Tuesday, March 17, 2020

विवर्ण हो रही है जनजातीय संस्कृति



विवर्ण हो रही है जनजातीय संस्कृति

स्वाधीन भारत के पचास वर्ष पूरे होने पर देश के विभिन्न संवर्ग, संकाय और विभाग में क्या खोया, क्या पायाका लेखा-जोखा शुरू हो गया था। स्पष्टतः उस क्रम में भारतीय जनजातियों के जीवन में शिक्षा की उपलब्धियों पर एक नजर डाला जाना भी उचित था।
वैसे तो पूरे देश की ही शिक्षा-व्यवस्था बीते वर्षों में कोई तोषदायक नहीं रही। जुटाए गए आँकड़ों के अनुसार लक्षित दिशा में शिथिल गति से ग्राफ गतिमान अवश्य दिखा, पर वांछित लक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ। जनजातीय समुदायों का शैक्षिक पर्यावरण तो बदतर बना रहा। पिछले कुछ दशकों में सरकारी उद्यमों, स्वैच्छिक संगठनों और मिशनरी प्रयासों से जनजातीय समाज में शिक्षा का प्रचार-प्रसार अवश्य हुआ, किन्तु इस शैक्षिक प्रगति में जनजातीय समुदाय में सांस्कृतिक खतरे भी उत्पन्न हुए।
बीते दिनों कुछ भारतीय और कुछ विदेशी मनोवैज्ञानिकों ने बिहार के आदिवासियों के जीवन में हो रहे सांस्कृतिक बदलाव का गहन अध्ययन किया, और निष्कर्ष निकाला कि आदिवासी अपने मूल स्थान जंगलों और घाटियों में लौट जाना चाहते हैं। उद्योगीकरण और नगरीकरण की आँधी में उनका सपना बिखरता नजर आ रहा है। विभिन्न संचार माध्यमों से यह बात प्रचारित-प्रसारित हुई। थोड़ा नजरें फैलाकर देखें तो हर जगह के जनजातीय समुदाय का हाल कामोबेश यही है, पर उसके कारण कुछ और हैं।
आधुनिक भारतीय जनजीवन के अन्य समुदायों की तरह जनजातीय समुदाय में भी शिक्षा को रोजगार से जोड़कर देखे जाने के कारण उनकी सांस्कृतिक विरासत पर संकट के बादल छाए। पहला असर तो उनकी मातृभाषा पर हुआ। मातृभाषा के प्रभावित होने से उनके वे शब्दलुप्त होने लगे, जो केवल और केवल उनके थे। स्वैच्छिक संगठनों तथा मिशनरी संस्थाओं ने उन्हें आधुनिक बनाने के नाम पर इस तरह प्रेरित किया कि उन्हें अपनी संस्कृति भद्दी दिखने लगी, उपने उस कथित भद्देपन के बोध से वे खुद को अपमानित महसूस करने लगे और आधुनिक चकाचौंध की ओर टूट पड़े। मिशनरियों की मदद से उन्होंने अपना धर्म भी बदला। विचित्र प्रगति के इस राह में उनकी संस्कृति और आचार-विचार अत्यधिक प्रभावित हुए और आदिम सभ्यता के प्रतीक, लोक-रुचि और लोक-संस्कृति का प्राचीन धरोहर लुप्त होने लगा।
आधुनिकता और विकास के अर्थ-संसार से किसी भी समाज के सांस्कृतिक धरोहर और भाषिक पहचान को मिटा देने की यह प्रवृत्ति सम्भवतः संसार के किसी भी विकसित राष्ट्र या समाज की नहीं होगी। अत्याधुनिक होने का यह सम्मोहन एक बार फिर से हमें उपनिवेशवादी प्रवृत्ति का शिकार बना रहा है। भाषा और संस्कृति व्यक्ति और समाज के निजत्व का मूल है, इस ओर से किसी भी समुदाय की विमुखता खतरनाक है; समाज के सभी अनुदेशकों, उपदेशकों और नियन्ताओं को इसकी निगरानी के प्रति संवेदनशील होना आवश्यक है। नेता, अफसर, पुलिस, पत्रकार, शिक्षक, वकील, पण्डे-पुजारी, सन्त-योगी ...हर किसी की निगरानी की आवश्यकता इस दिशा में उपयोगी होगी। सत्ता-सुख और व्यापार-विधान की तल्लीनता त्यागकर इन नियन्ताओं को अपने राष्ट्र की भाषिक और सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा में तैनात होना चाहिए। बल्कि प्रशासनिक फरमान जारी कर पूरे देश में सन्तगिरी करनेवाले पण्डों-प्रवंचकों को जुटाकर कहा जाए कि तुम्हारे प्रवचनों और वंचनाओं से ही समाज पतनोन्मुख हुआ है, अब तुम समाज को भगवान का भय दिखाने के बजाए भाषा और संस्कृति का भय दिखाओ और समझाओ कि भाषा और संस्कृति रहेगी, तो धर्म भी रहेगा, और धर्माचरण भी रहेगा। भाषा और संस्कृति के प्रचार के अलावा कोई भी उपदेशक अन्य कुछ करते पकड़े जाएँ तो उन्हें पकड़कर प्रतारित किया जाए।
आदिवासी समुदाय प्रारम्भ से ही जंगलों के दावेदार रहे हैं। जंगल केवल उनका जीवनाधार ही नहीं, वे जंगल के पालक-पोषक भी रहे हैं। स्वाभाविक रूप से उनके बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार देर से हुआ, फलस्वरूप कई पीढ़ियों से आधुनिक हो चुकी जनता की तुलना में वे आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से पीछे रहे। शिक्षा के क्षेत्र में जब प्रतियोगिता का दौर आया तो उनका पीछे रह जाना स्वाभाविक था; रोजगार प्राप्ति में पीछे रह जाना तो और भी स्वाभाविक था। इस दिशा में सुधार हेतु आदिवासी क्षेत्रों में जगह-जगह विद्यालय खोले गए; विद्यालयों और महाविद्यालयों में इनके लिए नामांकन हेतु आरक्षण व्यवस्था की गई, छात्रावासों में आरक्षण दिया गया, आवासीय विद्यालय खोले गए, आदिवासियों के लिए मुफ्त छात्रावासों की व्यवस्था की गई, वजीफा देकर उनकी पढ़ाई व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया, शिक्षित जनजातियों के लिए रोजगार प्राप्ति में तथा रोजगार प्राप्त जनजातियों के लिए प्रोन्नति पाने में सरकार ने आरक्षण देकर इनके लिए बेहतर अवसर दिया और इनका मनोबल बढ़ाया।
पर सारी बेहतरी धरी की धरी रह जाती, यदि उनके विरासत की रक्षा की ओर सरकार का ध्यान न गया होता। इधर के वर्षों में लोक-कला और लोक-संस्कृति की सुरक्षा के निमित्त सरकार की ओर से काफी प्रयास हुए हैं। शिल्प संग्रहालय में संरक्षित सुरक्षित उनकी प्राचीन कलाओं का अवदान मौजूद है। श्रव्य तथा दृश्य संचार माध्यमों द्वारा उन संस्कृतियों के व्यापक प्रचार-प्रसार से भी उसे बढ़ावा मिला है। जनजातीय हस्तशिल्पों के उत्पादों को सही बाजार देकर उन कलाओं की रक्षा की गई, जो लुप्त होती जा रही थीं, पर इन कलाओं का पुश्त दर पुश्त विकास हो, इसके लिए इसके प्रशिक्षण केन्द्र की व्यवस्था बहुत आवश्यक है। ऐसा न होने से जो कला जिसके पास है, उनके साथ ही चली जाएगी।
शिक्षा अब साधना नहीं रह गई है। रोजगारोन्मुखता ही उसका परम-चरम उद्देश्य है। ज्ञानोन्मुख शिक्षा पर जोर अवश्य दिया गया है, पर उसकी दिशा बदल गई है। यह ज्ञानार्जन हुनर के रूप में होता है, जिससे धनार्जन हो। डिग्री से अधिक महत्त्वपूर्ण आज डिप्लोमा है, पारम्परिक शिक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण तकनीकी शिक्षा है। ऐसे में जनजातीय लोक-कलाओं और हस्तशिल्पों में डिप्लोमा या प्रशिक्षण की व्यवस्था हो और उसे रोजगारोन्मुख किया जाए तो बेहतर हो। आदिवासी बहुल क्षेत्र के विश्वविद्यालयों में जनजातीय भाषाओं में एम.ए., पी-एच.डी. की पढ़ाई की व्यवस्था है पर हस्तशिल्प की सुरक्षा हेतु प्रशिक्षण परम्परा को बढ़ावा आवश्यक है।
स्वैच्छिक संगठनों, मिशनरी संस्थाओं और आदिवासी क्षेत्रों में विकास के कामों में लगे सभी सरकारी-गैरसरकारी संगठनों को इस दिशा में भी चौकस रहने की आवश्यकता है। आधुनिकता की चकाचौंध में नई पीढ़ी विकास करे, प्रगति के हर नए कदम से परिचित रहे, पर इस आँधी में अपनी विरासत, अपनी परम्परा, अपनी पुश्तैनी सांस्कृतिक सम्पदा से इस तरह न कट जाए कि कुछ वर्षों बाद अपना ही चेहरा आइने के सामने पराया लगने लगे। परिवर्तन के नाम पर अपनी ही जमीन से इस कदर न उखड़ जाए कि कोई सहारा न मिले। मनुष्य और पेड़ में यही फर्क है कि पेड़ अपनी जमीन से उखड़कर भी जमीन पर गिरता है पर मनुष्य अपनी जमीन से उखड़ता है तो उसके टिकने की जगह नहीं मिलती।
जे.वी.जी.टाइम्स, 30.11.1997

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