वर्चस्व के प्रतिरोध संस्कृति
पुरुषोत्तम अग्रवाल का आलोचनात्मक निबन्ध संग्रह ‘संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध’, ‘तीसरा रुख’ और ‘विचार का अनन्त’
दस बरस पूर्व तक हिन्दी प्रकाशनों को देखकर ऐसा प्रतीत होता था
कि हिन्दी भाषा केवल कहानी,
कविता, नाटक, उपन्यास
और उसकी समीक्षाओं की भाषा है और इस भाषा में इससे इतर विषय पर कुछ लिखा जाना या
तो अपराध है या कुछ हेय कर्म। कहीं-कहीं कुछ-कुछ यदि अन्य विषयों पर हिन्दी में
निबन्ध अथवा पुस्तक रूप में आ भी जाता था तो उन्हें अपवाद मानकर चला जाता था। ऐसा
भी नहीं था कि यह काम एकदम से नहीं होता था। पर एक संशय और जोखिम का दृश्य अवश्य
था, लेखकों के लिए भी और प्रकाशकों के लिए
भी। लेखकों के लिए इस भाषा के सम्बन्ध में यह हीनताबोध था कि हिन्दी अथवा हिन्दी
के पाठक शायद जीवन के अन्य जरूरी विषयों पर लिखी पुस्तकों के लायक नहीं है और
प्रकाशकों के लिए यह भय कि इन विषयों पर लिखी पुस्तकें हिन्दी के बाजार में अपना
अधिकार जमा पाएगी या नहीं! पर,
ऐसी स्थिति बहुत
दिनों तक नहीं रही। समर्थ चिन्तक पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने शुरुआती लेखन से ही इन
जरूरी बातों पर चिन्तन करते आए हैं,
जिनमें
किस्सों-कहानियों के बजाए जीवन की अन्य बुनियादी बातों की ज्यादा अहमियत है। कभी
उन्होंने साहित्य की विधाओं पर सोचा, मनन
किया और लेखनी उठाई भी,
तो उनमें अन्य पहलुओं
के साथ मानव जीवन का तारतम्य बैठाने की कोशिश की। लक्षण ग्रन्थों में स्थापित
सिद्धान्तों के बल पर उन्होंने साहित्य को कभी फरमे में घुसाकर उनके फिट और मिसफिट
होने की घोषणा नहीं की। साहित्यिक विधाओं के परीक्षण के लिए भी पुरुषोत्तम के
टूल्स मानव-जीवन और समाज-शास्त्र ही रहे। समाज और मानवीय जीवन की संवेदनाओं को
लेकर पुरुषोत्तम की क्रियाशीलता का अभिकलन प्रारम्भिक काल से करने पर प्रतीत होता
है कि शुद्ध साहित्य से परे विषयों में कूद पड़ने की उनकी भूमिका पहले से थी, यह जोखिम उन्होंने कोई अचानक नहीं लिया।
सन् 1995 में जब उनके निबन्धों का पहला संकलन ‘संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध’ प्रकाशित हुआ, तब भी ये बातें बहुत आम नहीं हुई थीं।
आज तो हिन्दी में साहित्येतर विषयों पर मूल अथवा अनूदित पुस्तकें पर्याप्त संख्या
में प्रकाशित होने लगी हैं और कई ऐसे लेखक हैं जिन्हें अब साहित्येतर विषयों पर
हिन्दी में पुस्तकें लिखना जोखिम का काम नहीं लगता।
‘संस्कृति:
वर्चस्व और प्रतिरोध’
समाज, संस्कृति, मान्यता, स्थापना, आस्था
आदि को केन्द्र में रखकर लिखे तेरह निबन्धों का संकलन है, जिनमें भाषा और विश्लेषण--दोनों का
अक्खड़पन, साफगोई, निर्भीकता
और ज्ञानगर्भिता तथा तथ्यात्मक प्रामाणिकता दिखती है। उनका यह अक्खड़पन, अहंकारवादी अथवा पूर्वाग्रहपरक नकारवादी
नहीं है, यह कबीर के चिन्तन से प्रभावित है, जहाँ सारे अतीत सुनहरे नहीं लगते, उनमें अन्धानुकरण की प्रवृत्ति नहीं
दिखती, वर्तमान को अतीत-प्रसूत सम्पदा और
भविष्य को अन्धकारमय नहीं बताया जाता। यहाँ जीवन की सुविधा एवं तार्किकता से
वर्तमान को सजाने के लिए उन्हें उज्ज्वल भविष्य की आस्था से भरा हुआ जनपद दिखता
है। वर्तमान और भविष्य को सुधारने के लिए यदि अतीत की झाड़-पोंछ आवश्यक है, तो उन हरकतों के प्रति आग्रह दिखता है।
अभिप्राय यह भी नहीं कि पुरुषोत्तम द्वारा लिखे गए वाक्य कोई आर्ष-वचन हैं, जिन्हें मानना सबकी मजबूरी है। बेशक
पुरुषोत्तम भी ऐसा नहीं मानते,
यदि ऐसा हो तो यह फिर
से वही व्यवस्था कायम होगी,
जिनके वर्चस्व का
प्रतिरोध यहाँ दिखता है। यह पुस्तक वस्तुतः ‘सन्
1987 से 1994
तक के (पुरुषोत्तम के) विचार-विकास का संकलन है।’ कई
बिन्दुओं पर इसमें संकलित निबन्धों में व्यक्त पुरुषोत्तम के विचारों से लोग
असहमति भी जाहिर कर सकते हैं और पुरुषोत्तम ने उन असहमतियों के लिए और विचार-दंगल
के लिए सम्भावनाएँ खुली भी रखीं,
पर विडम्बना है कि
हिन्दीपट्टी में कहीं कोई चर्चा नहीं हुई। यहाँ तक कि पुरुषोत्तम के नाम कोई गाली
भी नहीं दी। दो चार पत्रिकाओं में लोकाचार की तरह कुछ समीक्षाएँ छपीं, मामला ‘आया
पानी, गया पानी’ हो
गया। सामान्यतया हिन्दी की पुस्तकों का यही हस्र होता है। किसी-किसी पुस्तक पर
प्रायोजित और किसी-किसी पर वास्तविक शोर-शराबे हो जाते हैं, वह दीगर बात है। बहरहाल...
‘संस्कृति:
वर्चस्व और प्रतिरोध’
पुस्तक के सारे
निबन्धों का मूल लक्ष्य उन दाग़ों पर उँगली रखना है जो हमारे समाज की शुभ्र धोती
में बाकायदा लगा हुआ है और हमारे समाज के ठेकेदार उन्हें धोती के चुन्नट तले दबाने
का हर सम्भव प्रयास पुरा काल से करते आ रहे हैं। मार्च 1991 में मेहसाना में ‘रोशनी’ नाम
की लड़की की जान जिस बेरहमी से ली गई, वह
किसी भी पुराकालीन बर्बर घटना से कम नहीं लगता। जाट जाति में जन्मी रोशनी का अपराध
सिर्फ इतना था कि उसने प्यार किया था। उसने अपना जीवन साथी स्वयं चुन लिया था। इस
तरह का दानवी आचरण हमारा देश बर्दाश्त करता आया है, ऐसी
घटनाओं पर भी हमारा समाज चुप रहता है, या
इन्हें भूल जाने की कोशिश करता है,
तो उसका कारण वही
सांस्कृतिक वर्चस्व है,
जिसमें प्रतिरोध का
साहस नहीं है, जीवन की गतिकता अपनाने की ईमानदारी नहीं
है।...हैदराबाद से ‘अमीना’ नाम
की ग्यारह वर्षीय बच्ची को ब्याहने वाले इकसठ वर्षीय अरबी नागरिक शेख याहया सगीश
को जब पालम हवाई अड्डे पर पकड़ा गया था, तब
भी बात कोई अलग नहीं थी। कहने वाले कई बार कह देते हैं कि पुरुषोत्तम शूद्रों, स्त्रियों और मुसलमानों की मुखबिरी
फैशनेबल सोहदे की तरह करते हैं। गोया ऐसा नहीं करेंगे तो चर्चे में नहीं रहेंगे।
पर, बात ऐसी है नहीं। ‘अमीना का अपराध’ निबन्ध में पुरुषोत्तम ने इस सम्प्रदाय
की जिस व्यंग्यात्मक रवैये से व्याख्या की है, वह
केवल तारीफ करने की बात नहीं है। यह व्याख्या पाठक को एक ऐसे मुकाम पर खड़ी करती है, जहाँ व्यक्ति लिंग भेद, धर्म, सम्प्रदाय, राजनीति...सबसे उबरकर मानवीय धरातल पर
खड़ा होकर सोचने को मजबूर होता है। रोशनी, अमीना, बाबरी मस्जिद, मेरठ-दिल्ली-भागलपुर-जमशेदपुर-सीतामढ़ी
का दंगा...ये घटनाएँ तो मात्र संकेत है। गौरतलब तो यह है कि इन स्थितियों में
मनुष्य अपनी मान्यताओं और धार्मिक भावनाओं जैसी अमूर्त्त बातों पर इतना बड़ा राक्षस
हो कैसे जाता है, इन राक्षसी आचरण को देखकर उनके मन में
कोई संवेदना जगती कैसे नहीं?
यह कैसी सांस्कृतिक
और धार्मिक विरासत है,
जो इन्सान को हैवान
बनने और बनाए रखने के लिए मजबूर करती है!
इस पुस्तक में संकलित ‘प्रामाणिक
भारतीयता की खोज’,
‘इस माहौल में
विवेकानन्द’, ‘खड़े रहो गाँधी’, ‘घुप्प अन्धेरे में छोटी-सी लालटेन’ तथा ‘आस्था
और आलोचना’ शीर्षक निबन्ध कई लम्बी बहस के सवाल
उठाते हैं। वस्तुतः हमारे पूर्वजों ने हमें जो कुछ दिया-- उपदेश, विचार, संस्कृति, पुस्तकें, परिवेश
या अन्य कोई भौतिक सम्पदाएँ... कभी हमारे समाज के कुटिल-बुद्धि नागरिकों ने न तो
उसकी तात्त्विक और समय सापेक्ष व्याख्या की, न
उसका सही अर्थ निकाला और न ही कभी विवेक सम्मत चिन्तन ही किया। धर्मान्धता, आस्थावादी कट्टरता, व्यक्तिवादी लोलुपता, अहंवादी क्रूरता...पहिये पर चल रहे
हमारे समाज के नागरिकों के पास परम्परा और संस्कृति के नाम पर कुछ रूढ़ियाँ
लोक-कण्ठ में और पुरानी पुस्तकों में मौजूद हैं, वंशानुगत
व्यवहारों से धार्मिक,
जातीय और लैंगिक
द्वेष व्याप्त हैं,
नैतिकता शून्य समाज
के पास मानवीय संवेदना की नींव ही कलुषित करने का दृश्य देखा जा रहा है, जिसे सुधारने और आवश्यकता पड़ी तो
नवनिर्माण करने की पहल इस पुस्तक में की गई है।
सन् 1986 से 1996
तक की अवधि में लिखे-छपे पुरुषोत्तम के बाहर निबन्धों का संकलन ‘तीसरा रुख’ न तो शुद्ध साहित्यिक है और न ही शुद्ध
साहित्येतर। लेखक के ही शब्दों में ‘तीसरा
रुख--संस्कृति और आलोचना के बारे में--क्योंकि आलोचना अपनी प्रवृति से ही
सांस्कृतिक उपक्रम है--व्याख्या के रूप में भी, और
राजनीति के रूप में भी। ...बिना आलोचनात्मक आयास के सांस्कृतिक विवेक कहाँ?’ ‘तीसरा रुख’ वाकई ऐसा ही आलोचनात्मक आयास है। यद्यपि
इस पुस्तक के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ‘संस्कृति:
वर्चस्व और प्रतिरोध’
के बाद का विकसित रूप
‘तीसरा रुख’ है। बल्कि यह कहना ज्यादा समीचीन होगा
कि इन दोनों पुस्तकों में संकलित निबन्ध, एक
ही अन्तराल के हैं। चयन-दृष्टि के वैशिष्ट्य में पहली पुस्तक में केवल वैसे निबन्ध
हैं जो मनुष्य के सामाजिक जीवन के वैयक्तिक पहलुओं से सीधा सवाल करते हैं और इस ‘तीसरा रुख’ में संकलित निबन्ध कुछ साहित्य में भी
झाँकते हैं, कुछ संस्कृति और परम्परा और इतिहास और
दर्शन में भी। इन निबन्धों से मौके-बेमौके यह साबित होता रहता है कि वाकई
पुरुषोत्तम ने ‘प्रगतिशील आलोचना: बीच बहस में’, ‘किसान चेतना के काव्य प्रतिमान’ तथा ‘हे
राम ! कैसे कैसे राम’
निबन्धों में
उन्होंने इन बातों की व्याख्या विस्तार से की है। रामविलास शर्मा द्वारा शिवदान
सिंह चौहान पर किए गए आक्षेप के हवाले से बात शुरू कर उन्होंने अपनी बात रखने में
रामविलास जी के कथनों के द्वैध को दिखाने के लिए जितने तथ्य जुटाए हैं, इस निबन्ध को प्रामाणिक और पुरुषोत्तम
की घोषणा को सत्यापित करते हैं।
इस पुस्तक के अन्तिम निबन्ध ‘किसान
चेतना के काव्य प्रतिमान’
में पुरुषोत्तम ने
रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध का हवाला दे देकर अपनी बातों को
पुष्ट करने में जो चमत्कार दिखाया है, उनमें
भी कहीं भक्ति-भावना अथवा घृणा-बोध की गुंजाईश नहीं दिखती। यहाँ भी आलोचनात्मक
आयास ही है। वस्तुतः झूठ बोलने के लिए बहुत साहस की आवश्यकता पड़ती है, सदा से ऐसा होता आया है। परन्तु हमारा
समाज अभी जिस सांस्कृतिक संकट से जूझ रहा है, उसमें
सच कहने की ताकत और सच सुनने का साहस सिरे से गायब है। फलस्वरूप प्रत्यक्षतः
मनपसन्द और परोक्षतः नापसन्द बातें कहने की परम्परा चल पड़ी है। इसी भावना ने दूसरे
रूप में चाटुकारिता और निन्दा का रूप ले लिया है। पुरुषोत्तम ने इस पुस्तक में
मौसम के बहाव के ठीक विपरीत छाती अड़ाने का जोखिम लिया है। ‘हे राम! कैसे कैसे राम!’ निबन्ध भगवान सिंह के इतिहासपरक उपन्यास
‘अपने-अपने राम’ की समीक्षा है और ‘सुरुचि की मर्यादाएँ’ नेमिचन्द्र जैन के बहाने एक हिन्दी
आलोचना की गम्भीर व्याख्या। ‘राष्ट्र कवि की राष्ट्रीय चेतना’ शीर्षक मैथिली शरण गुप्त पर केन्द्रित
है और राष्ट्रीय चेतना के खास स्वरूप की स्पष्ट प्रतिच्छवि के काव्य के रूप में
इसमें उन कविताओं की व्याख्या की गई है। व्यंग्य पुरुषोत्तम की आलोचनात्मक
पंक्तियों में इस तरह भरा रहता है कि वे अक्सर साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विसंगतियों भरी रहती हैं। यहाँ
ये विसंगतियाँ न केवल संकलित हैं बल्कि पूरी तरह व्याख्यायित और प्रतिष्ठित भी
हैं। जगह-जगह उन्होंने इन विसंगतियों की जड़ें खोदकर रख दी हैं। मैथिली शरण गुप्त
की राष्ट्रीय चेतना और उनकी काव्य साधना की चर्चा के दौरान पुरुषोत्तम ने यह
उद्घाटित किया है कि प्रगतिशील आलोचना कर्म की मूल प्रतिज्ञा, ‘सांस्कृतिक विरासत प्रगतिशील तत्त्वों
का समकालीन सांस्कृतिक चेतना में समावेश करना’ और
‘प्रतिक्रियावाद, पतनशील तत्त्वों की पहचान एवं उनके
विरुद्ध संघर्ष करना’
है। पर यह दुर्भाग्य
कि ‘गुप्त जी की कविता इन दोनों में से किसी
भी पहलू के लिए उत्तेजना’
नहीं दे पाई। सही ही
है कि ‘परम्परा में से सुविधाजनक को लेना और
असुविधाजनक से कतरा जाना हमारी प्रगतिशील आलोचना की दुःखद सीमा नहीं है।’ यहाँ भी लेखक का वही ‘आलोचनात्मक आयास’ और ‘तीसरे
रुख’ की तलाश दिखती है। ‘वर्णाश्रम और मानवाधिकार’, ‘हाय इतिहास! वाह दर्शन’ आदि निबन्ध भी इसी प्रकार के सूत्रों को
व्याख्यायित करते हैं। सांस्कृतिक और पारम्परिक विरासत पर खतरा महसूस करते हुए जब
जब सामाजिक पण्डों ने इसके संरक्षण की दुहाई दी है, तब-तब
संस्कृति और परम्परा के सिर पर नाश का काल मँडराया है। और, दुयोगवश इस काल के अभिमन्त्रक ये पण्डे
ही होते आए हैं। पुरुषोत्तम की उक्त दोनों पुस्तकें इन्हीं पण्डों की बखिया उधेड़ती
हैं।
हाल में प्रकाशित पुरुषोत्तम अग्रवाल की ताजा पुस्तक ‘विचार का अनन्त’ सन् 1992
से फरवरी 2000 तक लिखे समाज-साहित्य-संस्कृतिपरक
पन्द्रह निबन्धों का संकलन है। यह पुस्तक दो खण्डों में बँटी है। विचार, सिद्धान्त, समाज, शास्त्र, सभ्यता, आस्था, अस्मिता, विवेक, आधुनिकता आदि की जाँच पड़ताल के जरिए
पहले खण्ड के दस निबन्धों में लेखक की बौद्धिक बेचैनी और सामाजिक चिन्ता व्यक्त
हुई है। तथा, दूसरे खण्ड के पाँच निबन्धों में से
पहला तो भक्ति संवेदना के शास्त्रीय और व्यावहारिक गुणसूत्रों की व्याख्या है, पर बाकी के चार निबन्धों के केन्द्र में
‘कबीर’ ही
हैं। ‘कबीर’ पुरुषोत्तम
के चिन्तन के प्रमुख विषय रहे हैं,
बल्कि सहायक भी। कोई
चाहे तो व्याख्या भी कर ले कि उनकी चिन्तन-मनन की पूरी पद्धति, पूरा व्यंग्य-वाण, पूरा संशोधनात्मक नकार और नवसृजन, नवस्थापन का साहसिक स्वीकार उनके
मानसलोक में कबीर-साहित्य के अनुशीलन के क्रम में ही उपजा होगा। दीगर बात है कि
पुरुषोत्तम ने उस नवांकुर को अपनी प्रतिभा, परिश्रम, अभ्यास और जीवन-दृष्टि के अभिसिंचन से
पुख्ता किया, पर इसका स्रोत वहीं है।
जैसा कि ऊपर कहा गया, कबीर
और कबीर साहित्य पुरुषोत्तम के जीवन और लेखन--दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण विषय हैं।
कुछ बरस पूर्व कबीर के पाठकों के लिए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘कबीर’ अलादीन
का चिराग या जादू की अँगूठी या बूढ़े की लाठी होती थी। बाद में जब साहित्य में
जातिवाद और आरक्षण का नया फैशन चला तो कुछ लोगों ने नए सिरे से कबीर की व्याख्या
शुरू की और कबीर पर फिर जाति,
सम्प्रदाय आदि की
दृष्टि से काम करने की आवश्यकता पड़ गई। इसी क्रम में कुछ अतिक्रान्तिकारी (?) लोगों ने भी कबीर पर लिख कर मसीहा होने
की चेष्टा भी की। छह सौवीं जयन्ती के अवसर पर विभिन्न सरकारी-गैरसरकारी आयोजनों
में भोज खाने वाले कई पुरोहित बहाल हुए। परन्तु, पुरुषोत्तम
उन सबमें अलग किस्म के व्याख्याकार हुए। अब तक जहाँ कहीं भी उन्होंने कबीर पर लिखा
या भाषण दिया है, वह सर्वथा सर्वभिन्न और सर्वनूतन और
अनूठा साबित हुआ है। इस पुस्तक में संकलित कबीरपरक चार निबन्ध वैसे ही स्वाद के
हैं, जहाँ न तो चूड़ान्त भक्ति है और न कोई
जातीय अथवा दलगत पूर्वाग्रह। सिर्फ कबीर का जनसम्बन्ध है, कबीर का साहित्य है और समाज के सन्दर्भ
में उसके औचित्य की व्याख्या है। जाहिर है कि इस पुस्तक में भी पुरुषोत्तम उन
विडम्बनाओं और विसंगतियों के अनुसन्धित्सु व्याख्याकार की भूमिका से अलग नहीं हैं।
‘कबीर को रहस्यवादी कहने की राजनीति’ निबन्ध में तो उन्होंने जिन विभिन्नताओं
का जिक्र किया है, वह न केवल साहित्यिक राजनीति की
पराकाष्ठा का द्योतक है बल्कि पुरुषोत्तम के स्पष्ट सोच और सूक्ष्म विश्लेषण तथा
बेलाग कथन शैली का परिचय भी है। कबीर के साहित्य में मानव मात्र के व्यक्तित्व और
अस्मिता की खोज की जैसी पद्धति यहाँ है, उनमें
वाकई कबीर की तरह ही किसी पाण्डित्य की गुंजाईश नहीं दिखती है।
पुस्तक के प्रारम्भ में ही लेखक ने लिखा है, ‘इन निबन्धों में मेरी चिन्ताएँ तो मौजूद
हैं ही, उन दिशाओं के संकेत भी हैं, जिनकी ओर खोजी मन दौड़ता रहा है। भक्ति
साहित्य को पढ़ने के ढंग की समस्या,
उन्नीसवीं सदी की
उलझनें, इक्कीसवीं सदी की सम्भावनाएँ, कल्पनाएँ और बीसवीं सदी में होते उल्सास
और सन्ताप।’ उल्लास और सन्ताप के इसी खींच-तान में
लेखक ने जो कुछ समाज में देखा,
उसे इसी तरह के
निबन्धों में व्याख्यायित करने की आवश्यकता थी, मजबूरी
भी। विडम्बनाओं का यह उत्कर्ष किसी अन्य विधा में शायद इतने आराम से आ नहीं पाता। ‘विचार का अनन्त’ निबन्ध अपने शीर्षक की ही विषद व्याख्या
की माँग करता है। किन्तु यदि इस निबन्ध की प्रश्नाकुलता और व्याकुलता मात्र ही
जीवन-प्रक्रिया के हजारों प्रश्न खड़े करतीे हैं। लेखक की यह प्रश्नाकुलता एक तरह
से एक सावधान जवाब भी है,
एक चेतावनी भी और एक
निर्णय भी। वह यह कि ‘विचार अब तक यदि आख्यानों के आरोपण का
माध्यम था, तो अब सम्भावना है कि वह संवाद का सेतु
बने। किसी प्रदत्त आख्यान के लिए नहीं, साझेदारी
पर आधारित बोध के लिए विचार की सम्भावनाएँ बाकी हैं--बावजूद आख्यानों के अन्त के!’
‘1857
और हिन्दी नवजागरण’,
‘साहित्य क्या है? एक बहुदेववादी उत्तर!’, ‘कला का स्वधर्म’, ‘इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर’ आदि निबन्धों में साहित्य, धर्म, मान्यता, अवधारणाएँ आदि राजनीतिक, कूटनीतिक, स्वार्थपरक
श्लील-अश्लील हरकतों पर नए तरह के विमर्श प्रस्तुत किए गए हैं।
ये तीनों पुस्तकें निश्चय ही ‘आलोचनात्मक
आयास’ की पटरी पर तैयार हुई हैं और इसीलिए
इनमें ‘सांस्कृतिक विवेक’ की आशा दिखती है। विचार के अनन्त की यदि
मुखबिरी की जा रही है,
तो उसके लिए सम्बल यही
आलोचनात्मक आयास है। यहाँ किसी वर्चस्व का भय नहीं है। जीवन को सहज, सरल, सुखमय
बनाने के लिए उपयुक्त हर आयास का स्वागत है। तीनो पुस्तकें सर्वथा एक ही शृंखला की
तीन कड़ियाँ साबित होती हैं।
संस्कृति और वर्चस्व, ने.बु.ट्र., संवाद, नई दिल्ली, अगस्त-2001
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