तलाशते लोग की तलाश
लालित्य ललित का कविता संग्रह
तलाशते लोग लालित्य ललित की छप्पन छोटी-छोटी कविताओं का ताजा
संग्रह है। इससे पूर्व उनके तीन कविता-संग्रह ‘गाँव
का खत: शहर के नाम’,
‘दीवार पर टंगी
तस्वीरें’ तथा ‘यानी
जीना सीख लिया’ प्रकाशित हुए। ‘कविता सम्भव’ एक सम्पादित पुस्तक है, जिसमें कई सम्भावनाशील और स्थापित युवा
कवियों की अच्छी-अच्छी कविताएँ संकलित हैं। ‘पारा
टोली का पारस’ नवसाक्षरों के लिए लिखी गई उनकी कहानी
है। अपने इन कृति-कर्मों के कारण ललित हिन्दी के एक खास साहित्यिक समुदाय के बीच
जाने पहचाने भी गए,
भिन्न-भिन्न कारणों
से भिन्न लोगों ने जहाँ-तहाँ लिखित मौखिक चर्चा भी की। ललित की इस रचना-यात्रा में
सम्बन्धों के स्वरूप का विकास हुआ है। कुछ वर्षों पूर्व इस उनकी कविताओं में लड़की, किसी युवती की तरह आती थी--कहीं
प्रेमिका, कहीं कामदग्धा, कहीं श्रम-अर्थ की शोषिता, कहीं यौन अथवा भावनात्मक सम्मोहन की
शिकार। पर अब ललित के यहाँ लड़की,
ज्यादातर बेटी के रूप
में आती है। उनकी कविताओं के बहुलांश का केन्द्र-बिन्दु लड़की है, पर अधिकांश स्थानों पर लड़कियों के चित्र
कोई फूहड़ नहीं दिखते। लड़कियाँ उनकी कविताओं में जीवन के हर प्यारे, कोमल और मधुर सम्बन्धों की वास्तविक
जिम्मेदारी के साथ उपस्थित हैं।
ललित की कविताओं में लड़कियों को पुरुषों द्वारा कामनामयी या
वासनामयी दृष्टि से देखे जाने में भी उनका महत्त्व दिखता है। ऐसा लगता रहता है कि
जिस पुरुष के साथ वह लड़की नहीं है,
वह बेकार है, ‘सड़क पर लुढ़कता-पिचकता फ्रूटी का खाली
डब्बा है।’ उस पुरुष का एक ही सपना है कि वह लड़की
कब आएगी। जिस बड़ी उम्र के बस के ड्राइवर ने अपनी बराबर उम्र अर्थात् बड़ी उम्र की
लड़की को अपने लिए तय कर रखा था,
‘आज उस बड़ी उमर
वाली/लड़की की भी शादी हो गई/आज उसके चेहरे पर पहले से अधिक/लाज है’ पर चूँकि ‘बड़ी उमर वाली लड़की/शादी करा पराए लड़के
को ही घर में/ले आई’
इसलिए दुल्हन बनी उस
नवविवाहिता को अपनी ही बस में बिठाकर ससुराल उतारता हुआ ड्राइवर मायूस होता है, अपनी यात्रा, अपना चिन्तन, अपना सपना कायम रखता हुआ आगे बढ़ता है। ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी?’ में दर्ज एक अविवाहित ड्राइवर की यह
पीड़ा व्यक्तिगत नहीं है। यह उन सारे पुरुषों की पीड़ा है जिसका जीवन स्त्री-विहीन
है, उजाड़ है, इसलिए
स्त्री उसके लिए अलभ्य है। भरी जवानी के दिनों में स्त्री को वासना का केन्द्र, भोग्या आदि माननेवाले लोगों की नजर में, ढलान की उम्र आने पर स्त्री जीवन के
टूटते-छूटते धागे की तरह हो जाती है। सचमुच मनुष्य जो प्राप्त कर लेता है, उसका मालिक बन जाता है, जो नहीं प्राप्त कर पाता, उसका गुलाम हो जाता है।
इसके अलावा उनकी कई कविताओं में लड़की के अन्य रूप भी अंकित
हैं। शिशु से लेकर वृद्धा तक की उम्र में जीवन के विभिन्न पड़ाव पर स्त्रियाँ उनकी
कविताओं में भिन्न-भिन्न रूपों और सम्बन्धों के साथ उपस्थित होकर किसी न किसी
विशिष्ट अर्थ का संकेत देती हैं। ऐसा भी नहीं है कि उनकी कविता के केन्द्र में
केवल स्त्रियाँ ही हैं। समाज अन्य मसलों की बातें भी उनकी कविताओं में उठाई गई
हैं। पर बुजुर्गों और समकालीनों की बेबुनियाद प्रशंसा अथवा प्रशंसा के छद्म के
शिकार नई पीढ़ी के रचनाकार होते रहे हैं। इन हरकतों के शिकार कुछ हद तक ललित भी
शिकार हुए हैं। वर्ना,
जितने दिनों से, जिस तीक्ष्णता से, जिस जोशो-खरोश और जिस तेवर से ललित
रचनारत हैं, आज वे बहुत आगे रहते, बहुत ऊँचाई पर होते।
उनकी छोटी-छोटी कई कविताएँ विचलित कर देती हैं, मन व्याकुल हो उठता है, चीख और झल्लाहट की स्थिति आ जाती है।
लगता है--ओफ्फोह! यह क्या कर दिया तूने कवि! इतनी सुन्दर मिट्टी से इतनी शनदार
कृति गढ़ी जा सकती थी! तूने इस मिट्टी को थोड़ा और क्यों नहीं गूँथा? सही ढंग से मिट्टी न गूँथे जाने के कारण
ही एक पृष्ठ पर ‘यादें’ कविता
लगती है और ‘कोई अपना’ एक
निरर्थक बयान। ‘मास’ एक
छोटी-सी कविता है। इसमें तीन विराट व्यंजनाओं का संकेत है। यद्यपि इस छोटी-सी काया
में कविता को जितना कुछ कहना चाहिए,
उससे ज्यादा ही कही
गई है, पर यदि इस मिट्टी को थोड़ा और गूँथा जाता, तो यह कविता एक बड़ी प्रहारक शक्ति के
साथ आती, जैसा वे सिर्फ चार पंक्ति की एक कविता ‘मुखौटा’ हुई
है। शब्दों और वाक्यों के चक्रवात में पाठकों को उलझाए बगैर बड़ी से बड़ी बात कहने
की शक्ति इस कवि को है। ‘यादों में जीते हुए’ कविता में दाम्पत्य जीवन के जिस विलगाव
और स्मृतियों से प्रभावित होकर पुनरावर्त्तन की जिस स्थिति को दिखाया गया है, उसे एक गहरी संवेदना के साथ जोड़कर देखने
की आवश्यकता है। परन्तु,
इन स्थितियों के साथ
ही वर्तमान देश-दशा अभी बर्बादियों के जिस कगार पर है, वहाँ कुछ और चिन्तन की आवश्यकता है।
ललित की पूरी रचना प्रक्रिया से अन्तरंग होते हुए यह कहने में
तनिक भी संकोच नहीं किया जाना चाहिए कि अभ्यास काल से लेकर आज तक में कवि जहाँ
पहुँच पाए हैं, उसका पूरा श्रेय ललित की प्रतिभा को
जाता है और जहाँ नहीं पहुँच पाए,
जो इनमें कमी रह गई
है, उसका पूरा श्रेय, उसकी पूरी जिम्मेदारी उनके इन छद्म प्रशंसकों
को जाता है। बहरहाल,
उनकी अगली कृति
पाठकों को इससे ज्यादा ठोस मिलेगी ऐसी उम्मीद की जा सकती है।
तालशते लोग की तालाश, गगनांचल, नई दिल्ली, जुलाई-सितम्बर 2001
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