लीक से कुछ अलग कहानियाँ
(सत्येन कुमार का कहानी संग्रह ‘पनाह तथा अन्य कहानियाँ’)
हिन्दी की पहली कहानी के जमाने से लेकर आज तक की कहानी की
विकास प्रक्रिया में कहानी-कला के कई रूप सामने आए हैं। राजा-रानी की कथा, परिकथा, जिन्न
कथा, धार्मिक-पौराणिक कथा से लेकर नई कहानी, समान्तर कहानी, सचेतन कहानी, सक्रिय कहानी आदि कई नाम और कथा-आन्दोलन
सामने आए। वस्तु और शिल्प को लेकर काफी वाद-विवाद हुए। विधात्मक तोड़-फोड़ के जरिए
कई कहानी, निबन्ध अथवा रेखाचित्र के रूप में लिखी
गई और प्रशंसित चर्चित हुई। पर भारत की हर भाषा की कहानी विधा में लाख उत्थान के
बावजूद उसका कहानीपन बचा रहा। हिन्दी के प्रौढ़ कथाकार (न केवल वयस से, बल्कि ख्याति और लेखकीय अनुभव से भी), श्री सत्येन कुमार की नौ कहानियों के
संग्रह ‘पनाह तथा अन्य कहानियाँ’ को पढ़ते हुए इस बात का मलाल रह जाता है।
नई कलम और नए अनुभव के साथ लेखन की दुनिया में कदम रखते हुए किसी नए कथाकार के
लेखन में पाठकों को ऐसी असुविधा होती, तो
उसे नज़रअन्दाज़ किया जा सकता था। पर सत्येन कुमार(जन्म 20 अप्रैल 1944) नए
नहीं हैं। उन्होंने अंग्रेजी कविता के साथ लेखन की दुनिया में कदम रखा, कहानियाँ लिखीं। ‘छुट्टी का दिन’ शीर्षक उपन्यास और प्रसिद्ध हिन्दी
कथाकार मंजूर एहतेशाम के साथ सहलेखन में एक नाटक के साथ-साथ उनकी कई कहानियाँ
प्रकाशित हैं। कुछ पुरस्कारों से सम्मानित भी हुए, रंग-कर्म
में भी तल्लीनता दिखाई--इसके बावजूद ‘पनाह
तथा अन्य कहानियाँ’
संकलन की कहानियों
में कथाकार इतने बेफिक्र कैसे हो गए--यह मलाल पाठकों के मन में है!
संग्रह में संकलित अधिकांश कहानियाँ उस बड़े और आधुनिक किसान की
उन्नत फसल की तरह है,
जिसके दाने बड़े पुष्ट, घने हैं, परिणाम
और गुणवत्ता में बेहतर हैं,
पर अभी भूसे से अलग
नहीं किए गए हैं। इन कहानियों को पढ़ते समय पाठकों को ये भूसे बहुत परेशान करते हैं, कई बार कहानियों का मर्म भूसों में
उलझकर ओझिल हो गया है। ‘उस जैसे सुलझे हुए लड़के का दिमाग भी
रह-रहकर उलझ जाता था बहुत-सी यादों के सामने’, ‘लेकिन
लिखा जरूर हुआ है सब कुछ’,
‘हो भी सकता होता तो’, ‘आया लेकिन सुरजीत था एक दिन’...जैसी अनगिनत पंक्तियों की संरचना तैयार
करने की लेखक की क्या मजबूरी थी,
समझ नहीं आता।...पात्रोचित
बोलियों के प्रयोग से कथोपकथन में जीवन्तता अवश्य आती है, लेकिन फणीश्वरनाथ रेणु बनना आसान नहीं
है! संकलन में पात्रोचित बोली अपनाने में पंजाबी का कथोपकन इतना अधिक है कि कई
स्थान पर भाव सम्प्रेषित ही नहीं होता।...कुल मिलाकर कहें कि ये कहानियाँ बेशक
बड़े-बड़े सम्पादकों के सम्पादकत्व में, बड़ी-बड़ी
पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं,
प्रशंसा में ढेर सारे
पत्र भी आए हों शायद,
स्वयं कथाकार अपने
लेखन के लिए ख्यात हैं,
पर एक साधारण पाठक
यही कहेगा इनमें कई जगह संक्षेपण,
सम्पादन और अनुवाद की
बड़ी आवश्यकता थी...दूसरी तरफ इन कहानियों का कथ्य इतना मजबूत, ज्वलन्त, जीवन्त
और नागरिक जीवन से बावस्ता है कि इतनी सारी बाधाओं के बावजूद यथार्थ का वास्तविक
चेहरा सामने आया है।
इस संकलन की कहानियों की एक खास विशेषता है कि इनके पात्र आम
नहीं होने के बावजूद अपरिचित नहीं लगते। ऐसा लगता रहता है कि ऐसे चरित्र से हमारी
मुलाकात होती रही है। सेवा-निवृत्त अथवा वृद्ध लोगों के जीवन पर नई कहानी आन्दोलन
के जमाने से ही कई कहानियाँ लिखी गई हैं, पर
‘अधूरी चिट्ठी’ कहानी के मुन्शी जानकीदास उन सारे
बुजुर्गों की तुलना में हमारे समक्ष अपनी अलग छवि प्रस्तुत करते हैं, जो बुढ़ापे में अपने को अपनी ही नजरों से
लाचार, बेवश बना देते हैं, नियति का दास मान लेते हैं। यद्यपि
मुन्शी जानकीदास की संख्या हमारे पास-पड़ोस में ज्यादा नहीं है। बहुमत में हमारे
समाज में वैसे ही बुजुर्ग हैं जो नई पीढ़ी के उपकरण हैं। ‘चीफ की दावत’ और ‘वापसी’ से लेकर आगे तक की कहानियों पर विचार
करें, तो बुजुर्गों का आत्मबल, आत्मसम्मान और सशक्त निर्णय-शक्ति कम
जगहों पर मिलती है। ज्यादातर समय में वृद्ध व्यथित होते हैं, रो-रोकर दूसरों को अपने अतीत और वर्तमान
का तुलनात्मक अध्ययन सुनाते हैं,
लेकिन मुन्शी
जानकीदास की निर्णयात्मक शक्ति,
उन्हें आत्मबल के साथ
खड़े होने की प्रेरणा देती है। अपनी सन्तान के लालन-पालन में किए गए स्नेह, वात्सल्य और धन के खर्च को यादकर, अतीत के त्याग की स्मृतियों में कोई मोह
नहीं पालते--न सन्तान के प्रति मोह और न ही सम्पति के प्रति मोह। सारे मोह से
मुक्त होकर वे नए जीवन की शुरुआत करते हैं। ‘रहिमन
निज मन बिथा, मन ही राखो गोय’ जैसी सूक्ति वे अच्छी तरह जान रहे होते
हैं। हमारे समाज में ऐसे चरित्र की बहुतायत नहीं है, पर
ऐसा भी नहीं कि ऐसे चरित्र से हमारा समाज शून्य है। सम्भव है कि यह कहानी हमारे
समाज में एक नवान्दोलन को जन्म दे। मेरी नज़र में यह कहानी इस संकलन की सबसे
महत्त्वपूर्ण कहानी है।
वैसे तो ‘पनाह’ एक
लम्बी कहानी है, पर इसका कथ्य कहानी का ही है, जबकि कथ्य के साथ भाषाई बर्ताव
(ट्रीटमेण्ट) उपन्यास जैसा हुआ है। डॉ अजीत सिंह और सम्पूरन सिंह की अचानक हुई
मैत्री मानवीय द्रोह के घृणित लक्षणों का उदाहरण है। पनाह के कारण जिस तरह यह
मैत्री प्रारम्भ हुई वह मानवता का द्योतक है। विपत्ति के समय अजीत सिंह ने
शरणार्थी सम्पूरन सिंह को मानवता के कारण पनाह दी, मदद
की, और यह परिचय दोनों तरफ के स्नेह और समर्पण
की ऊष्मा से इतना गहराया कि दोस्ती हो गई, सहोदर
के रिश्ते से कहीं ज्यादा मजबूत रिश्ता दोनों के बीच बन गया। बीच-बीच में सम्पूरन
सिंह के साथ हुए हादसे कई बार ‘मलवे का मालिक’ की याद दिलाता रहता है; बलवाइयों और दंगाइयों के कारण सम्पूरन
के जीवन में कई हैवानी,
हादसे होते रहे, सम्पूरन की सन्तानों के दिल में उठती
प्रतिशोध की भावनाओं का शमन किया जाता रहा, पर
कौमी दंगाइयों को यह चिन्ता क्यों हो कि स्वर्ण मन्दिर मत्था टेकने की जगह है, दंगों के रिहर्सल और पुलिस की गश्त की
नहीं। और मजबूर होकर सम्पूरन को दिल्ली छोड़कर जाना पड़ता है। अपनी हर चिट्ठी में
सम्पूरन, डॉ अजीत सिंह को लिखता है--‘मेरा जी नईं लगदा ऐत्थे ।... तू जद वी
लिखेगा कि हालात दुरुस्त हो रये एँ,
असी आ जाआँगें।’ हालत नहीं सुधरे, पर जिस दिन डॉ अजीत का मन व्याकुल हुआ
कि सम्पूरन को बुलाना ही है,
सम्पूरन बिना बुलाए
अजीत के दरवाजे पहुँच गया। लेकिन दंगाइयों ने जीवित सम्पूरन को डॉ अजीत से मिलने
नहीं दिया, मृत सरदार सम्पूरन की पगड़ी अजीत के
कदमों में गिरी और लाश सामने। काफी इत्मीनान से कथाकार ने दंगाइयों की
दुर्वृत्तियों और सियासी षड्यन्त्रों को इस कहानी में उकेरा है। इस कहानी के जरिए
एक बार फिर हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि नफरत से नफरत को नहीं धोया जा सकता, जैसे कीचड़ से तन में लगे कीचड़ को नहीं
धो सकते, नफरत धोने के लिए प्यार का पवित्र पानी
चाहिए।
सत्येन की कहानियों को इस लिहाज से एकदम अलग-थलग कहानियाँ कहा
जाएगा कि उनके पात्रों का समाज और परिवार किसी खास पारम्परिक सूत्र के कारण नहीं
बनता। सम्बन्ध के लिए उनके पात्रों को किसी तरह के शास्त्रीय या पुश्तैनी आधार का
सहारा नहीं लेना होता। चाहे ‘पनाह’ के
अजीत हों, ‘दौर’ के
सम्पूरन हों, या ‘जुगनू’ के देवेन और प्रिया हों, या ‘अधूरी
चिट्ठी’ के मुन्शी जानकीदास और कुमार साहब हों, या ‘खोया
हुआ सच’ के मिथुन और स्नेह हों। सत्येन की
कहानियों के पात्रों का सम्बन्ध शुद्ध रूप से मानवीय होता है और सम्बन्धों के इसी
उत्कर्ष के साथ पारिवारिक रिश्ता कायम होता है। ‘नक्षत्र’ ऐसी ही एक कहानी है, जिसके पात्र ठाकुर साहब, हैप्पी के पिता नहीं हैं, लेकिन हैप्पी और उसकी मम्मी के साथ
ठाकुर साहब ने किसी भी जिम्मेदार पिता और पति से बेहतर निभाया। यह दीगर बात है कि
कथा-पाठ के समय कभी-कभी संशय होने लगता है। ऐसा लगने लगता है कि ठाकुर साहब, या देवेन, या
स्नेह जैसे मानवेतर मनुष्य हमारे समाज में होना सम्भव है! लेकिन, यह केवल संशय तक ही रहता है, ऐसा नहीं कि असम्भव हो।
‘नक्षत्र’ भी एक दीर्घकथा है। ‘हैप्पी’ की
मौत के फ्लैश बैक में बुनी गई यह पूरी कहानी आज के विकृत माहौल, गलीज मानसिकता और स्वार्थपरता के कारण
मानवीय मूल्य के निरन्तर ह्रास की स्थिति में मानवता के नाम पर एक सन्देश है।
धन-सम्पत्ति हो और महान बनने की इच्छा हो, तो
ठाकुर साहब की तरह भी महान बना जा सकता है। इस पूरी कहानी में ‘हैप्पी’ की
आत्महत्या के कारण को गोपनीय रखकर अन्त में उसके भेद को ‘हैप्पी’ के
सुसाइडल नोट के सहारे खोला जाता है--ऐसा लगता है कि हैप्पी का सारा क्रोध मम्मी पर
है।--यह हैप्पी का मनोविश्लेषण हो सकता है, पर
कथाकार ने पाठकों को यह खुली छूट दे रखी है कि दोषादोष का निर्णय पाठक स्वयं करें
और पाठकों का निर्णय अन्ततः कथाकार के समर्थन में ही जाता है। टुकड़ों में देखा जाए
तो अपनी अपनी तरह से इस कथा की परिस्थिति के लिए अलग-अलग दोषी तीनों हैं--ठाकुर
साहब अलग, हैप्पी अलग, और हैप्पी की मम्मी अलग। पर समग्रता में
यही बात सामने आती है कि दी हुई परिस्थितियों में तीनों अपनी अपनी जगह सही हैं।
तीनों के जीवन का झूठ एक ही था,
पर तीनों के जीवन का
सच अलग अलग था, अगर तीनों के सच की गठरी खुली नहीं होती, तीनों अपने समवेत झूठ के साथ चल रहे
होते तो ठाकुर साहब और हैप्पी की मम्मी के लाख मानसिक दबाव के बावजूद, तीनों का सुव्यवस्थित जीवनक्रम चल रहा
होता, पर झूठ का समवेत टूट जाने के कारण, हैप्पी, ‘नक्षत्र’ हो जाता है।
देह और मन की पुकार से परेशान स्त्री, प्रिया की हरकतों और उसकी परिणतियों का
वृतान्त ‘जुगनू’ कहानी
में व्यक्त हुआ है। देह और मन के दार्शनिक पहलुओं को बड़े व्यावहारिक तरीके से
इसमें डील किया गया है। देह और मन का यह दर्शन, दर्शन-शास्त्र
के सैद्धान्तिक सूत्रों के सहारे नहीं, मानव
जीवन के व्यावहारिक उपक्रमों के सहारे चला है। प्रिया, दिनेश की पत्नी है, दिनेश उसके तन की जरूरत और मन की उड़ान
में सहयोग नहीं देता,
पत्नी के अर्जित और
निर्धारित अधिकार की पूर्ति नहीं करता, तो
पिटकर वह घर से बाहर आती है और विवस्त्र अवस्था में देवेन नाम के किसी भद्र पुरुष
द्वारा सँभाल ली जाती है और उसके साथ बनते हुए सम्बन्ध की कई परतों की वजह से जान
पाती है कि ‘दोस्ती की सबसे सही और सच्ची मिसाल
सिर्फ जुगनू ही होता है। इतने बड़े,
न जाने कहाँ-कहाँ तक
फैले हुए अन्धेरे के बदन और उसके मन को वह छोटा-सा, जलता-बुझता-सा
जुगनू ही कभी-कभार कुछ कहने-समझाने आ जाता है।’ यह
कहानी स्त्री-देह और स्त्री-मन के बहुत मजबूत व्यूह को तोड़ती है। आज पूरी दुनिया
में स्त्री-देह और स्त्री-मन,
असंख्य समस्याओं और
अराजकताओं का केन्द्र बना हुआ है,
जिससे पूरा-का-पूरा
तन्त्र भी टकरा कर सफल नहीं हो पाता, इस
अर्थ में कथाकार बधाई के पात्र हैं।
‘जाला’ कहानी को प्रतीक अर्थों में ग्रहण करने
की आवश्यकता है। अपराध की दुनिया में स्त्री-अंगों के उपयोग को लेकर जितनी भी बात
सोची जाए, वह सब के सब यहाँ मौजूद हैं। वर्तमान
समय की राजनीति और सियासी हरकतें भी इसका अपवाद नहीं हैं। यह कहानी हमारी व्यवस्था
की ऐसी अन्धी सुरंग का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करती है, जहाँ कानून नामक पाक-साफ तन्त्र भी विफल
और बेवश हो जाता है। मकड़ी के जाले की तरह बुना हुआ अपराध का जाला, एक ऐसा व्यूह है, जहाँ खुद बुनने वाला भी उलझकर रह जाता
है, उसे भी वहाँ से बाहर आने का अवकाश नहीं
मिल पाता।
‘खोया
हुआ सच’ का मिथुन कलाकार है और स्नेह, भावना एवं रति नाम की तीन युवतियों के
साथ विविध स्तरों पर जुड़ा हुआ है। स्नेह, जिसके
पिता ने उसे आश्रय दिया,
उसके प्रति आकर्षित
हुआ, पर उसका हो न सका; भावना, जो
उससे गर्भवती हुई; रति, जिसकी
‘दुनिया देह की दुनिया है। अपनी देह से
वह बड़ी से बड़ी लहर को बाँध सकती है। एक पूरे समुद्र के ऊपर गहरी, काली रात की तरह छा सकती है।’--और इन चार चरित्रों के बीच का खोया हुआ
सच इस कहानी में जीवन्त हो उठा है,
जहाँ मानव मन की
अपेक्षाएँ अपनी जगह हैं और मन के उड़ान का बौड़म प्रवाह अपनी जगह। ‘गठान’ कहानी
में एक पंक्ति है--‘इनसान की पहचान भी अगर हो सकती है तो
गठानों वाली लकड़ी से...गठानों वाली लकड़ी पर रन्दा नहीं चल सकता और इसीलिए वह
दुनिया के कारोबार में शामिल नहीं हो पाती। लेकिन...दुनिया चलती उसी की बदौलत है।’ इस छोटे से अंश में इस कहानी की पूरी
फिलाॅस्फी व्यक्त हो उठी है। सेठी साहब और नरेन्द्र कुमार के वार्तालाप और एक मकान
के इण्टीरियर डेकोरेशन के जरिए कथाकार ने एक बड़े टेक्स्ट का विवरण यहाँ प्रस्तुत
किया है। ‘मुसकान’ और
‘हंस’ भी
इसी तरह नए-नए विषय को लेकर महत्त्वपूर्ण सन्देश देती है। सन्देशधर्मी इन कहानियों
के विषय से गहन आपकता रखी जा सकती है। कथ्य के साथ कथाकार के ट्रीटमेण्ट के कारण
उठे असन्तोष को दरकिनार कर विषय,
सन्देश और वर्णित
चरित्रों की नवीनता के बाबवजूद उसकी जानी-पहचानी हैसियत को नजर अन्दाज नहीं किया
जा सकता। कथाकार सत्येन कुमार को बधाई, मगर
शिकायत के साथ ।
पनाह तथा अन्य
कहानियाँ/सत्येन कुमार/वाणी प्रकाशन/पृ.160/रु.95.00
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