अप्रत्यक्ष को
सम्बोधित है और किसी थके-हारे व्यक्ति द्वारा अपनी अकिंचनता और निरीहता का चित्रण
है।
चक्रव्यूह में फँसा हूँ
जीवन के दलदल में धँसा हूँ
निकलने की छटपटाहट को अकेले महसूसता हूँ
या,
मैं समय की बहती नदी में
एक क्षणिक बुलबुला हूँ
या,
सहलाती रह ऊष्म अंगुलियों से
और पराभव में भी धैर्य की घुट्टी पिलाती
रह
बहुत भटका हूँ माँ
या,
शिखर से दुत्कारा हुआ
एक शिलाखण्ड हूँ’...
ऐसी न जाने कितनी ही पंक्तियाँ हैं, जो कवि के रोदन को, निस्सहाय स्थिति को चित्रित करती हैं।
यहाँ यह गुंजाईश नहीं है कि साहित्य के उद्देश्य पर ज्यादा विचार किया जा सके, पर अनादि काल से साहित्य हमारे समकालीन
समाज के जन-मन वृत्ति का वाहक और भावी आन्दोलन का दिशासूचक होता आया है। वीरगाथा
काल से लेकर छायावाद,
प्रगतिवाद, प्रयोगवाद...सबके सब इसके उदाहरण रहे
हैं। पर उक्त पंक्तियों या ऐसी ही अनेक कविताओं की ऐसी पंक्तियों से इस निष्कर्ष
पर पहुँचना बड़ा आसान है कि जो रचनाकार स्वयं अपनी ही शक्ति के प्रति आस्थावान नहीं
हैं, वे समूह को क्या बल और ताकत दे सकते
हैं। इस संकलन की ज्यादातर कविताओं में परजीवीपन और क्षण विशेष के भावोच्छ्वास का
चित्रण दिखता है जहाँ कवि थकित,
ह्रस्त-पस्त-परास्त
होकर शून्य में कुछ प्रश्न अथवा प्रार्थना अथवा अनुरोध फेंक देता है, अपनी दशा का एक शब्द-चित्र, अपनी व्यथा का एक रोदन टांग देता है।
संकलन की ज्यादातर कविताओं में कवि ने अपनी अकिंचनता, अपनी अशक्यता, अपनी हीनता इस भाव से व्यक्त की है, जैसे कोई भक्त अपने भगवान के सामने
व्यक्त करता है। ऐसी अभिव्यक्ति यदि ‘जो
दिल खोजा आपनो, मुझ सा बुरा न कोय’ वाली शालीनता की होती, तो एक बेहतर स्थिति की सम्भावना बन सकती
थी। मेरी समझ से साहित्य यदि समकालीन समाज की चित्तवृत्ति का वाहक नहीं है, यदि उसमें समकालीन जनजीवन के सत्य की
सूक्ष्मता नहीं है,
तो ऐसे साहित्य की
शायद न तो तात्कालिक कोई उपयोगिता है न सार्वकालिक। आज के समय में भावी
सद्परिणामों के कोई भी मार्ग कीर्तन भजन से नहीं खुल सकते। मनुष्य को खुद ही खोलना
पड़ता है। अपनी एक कविता ‘शिलाखण्ड’ में
कवि कहते हैं--
मैं भी एक दिन फेंक दिया गया काशी के
तीर
लुढ़क गया जलमग्न सीढ़ियों की ओट में
क्या पता लहरों की अनवरत ठोकर
शिवलिंग का रूप देगी मुझे
और मैं मन्दिर में सदियों तक पूजने के
लिए
पवित्र हाथों द्वारा रख दिया जाऊँगा।
अर्थात्,
शिखर से दुत्कारे हुए
इस शिलाखण्ड का बिम्ब जिस मनुष्य को कवि ने दिया है, वह
खुद कुछ नहीं करेगा,
केवल एक आध्यात्मिक
उपदेश कि ‘समय-चक्र, सुख
और दुख के साथ घूमता है,
दुख के बाद सुख और
सुख के बाद दुख आएगा ही,
हर अन्धकार के बाद
प्रकाश आता है, रात के बाद दिन होता है’ के सहारे अपने अच्छे समय की प्रतीक्षा
करता रहेगा। ऐसा निष्चेष्ट और निश्चिन्त व्यक्ति समाज और जनता को क्या प्रेरणा और
क्या दृष्टान्त दे पाएगा। जो मनुष्य समय की अगुआई न करे, समय को अपने अनुकूल न बना ले, उस मनुष्य के जोश और उसकी ताकत से कोई
क्या प्रेरणा ले सकता है। किसी भी युद्ध में रणडंक की साधारण आवश्यकता नहीं होती।
हमारा समाज आज जिस रणभूमि में जी रहा है, इसमें
कविता रणडंक का ही काम करती है। यह काम बम-पिस्तौल, गोली-बारूद
और लाठी-भाला के बिना भी हो जाता है। नागार्जुन, धर्मवीर
भारती अथवा केदारनाथ सिंह जैसे कई बड़े कवि हैं जो बिना हथियार उठाए, बिना चीख चिल्लाहट के काफी प्रहारात्मक
बात कविताओं में कह गए हैं। यहाँ तक कि धर्मवीर भारती ने तो अपनी कई महत्त्वपूर्ण
कृतियों में अपने समय की बातों को स्पष्टतः कहने के लिए मूल और महत्त्वपूर्ण आश्रय
अध्यात्म का ही लिया है। ‘जाडे़ की धूप’ के कवि यह भी नहीं कर पाए हैं। अपनी तरफ
से कुछ नहीं कर, समय और किसी महत् शक्ति की मदद की
प्रतीक्षा करना किसी पराश्रयी से ही सम्भव है और आज के मनुष्य को पराश्रयी धर्म की
कविता क्या देगी। विकृतियों और विसंगतियों के इस दौर में, जहाँ मनुष्य के मौलिक अधिकार तक का हनन
हो रहा हो, वहाँ किसी शास्त्रीय उक्ति पर विश्वास
कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना मुनासिब नहीं।
भाषा संरचना में व्याकरण की भूलें और कुछ शब्दों के विकृत रूप
भी खटकते से प्रतीत होते हैं। अपनी तमाम कविताओं में अनिल ने जितने महत्त्वपूर्ण
विषय उठाए हैं, उस पर यदि उनका एप्रोच समकालीन रहता, तो इससे खूबसूरत और शानदार कविता और
नहीं हो पाती। यही शिखर से दुत्कारा हुआ शिलाखण्ड, यदि
समय की वरदान के बजाए अपनी मौलिक शक्ति पर आस्था रखता, तो कवि का एप्रोच दूसरा हो सकता था। ऐसे
कुछ कविताओं में कवि ने अपना यह तेवर दिखलाया भी है। ‘बुद्ध’ के
बिम्ब प्रतीक के सहारे राज-प्रासाद का सुख-भोग करने वाले बुद्धिजीवियों को जो
धिक्कार और सामाजिक उत्थान के उनके कर्मों में समर्थन का जो आश्वासन दिया है, वह काबिले तारीफ है:
क्या विधवाओं की चीख से नहीं होता
विदीर्ण तुम्हारा भावुक
मन पहले-सा?
या सो रहे हैं तुम्हारे घोडे़ व सारथी
या तुम्हारी उर्वशी (ने) जीत ली
तुम्हारे संकल्प शिव को
अबकी बार नहीं पड़ोगे अकेले
चलूँगा मैं भी तुम्हारे साथ
निर्वाण तक
हर कोई जानता है कि साहित्य और साहित्यिक कृतियों की
जवाबदेहियाँ आज बदल गई हैं। युग की विसंगतियों, अस्तित्व
के खतरों और लाभ-लोभ के उपादानों में आज की जनता इस कदर उलझी हुई है कि उसे साधारण
संकेत किसी तरह सचेत नहीं कर पाते,
उसे सावधान करने के
लिए किसी प्रहारक झटके की आवश्यकता होती है, यह
झटका रचनाकार भाषा-व्यवहार से तीक्ष्ण करता है। अनिल अपनी कुछ कविताओं में ऐसा कर
पाए हैं। ‘जंगल दे दो’, ‘कब तक’, ‘सावधान’, ‘जिन्दगी ठहरेगी’ जैसी कुछ कविताओं में अनिल ने अपनी
कविताई के इस तेवर का चित्र दिखाया है। इन कविताओं में और ऐसी अन्य कविताओं में, व्यवस्था के प्रति कवि का क्रोध, इस संग्रह को अर्थ देता है और समय की
विसंगतियों के प्रति उनकी उग्रता दिखाता है।
-जाडे़ की धूप/अनिल
कुमार सिंह/किताब महल प्रकाशन/पृ. 114/रु. 125.00
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