अपेक्षाएँ और भी हैं
(कोशी अंचल के नए कथाकार)
इतिहास साक्षी है कि कोशी अंचल में देर तक वाचिक परम्परा और
श्रुति परम्परा पर लोगों की आस्था जमी रही, कथा
परम्परा में यह बात अधिक सच साबित होती है। कविता के क्षेत्र में निश्चय ही इस
क्षेत्र के लोग बहुत पहले से सक्रिय हो गए थे। पर हिन्दी में मौलिक कथालेखन देर से
शुरू हुआ। जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ की
कहानियाँ जब आने लगीं,
तब तक जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द की कथाधारा अपनी परिचिति बना
चुकी थी, जैनेन्द्र कुमार जैसे कहानीकारों की
पहचान हो चुकी थी। इसका अर्थ हिन्दी कहानी में इस अंचल में योगदान को न्यून करके
देखना नहीं होना चाहिए। बल्कि इसे इस तरह देखा जाए कि इस छोटे से अंचल के थोडे़ से
कथकारों ने लगातार हिन्दी कथाधारा को जिस तरह पुष्ट किया, वह गुणात्मक रूप से अनुपमेय है। कथाकार
द्विज के समकालीन लक्ष्मीनारायण लाल सुधांशु और उनके परवर्ती फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल चौधरी, मधुकर गंगाधर, शालिग्रम, साकेतानन्द, विजयकान्त, रामधारी सिंह दिवाकर, चन्द्रकिशोर जयसवाल जैसे सुविख्यात
कथाकारों ने अपने कथालेखन में वस्तु-विन्यास और शिल्प-संरचना के जो प्रतिमान खड़े
किए, हिन्दी कथाधारा के दिशा-संचालन में उसकी
अहम भूमिका रही है। रेणु और राजकमल चौधरी का कथा-शिल्प तो आज तक कथाकारों के जिए
व्याख्येय और स्पृहणीय बना हुआ है। पर असल बात यह है कि पूर्वजों के घी खाने से
हमारे हाथ में महक नहीं आ सकती। विचारण्ीय है कि इन लोगों के गत हो जाने के बाद भी
(कुछ तो अभी भी हमारे साथ हैं) इनके कथा-लेखन के प्रतिमान हमारे सामने हैं, पर हम क्या कर रहे हैं?
कोशी अंचल की कई पीढ़ियाँ आज भी, हिन्दी, मैथिली, और
उर्दू कथा-लेखन में सक्रिय हैं। मैथिली में रामकृष्ण झा ‘किसुन’, राजकमल
चौधरी, मायानन्द मिश्र, जयानन्द झा, महाप्रकाश, महेन्द्र, सुभाषचन्द्र
यादव, ललितेश मिश्र, तारानन्द वियोगी, केदार कानन जैसे महत्त्वपूर्ण कथाकारों
की विरासत और वर्तमान भी इस दौर के कथाकारों को उपलब्ध है। ऐसे समय में, इक्कीसवीं सदी के इस प्रारम्भिक चरण में, कोशी अंचल के क्रियाशील हिन्दी के युवा
कथाकारों को आत्मावलोकन की आवश्यकता आन पड़ी है।
नवीनतम पीढ़ी में पुरजोर उत्साह से लगे हुए पाँच कथाकारों की
एक-एक कहानी पढ़कर ऐसे आत्मावलोकन की अनिवार्यता कुछ और बढ़ गई है। संजीव कुमार
ठाकुर की ‘फ्रीलांस जिन्दगी’, संजय कुमार सिंह की ‘फूलो अनारो’, सत्यकेतु की ‘मिट्टी, आग
और पानी’, उमाशंकर सिंह की ‘मत रोओ पापा’ और श्रीधर करुणानिधि की ‘नीली आँखों के सपने’ आज के आलोचकों को किसी तरह न तो भव्य
विरासत की याद दिलाती है,
न ही कोई अपनी नई
जमीन कोड़ती हुई दिखती है। गरज यह नहीं कि इनमें रेणु और राजकमल का होना जरूरी है!
इस समय का नागरिक जिस तरह की जीवन व्यवस्था में जी रहा है, वह अपने अतीत की समस्त त्रासद स्थितियों
को सिर पर लिए वर्तमान की दलदल में धँसे जा रहा है। स्वाधीनता संग्राम, विभाजन, सीमा
संघर्ष, पाखण्डपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय मैत्री, नक्सलबाड़ी आन्दोलन, आपातकाल, राजनीतिक
पार्टियों की बन्दरबाँट,
बेरोजगारी, मस्जिद विवाद, जाति धर्म के नाम पर नृशंस हत्या, उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-उपनिवेशवाद, स्त्री-विमर्श, दलित-प्रश्न, अपहरण, अपराध
का राजनीतिकरण, राजनीति का अपराधीकरण... इन तमाम
परिस्थितियों से आज के कथाकारों के पूर्वज और पूर्ववर्ती टक्कर ले चुके हैं।
विश्वग्राम की अवधारणा,
विश्व बाजार के
प्रकोप, सांस्कृतिक अपकर्ष की घिनौनी सूरत, मानवीय मूल्य का विकृत ह्रास, अनैतिकता और अमानवीयता का नंगा नाच, रोजगार और बेहतर शिक्षा की तलाश में
जमीन छोड़कर भागे हुए लोग,
छोटी-छोटी उपलब्धियों
के लिए जघन्य अपराध में लिप्त लोग,
शब्द-अर्थ-व्यवस्था-व्याकरण
के बदलते स्वरूप, नैतिकता की नई-नई परिभाषा और नीति के नए
रूपों को देखने और समझने लगे हैं। ऐसे समय में दहेज, रोजगार, प्रेम, नैतिकता
की व्याख्या करते समय विषय की गम्भीरता को ठीक से समझने और उसके सम्प्रेषण के लिए
भाषा-संरचना की अनूठी शैली विकसित करने की आवश्यकता आज की कहानी में अधिक हो गई
है।
यह समय जैसा चल रहा है, उसमें
हर छोटी-छोटी घटना इतने विराट फलक को रेखांकित कर देती है कि उसे भाषा की जादूगरी
से ही सँभाला जा सकता है। नई कहानी आन्दोलन के प्रणेताओं ने विधात्मक तोड़-फोड़ की
पद्धति अपनाई थी। राजा-रानी की इतिवृत्तात्मक पद्धति छोड़कर विषय और शिल्प के स्तर
पर नए-नए प्रयोगों की घोषणा की थी। उनके आलोचकों ने, और
कई बार खुद उन लोगों ने अपनी पीठ खुद थपथपाई भी और कथालेखन के परिभाषा-सूत्र भी
दिए। ध्यान रहे कि फणीश्वरनाथ रेणु और राजकमल चौधरी, सदा
इस चकल्लस से अलग रहे। वे दोनों कथाकार निरन्तर अपनी घोषणाओं से नहीं, अपनी कहानियों से कथा-शिल्प का परिचय और
प्रतिमान बनाते रहे। कहानी की भाषा को दर्शन-शास्त्र अथवा निबन्ध की भाषा बनने
देने में कभी वे लिप्त नहीं हुए। सच है कि आज का जीवन बहुत जटिल हो गया है, पर यदि यह जटिलता कहानी की भाषा को दबोच
ले, तो फिर कहानी क्यों पढ़ी जाए? आज की कहानियों का पाठकीय फलक विस्तृत
हुआ है, शोधार्थी से लेकर विचारक तक अपने
अन्वेषण के लिए, समाज-शास्त्री से लेकर इतिहासज्ञ तक आने
अध्ययन-सूत्र ढूँढने के लिए कहानी पढ़ता है। कहानी की यह विडम्बना तो प्रारम्भ से
रही है कि वह कही-सुनी अथवा लिखी-पढ़ी जाती रही है मनोरंजन के लिए, पर आज उसकी विवेचना करते समय ये बड़ी-बड़ी
जिम्मेदारियाँ उसके सिर होती हैं। सारी विडम्बनाओं के बावजूद कहानी के लिए यह परम
और चरम सत्य है कि पाठक पर पकड़ बनाए रखना उसकी प्राथमिक शर्त है। भाषा की सघनता
निरन्तर बनी रहनी चाहिए,
निष्प्रयोजन विस्तार
और कथ्य की अस्पष्टता कहानी को बोझिल बनाती है। इस विवरण के आलोक में श्रीधर
करुणानिधि तथा उमाशंकर सिंह के यहाँ कचास ज्यादा दिखता है। सत्यकेतु, संजय कुमार सिंह और संजीव कुमार ठाकुर
के यहाँ तुलनात्मक रूप से कचास कम अवश्य है, पर
उन्हें भी मैच्योर्ड कहना अभी उचित नहीं लगता। वैसे सत्यकेतु की कहानी का कथ्य भी
बिखड़ गया है।
‘फ्रीलान्स
जिन्दगी’ में आज की आलोचना-दृष्टि, समीक्षा-वृत्ति, सम्पादकीय-धर्म, मुक्त-लेखन की विडम्बना को एक साथ
समेटकर एक ज्वलन्त विडम्बना को रेखांकित किया गया है। विषय उपस्थापन में
व्यंग्य-विधान का तीक्ष्ण प्रयोग किया गया है। कहा जा सकता है कि कथाकार अपनी बात
कहने में, अपने समय के बौद्धिक पाखण्ड को उजागर
करने में सफल हुए हैं। पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों की क्षुद्रता, मजबूर समीक्षकों के विचार की पराजय, और वैचारिक रूप से मजबूत समीक्षकों की
मजबूरी पर उसके विचार की विजय का यह चित्र कथाकार के नवोन्मेष की झलक अवश्य देता
है। पर इस कहानी की भाषा संरचना पर अभी और काम करने की आवश्यकता थी।
‘फूलो
अनारो’ का आधार-तत्त्व एक लोक-कथा है, पर वर्तमान समाज में स्त्री जीवन की
विडम्बना और समाज-व्यवस्था के नाम पर जंगली जीवन की नृशंसता को मिथकों और
पुरा-कथाओं के प्रतीकों के सहारे नएपन के साथ रेखांकित करने की कोशिश की गई है।
तमाम कोशिशों के बावजूद कथाकार कोशिश भर ही कर पाए हैं। नागरिक जीवन के एक पुराने
कथ्य को रेखांकित करते हुए वस्तु विन्यास और भाषा-संरचना के स्तर पर बहुत कुछ नया
नहीं कर पाए हैं। लोक-सन्दर्भ,
पौराणिक प्रतीक, और समकालीन प्रंसगों के उल्लेख के
बावजूद यह एक अति सामान्य कहानी से अधिक कुछ नहीं हो पाई।
‘मिट्टी
आग और पानी’ बहुत शानदार ढंग से शुरू हुई। पर पूरी
ताकत के साथ शुरू हुई यह कहानी अचानक न जाने किस भँवर में फँस गई। कथाकार अपनी ही
ज्वाला को सँभाल नहीं पाए। फ्लैश बैक में जाकर फिर एक नई घटना उठा लाए। घटनाओं के
इस कोलाज में कथाकार का स्रोत,
सूत्र और लक्ष्य इतना
बेलौस हो गया कि अमीरी-गरीबी का द्वन्द्व और अमानवीयता के चित्रण उसके बिखराव को
समेट नहीं पाई। जबकि कथानायक के आत्मालाप का प्राथमिक चरण ही एक मुकम्मल कथा की
हैसियत रखता था।
‘मत
रोओ पापा!’ एक टूटे-बिखरे नायक की कथा है। यह
विडम्बना ही है कि जो कथानायक सिस्टम में शाामिल होना पसन्द नहीं कर, सिस्टम को बदल देना पसन्द करता है, वह आज के समय में इतना टूट कैसे जाता
है। इतने कमजोर वैचारिक शक्ति वाले नायक का कथाकार इस समाज और अपने समय की
युवाशक्ति को क्या सन्देश देना चाहता है? कथानायक
अपने पिता को रात के अन्धेरे में किस कर्म में लिप्त देख लेता है। यह पूरी कहानी
किसी सकारात्मक उद्यम की ओर इशारा करने के बजाय विफलता और टूटन का सन्देश देती है।
जबकि कथाकार से समाज की अपेक्षा कुछ और होती है।
‘नीली
आँखों के सपने’ दहेज उत्पीड़न जैसे पुराने और चलताऊ विषय
पर बहुत सतही ढंग से लिखी गई कहानी है। अनावश्यक विस्तार से इस कहानी को न कहानी
रहने दिया गया न निबन्ध होने दिया गया।
पाँचो कहानियों पर संक्षिप्त टिप्पणी देने के बाद इन कथाकारों
और इनके आस-पास के अन्य कथाकारों से जो अपेक्षा की जाती है, वह ज्यादा और अनर्गल इसलिए नहीं है कि
इनकी झोली में कहानी कला की भव्य और विराट विरासत है, जो शायद इसी पीढ़ी के हिन्दी कहानी-लेखन
में क्रियाशील अन्य लोगों को नहीं है। जल्दबाजी में काम खराब अवश्य होता है। इन
कहानियों में भाषाई उलझाव-बिखराव,
वैचारिक पाण्डित्य के
जंगल में खोती जा रही किस्सागोई,
और किस्सागोई पर शासन
करने को बेताव बौद्धिकता,
पाठकों को नासमझ
समझकर कहानी की व्याख्या देने का आग्रह...सब मिलकर कहानी कला और कहानी के प्रभाव
को आहत करते नजर आते हैं। वैसे इन्हीं कहानियों के आधार पर यह भी कहा जा सकता है
कि कथाकार इन समस्याओं से बच गए होते, तो
‘मिट्टी आग और पानी’, ‘फूलो अनारो’ और ‘फ्रीलान्स
जिन्दगी’ बेहतरीन कहानी हो सकती थी। यूँ अभी
बिगड़ा ही क्या है, अभी तो इन्हें बहुत कुछ लिखना है, पर लिखते वक्त इन्हें याद रखना है कि
कहानी कला की जिस विरासत की मशाल इन्हें थमाई गई है, वह
अपने समय के महारथियों पर बहुत भारी पड़ी थी, इसीलिए
इन लोगों को सँभलकर आगे बढ़ना है।
अपेक्षाएँ और भी हैं, संवदिया, नई दिल्ली, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
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