सब्जबाग नहीं
(सीतेश आलोक यात्रा संस्मरण ‘लिबर्टी के देश में’)
हिन्दी में यात्रा वृत्तान्त लेखन की परम्परा अब पुरानी हो
चुकी है। बड़े-बड़े ख्यातनाम रचनाकारों ने इस विधा को बड़ी निष्ठा से पुष्ट किया है।
जाने-माने रचनाकार सीतेश आलोक की कृति ‘लिबर्टी
के देश में’ इसकी अगली कड़ी है और कई मायने में
हिन्दी पाठकों के लिए उपयोगी है।
नाम से ही ध्वनित होता है कि सीतेश आलोक की यह कृति उनकी
अमेरिका यात्रा का वृत्तान्त है। लेखक ने इसमें अमेरिका जाकर लौट आने के विवरण
मात्र से इसमें पाठकों को सब्जबाग दिखाने का प्रयास नहीं किया है। एक सौ चौहत्तर
पृष्ठों की इस पुस्तक में उनके आवागमन और भ्रमण के दौरान बटोरे हुए तल्ख अनुभव बड़ी
सूक्ष्मता से व्याख्यायित है।
अमेरिकी व्यवस्था के प्रभावी सूत्रों एवं नागरिक जीवन की
पद्धतियों को रेखांकित करते हुए लेखक का नज़रिया पल-पल अपने देश के संगत सन्दर्भ
में तुलनात्मक और ईमानदार रहा है। नौ अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक का एक अध्याय
भारत और अमेरिका के व्यवस्था सम्बन्धी घटकों को समर्पित है, जो साबित करता है कि सरकारीकरण और निजीकरण
से देश की जनता का जनजीवन किस तरह प्रभावित होता है...किन्तु हर जगह का हर कुछ हर
समय प्रशंसनीय और सुसंगत ही नहीं होता। उनमें विरोधाभास और द्वैध भी रहता है, उन विरोधी पक्षों को भी सीतेश आलोक ने
गम्भीरता से लिपिबद्ध किया है। अमेरिका अब वस्तुतः भारत की जनता के लिए पातालपुरी
जैसा नहीं रहा। आए दिन लोग-बाग आते-जाते रहते हैं; संचार
माध्यमों के जरिए भी अब भारत के लोग अमेरिका के रहन-सहन से परिचित होते रहते हैं।
उनकी अन्ध-प्रशंसा के शिकार तो बहुसंख्य भारतीय हो चुके हैं। वैसे लोगों के लिए यह
पुस्तक वहाँ की कलई खोलकर रखती है। ‘...अमेरिका
एक बहुत ही विशाल, सुन्दर एवं समृद्ध देश है, परन्तु इस यथार्थ का दूसरा पक्ष भी है, सम्भवतः आर्थिक सम्पन्नता के कारण वहाँ
के नागरिकों के सम्मुख जीवन का कोई लक्ष्य नहीं रहा।...अब वे भोग एवं लिप्सा की
अँधियारी गलियों में भटकने लगे हैं,
जीवन को कोई अर्थ
देने के उपक्रम में व्यक्ति कोई नया समीकरण ढूँढने के लिए भटक रहा है--अनर्थ की
सीमा। देश की प्रजातान्त्रिक प्रणाली व्यक्ति को इस भटकन के लिए पूरी छूट देती है।’
स्वच्छन्दता और सम्पन्नता की इन्हीं खूबियों, खामियों और नारीवाद जैसे शिष्ट और अर्थगर्भित
सिद्धान्तों का उपयोग कर इसकी पृष्ठभूमि में बरती जाने वाली विकृतियों का जैसा
यथार्थ यहाँ रचनकार ने प्रस्तुत किया है, उसके
अवलोकन से यह ‘आधुनिक पाश्चात्य जीवन-शैली का अनावरण
करता एक ऐसा विवरण है,
जो चौंकता तो है ही, ज्ञानवर्धन के साथ ही बहुत कुछ सोचने के
लिए भी विवश करता है।’
इस पुस्तक के रचनाकार सीतेश आलोक, बहुविधावादी हैं। यात्रा वृत्तान्त से
पूर्व उनकी कविताएँ,
कहानियाँ, लघुकथाएँ, गीत, ग़ज़ल, बालगीत, हास्य-व्यंग्य आदि कई विधाओं की
पुस्तकें प्रकाशित और प्रशंसित हुई हैं। यह पुस्तक निश्चित रूप से तथ्य और
भाषा-शिल्प के आधार पर हिन्दी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण कृति है। मुक्त यौनाचार
और नारीवाद की ओट में यौन-विकृतियों की दुर्गन्धियों से निश्चित रूप से हर शिष्ट
समाज को बचना चाहिए। यौन-सम्बन्धों की उदारता यदि विकृति की ओर बढ़ने लगे, वीभत्स हो जाए तो वह किसी देश के आम
जनजीवन के माहौल को दूषित ही करेगी--इस बात का एक ठोस प्रमाण यह पुस्तक पेश कर
सकती है।
वाकई ज्ञानवर्धन के लिए तथा चौंककर कुछ गम्भीर सोचने के लिए भी
बाध्य करने वाली यह पुस्तक हिन्दी यात्रा वृत्तान्त विधा में एक महत्त्वपूर्ण
हस्तक्षेप है।
-सब्जबाग नहीं, इण्डिया टुडे, नई दिल्ली, 11 नवम्बर 1998
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