अभिशप्त क्षेत्र का आईना
(श्याम बिहारी श्यामल का उपन्यास 'धपेल')
आँकड़े और उदाहरण से प्रमाणित है कि क्षेत्रीय समस्याओं पर
केन्द्रित कथा-कृतियों का अभाव हिन्दी में कतई नहीं है। भारत देश की अन्य भाषाओं
में भी ऐसे दृष्टान्तों की कमी नहीं है। उपन्यासकारों में समुत्तिरम (तमिल), पर्रिंाजु (तेलुगु), तिलोत्तमा मिश्र (असमिया), वत्सला (मलयालम), बोधिसत्व मैत्रेय, महाश्वेता देवी (बंगला) के साथ कई नाम
लिए जा सकते हैं। दक्षिण भारत के समुद्र तटीय परिवेश पर केन्द्रित बोधिसत्व
मैत्रेय के उपन्यास ‘झुनिकेर पेट्टो मुक्तो’, और पलामू (बिहार, अब झाड़खण्ड) के जनजीवन पर केन्द्रित
महाश्वेता देवी की कई रचनाएँ प्रमाणित करती हैं कि कोई महान रचनाकार लेखन के लिए
क्षेत्रीय विषय की तलाश में क्षेत्रीयता की संकीर्ण धारणा नहीं अपनाते।
पलामू,
दक्षिण बिहार (अब
झाड़खण्ड) का एक बड़ा भूखण्ड है। यह एक जिला है। भूख, अभाव, विपन्न कृषि कर्म, सूखा, अकाल
आदि का मारा यह भूखण्ड बंगला उपन्यासों में तो चित्रित हो गया पर हिन्दी में इस पर
कलम नहीं चली। युवा उपन्यासकार श्याम बिहारी ‘श्यामल’ का पहला उपन्यास ‘धपेल’ पलामू
के जनजीवन पर हिन्दी में लिखा पहला उपन्यास है।
इस पलामू के बारे में कभी महाश्वेता देवी ने कहा था कि ‘पलामू गरीब भारत का आईना है।’ और जब श्यामल का उपन्यास ‘धपेल’ प्रकाशित
हुआ तो कहना चाहिए कि वह आईना कहीं दबा-छिपा नहीं, इस
पुस्तक में साफ कर रखा गया। यूँ तो पूरा बिहार ही प्राकृतिक आपदाओं की क्रीड़ा भूमि
है। आधा बिहार पानी के मारे मरता है, आधा
बिहार पानी के बिना। पलामू विचित्रताओं का संगम है। यहाँ पेड़ हैं, पत्ते नहीं; नदी हैं, पानी
नहीं; वातावरण में लू है, ऊष्मा नहीं; शीत लहर है शीतलता नहीं। प्राकृतिक
अराजकताओं के कुम्भ इस पलामू में यदि अभाव, बेकारी, अज्ञानता, अनाचार, कलह, द्वेष, मानव-द्रोह आदि ने अपना स्थायी शिविर
बना लिया, तो इस जुल्म के जिम्मेदार कौन हैं?
‘धपेल’ इन्हीं विडम्बनाओं के तल्ख विवरणों का
कोलाज है। प्राकृतिक विसंगतियों के बावजूद यह भूखण्ड कुछ सुधर सकता था, यहाँ के वातावरण में कुछ सुविधाजनक स्थितियाँ
आ सकती थीं, यदि यहाँ के कथित बुद्धिजीवियों ने इसे
मदारी का खेलाघर न बना दिया होता। यहाँ के आर्थिक, सामाजिक
और राजनीतिक पाखण्ड से इस क्षेत्र की आम जनता का जीवन कितना कष्टप्रद बना है, वह रोमांचक है। आलोच्य उपन्यास यह रहस्य
खोलता है कि मुट्ठी भर सफेदपोश अपने लिए अतिरिक्त सुविधाएँ जुटाने में व्यस्त हैं
और यह स्थिति उत्पन्न करने में मशगूल कि ‘हर
बुनियादी सवाल केवल श्रमशील और बेवश मनुष्य की गलती है।’ ‘धपेल’ एक
बार फिर से मुक्तिबोध और पाश और सुकान्त भट्टाचार्य और राजकमल चौधरी और धूमिल की
रचनाभूमि को जीवन्त कर देता है।
घनश्याम तिवारी उर्फ घनु बाबू की स्मृतियाँ जहाँ उन्हें आह्लाद
और जीवनदायिनी ऊर्जा से प्राणवन्त कर सकती थीं, वहाँ
वे उन्हें व्यथित और क्षुब्ध करती हैं। पर यहाँ उपन्यास के नायक और उन्हें
उद्बुद्ध करने वाले अन्य आदर्शों का चित्रण जनशक्ति की अपराजेय ताकत के प्रति लेखक
की आस्था को मूर्तिमान करता है।
पूरे उपन्यास में चरित्र और घटनाओं के चित्रण में श्यामल का
यथार्थ भोग बोलता हुआ-सा प्रतीत होता है। शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन इस क्षेत्र की
निम्नवर्गीय जनता के लिए अभिशाप है। यहाँ की बहुसंख्य जनता की पूँजी ‘देह’ मात्र
है। पर मुट्ठी भर लोग यहाँ के पुरुषों की ‘देह’ का शोषण अपने लिए सुविधा जुटाने हेतु
करते हैं और स्त्रियों की ‘देह’ का
शोषण अपने विलास के लिए,
अपने हवस की तृप्ति
के लिए। पलामू की धरती में मध्यमवर्गीय जनता नहीं है। मुट्ठी भर उच्चवर्गीय के
अलावा, जो है, वह
निम्न वर्गीय; जिन्हें जिजीविषा के मूल्य पर कठपुतली
की तरह नचाया जाता है,
‘धपेल’ उसी नाच की मार्मिक कथा है।
‘धपेल’ कोई शास्त्रीय शब्द नहीं है। यह शुद्ध
रूप से आंचलिक और स्थानीय शब्द है,
जो शास्त्रीय पाखण्ड
के अन्तर्गत शोषित जनता द्वारा गढ़ा गया है। ‘दहपेल’ (अर्थात एक विशाल कुण्ड में जाना) से बना
यह शब्द अत्यधिक और अकल्पनीय मात्रा में भोजन करने के निमित्त प्रयुक्त हुआ है।
धपेल बाबा के खाने की भौंचक स्थिति को स्मृति में संजोए हुए घनु बाबू जब अपने देश
के राजनेताओं और उनके अवयवी मदारियों के धपेल को देखते हैं, जिनके ‘दह’ में जनता के सपने, जीवन, भविष्य, बड़ी-बड़ी योजनाएँ पेल दी जाती हैं और
उनके ‘दह’ खाली
के खाली रह जाते हैं। घनु के मास्टर साहब की आँखें ज्यों-की-त्यों पथराई रह जाती
हैं, तो घनु को लगता है कि धपेल बाबा शायद उन
लोगों से छोटे पड़ते हैं। किसी के हिस्से का अन्न खा जाना, सपना खा जाने से बड़ा दुष्कर्म नहीं है।
‘धपेल’ हिन्दी का ऐसा पहला उपन्यास है, जिसमें देश के सर्वाधिक सूखा-अकाल पीड़ित, भूख-गरीबी से त्रस्त-सन्तप्त तथा
मृत्यु-उपत्यका का पर्याय कहे जाने वाले पलामू क्षेत्र का रोमांचकारी जीवन-संघर्ष
सीधे-सीधे दर्ज हुआ है--बगैर किसी कलाबाजी या कृत्रिम लेखकीय कसरत के। सन् 1993 के अकाल-सूखा प्रसंग को केन्द्र में
रखकर रचा गया यह उपन्यास अन्ततः इस अभिशप्त क्षेत्र की ही गाथा नहीं रह जाता, भूख और गरीबी की जड़ों को उधेड़ते हुए
अपने देश और काल का मर्मान्तक आख्यान बन जाता है।
व्यवस्था के धपेलीकरण का वृतान्त पेश करते हुए इस प्रतीकात्मक
उपन्यास के सम्बन्ध में दी गई यह टिप्पणी अक्षरशः सत्य प्रतीत होती है। इस उपन्यास
में लेखक की गहरी जीवन-दृष्टि,
जन-सरोकार, जनसत्ता की ताकत, कलाबाजी के बजाए तथ्यों के प्रति
रचनाकार का लगाव स्पष्ट होता है। इसमें कहीं जीवन के खुरदरेपन को कलात्मकता की रगड़
से मुलायम करने का आग्रह नहीं दिखता। अशिक्षित, अर्थ-विपन्न
जनता के लोकाचार और उसकी संस्कृति के भदेसपन को कहीं भी शास्त्रीय बनाने का प्रयास
नहीं किया गया है, उन्हीं के ढंग में उनके जीवन-चित्र प्रस्तुत
करने की ईमानदारी दिखाई गई है,
जो इसके कथानक को
विश्वसनीयता भी देती है और उसे प्राणवान भी करती है। सफेदपोशों के छद्म की
शास्त्रीयता इस भदेसपन के मेले में अपनी अश्लीलता अवश्य दिखाती है। अन्ततः लेखक का
ध्येय भी यही था।
कुल छत्तीस प्रसंगों में लिखे गए इस उपन्यास के उपशीर्षकों का
मुआयना भी रोचक है;
अलग-अलग देखने पर यह
कहानियों का एक संकलन लगता है,
जो अपनी इकाई में भी
पूर्ण है और अपनी समग्रता में भी। ‘विपर्यय’ से
‘अपराजेय समर’ तक के दृश्यों में इस उपन्यास को
अलग-अलग खण्डों में कुछ डायरियों का संकलन या कुछ रेखाचित्र तक कहने में भी कोई
संकोच नहीं होगा। कहीं प्रश्नविद्ध घनु बाबू चेहरों पर उगे हुए पेंच की गिनती कर
रहे हैं, कहीं कोहरा छँटता हुआ प्रतीत होता है, कहीं साँपों से बुना कमरा दिखता है, कहीं गिद्धों की टोली है, कहीं बन्दरबाँट चल रहा है, कहीं आत्मालोचन है। पर उपन्यास का अन्त
अपराजेय शक्ति की सूचना देता है और अन्ततः यह साबित होता है कि चारो तरफ कोहरा है, धुन्ध है, अन्धकार
है, हताशे के दृश्य मौजूद हैं, पर समर खत्म नहीं होगा। क्योंकि इस समर
में विजय जनसत्ता की होनी है,
जब तक विजयश्री हासिल
नहीं होगी, समर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलेगा।
इत्मीनान से अपने अनुभवों को प्रस्तुत करते समय श्यामल ने
पलामू की भौगोलिक अस्मिता को बरकरार रखा है। प्रसंगवश ही सही, पर घटनाओं के अंकन में पलामू की प्रकृति, नदी, पहाड़
और लोक-जीवन अपने पूरे वजूद के साथ,
भाषाई और सांस्कृतिक
मौलिकता के साथ, क्षेत्रीय लोकाचार के साथ यहाँ मौजूद
है। शास्त्रीय ज्ञान के अभाव में लोक-जीवन में अपनी आवश्यकता के लिए जो शब्द गढ़े
जाते हैं, उनके उपयोग सार्वत्रिक नहीं हो सकते, पर श्यामल ने इसके प्रयोग से उसे
सार्वत्रिकता दी है और उन्हें नया जीवन दिया है। पहला उपन्यास होते हुए भी इसमें
लेखक के नएपन का कचास नहीं दिखता।
धपेल (उपन्यास)/श्याम
बिहारी श्यामल/राजकमल प्रकाशन
इण्डिया टुडे, 19 जनवरी
2000
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