अनादि उज्जयिनी के बहाने
(रमेश निर्मल की पुस्तक ‘अनादि उज्जयिनी’)
भारतीय साहित्य के आदि ग्रन्थों से लेकर आज तक की पुस्तकों में
उज्जैन की चर्चा विशिष्ट ढंग से होती रही है। इतिहास प्रसिद्ध इस नगर का सांगोपांग
विवरण एक जगह मिलना अब तक कठिन रहा है। किंवदन्तियों में उज्जैन जनसामान्य के बीच
प्रारम्भ से रहस्य बना रहा है,
नौ अध्यायों में
विभक्त अपनी पुस्तक ‘अनादि उज्जयिनी’ में रमेश निर्मल ने उन रहस्यों को साफ
करते हुए अपनी शोधपूर्ण दक्षता का परिचय दिया है।
पहले अध्याय में लेखक ने हजारों वर्ष पुरानी इस नगरी के विविध
नामों की कथा बताई है। प्राचीन काल के चर्चित शब्द ‘ओजने’ किस तरह लिखित रूप में और फिर लोक-कण्ठ
में आने की प्रक्रिया द्वारा ‘उज्जैन’ हो
गया, इसका विविधत् उल्लेख लेखक ने किया है।
इस नगर का नाम प्रत्येक कल्प के बाद (चार अरब बत्तीस करोड़ मानव वर्ष) किसी न किसी
ऐतिहासिक कारण से अवन्ती,
उज्जयिनी, कनकशृंगा, पद्मावती, अमरावती, विशाल, कुशस्थली, कुमुदवती, प्रतिकल्पा, भोगवती, हिरण्यवती, विक्रमपुरी, शिवपुरी आदि पड़ता रहा है। लेखक ने काल
विशेष में इन नामों की अलग-अलग कथा प्रस्तुत की है। यहाँ उत्साहपूर्वक मनाए
जानेवाले महापर्व ‘सिंहस्थ’ के
बारे में लेखक ने जानकारी दी है। शिप्रा नदी की ऐतिहासिक प्रसिद्धि और पौराणिक
महत्त्व, सिंहस्थ-स्नान का विधान एवं सिंहस्थ
साधु-सम्प्रदाय की संक्षिप्त,
किन्तु पूर्ण चर्चा
भी लेखक ने इसी अध्याय में प्रस्तुत की है।
दूसरे अध्याय में उज्जयिनी की भौगोलिक चर्चा के साथ
पुरा-ऐतिहासिक उज्जयिनी के धार्मिक,
पौराणिक, शैक्षिक, प्रशासनिक, राजनीतिक उत्थान-पतन का संक्षिप्त विवरण
प्रस्तुत है। इसी अध्याय में लेखक ने इस नगर के बारे में पण्डित नेहरू के विचार, ग्वालियर घराने की संक्षिप्त भूमिका भी
प्रस्तुत की है। तीसरा अध्याय विक्रमादित्य के नवरत्न के बारे में विषद् जानकारी
देता है। चौथे एवं सातवें अध्याय में उन विभूतियों की चर्चा है, जिन्होंने संस्कृत तथा हिन्दी साहित्य
को गरिमा प्रदान की। चौथे अध्याय में कालिदास, बाणभट्ट
तथा वात्स्यायन के साथ-साथ अन्य समकालीन विभूतियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर
सन्दर्भयुक्त तथा शोधपरक चर्चा,
किंचित नए अर्थों में
भी है। इन विभूतियों के बारे में कतिपय महत्त्वपूर्ण तथ्यों का उद्घाटन यहाँ हुआ
है। सातवें अध्याय में हिन्दी साहित्य के महान व्यक्तित्व की गाथा एवं हिन्दी
साहित्य को उनकी देन की चर्चा के साथ उज्जयिनी के कलात्मक आन्दोलन, शैक्षिक परम्परा एवं परिवेश, पत्रकारिता के क्षेत्र में इस नगर एवं
नगर के विभूतियों की देन,
यहाँ के आधुनिक
परिवेश एवं औद्योगिक स्वरूप इत्यादि का स्पष्ट चित्रण हुआ है। इन सन्दर्भों की
प्रस्तुति के साथ लेखक ने वेद,
उपनिषद्, ब्राह्मण, पुराण, इतिहास, पाश्चात्य
ग्रन्थ, किंवदन्ती, लोकाचार आदि के आधार पर इनके तार्किक
सबूत भी पेश किए हैं।
पाँचवें और छठे अध्याय में वैदिक साहित्य, संस्कृत साहित्य, बौद्ध एवं जैन साहित्य तथा मालवा
लोक-साहित्य में उज्जयिनी के महत्त्व एवं यहाँ की सांस्कृतिक विरासत की खोज की गई
है। इसी अध्याय में लेखक ने कहा है कि मालवा में धार्मिक मान्यता के अनुसार
गल-देवता को मनाने के लिए महिलाएँ नंगे पैर अंगारों पर चलती हैं और मर्दों को लकड़ी
में बाँधकर वृत्ताकार घुमाया जाता है। इस दृश्य की प्रस्तुति बर्वर भले लगे, लेकिन उस भूखण्ड के इतिहास में लोक-जीवन
एवं लोक-संस्कृति की मौलिक छवि स्पष्ट रूप से पलिक्षित होती है। सामान्य चित्रकारी, स्मृति-चित्र, स्मारक संस्थाओं एवं गुफाओं का शोधपरक
अध्ययन आठवें एवं नौवें अध्याय में प्रस्तुत किया गया है।
‘उज्जयिनी’ को गरुड़ पुराण में सात मोक्षदायी नगरों
में से एक कहा गया है। अन्य ग्रन्थों में भी इसकी महत्ता सिद्ध है। रमेश निर्मल इस
नगर की महत्ता बताते हुए कहते हैं--‘विश्व
मानचित्र पर, विशेष रूप से भारत में उज्जैन की
भौगोलिक स्थिति निराली है। ऐसी खगोलशास्त्रीय मान्यता है कि वह पृथ्वी और आकाश के
मध्य में है--अर्थात वह काल गणना के लिए मध्यवर्ती स्थान है। उसकी यही स्थिति उसे
प्राकृतिक और वैज्ञानिक महत्त्व प्रदान करती है।...आज समस्त विश्व में मानक समय के
लिए जिस प्रकार ग्रीनविच को मान्यता दी जाती है। उसी प्रकार युगों पूर्व विश्व की
कालगणना इसी कालातीत नगरी से की जाती थी।’
उज्जयिनी के समस्त धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक, पौराणिक
महत्त्वों की विरासत प्रस्तुत करते हुए रमेश निर्मल ने इस पुस्तक में अद्यतन
स्थितियों को भी सूक्ष्मता से रेखांकित किया है। इस क्रम में उन्होंने अपने
मन्तव्यों को प्रामाणिकता देने तथा अधिक-से-अधिक सम्प्रेषणीय बनाने के लिए यथेष्ट
चित्रों का समायोजन किया है। यह उनकी गहन शोध-दृष्टि एवं कठोर श्रम का परिचायक है।
पुस्तक में प्रसिद्ध चित्रकार हुसैन द्वारा उज्जयिनी के कुछ रेखांकन भी शामिल हैं।
यद्यपि चित्रों के समायोजन में एक छोटी-सी कमी रह गई है। अधिकांश चित्र एकत्रित
रूप में दिए गए हैं,
जहाँ उस विषय पर
विवेचन दिया गया है,
चित्र वहीं रहता, तो कदाचित और अधिक प्रभावोत्पादक होता। ‘अनादि उज्जयिनी’ पुस्तक, न
केवल उज्जयिनी की जानकारी प्राप्त करने के लिए, बल्कि
साहित्यिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक अनेक तरह के सन्दर्भ स्रोत के
लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
-सण्डे आबजर्वर, 21-27 जून 1992
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