नैतिक विरोध की उज्ज्वल कहानियाँ
(गंगेश गुंजन का कथा-संग्रह ‘भोर’)
मैथिली के प्रसिद्ध कवि-गीतकार-कथाकार-उपन्यासकार-नाटककार
गंगेश गुंजन (जन्म: 15 जुलाई, 1942, पिलखवाड़, मधुबनी) की लेखकीय यात्रा शुरू तो हुई
हिन्दी में कहानी-लेखन से;
किन्तु हिन्दी में
उनका पहला कहानी-संग्रह ‘भोर’ सन्
2017 में प्रकाशित हुआ। गत शताब्दी के
सातवें-आठवें दशक की महत्त्वपूर्ण हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में उनकी हिन्दी रचनाएँ
खूब प्रकाशित-प्रशंसित हुईं;
ये कहानियाँ उन्हीं
दिनों की हैं। गत शताब्दी के अन्तिम दशक में ‘शब्द
तैयार हैं’ शीर्षक से उनका एक कविता-संग्रह
प्रकाशित हुआ। इस नए प्रकाशन ने कहानीकार को ‘अव्यक्त
संकोच से दबा महासुख’
दिया है। इस संकोच का
एक मात्र कारण सम्भवतः यह हो कि लगभग चार-साढ़े चार दशक पूर्व शुरू हुए हिन्दी-लेखन
की निरन्तरता और हिन्दी भाषा-साहित्य में शिक्षित-दीक्षित होने के बावजूद अब तक
उनका कोई कहानी संकलन हिन्दी में नहीं आ पाया। असल में मातृभाषा-मोह ने उन्हें इस
तरह मैथिली की ओर आकर्षित किया कि वे उसी में रमे रह गए।
मैथिली में प्रकाशित उनकी पहली कहानी ‘अन्हार इजोत’ सन् 1961
में प्रकाशित हुई, और फिर इसी शीर्षक से प्रकाशित उनका पहला
कहानी संग्रह भी आया। ‘उचितवक्ता’ कहानी संग्रह के लिए उन्हें सन् 1994 में साहित्य अकादेमी सम्मान दिया गया।
इसके अलावा सन् 2014 में विद्यापति सम्मान और सन् 2017 में प्रबोध सम्मान सहित कई विशिष्ट
सम्मानों से विभूषित गंगेश गुंजन की कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं--हम एकटा
मिथ्या परिचय (दीर्घ कविता),
लोक सुनू, दुखक दुपहरिया (कविता संग्रह), बुधिबधिया, आइ भोर (नाटक), पहिल लोक (उपन्यास), सिन्दूरक दाम (कथा संग्रह) आदि। इन सबके
अलावा उनके द्वारा सम्पादित,
अनूदित साहित्य एवं
बाल-साहित्य की रचानाओं से भी भारतीय साहित्य को पर्याप्त समृद्धि मिली है। गंगेश
गुंजन चार विधाओं में लगातार लिखते रहे हैं--कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक।
मौके पर कभी-कभी उन्होंने आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी कीं; पर व्यवस्थित आलोचना में उन्होंने कभी
अपनी गति नहीं बनाई। गंगेश गुंजन के इस नवीनतम कहानी संग्रह भोर में कुल तेरह
कहानियाँ--सवारी, सीमाएँ टूटती हैं, जड़ें, ब्राह्मणी, ग्यारहवीं चिन्ता, प्रतीक्षालय, अगली बाजी, भोर, लालटेन, पिता के बाद, चौखट के साँप, रिश्ते-रिश्ते, अपने अपने खतरे संकलित हैं। इन कहानियों
की नागरिक परिस्थितियाँ गत शताब्दी के आपातकाल और उसके तत्काल बाद के कुछेक वर्षों
की भारतीय राजनीतिक पद्धति के फलाफल से उत्पन्न हुई हैं; इसलिए राजनीति इनके करण-कारण अवश्य हैं, अपने विवरण में किसी सुधी-जन को ये
कहानियाँ राजनीतिक लग सकती हैं,
पर तथ्यतः अपने
स्वभाव में ये राजनीतिक नहीं हैं। इनके पात्र एवं परिवेश मूलतः ग्रामीण हैं; जो समस्त पाखण्ड एवं विसंगतियों को
झेलने को विवश हैं। पिता के बाद कहानी (सन् 1971) के
अलावा शेष सभी सन् 1977-84 के बीच, अर्थात
चार दशक पूर्व लिखी गईं। उक्त दौर के समय और समाज को कहानीकार ने जिस परिप्रेक्ष्य
में देखा-समझा और रेखांकित किया है,
उसका गम्भीर अनुशीलन
होना चाहिए; क्योंकि समय और समाज से निरपेक्ष न तो
कोई सही रचना होती,
न ही उसका मूल्यांकन।
हर जिम्मेदार लेखक अपने लेखन में समाज का स्वनियोजित पहरेदार होता है; डॉ गंगेश गुंजन ने यह पहरेदारी अपनी
स्वानुभूति से स्वीकारी,
और उस दायित्व का
अपने तई भरपूर निर्वाह किया।
सुधी पाठकों को इनमें से कुछेक कहानियों का स्वाद मैथिली में
पहले भी मिला होगा;
पर ध्यान रहे कि
गंगेश गुंजन की एक ही शीर्षक और एक ही विषय-वस्तु की कहानी जब दो भाषाओं में आती
है, तो वह सिर्फ अनुवाद नहीं होती, अलग कहानी होती है। कवि के रूप में उनकी
उल्लेख्य भूमिका का प्रमाण यह है कि वे मैथिली के उन मात्र सोलह प्रमुख कवियों में
से एक हैं, जिनकी कविताएँ मैथिली में नए भाव-बोध की
कविताओं का प्रस्थान-बिन्दु माने जानेवाले संकलन ‘मैथिलीक
नव कविता’ (फरवरी 1967
में राजकमल चौधरी द्वारा प्रस्तावित और रामकृष्ण झा ‘किसुन’ के
सम्पादन में सन् 1971 में प्रकाशित) में संकलित हुईं।
बुधिबधिया शीर्षक नाटक मैथिली का पहला और अब तक का इकलौता नुक्कड़ नाटक है, जो अपने वस्तु और संरचना--दोनो के लिए
अनूठा है। अनैतिकता के शिकार हुए वंचित और असहाय समुदाय के राग-अनुराग पर गंगेश
गुंजन की जीवन-दृष्टि सदैव सावधान रहती है। उनकी कहानियों का समाज अनिवार्यतः
वंचित, प्रवंचित नागरिकों का समाज होता है, जो सदैव जीवन के बुनियादी संसाधन जुटाने
में खुद को और अपने श्रम को खर्च करता रहता है। मौका पाकर उनका रचनाकार कभी साधन-सम्पन्न
समाज में प्रवेश करता भी है,
तो उसका उद्देश्य उस
भव्य-दिव्य के बीच ‘जनशक्ति’ का
मूल्यांकन करना रहता है,
समृद्ध परिवार की चकाचौंध
का महिमा-मण्डन कतई नहीं। उनके पात्र सामान्यतया बड़े संघर्षशील, प्रगतिकामी, धैर्यशाली और मजबूत होते हैं, वे मनुष्यता की चरम सीमा तक धैर्य-धारण
किए रहते हैं, प्रयोजन पड़ने पर अपने अधिकार हेतु तनकर
खड़े होने में कभी पीछे नहीं हटते। अधिकार-रक्षण हेतु हंगामा खड़ा करना उनके पात्रों
का काम्य कभी नहीं होता,
किन्तु वह
परिस्थितियों का दासानुदास भी नहीं होता। उनकी रचनात्मकता के इस वैशिष्ट्य की
तुलना उनके व्यक्तित्व से कर लेना गैरमुनासिब भी नहीं होगा। व्यक्तित्व-विवेचन
यद्यपि साहित्यालोचन का उपस्कर नहीं होता, किन्तु
तथ्य है कि रचनाकार के प्रवृत्तिमूलक प्रभाव से रचना का बचा रहना मुश्किल होता है।
अत्यन्त मानवतावादी होने की वजह से गंगेश गुंजन सदैव अपना नुकसान सहकर भी दूसरों
को सम्मान देने में आगे दिखते रहे हैं; उनके
इस स्वभावमूलक वैशिष्ट्य का प्रभाव उनकी रचनाओं में भी दिखता है। इसलिए, जुलूसवादी प्रवृत्ति के पाठकों को
गाहे-ब-गाहे उनके नायकों की ध्वनि दुर्बल भी दिख जा सकती है; पर ध्यान रहे कि विरोध करते हुए नैतिकता
का विस्मरण एक अलग किस्म की अराजकता होती है, और
अनैतिक विरोध, चाहे किसी के पक्ष में हो, किसी प्रतिबद्ध रचनाकार का उद्देश्य
नहीं होता। अनाचार का विरोध गंगेश गुंजन का सहज स्वभाव अवश्य है, किन्तु रचना में अमंगल और अभद्र
व्यवस्था का विरोध करते हुए अनिष्टकारी विष-वमन कभी उनका उद्देश्य नहीं रहा।
उल्लेख सुसंगत होगा कि उनके गद्य एवं पद्य--दोनो रचनाओं में, एक साथ अज्ञेय का कलावाद और मुक्तिबोध
का वस्तुवाद उपस्थित दिखता है।
आकाशवाणी से वृत्तिगत सम्बद्धता के कारण, या फिर मूल स्वभाव के कारण, उनकी रचनाओं में ध्वनि के महत्त्व पर
भरपूर बल रहता है। इसी कारण उनके गद्य में भी लयात्मकता और पद्य में भी कथात्मकता
अनुगुम्फित रहती है। शब्द,
पद, वाक्य, प्रसंग--हर
बात में ध्वनि और ध्वन्यार्थ महत्त्वपूर्ण हो उठता है। ‘भोर’ संकलन
की --‘भोर’, ‘सवारी’, ‘सीमाएँ टूटती हैं’, ‘जड़ें’, ‘ब्राह्मणी’ जैसी कई कहानियाँ घटना और विवरण से अधिक
ध्वन्यार्थ में अपनी बात सम्प्रेषित करती हैं। इसलिए उनकी रचनाओं के शीर्षक बड़े
अर्थवान होते हैं, उनके शीर्षकों को महज एक संज्ञा नहीं
समझना चाहिए। पूरी की पूरी कहानी शीर्षक में समाई रहती है। ‘सवारी’ कहानी
के अन्त में ‘मंगनू को लग रहा था जैसे कि आज वह खुद
ही कोई बीपीपी बस बन गया है।’
कथानायक का यह
आत्मबोध चौंका देता है। पूरी कहानी में उस संघर्षशील बालक ने, ‘दुख ही जिसकी जीवन-कथा रही’, खुद किसी विद्यालय जाकर दुनियाबी ज्ञान
हासिल नहीं किया; पर दुःख और कथाकार के रचनात्मक कौशल ने
उसे ऐसा माँजा, इतना ज्ञानी बनाया कि दहो-दिशाओं से आए
यात्रियों को वह उनकी यात्रा का सही ज्ञान देने लगा। पथिकों को राह भटकाने के
धन्धे में तल्लीन अध्यापकों,
उपदेशिकों, या ‘बाबाओं’ के जनपद में, यदि एक निरक्षर असहाय बालक ने यात्रियों
को सही राह बताने का काम सँभाल लिया है, तो
सुधी नागरिकों को अपनी निश्चेष्टा पर गौर करना चाहिए। बस-अड्डे की भीड़ और कोलाहल
में दिग्भ्रान्त हो गए यात्रियों को मंगनू माइक्रोफोन पर चीख-चीखकर राह बताता है, उसके द्वारा प्रसारित ज्ञान का अनुसरण
करते हुए यात्री अपने गन्तव्य तक पहुँच जाते हैं; किन्तु
मंगनू का जीवन वहीं ठहरा हुआ है। ‘सवारी’ शब्द
का कोशीय अर्थ तो ‘वाहन’ है, किन्तु नगरसेवा वाले वाहनों (रेल, बस, टैक्सी, रिक्शा) के संचालक-वर्ग इस शब्द का
इस्तेमाल ‘सवार’ और
‘सवारी’ दोनो
अर्थों में करते हैं।
अपनी पूरी दिनचर्या में अपरिचित सवारों को ‘सवारी’ पकड़ाते-पकड़ाते
कहानी के समाप्ति-स्थल पर मंगनू को आत्मबोध हुआ कि वह खुद एक ‘सवारी’ हो
गया है; जो अपनी जान पर पूरे परिवार को ढोए जा
रहा है। वह शिक्षित नहीं है,
किन्तु ज्ञानी हो गया
है। ‘ज्ञान’ और
‘शिक्षा’ में
यही फर्क है कि सभी शिक्षित,
ज्ञानी नहीं होते।
अधिकांश शिक्षित लोग सूचनाओं का बोझ ढोते रहते हैं। अर्जित सूचनाओं को बोध में
परिवर्तित करने का उत्साह उनमें नहीं होता। अशिक्षित होकर भी मंगनू ज्ञानी है, और शिक्षा का महत्त्व समझता है। इसीलिए
उसने अपने अनुभव को बोध में परिवर्तित कर लिया है। अब तक वह रूखा-सूखा खाकर या
भूखा रहकर जो कमाता था,
अपनी माँ को दे देता
था। उस दिन जब उसने अपने अहंकारी और निठल्ले पिता की नृशंसता देखकर अपनी माँ-बहन
के साथ घर छोड़ने का निर्णय लिया;
तो पिता के साथ संवाद
करते हुए उसे आत्मबोध हुआ। पिता की ध्वस्त होती दबंगई से उसे महात्मा की तरह
दिव्य-ज्ञान हो आया। वह बच्चा अपने पिता की जिम्मेदारी था, उसकी माँ-बहन भी उन्हीं की जिम्मेदारी
थी; किन्तु उस पिता की नीचता ऐसी थी कि वह
खुद उस बच्चे की कमाई पर आश्रित हो गया था।
उस बच्चे का नामकरण ही उसके ‘होने’, ‘न होने’ की
क्रिया और निरर्थक सामाजिक मान्यता को परिभाषित कर रहा है। ‘मंगनू’ शब्द
का निर्माण ‘मंगनी’ या
‘माँगने’ से
हुआ है; जिसका अर्थ ‘मुफ्त का’ होगा, या फिर ‘माँगा
हुआ’ होगा। बचपन में ही उससे भीख मँगवाकर
गुजर-बसर करने की दुष्क्रिया में उसके पिता का अहंकार और पुंशत्व कैसे बचा रह गया, यह सोचने की बात है। उस अभावग्रस्त
परिवार की पूरी संरचना को रूपायित करते हुए और मंगनू का जीवन चरित मापते हुए गंगेश
गुंजन ने सामाजिक व्यवस्था की विचित्र पद्धति को ऊँची दार्शनिकता से परखने और उस
पर चिन्ता करने की प्रेरणा दी है। इस तरह की घटनाएँ और सामाजिक व्यवस्था सामान्य
तौर पर लोगों की नजर में चुभ नहीं पातीं। क्योंकि ऐसी घटनाओं को जनपदीय नागरिक ने
जीवन-क्रिया के सामान्य शिष्टाचार के रूप में दाखिल कर लिया है। किन्तु, बड़े रचनाकार की नजर बड़ी पैनी होती है।
अपने गहन जनसरोकार के बूते वह उन विडम्बनाओं को भी देख लेता है, जिसे उसका भुक्तभोगी भी अनदेखा कर देता
है। ‘सवारी’ कहानी
अपनी अन्तिम पंक्ति के साथ इतने सवाल खड़ी करती है कि सहृदय पाठक देर तक उद्वेलित
हुए रहते हैं। सही कहते हैं कि उत्तम कोटि की कहानी अपने समाप्ति-स्थल से शुरू
होती है। दुख की आवा में तपा हुआ मंगनू वाकई तपकर कुन्दन हो गया है; परिपक्व ज्ञानी, इसी कारण उसे समझ आया कि वह वस्तुतः
अपने पिता का बच्चा नहीं है,
‘सवारी’ है, उसके
ऊपर सवार होकर उसका पिता न केवल अपनी पत्नी और सन्तान के भरण-पोषण से मुक्त हुआ है, बल्कि वह अपने ऐश के संसाधन जुटाने की
भी तैयारी कर बैठा है।
अपने समाप्ति-स्थल पर इस संकलन की अन्य कहानियाँ भी मुँहजोर और
उचितवक्ता हो गई हैं। वे किसी न किसी परिणति वाक्य अथवा लक्षणा के साथ समाप्त होती
हैं। जड़ें कहानी के अन्त में ‘शिवनन्दन काका भी अपनी बिरादरी में
जाति-द्रोही घोषित कर दिए गए।’
ब्राह्मणी कहानी के
अन्त में अशिक्षित ब्राह्मण-कन्या रमला को बोध हुआ कि ‘आरच्छन’ के
जिस चुने समाचार से वह नई उम्मीद लेकर दौड़ी आई थी वह उसके लिए नहीं थी। जाति
आधारित सामाजिक संघर्ष आज प्रखर हो उठा है; किन्तु
उन दिनों भी कम नहीं था। यहाँ सामाजिक और प्रशासनिक दुर्नीति में पिस रहे वंचित
नागरिक की बुनियादी समस्या पर झन्नाटेदार चोट किया गया है। लालटेन कहानी नई-पुरानी
पीढ़ी के बीच मूल्यगत समझ और स्वीकार की कहानी है। इस कहानी के अन्त में जब लोग
दोनों बूढ़ों को सँभालते हुए धीरे-धीरे लौटने लगे, तो
‘गाँव की पूरी अन्धेरी पगडण्डी पर एक
लालटेन की ज्योत फैली हुई थी जिसके पीछे अनेक डग पड़ रहे थे।’ इस तरह रोशनी और अनुसरण के डग के साथ
कहानी एक विशेष संकेत देती है। रोशनी और नई पीढ़ी का यह अनुसरणात्मक रवैया निश्चय
ही शुभ संकेत है। तर्कहीन हो जाने के बाद व्यक्ति अक्सर चुप्पी और पराजित हँसी से
प्रतिपक्षी को मोहित करने की चेष्टा करता है। ‘चौखट
के साँप’ कहानी में दादा, इसी तरह एक बूढ़ी हँसी के साथ चुप होता
है, जब पोता अपने व्यावहारिक तर्क से एक
प्राचीन रूढ़ि को खण्डित करता है--‘दिन में किस्सा सुना कर तुम अन्धे’ नहीं हुए; कहानी
सुनकर ‘मैं भी बहरा नहीं हुआ’। संकलन की अन्तिम कहानी ‘अपने-अपने खतरे’ के अन्त में नौजवान पीढ़ी का निर्णयात्मक
जोश एक अच्छा संकेत देता कि वे किसी नेता को गाँव की सीमा में घुसने नहीं देंगे और
यह लहर पड़ोसी गाँव तक भी पहुँचने लगती है।
वर्ग-भेद,
वर्ण-भेद, लिंग-भेद, जाति-भेद
से मुक्त शिक्षित, सम्पन्न और सभ्य समाज की कामना से भरे
रचनाकार गंगेश गुंजन की कहानियों का मुख्य विषय जन-जीवन की युगीन जटिलता, दुनियावी कुटिलता, त्रासदी और विडम्बनाएँ होती हैं। ‘सवारी’ की
तरह उनकी अन्य कहानियाँ भी अपने शीर्षकों में बड़े अर्थगर्भित हैं। मिथिला क्षेत्र
के किसी पिछड़े और संसाधनविहीन गाँव में विद्यालय न होने और गाँव की सीमा लाँघकर
शिक्षार्जन हेतु बेटियों के शहर न जाने की सामाजिक प्रथा को लेकर उनकी कहानी ‘भोर’ शुरू
होती है। कथानायक रमानाथ बालबोध है,
अपनी बहन की
शिक्षा-अशिक्षा एवं अहंकार के कारण सामाजिक वैमनस्य से चिन्तित है, किन्तु कहानी का अन्त आते-आते इस
अभिज्ञान के बावजूद कि इतनी जल्दी भोर कैसे हो सकती है, वह विकलता से भोर की प्रतीक्षा में
निमग्न हो जाता है--‘कब होगी भोर?’ ‘सीमाएँ टूटती हैं’ कहानी के सीबदास अक्खड़ है, वर्णवादी वर्चस्व एवं अत्याचार का
विरोधी है, जबकि उनकी पत्नी गंगापुरवाली
परिस्थतिजन्य नीतिपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम और समझदार। आर्थिक और शैक्षिक
क्षमता से दोनो ही जने एक जर्जर परिवार के नाविक हैं, किन्तु सीबदास जहाँ पुरुषवादी अहंकार से
भरा हुआ नायक है, वहीं गंगापुरवाली मातृत्व से परिपूर्ण
एक समझदार गृहस्थिन। क्रोध में लिए गए अपने पति के निर्णय को वे चुनौती देकर आगे
बढ़ जाती हैं।
जब सीबदास उन्हें काम करने हेतु हवेली जाने से रोकते हैं--‘मेरी कायम की हुई बात, मेरी ही औरत काटेगी?’ तो गंगापुरवाली उन्हें धिक्कारती हुई
कहती हैं--‘तुम्हारी औरत? तुम कब मरद हुए? कहते लाज नहीं आती?’ क्योंकि उसकी नजर में उस बीमार और अपंग
बेटी की परिचर्या उतर आई,
जिसकी माँ तो वह थी, किन्तु उसके पिता के बारे में वह
आश्वस्त नहीं थी कि वह सीबा,
या सुट्टा, या गिरहथ--कौन है? उसे नहीं मालूम कि वह बच्ची किस मर्द के
बे-काल के अनर्थ का अपंग फल थी। संगठनात्मकता से कमजोर वर्ग को बड़ी शक्ति मिलती है, यह गंगेश गुंजन की वैचारिकता का मूल मन्त्र
है, किन्तु संगठन में सुनियोजन न हो, केवल क्रोधाग्नि की ज्वाला हो, मदान्धता हो, दायित्वबोध से परांग्मुखता हो, तो कई बार संगठनात्मकता प्रतिकूल परिणति
भी देती है। ‘सीमाएँ टूटती हैं’ कहानी दलित चिन्तन और दलित स्त्री
चिन्तन की दिशा में एक नए विचार को आमन्त्रण देती है। पलायन और नई पीढ़ी में आई नई
चेतना को रेखांकित करती कहानी ‘जड़ें’ पुरानी
पीढ़ी के छद्म और नीचता को बेरहमी से उजागर करती है। उसी तरह ‘ब्राह्मणी’ दो भिन्न परिवेश के स्त्रियों की
अस्तित्वपरक विडम्बना पर सवाल खड़ा करती है; जिसमें
एक तरफ जातिपरक निरर्थक मान्यता की आड़ में सरकारी महकमों का खेल अपना ताण्डव दिखा
रहा है, तो दूसरी तरफ मान्यता की जकड़न मनुष्य का
जीवन हलकान किए जा रहा है। इसी बीच कथाकार यह संकेत देने से नहीं चूकते कि इन
जर्जर रूढ़ियों से मुक्ति बहुत जरूरी है; इन
रूढ़ियों की जकड़न में फँसे समाज के समक्ष निरुपाय होने के अलावा कोई विकल्प नहीं
है। ‘ब्राह्मणी’ कहानी की दो स्त्रियाँ मंजुला और रमला
में यही फर्क है।
‘सीमाएँ
टूटती हैं’, ‘जड़ें’, ‘ब्राह्मणी, ‘लालटेन’, ‘पिता
के बाद’, ‘चौखट के साँप’, तथा ‘अपने-अपने
खतरे’ इस संकलन की ऐसी कहानियाँ हैं, जिनका मुख्य सरोकार स्वातन्त्र्योत्तर
भारत के छठे-सातवें-आठवें दशक की राजनीतिक चेतना से है। इसी दौरान भारतीय नागरिक
मोहभंग के कारण सचेतन हुआ,
जन-मन में जागरूकता
आई, अधिकार-बोध आया, उपलब्ध परिस्थितियों में राजनीतिक
विश्लेषण की नागरिक-दृष्टि साफ हुई। गाँव से शहर तक के नागरिक जीवन में अधिकांश
भारतीय जीवन-मूल्य का पतन इसी दौरान हुआ। इसी दौरान वर्ग, धर्म, वर्ण, जाति के भेदभाव से समाज में इतना संघर्ष
बढ़ा कि नागरिक सौहार्द तहस-नहस हो गया। प्रतिरोध की उत्तेजना और प्रतिशोध की
ज्वाला ने सामुदायिक सद्भाव को लील लिया। भारत के सामंजस्यमूलक सामाजिक सम्बन्धों
में अचानक से ऐसे संघर्ष और उग्र प्रतिरोध का वातावरण लाने के एक मात्र जिम्मेदार
लोकतान्त्रिक व्यवस्था के निकम्मे और स्वार्थी कर्णधार थे, जिन्हें अपनी दायित्वहीनता पर शर्म नहीं
आ रही थी। शासकीय अमानवीयता और वैधानिक आदर्शविमुखता के कारण लोक-तन्त्र की जड़ें
हिल गई थीं, राजनीतिक चिन्तन में लोक-हित की भावना
सिरे से गायब थी; सामाजिक-विखण्डन का ताण्डव छाया हुआ था।
ऐसी विकट परिस्थितियों में ये कहानियाँ नागरिक-चेतना को उद्बुद्ध करती आई थीं, जो कई मायनों में आज भी प्रासंगिक दिखती
हैं। प्रदूषित राजनीति और संकुचित दृष्टि के नेतृत्व का असली चेहरा उजागर करती हुई
इन कहानियों में आधुनिक भारत के विघटन की दर्दनाक कथा दर्ज है। भारत की राजनीतिक
कुटिलताओं से उत्पन्न जिन तबाहियों ने भारत के अत्यन्त पिछड़े भूखण्ड मिथिला के
गाँव की पूरी पीढ़ी को कुण्ठित,
भ्रष्ट, आक्रामक, मूल्यहीन, और अनैतिक बना कर रख दिया; इस संकलन की कहानियाँ उन पर गहरे चोट
करती हैं।
गौरतलब है कि स्वाधीनता के दो ढाई दशक बाद आम भारतीयों में
वर्गान्तरण (डी-क्लास होने) की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी थी। आधुनिक हो जाने के
अन्धानुकरण में ऐसे उन्मत्त हो गए थे कि उन्हें अपना पुरातन सब कुछ निरर्थक और
भदेस लग रहा था। इस संग्रह की अधिकांश कहानियों में डॉ गंगेश गुंजन ने उस दौर की
इस विचित्र, आतुर, किन्तु
विशेष लोक-वृत्ति का सावधान संज्ञान लिया है। कभी चरित्र के स्तर पर तो कभी
सामाज-बोध के स्तर पर। ‘सीमाएँ टूटती हैं’ और ‘ब्राह्मणी’ की नायिका, ‘चौखट के साँप’ और ‘पिता
के बाद’ के नायक, और
‘अपने-अपने खतरे’ के विषय-विधान में ऐसे प्रसंगों की तलाश
की जा सकती है।
इस संकलन की अन्य कहानियों--ग्यारहवीं चिन्ता, प्रतीक्षालय, अगली बाजी, रिश्ते-रिश्ते आदि में भी कथाकार के
ग्राम्य-बोध और आम नागरिकों के जीवन से अनुरागमय सम्बन्धों की झाँकी प्रस्तुत है।
तमाम खूबियों के बावजूद इस कृति के प्रकाशक से शोधार्थियों की शिकायत वाजिब है कि
इसमें रचनाओं के समय-सन्दर्भ का उल्लेख नहीं है। किसी कहानी के रचना-काल और प्रथम
प्रकाशन का संकेत नहीं है;
चतुर्थ आवरण पृष्ठ पर
भी किसी कृति के प्रकाशन-वर्ष का उल्लेख नहीं है। यह एक बड़ी कमी है। क्योंकि हर
रचना के तात्त्विक अनुशीलन में उसके रचना-काल और प्रथम प्रकाशन का सन्दर्भ बड़े
मूल्यवान होते हैं। ये दोनो सूचनाएँ ही अध्येता को आलोचकीय संकेत देती हैं। इन
सूचनाओं के अभाव में कहानियों का उचित मूल्यांकन कठिन होगा। यद्यपि कथा-समाज की
संरचना और प्रसंगवश उपस्थित वस्तु के मूल्य से अनुमान तो हो जाता है कि इनका लेखन
लगभग चार दशक पूर्व हुआ होगा,
पर अनुमान के सहारे
अनुशीलनकर्ता का समय-बोध और परिवेश-बोध प्रमाणिक नहीं हो सकता। लिहाजा तात्त्विक
विवेचन में कठिनाई होगी। फिर भी,
ये कहानियाँ अपने
कथा-समाज की पुरानी संरचना के साथ जिस वर्ग-भेद, वर्ण-भेद, लिंग-भेद, आडम्बर, अहंकार, अशिक्षा, अभाव, रूढ़ि
और सामाजिक-शासकीय पाखण्ड को रेखांकित करती हैं; उससे
मानवीय संवेदना का तार-तार हिल जाता है। कथा-समाज के पुरानेपन से कहानियों के
रसबोध में कहीं बाधा नहीं आती;
क्योंकि इनकी बुनावट
स्थान-काल-पात्र-प्रसंग की भैतिकता से अधिक उसके संवेदनात्मक तन्तुओं से हुई है।
आशा की जाती है कि अगले संस्करण में प्रकाशक पाठकों की शिकायत दूर करेंगे और
कथाकार गंगेश गुंजन की अगली ताजा कृति शीघ्र देखने को मिलेगी।
भोर/नया ज्ञानोदय
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