Tuesday, March 17, 2020

मेहरुन्निसा परवेज की कहानियाँ


मेहरुन्निसा परवेज की कहानियाँ


सृजन के लिए प्रतिबद्ध मेहरुन्निसा परवेज (10.12.1944) हिन्दी की उन गिनी-चुनी लेखिकाओं में से हैं जिन्होंने कभी साहित्य में गोरखधन्धे की बात नहीं सोची; चर्चा में बने रहने के लिए कभी खेमेबाजी में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। सन् 1963 में उनकी पहली कहानी धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी। तब से लेकर आज तक, वे निरन्तर कहानियाँ और उपन्यास लिखती रही हैं, वे प्रकाशित भी होते रहे हैं। आदम और हव्वा’, ‘टहनियों पर धूप’, ‘गलत पुरुष’, ‘फाल्गुनी’, ‘अन्तिम पढ़ाई’, ‘सोने का बेसर’, ‘अयोध्या से वापसी’, ‘एक और सैलाब’, ‘कोई नहीं’, ‘कानी बाट’, ‘ढहता कुतुबमीनार’, ‘रिश्ते’, ‘अम्मा’, ‘सेमर’ (कहानी संग्रह), ‘आँखों की दहलीज’, ‘कोरजा’, ‘अकेला पलाश’ (उपन्यास)...उनकी चर्चित और प्रशंसित रचनाएँ हैं।
कई पुरस्कारों से सम्मानित मेहरुन्निसा की रचनाओं का केन्द्रीय विषय आदिवासी जीवन की समस्याएँ, सामान्य जनजीवन के अभाव और नारी-जीवन की दयनीयता होती है। कहते हैं कि नारी द्वारा लिखी नारी-जीवन पर केन्द्रित रचनाएँ पाठकों को केवल अध्ययन ही नहीं, एक नई और तल्ख जीवन जीने का अनुभव भी देती हैं। मेहरुन्निसा की रचनाएँ इसके प्रमाण हैं। वे अपने लेखन में पश्चिम से आयातित वैचारिक कम्बल की ऊष्मा में देशी मक्खन गरम नहीं करतीं, किसी दल या विचारधारा के झण्डे नहीं ढोतीं, नागरिक परिदृश्य के राग-विराग, दुख-दुविधा, इच्छा-अभिलाषा को उकेरना ही उनका मूल उद्देश्य दिखता है। मेहरुन्निसा की वैचारिकता किसी सन्दर्भ-ग्रन्थ और बौद्धिक अफवाहों से नहीं, नागरिक परिदृश के अनुभव से पुष्ट हुई है। नकल और बेताबी की होड़ में हमारे यहाँ ढेर सारे प्रसंगों के अर्थ बदलते रहे हैं। इसका शिकार स्त्री-विमर्श भी हुआ है। इस विमर्श में चुपके से एक छद्म घुसकर कैसे अपने पाँव फैला गया, किसी को ठीक-ठीक समझ नहीं आया। कुछ प्रवंचकों ने स्त्री-दोहन का ऐसा तिलिस्म तैयार कर लिया कि स्‍त्रियाँ भी उनके छद्म को भाँप नहीं सकीं। स्त्री-देह के लोलुप कुछ साहित्यिक पण्डों और वैचारिक लण्ठों ने खुद को स्त्री-स्वातन्त्र्य का पंच घोषित कर दिया। इसमें भारतीय समाज की पारिवारिकता खण्डित हुई, मेहरुन्निसा के कथा संसार में ऐसी बातों के लिए कहीं जगह खाली नहीं रही। उनका रचना संसार अपनी मिट्टी से तैयार हुआ है, यहीं का बीज है, इसलिए उसे हवा-पानी ऊर्वरक भी यहीं का चाहिए और कथा लेखिका ने इसमें कसर नहीं छोड़ी।
उनकी नौ कहानियों का संकलन अम्माऔर छह कहानियों का संकलन समरइसी भावधारा की कृति है। जनसामान्य के जीवन-यापन की विडम्बनाओं, नारी जाति की सामाजिक स्थिति, बढ़ती उम्र के साथ परिवेश में उनका सिमटता हुआ दायरा, नारी मनोवेगों के महीन सूत्र, अस्मिता-पहचान-मान्यता-सम्मान की अनभिज्ञता, पारिवारिक निर्णयों में स्‍त्रियों की नगण्य भूमिका, नगण्यता को ही अपना महत्त्व स्वीकार लेने की सहज स्त्री-धारणा, जीवन और पारिवारिक मूल्यों को संरक्षित रखने का नारी-धर्म, स्त्री-मनोबल को उन्नत करने के नुस्खे, मानवीय मनोवेग में जनमते-पनपते फलते-फूलते पे्रम के परिदृश्य, दिशाहारा और सर्वहारा जनता के दैनन्दिन जीवन...सब के सब उनकी कहानियों में सूक्ष्मता से चित्रित हुए हैं। स्त्री पक्षधरता और स्‍त्रियों के सामाजिक दैन्य के प्रति विरोध-भाव मेहरुन्निसा के लेखन का मुख्य स्वभाव अवश्य है, पर वे नाक में घुसी मक्खी की हत्या करने के लिए अपना सिर भट्ठी में नहीं डालतीं; नाक सुड़ककर मक्खी को निकालती हैं। यह प्रचलित लोकोक्ति अम्माकहानी पढ़ते समय सोलह आने सच लगने लगती है। भावक एकदम से उद्वेलित हो उठते हैं। पारिभाषिक शब्दों के वजन पर शब्द-प्रयोग और प्रसंग-चित्र उनके यहाँ महज औपचारिकता नहीं लगते, चिन्तन-मन्थन की दीर्घ शृंखला का द्वार खोलते हैं।
मेहरुन्निसा की कहानियों के सारे गुणसूत्र मूलतः दुख-दैन्य के बीच हाहाकार करती जनता, अपने ही घर में लगातार सिमटती-सिकुड़ती स्त्री, आदिवासी जन की असहाय स्थिति से उपजते हैं। विषय और भाषा--दोनों स्तरों पर उनकी कहानियाँ जनपद के चूल्हे, चौके, दालान, चौपाल, खेत-खलिहाल, नदी-नाले, तालाब, कुआँ, पनबट-पनघट पर तैरती रहती हैं। और, शायद यही कारण है कि स्थानीय लोकाचारों के अनुगुम्फन, जीवन्त मुहावरे, प्रचलित लोकोक्तियाँ, स्थानीय मान्यताएँ, क्षेत्रीय लोक-संस्कृति...सब के आश्रय से ये कहानियाँ पाठकों को विह्वल करने में सक्षम होती हैं। कई बार तो ये कहानियाँ पाठकों के स्वत्व में इस तरह आत्मसात हो जातीं कि उन्हें सुबक-सुबककर रोने को मजबूर हो जाना पड़ता है। मेहरुन्निसा की कहानियों की पूरी व्याख्या तो बड़ी जगह की हकदार है, यहाँ सिर्फ परिचय ही सही...।
समर/मेहरुन्निसा परवेज/ग्रन्थ अकादेमी, नई दिल्ली/पृ.160/रु.150.00
अम्मा/मेहरुन्निसा परवेज/ज्ञान गंगा, दिल्ली/पृ.160/रु.150.00
--ने.बु.ट्र.संवाद

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