इस उन्नति का क्या करें?
एक वर्ष का लम्बा सफर पूरा कर होली फिर हमारे घर आ पहुँची है।
एक पखवाड़े से हम सभी के पड़ोसी शराब की बोतलें जमा करने, भाँग की पत्तियाँ जुटाने, मुर्गों के लिए एडवान्स देने में परेशान
हैं। सारे सरकारी-गैर सरकारी दफ्तरों के लेखा विभाग में फेस्टिवल एडवान्स के
आवेदनों का ढेर छाँटा जा रहा है।
हमारे मुहल्ले के मछली बेचने वाले एक बुजुर्ग होली के दिन शराब
खरीदने हेतु तीन सौ रुपए अलग बटुए में लेकर घूम रहे हैं। चार दिन पूर्व मुझे आकर
उन्होंने कहा, ‘साहब जी, सुना
है आप मिलिट्री कैण्टीन में बड़े सस्ते में शराब दिला दोगे। मुझे भी तीन सौ रुपए का
दिला दो न।’
मैं क्षुब्ध हुआ। आश्चर्य की बात है कि दिन भर मुहल्ले में
घूम-घूमकर पन्द्रह से बीस किलो मछली बेचकर केवल गुजर-बसर हेतु पैसा जुटा लेने वाला
व्यक्ति सिर्फ शराब पर तीन सौ रुपए खर्च करना चाहता है। मैंने पूछा, ‘अपने लिए और पत्नी के लिए कपड़े खरीदने
में कितने खर्च किए?’
उसका जवाब मिला, ‘अजी, कपड़े
का क्या करना है, आप शराब दिला देना!’ और वह टोकरी उठाकर चलता बना।
इस बूढ़े की बात एक उदाहरण भर है। अपने शास्त्र-पुराण और मिथक
में झाँकें तो हिरण्यकश्यप नामक राक्षस की बेटी होलिका के मर जाने से ‘होलिका दहन’ नामक त्योहार हिन्दू माइथोलाजी में
प्रारम्भ हुआ। एक राक्षस की बेटी अग्नि ज्वाला में खाक हो गई और एक सदकर्मी बच्चा
प्रध्ाद सुरक्षित रह गया,
इस खुशी में लोगों ने
यह उत्सव मनाना शुरू किया।
यह त्योहार वास्तविक अर्थों में भारत देश की एकता एवं अखण्डता
का प्रतीक है, जिस दिन देश के सारे लोग, उम्र, जाति, सम्प्रदाय, वैभव की सीमा रेखा तोड़-तोड़कर एक-दूसरे
से प्रेम-भाव से मिलते हैं। शैक्षणिक कथाओं से निकली खुशहाली से हम यहाँ तक पहुँचे
थे। इस दिन सबको रंग डालते थे। यह रंग प्रतीक अर्थों में मनुष्य के जीवन में भी
रंग भरता था। यह स्पष्ट करता था कि कोई कितना ही दुखी क्यों न हो, इस दिन हम सब अपने को तन-मन से रंगीन
बना लें। इस रंग के इन्तजाम में लोग टेसू के फूल इकट्ठा कर रंग बनाते थे, जो किसी भी तरह स्वास्थ्य के लिए अहितकर
न था। इसके साथ रंग-गुलाल के दिन से एक दिन पूर्व ‘धुरखेल’ भी होता है। यह खेल भी रंग, गुलाल की तरह ही होता है पर इसमें
रंग-गुलाल की जगह धूल और मिट्टी होती है।
इसमें भी प्रतीक अर्थ है। एक तो कृषि प्रधान इस देश के लिए
मिट्टी का इतना महत्त्व है कि हम इसे अपने और अपने मित्रों के शरीर में चन्दन की
तरह लगाते हैं। दूसरा तर्क इसमें यह छिपा है कि ऐसे वर्ग के लोग, जिनकी आर्थिक दशा खराब है, उनके लिए भी ये खुशियाँ कुछ ज्यादा ही
महत्त्व रखती है।
पर,
हाय रे हमारी उन्नति।
हमने इतनी प्रगति कर ली कि अब हमारे इस पर्व से टेसू के फूल से बने रंग की जगह
केमिकल्स, अल्युमिनियम पेण्ट, जला हुआ मोबिल, गन्दे नाले के कीचड़ आदि आ गए हैं, जो स्वास्थ्य को तो जोखिम में डालते ही
है, कपड़ों की भी दशा खराब कर देते हैं। इस
पर्व में अब सबसे प्रमुख हो गई है भाँग, शराब, ताड़ी, दारू।
इस तरह नशे में धुत्त होकर लोग तरह-तरह के हुड़दंग करते हैं, सड़क पर नशे में गाड़ी चलाकर
दुर्घटनाग्रस्त होते हैं,
अतिशय नशा सेवन कर
होली के बाद भी चार दिन तक बिछावन पकड़े रहते हैं।
होली मनाने के तरीके तो देश के हर भाग में भिन्न-भिन्न हैं, पर एक समानता जो पहले रंग-गुलाल की थी, वह अब शराब के रूप में आ गई है। कहा
नहीं जा सकता कि यह उन्नति और यह प्रगति हमें कहाँ ले जाएगी?
--जे.वी.जी.टाइम्स, 24.03.1997
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