धुन्ध मिटाने की चाहत
(रामदेव सिंह की कहानियों का संकलन ‘काले कोट का सफेद दिन’)
इधर के कुछ वर्षों से हिन्दी पट्टी में वंचकों, विश्वासघातियों की बहुतायत के कारण
जीवन-बसर का हर क्षेत्र संशय से भर गया है; मन्दिर-मस्जिद
से पाठशाला तक, संसद से मधुशाला तक, न्यायालय से पंचायत तक हर समय आशंकाओं
का कोहरा छाया रहता है। ऐसे में जब कोई रचना आम जनता के दुख-दर्द, उसके सरल-सहज जीवन यापन की बात करे, तो दिलचस्प और कई मायने में अद्भुत लगता
है। कथाकार रामदेव सिंह की नौ कहानियों का संकलन ‘काले
कोट का सफेद दिन’ इसी फलक पर अद्भुत और दिलचस्प लगता है; और आज की हिन्दी कहानियों के प्रति
आश्वस्त करता है। संकलन में ‘काले कोट का सफेद दिन’ शीर्षक से एक कहानी भी है। यह शीर्षक
हमारे समाज के आम जनजीवन का दस्तावेज और मानव सुलभ जीवन की प्रतिकृति है।
प्रसिद्ध कथाकार श्री काशीनाथ सिंह ने लिखा है कि ‘रामदेव की ये कहानियाँ उनके अपने अनुभव
क्षेत्र की कहानियाँ हैं। रामदेव रेल विभाग में काम करते हैं। रेल की पटरियाँ, रेल से यात्रा, रेल के यात्री, रेलवे स्टेशन का प्लेटफॉर्म इनके जीवन
और कृति के जरिए इनके अनुभव में बसा हुआ है। लिहाजा इनकी कहानियाँ लेखक के अपने
अनुभव-क्षेत्र की, रेलवे की दुनियाँ की कहानियाँ। हमारी
आपकी भी देखी-भाली। वही प्लेटफार्म,
वही रेल के डिब्बे और
बोगियाँ, वे ही यात्री, वे ही रेलवे कर्मचारी और पुलिस। मगर
रामदेव की यह दुनिया रेल की पटरियों पर नहीं, जिन्दगी
की धड़कनों पर चलती और ठहरती हैं। वह छुकछुकाती नहीं, धुकधुकाती
और धधकती है। इसलिए कि लेखक हर कहानी के प्रति सीरियस और सिन्सीयर हैं। चाहे थीम
का चुनाव हो, चाहे भाषा का। संवेदनाओं से इतर एक
पथरीली दुनिया की कहानियाँ हैं।’
काशीनाथ सिंह ने इस
वक्तव्य में रामदेव के कहानी-लेखन का मूल स्रोत उतार दिया है।
संकलन की तीन ही कहानियाँ--‘सफर’, ‘काले कोट का सफेद दिन’, ‘आउटर सिगनल’--रेल और रेल से जुड़े अनुभवों की हैं। शेष
छह कहानियाँ जीवन के अन्य अनुभवों से निकली हैं। पर अनुभव के सूक्ष्म और अमूर्त्त
स्वरूप में, गो कि पूरे लेखन में, वृत्ति से जुड़े उनके अनुभव खून-पसीने की
तरह बह रहे हैं, चुहचुहा रहे हैं।
‘काले
कोट का सफेद दिन’ संकलन की कहानियाँ निश्चय ही आज
इनसानियत की उखड़ती साँस को सहारा देती हैं। ये आज की साधारणीकृत होती, हाय-तौबा मचाती कहानियों से भिन्न हैं, विसंगतियों के बावजूद ये संसार और समाज
को सुखद और स्वच्छ सन्देश प्रेषित करती हैं। रेल में कार्यरत टी.टी.सी. और पुलिस
की दुर्वृत्ति यहाँ सूक्ष्मता से रची गई है, पर
वहीं कहीं मानवीयता का एक कतरा भी उपस्थित है। सारी दुव्र्यवस्था, बेईमानी, हैवानी
चल रही है, रेल के कर्मचारियों का अमानवीय चेहरा
यहाँ दिख रहा है, पूरा विभाग भ्रष्टाचार और अवैध कमाई के
चोंचले में डूबा हुआ है,
पर उसी में एक ऐसा भी
कर्मचारी है, जिसकी मानवता अनैतिक काम कर लेने के बाद
भी, घर से भागे लड़के द्वारा चुराई हुई सोने
की चूड़ी अपनी जेब में रखने की अनुमति नहीं देती।
यह भारत के दमन-तन्त्र और रक्षक-यन्त्र (पुलिस) की पूरी इकाई
के नैतिक पतन, और नरकवास को मजबूर मानवता को चित्रित
करती कहानी है। दक्षता से अंकित विलुप्त मानवीयता के ये चित्र सहज ही उद्वेलित
करते हैं। अवैध रूप से अर्जित धन के बँटवारे में हिस्सेदारों के बीच हुई बेईमानी
के परिहासपूर्ण चित्रण में कथाकार की मानवीय संवेदना उजागर हुई है। दुर्जन से डरने
और सज्जन को परेशान करने की सरकारी हरकतें इस कहानी में बाएँ-दाएँ दिखाई गई हैं, पर अपने प्रभाव में यह बात इतनी बड़ी और
इतना जीवन्त हो जाती है कि उन्हें नोटिस में रखा जाना अनिवार्य हो जाता है।
सकारात्मक सद्वृत्ति के साथ कहानी का अन्त चौंकाता है और जाहिर करता है कि मानवता
बहुत बड़ी पूँजी है,
इसे बचाए रखना चाहिए।
रेल,
रेल का डिब्बा, रेलवे स्टेशन, रेलवे क्वाटर, गाँव, नौकरी--बस
इतनी दूरी तक चलती-फिरती,
दौड़ती-कूदती ये
कहानियाँ साबित करती हैं कि बिना किसी राजनीतिक चोंचले, वादजन्य विचार, राजनीतिक दुराग्रह के भी कहानियाँ लिखी
जा सकती हैं, और श्रेष्ठ हो सकती हैं।
रामदेव की कहानियाँ जनपद की खुरदरी व्यवस्था से निकाली गई
ईंटों, पत्थरों से रची जाती हैं, जिन्हें तरासने के लिए उन्होंने कोई
जबर्दस्ती आचरण नहीं किया है। वे खुरदरी ईंटें, ज्यों
की त्यों पाठकों को लौटा दी गई हैं,
ताकि पाठकों को जीवन
के अपने अनगढ़पन का बोध हो जाए। यही अनगढ़पन, ऊपरी
तल की चिकनाहट का अभाव,
उनकी कहानियों को
औरों से अलग करता है। भाषा इतनी शालीन और वेधक है कि उन्हें पढ़ने के लिए पाठकों को
कोई जोखिम नहीं उठाना पड़ता। कहानियाँ उसे अपने साथ ले जाती हैं।
‘काले
कोट का सफेद दिन’ कहानी में काला कोट एक संस्कार को
द्योतित करता है, उस संस्कार को, जहाँ अर्थ गाम्भीर्य के साथ प्रस्तुत यह
कहानी काले कोट के जरिए व्यक्ति के मन और नीयत की कालिमा को द्योतित करती है। काला
कोट रेल सेवा में टी.टी.सी. के लिए महज एक पोशाक है। सरकारी सेवा में कार्यरत यह
व्यक्ति तमाम दुर्गन्धियों और अराजकताओं को अपने चरित्र में भरे रहता है। और, अराजकता में डूबा यह व्यक्ति कायर इतना
कि किसी दबंग व्यक्ति के अपराध से भी नहीं लड़ पाता, पर
सीधे इनसानों को बिना वजह परेशान कर धन उगाहता है। बहरहाल, इस संग्रह की यह अकेली कहानी एक मुकम्मल
संकलन की औकात रखती है। काला कोट पहने टी.टी.सी. की यह कालिमा, न्याय के रखवाले वकीलों के चरित्र में
भी खोजी जा सकती है।
‘सफर’ कहानी भारतीय नागरिक के चरित्र और
व्यवस्था की अराजकता को चित्रित करने में डायरी की तरह लिखी गई है। अपने पेन्दे
में छेद रहने के बावजूद,
दूसरों की कुरूपता और
कमजोरियों की चर्चा करना आम नागरिक का चरित्र जैसा हो गया है। रोजमर्रे के
हिसाब-किताब की प्रस्तुति की तरह लिखी गई इस कहानी में बिना किसी ताम-झाम के
कथाकार ने एक अजीब-सी शैली विकसित की है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के ‘गप्प साहित्य’ की तरह यदि इस कहानी पर नजर डालें तो
लगता है कि रेल में कुछ दूरी के सफर को डायरी में अंकित करता हुआ लेखक कितनी-कितनी
बातें कह जाता है। सफर कहानी में सफर महत्त्वपूर्ण है, तो उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण जुलूस और
रैली का उद्देश्य या इन दोनों के बीच कड़ी का काम करने वाला कोच कण्डक्टर क्या कम
महत्त्वपूर्ण है! परफ्यूम में नहाई कोई स्त्री जिस रास्ते से जाए उसे सुगन्धित
करती जाती है। यह कहानी चलती जाती है, चलती
जाती है और एकाएक पाठकों को एक झटका-सा देकर समाप्त हो जाती है। गोया, किसी जादुई कमाल की तरह पटल से गायब
होती हुई, पाठकों को फिर से इस दुनिया, यात्रियों के सफर, कण्डक्टर की नौकरी और रैली के उद्देश्य
पर सोचने के लिए, मन्थन करने के लिए मजबूर कर देती है।
‘आउटर
सिगनल’ और ‘खुली
आँखों के सपने’ कहानी में कथाकार का कौशल एक अलग तेवर
के साथ निखरा है। पुरुष मनोविज्ञान और स्त्रियों की स्थिति पर लिखी गई ये दोनों
कहानियाँ जिस गम्भीरता से और जिस कायदे से लिखी गई है, वैसा ढंग हिन्दी कहानी में कम दिखता है।
‘आउटर सिगनल’ की औरत और कुँवर जी अपनी-अपनी जगह कितने
गुप्त हैं, पर हरकतों से कितने खुले हैं। स्त्री और
पुरुष के बीच वार्तालाप के सुख की कल्पना, उस
सुख की कल्पना को मूर्त्त कर थोड़ी देर व्यस्त अथवा बुरी तरह व्यस्त पुरुष के
सम्मोहन की स्थिति का चित्रण...इस कहानी में जीवन्त हो उठा है। ‘खुली आँखों के सपने’ की सुमी और सुधा के बीच रस्से की तरह
तनाव और खिंचाव सहता पंकज आज के सामान्य मर्दों से एक भिन्न तरह का नायक दिखता है।
सुमी भी और सुधा भी कम भिन्न नहीं है। जैसा कि पहले भी कहा गया है कि कथाकार
रामदेव के सृजन का नायक और नायिका या उसके सहवर्गी एक विशेष तरह के होते हैं। अपनी
नैतिकता और जिम्मेदारी का पूरा निर्वहण वहाँ पाठकों को दिखेगा। सुमी, पंकज से प्यार करती है, नैसर्गिक प्यार करती है। सुधा तो पंकज
की पत्नी ही है। पंकज इन दोनों के प्यार के बीच तनावग्रस्त है--पर स्त्री देह एवं
बहुगामिता की ललक उसे अपने दायित्व से नहीं डिगाती। सुमी अपने प्यार के कारण पंकज
को किसी से छीनना नहीं चाहती,
किसी का हक नहीं
मारती। अर्थात्, प्रेम की जो उत्कृष्ट परिभाषा होती है, कि श्रेष्ठ प्रेम प्रेमियों को बाँधता
नहीं, उसे मुक्त करता है। और यह मुक्तता ही
प्रेमियों के लिए हथकड़ी हो जाती है। प्रेम पर लिखी गई इस तरह की जिम्मेदार कहानी
कथाकार रामदेव के लिए भी और पाठक के लिए तो सहज ही--एक उपलब्धि है।
शिल्प की दृष्टि से ‘आगन्तुक’ थोड़ी कमजोर कहानी हो गई है। ठगी और
पाखण्ड पर ‘हार की जीत’ कहानी बहुत पहले ही हिन्दी में लिखी जा
चुकी है। स्वयं रामदेव ने इस कहानी की चर्चा भी की है। कहानी में चरमोत्कर्ष की
गोपनीयता बहुत आवश्यक होती है। यह गोपनीयता ही पाठकों को कहानी के साथ भागते जाने
की प्रेरणा देती है। आज के समाज में इस तरह की ठगी तो आम बात हो गई है। आए दिन ऐसी
ठगी का शिकार लोग होते रहते हैं। जानदार, शानदार
विषय के बावजूद शिल्प के शिष्टाचार के अभाव में यह कहानी उत्तम नहीं हो पाई। गरज
यह नहीं कि कहानी घटिया है। कहानी अच्छी है, पर
इसे और अच्छी बनाई जा सकती थी।
‘इल्यूज़न’ का मुकुल आज के दौर का प्रतिनिधि है। पर
जीवन के बिखराव को पुनः पुनः सँवारने में दत्तचित-सा। प्रेम में धोखा मनुष्य को
क्षत-विक्षत करता है। कैरियर में असफलता, न्यून
प्रतिभा से पराजय, चालू किस्म की लड़की से प्यार कर धोखे का
शिकार--इन सारी चोटों के बावजूद मुकुल का ‘इल्यूजन’ और उसकी ‘मुक्ति’ का चित्रण इस कहानी को उत्कर्ष दे रहा
है। आज के संघर्षशील युवकों के लिए यह कहानी और कहानी का नायक मुकुल एक प्रेरणा
स्रोत हो सकता है, ठीक उसी तरह जैसे मणि बाबू, हर बेटी के बाप के लिए और विभा, हर युवती के लिए। ‘हम भारत की बेटी हैं’ कहानी के मणि बाबू, विभा और शुभा की कमी कम से कम अभी बिहार
और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में नहीं है।
‘पंचैती’ और ‘दुःस्वप्न
का सुखान्त’ कहानी भी ग्रामीण सामन्तशाही के टूटते
शिखर और कौटुम्बिक पाखण्ड के तनाव को रेखांकित करती है। इत्मीनान से कहानी बुनते
हुए कथाकार रामदेव सिंह अपनी इन कहानियों के जरिए साहित्य में जिस सन्देश को
प्रतिपादित करते हैं,
वे आज के साहित्य में
रेखांकित करने लायक हैं। सारी विडम्बनाओं और दुरवस्थाओं के बावजूद रामदेव के पात्र
कभी असद् तत्त्वों से पराजित नहीं होते। सद् के प्रति यह आस्था हमें भविष्य के
खुशनुमा मौसम और माहौल के लिए हमें आश्वस्त करती है।
- महाधुन्ध में प्रकाश
के विजय की कहानी, संवेद
काले कोट का सफेद दिन/रामदेव सिंह/प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली/80.00/पृ. 86
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