शब्द कहलाने लगे हैं लोग
(शशिशेखर शर्मा का कविता संग्रह ‘इस भँवर के पार’)
उन्मुक्तता,
स्वच्छन्दता जैसे
भावों के चित्रण के लिए छायावाद के दौर के कवि पेड़, प्रकृति, नदी, तालाब, पहाड़, सूर्य, पक्षी, वर्षा, झरना आदि के प्रतीक प्रयोग में लाते थे, मगर छायावाद के उत्तरांश में छन्द से
स्वच्छन्द होने का उद्यम दिखने लगा। महाप्राण निराला ने अपनी कई कविताओं में इसका
परिचय दिया। प्रगतिवाद की वैचारिक पृष्ठभूमि आगे बढ़ी। हिन्दी के श्रेष्ठ कवि
अज्ञेय के सत्प्रयास से तारसप्तक,
दूसरा सप्तक, तीसरा सप्तक प्रकाशित हुआ; प्रयोगवाद के रास्ते हिन्दी कविता नई
कविता के रूप में सामने आई। हिन्दी कविता के इस क्रमिक विकास से यह बात तो अवश्य
हुई कि श्रेष्ठ कवियों की सृजनशील प्रतिभा और मौलिक जीवनानुभूति बड़ी तल्ख भाषा में
सामने आई, पर एक दुष्परिणाम भी सामने
आया।...छन्दमुक्त कविताओं का तात्पर्य कुछ लोगों ने लयमुक्त वक्तव्य भी लगा लिया।
अर्थात्, यह समझ लिया कि कुछ छोटी और कुछ बड़ी
पंक्तियों को ऊपर-नीचे लिख देने का मतलब कविता है।...नई कविता, और अकविता आन्दोलन के पुरोधा कवियों के
परवर्ती काल में कई लोगों ने ऐसी पंक्तियाँ लिखकर और छाप-छपाकर यूँ दुर्गन्ध मचाई
कि गत शताब्दी के अन्तिम दो दशक में पाठकों के लिए, प्रकाशक/विक्रेता
वर्ग के लिए और क्रेता/श्रोता वर्ग के लिए हिन्दी कविता परहेज की चीज हो गई। इसका
सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि हिन्दी कविताई की भूसे से भरी इस दुनिया में बेहतर
अनाज के कुछ बेहतरीन दाने भी छुपे रह गए। अर्थात्, शोर-शराबे
में और प्रायोजित चर्चा-परिचर्चा की भीड़ में कई अच्छी कविताएँ और अच्छे-अच्छे
कविता संकलनों की चर्चा नहीं हो पाई।
शशिशेखर शर्मा एक ऐसे कवि का नाम है जिनकी कविताई पर अभी चर्चा
नहीं हो पाई है। पर उनकी गणना हिन्दी के उन सक्षम, समझदार
कवियों में होनी चाहिए,
जो कविता की लय और
ध्वनि से भलीभाँति परिचित हैं। छन्दानुशासन की पद्धति में मात्राओं की गिनती और
अन्त्यानुप्रास से निर्लिप्त रहने के बावजूद शशिशेखर शर्मा अपनी कविताई में लय, ध्वनि और सम्प्रेषण के प्रति अत्यन्त
सावधान कवि हैं।
गीत,
गजल और कविताओं के
इनके ताजा कविता संग्रह ‘इस भँवर के पार’ की सारी रचनाएँ समग्रता में कबीर की उस
व्यथा, क्षोभ, धिक्कार
और आत्मान्वेषण की बात करती हैं,
जहाँ उन्होंने कहा
था--‘आए थे हरिभजन को, औंटन लगे कपास।’ इस संकलन की सारी कविताएँ कवि की जुबानी, जनपद की कहानी है।
एकावन कविताओं के इस संकलन में कुल अठारह गजलें, एकतीस कविताएँ और दो दोहों के गुच्छ
हैं। ‘फिर मिलोगे तुम’, ‘जाड़े का गीत’ और ‘चैत’--गजल की सारी शर्तें--रदीफ, काफिया, मतला, मकता--के अनुकूल हैं, इसलिए मैं इन्हें भी गजल ही मानता हूँ, बेशक, कवि
ने इन तीनों रचनाओं को गजल घोषित नहीं किया।
‘इस
भँवर के पार’ कवि का पहला साहसी संकलन है। साहसी इस
अर्थ में कि इस संकलन के साथ न तो किसी सुविख्यात बुजुर्ग साहित्यकार की लिखी
भूमिका है, न स्वयं कवि का लिखा कोई वक्तव्य।
अर्थात्, कवि को अपनी कविताई पर इतनी आस्था है कि
पाठकों से जो कुछ कहा जाना है,
कविताएँ ही कहे; और यदि कविता न कह पाए, तो अलग से वक्तव्य निरर्थक। कवि की इस
निर्मम ईमानदारी की सराहना उदारता से होनी चाहिए।
पहले संग्रह जैसे कचास की अनुपस्थिति और संकलित कविताओं के
तेवर परिपक्व रचना कौशल के द्योतक हैं। भाषा-शिल्प और विषय के स्तर पर ये रचनाएँ
आम जनजीवन के इतने निकट हैं,
इतनी घुली-मिली हैं
कि किसान-मजदूरों की चौपाल से लेकर कर्मकाण्डियों और बुद्धि के व्यापारियों की
मण्डली में ये फुदकती नजर आती हैं। कहीं दूर की कौड़ी जुटाने में सायास कविता को
बोझिल करने के बजाए,
सीधी बात की है। अपनी
सारी ही रचनाओं में कवि अपने सम्पूर्ण समाज की तरफ से व्यथित, चिन्तित और क्षुब्ध होता है, कई बार खुद को धिक्कारता है कि हम सबके
सब अपने मूल कर्तव्य और चरम लक्ष्य से भटके हुए हैं। समाज में व्याप्त सारी
कुरीतियों और विडम्बनाओं का मूल कारण एक मात्र यही भटकाव है। विडम्बनाओं के इस
विकराल सागर में कवि की अभिव्यक्ति को सबसे बड़ा सहारा व्यंग्य ने दिया है। विराट
व्यंजना की लघु कविता ‘क्या करूँ’ में--
देहगन्धों का मोहक सम्मोहन
चतुर्दिक टूटते तिकोने शीशे
पायदानों पर लटके हुजूम
अँतड़ियों की चोट से बहता खून
रोज एक नई समस्या देता हूँ
दार्शनिकों को!
पूरे देश की जीवन-व्यवस्था और चिन्तन पद्धति को ये पंक्तियाँ
काफी तीक्ष्णता से रेखांकित करती हैं। अभिलाषा, अपराध, अधोगति, अनाचार, अव्यवस्था, अवधारणा--सब का कोलाज बनाती हुई यह
छोटी-सी कविता एक वृहत् व्याख्या के साथ उपस्थित है। मानवीय मूल्य के नृशंस और
निर्लज्ज लोप को देखकर कवि ने बड़ी तल्ख बात की है--
सब कुछ इतना तय-सा है कि
दुर्घटना भी एक सहज बात
ताज्जुब है अब भी थके नहीं
जबकि चुपचाप रहे सुनते
खिड़की दीवारों की टक्कर
डरकर सहमे उस बच्चे से
जो भीड़ से होकर तितर-बितर...।
कविता में पेण्टिंग का उदाहरण देने के लिए यह पद्यांश बेहतरीन
होगा। किसी खास दृश्य को तीक्ष्णता देने के लिए पेण्टर सामान्यतया रंगों के
व्यतिरेक का उपयोग करता है। कवि ने यहाँ भीड़ से तितर-बितर और भयभीत बच्चे से
दुर्घटना की खबर सुनने का जो व्यतिरेक उत्पन्न किया है, वह व्यंजना को तीक्ष्ण और प्रभावी बनाता
है।
पाँचेक वर्ष पूर्व हमारे देश में स्वाधीनता की स्वर्ण जयन्ती
मनाई गई थी और नारा दिया गया था--‘आजादी के पचासवें वर्ष में
प्रवेश/मुबारक हो मेरे देश।’
मगर इसी स्वाधीन देश की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था ऐसी है कि
यहाँ--
एक निराली कामना की आड़ में
मुक्ति की बोते फसल
जनतन्त्र के सूबेदार...
और हमारी संस्कृति को भी
उसी दुर्गम आदर्श में
ढालने को हो रहे आतुर...
हैं। ऐसे में यदि शशि शेखर शर्मा अपने कवि को धिक्कारते हुए
कहते हैं कि--
चुनो जल्दी से आकर
एक पल की जिन्दगी
या युगों तक
प्राण लेता
सभ्यता की खाल में
आतंक...
तो यहाँ भी ‘सभ्यता’ और
‘आतंक’ के
व्यतिरेक से एक विराट व्यंजना सामने आती है।
इस संकलन की कविताओं की तुलना तीव्र गति से प्रवाहित
निर्मल-सलिल सरिता से की जा सकती है, जिसके
अवगाहन के समय पाठकों को एक बड़ी समस्या झेलनी पड़ती है। भाषा-शिल्प, और विषय के साथ कवि के व्यवहार के कारण
ये कविताएँ इतनी वेगमयी हैं,
कि पाठक बहते चले
जाते हैं, कहीं रुक नहीं पाते, रुककर कुछ समझ नहीं पाते, लम्बे आयाम के झूले पर बैठे नागरिक की
तरह। इस संकलन की अधिकांश कविताएँ पाठकों को बहा ले जाती हैं। कुछ पद्यांश उदाहरण
के लिए:
फिर उस
गन्दे से जोहड़ में
करम कूटती बस्ती पार
सूरज डूब रहा है...
छत
पर शायद कुछ कपड़े हैं
चूल्हे
पर है कुछ जिजीविषा
अब
डर कैसा
सो
सकते हो...
देख लें किसकी होगी हार
स्वत्व के दीपक के लौ की
या फिर गहन गम्भीर तिमिर की
या रुक जाए संघर्ष
कौन साधेगा विद्वत मौन
धरा
पर आहत लुण्ठित क्रौंच
धनुष
की निर्मम प्रत्यंचा
या
कि जंगल का माँसल वक्ष...
कदम बढ़ाओ तो
कुछ जमीन भी खिसके
पैरों के नीचे से
साधन ही रहें
या लक्ष्य भी बनेंगे?
यह धरा नहीं धारण करती
समरस
ममता से सब जन को
यह
मुक्त नहीं कब्जे की है
यह
महँगी है यह बिकती है...
कोई बर्बर आदिम गन्ध
आकार ग्रहण कर लेती
छेनियों की चोट से
अगर शिल्पकार होता...
नदी भागती नहीं समुद्र तक
समुद्र
खींचता है
छोटी
छटपटाहटों को
आलिंगन
में
प्रेत बने हो
उल्टे पैरों भाग रहे हो
किस तिलिस्म की ओर
स्वयं अपने ही सच से...
ऐसी और भी ढेर-सारी पंक्तियाँ हैं। ‘नदी’ शीर्षक
पूरी कविता ही ऐसी है कि सीधे अपना सहयात्री बना लेती है, सम्मोहित करने का यह वैशिष्ट्य संकलन की
ज्यादातर कविताओं में है,
कविता को समझने के
लिए बार-बार वापस आना पड़ता है। आम जनजीवन से विषय और भाषा का ऐसा जुड़ाव है कि वह
पाठक को अपना-सा लगता है;
बर्बर भले हो, भले ही आदिम न हो, पर आदम सम्मत अवश्य लगता है; पाठक उस सृजन को अपना और अपने कुटुम्बों
की अनुकृति समझता है। भाषा-शिल्प,
वर्णन शैली, और बिम्ब-प्रतीकों के निरूपण में कवि की
लेखनी सधी हुई जान पड़ती है। कहना उचित नहीं लगता कि ‘कवि सावधान हैं’, क्योंकि सावधानी तो मस्तिष्क की
प्रक्रिया होती है और कविता हृदय से लिखी जाती है। आम जनजीवन से कवि का निजी
सरोकार गहन है; लोक-प्रचलित मुहावरे, जनपदीय शब्द, लोकोक्तियाँ और लोक-मान्यताएँ, सर्व-प्रचलित मिथक एवं पौराणिक प्रतीक, पृथ्वी-पुत्रों की आस्थाएँ इन कविताओं
में ‘आटे में नमक’ की तरह घुल-मिल गई हैं। बिम्ब और प्रतीक
निरूपण में कवि ने प्रकृति,
फसल, और कृषि कर्म के अन्य उपादानों का दोहन
पूरे कौशल, मगर पर्याप्त संवेदना के साथ किया है।
सूरज, चाँद, नदी, हवा, शाम, सुबह, बारिश, वसन्त, क्षितिज, धरा, कुसुम, धूप, पेड़
तरह-तरह के फूल एवं पक्षी,
मिट्टी, रेत, पानी, रोशनी, चूल्हे, छत, फागुन, सभ्यता, आतंक, दुर्घटना, फसल, हाथ, पैर, ऊँगली, साँस, धड़कन, अंगराई
आदि शब्दों के प्रयोग इन कविताओं में मानवीय सम्बन्धों और सामुदायिक जीवन-यापन के
अनछुए प्रसंगों को बड़ी आत्मीयता से जीवन्त करते हैं। पेण्टिंग में उपयोग किए गए
ठीक उन चटख रंगों की तरह हैं,
जो आसानी से भावक को
अपने वश में करता है और अपना अभिप्रेत उसके मन में उतारता है।
इन कविताओं में कवि ने अपने कर्तव्यच्युत सहयात्री की जगह अपने
को, या अपने बन्धु-बान्धवों को रखकर अपनी
प्रश्नाकुलता, व्यथा और क्षोभ को व्यक्त किया है, उन्हें धिक्कारा है, ललकारा है--
डरना नहीं
दृढ़ करो निष्ठा
अगर उठ जाओ तो
रुक जाएँगे खामोश होंगे
सच के घोड़ों से गिरे
वो सभ्यता के
शहसवार
जैसे पद्यांश में कवि ने जिस तरह अपने सहयात्री को ललकारा है, ठीक इसी तरह सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने
सावधान किया था--
भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ
तुममें और भेड़िए में यही फर्क है
कि भेड़िया मशाल नहीं जला सकता...
प्रकृति सम्बन्धी कविताओं की लयात्मकता और विषय के साथ कवि के
बर्ताव को देखते हुए लगातार अज्ञेय और शमशेर बहादुर सिंह की स्मृतियाँ कौंधती रहती
हैं। अपने अधुनातन और मौलिक रचना कौशल के बावजूद यदि कोई कवि अपने सृजन से भावक को
इतिहास के सिंहावलोकन हेतु प्रेरित करता है, तो
निश्चय ही यह सफल कला का प्रमाण है।
हिन्दी कविता के सम्पूर्ण सौष्ठव से परिचित और अपने काव्य-कला
में सफल कवि शशि शेखर शर्मा की गजलें, इस
संकलन में अलग से व्याख्येय हैं। कविताओं के बीच-बीच में इन गजलों को पिरोने के
कारण इनकी पृथक छवि बनने में थोड़ी परेशानी हो सकती है। मगर ये गजलें विस्तृत
व्याख्या की माँग करती हैं और कवि की प्रभावी गेयधर्मिता को रेखांकित करती हैं।
सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि मुक्त कविताओं में कवि ने जिस लयात्मक रुझान का
परिचय दिया है, वह कदाचित इसी प्रवृत्ति से अनुस्यूत
हो।
हिन्दी की गजल विधा अब नई नहीं रही। दुष्यन्त कुमार ने पहले ही
इस विधा की पहचान हिन्दी में बना दी। तब से लेकर आज तक हिन्दी में तीव्र-मन्द गति
से गजल लिखी जाती रही है,
पर जितना शानदार इसका
प्रारम्भ था, वैसी परिणति अब तक बन नहीं पाई। शशि
शेखर शर्मा की ये गजलें इस दिशा में आश्वस्ति देती हैं, जहाँ भिन्न-भिन्न बहर की गजलें अपनी तमाम
खूबियों के साथ विषय के वैविध्य से भरी पड़ी हैं।
फिरकापरस्ती इन दिनों हमारे देश की सबसे बड़ी विडम्बना है। और, इस विडम्बना को यहाँ कवि ने एक समदर्शी
अन्दाज में अर्ज किया है:
वो है मालिक है यहाँ भी वो वहाँ भी है
वही
कैसा बन्दा है तू फेंके मेरे घर पर
पत्थर
दुख में हम सब हैं चलो धूप की नदियाँ
ढूँढें
क्या तशद्दुत से भी निकली है कभी
राहगुजर
एक दूसरी गजल में कवि अपने देश की दूसरी समस्या उठाते हैं:
चन्द सिक्कों से भर देते हैं मुँह चीखो
तो
क्या तआज्जुब मेरे आलिम सभी खामोश रहे
इस संकलन में संकलित सारी गजलों में विषय वैविध्य तो है ही, हर गजल के हर शे’र एक नई बात को रेखांकित भी करते हैं।
एक शे’र में शशि शेखर शर्मा ने प्राकृतिक
न्याय को इस कलात्मकता से रखा है कि वहाँ अध्यात्म, दर्शन
और प्रगतिशीलता सब का समन्वय हो गया है। मानवीयता को रेखांकित करने का इससे बड़ा
उदाहरण शायद ही कोई हो:
जिसे गिराया इसलिए था कि रस्ता खुला रहे
मेरे ही सहन में उस बुर्ज़ का हिस्सा
समा गया
फिर दूसरी जगह कहते हैं:
ठीक से पढ़ना ये पूरी भीड़ दस्तावेज है
आदमी थे शब्द कहलाने लगे हैं लोग
जंगलों से मशविरे का काम उम्दा हो गया
शहर के बीच में बबूल लगाने लगे हैं लोग
सारांश यह कि ‘इस भँवर के पार’ कविता संग्रह का नामकरण ही एक प्रतीक
अर्थ का द्योतक है। भँवर के बीच घुस जाने पर व्यक्ति का बाहर आ पाना असम्भव न भी
हो, पर जटिल अवश्य होता है। मगर, इस कृति के समर्पण में ‘शाम्भव’ को
आशीष देते हुए कवि कह रहे हैं--अश्मा भव, परशुर्भव...।
अर्थात्, ये कविताएँ उस भँवर से संघर्ष करने की
ताकत भी देती हैं। पत्थर की तरह मजबूत और फरसे की तरह प्रहारक होने को प्रेरित
करती हैं। इस संकलन की कविताएँ,
गजलें, गीत, दोहे...
समग्रता में कर्तव्यच्युत मनुष्य के भँवर में आ जाने की सूचना है, वहाँ से निकल जाने की सलाह और ललकार है, बच निकलने का दिग्दर्शन है और नहीं निकल
पाने को अभिशप्त जनों के लिए व्यथा का गीत है। ह्रासमान मानव मूल्यों, विकृत सम्बन्धों, कलंकित एवं अहितकारी गतिविधियों, दूषित भावनाओं, अवैध-अवांछित-आपराधिक हरकतों आदि से
बदहाल जनमानस की क्षणानुभूति को कवि ने यहाँ मौलिक अनुभव की तरह व्यक्त किया है।
मानवाधिकार और मानवीय आस्था के साथ बर्बर अत्याचार को देखकर चेतना और संवेदना का
स्वामी क्षण विशेष में जितना व्यग्र, व्याकुल, व्यथित और क्रुद्ध हो सकता है, उसका सम्पूर्ण प्रतिफलन इस संकलन में
दिखता है। पर, इतना तय है कि ज्यादातर कविताएँ छोटी
साँस की व्यग्रता, व्याकुलता, क्रोध तक सीमित है। सम्भवतः इन
दुर्दमनीय गतिविधियों के शमन हेतु कोई नीति अथवा इनके दमन हेतु कोई दीर्घ साँस की
घोषणा या आह्वान कवि अपने अगले संग्रह में करें।
इस भँवर के पार/शशि
शेखर शर्मा/राधाकृष्ण प्रकाशन/पृ.92/रु. रु.125.00
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