यह मौत शहादत हो जा सकती है
सोलह दिसम्बर 2012 की रात दिल्ली की सड़क पर चलती बस में सामूहिक बलात्कार की नृशंस घटना का शिकार बनी 23 वर्षीया युवती की दारुण मृत्यु के बाद 31.12.2012 को लिखी शोक संतप्त पंक्ति
एक शर्मनाक कहानी का पटाक्षेप हो गया। वर्ष 2012 का अन्तिम पखवाड़ा भारत देश के चेहरे पर
अनैतिकता की कालिख पोत गया। छह बदमाशों के गन्दे परवरिश ने संसार के सामने भारत
देश का सिर शर्म से झुका दिया। इस देश के किसी नागरिक को यह मानने में कोई दिक्कत
नहीं होगी कि नैतिकता और निष्ठा का सन्देश बाँटने वाले देश, भारत की छवि को इस तरह कलंकित करने वाले
ये राक्षस, किसी भी सूरत में अजमल कसाब से छोटे
अपराधी नहीं हैं। इस अपराध के लिए मृत्यु दण्ड अथवा कोई भी सावधिक दण्ड छोटा होगा।
सर्वाधिक उचित दण्ड तो उन्हें अपने हिस्से की जिन्दगी से अधिक जिलाना होगा। उन्हें
जिलाया जाए, और तड़पा-तड़पा कर जिलाया जाए, समय-समय पर उसकी तड़प को प्रचारित भी
किया जाए, ताकि उस तड़प की दहशत में लोग ऐसा काम
करने से बाज आए।
हैरतअंगेज है कि इस दौरान पूरे देश का नागरिक गम के सागर में
डूबा रहा, और इसी दौरान देश के विभिन्न हिस्सों से
बलात्कार की खबरें फिर-फिर आती रहीं। दो सप्ताह से देश की राजधानी दिल्ली का नागरिक
जीवन हैरान-परेशान और तंग-तबाह होता रहा; विभिन्न
राजनीतिक दलों ने उस युवती की खौफनाक मृत्यु के गंगाजल से अपने कलंकित दामन धोते
रहे; खूब नारे लगे, खूब प्रदर्शन हुए, राष्ट्रीय राजधानी परिसर के हर तबके के
नागरिक भावुकता में,
अथवा सोच-समझकर
विभिन्न प्रकार से अपनी पीड़ा का संकेत देते रहे; अपनी-अपनी
समझ के आधार पर फेसबुक पर लोग विचार-विचार खेलते रहे, पर क्या नागरिक जीवन का यह उद्वेलन
मास-पखवाड़े तक भी याद रखा जा सकेगा?
उपहार सिनेमा, निठारी, या
सरोजनी नगर, या करौलबाग आज कितनों को याद है? लोग इसे भी भूल जाएँगे। आखिरकार हम
विस्मृति के नायक जो हो चुके हैं।
भारतीय नागरिक की सहनशक्ति बड़ी मजबूत, और स्मरणशक्ति बहुत कमजोर है। आए दिन
राह चलती स्त्रियों,
दफ्तरों में काम करने
वाली स्त्रियों, घरों और खेतों में काम करने वाली
श्रमिक-स्त्रियों को बलात्कार का शिकार होना पड़ता है; यहाँ तक कि पारिवारिक रिश्तों में होने
वाले बलात्कारों की संख्या कहीं बलात्कार की दर्ज संख्या से अधिक है; पर वे सारी स्त्रियाँ रोजगार छिन जाने
के भय से, किसी दूसरी घिनौनी घटना का शिकार बन
जाने की आशंका से; धमकी से, आतंक
से, अथवा पारिवारिक इज्जत, मान-मर्यादा(?), लोक-लाज से विवश होकर उस अपमान के जहर
को पीती रहती हैं, कहीं मुँह नहीं खोलतीं। पुलिस, प्रशासन, शिक्षक, अभिभावक भी मामले को किनारे लगा लेते
हैं--चलो, आगे से सावधान रहना!...कभी उन्हें हिसाब
भी लगाना चाहिए कि बलात्कार का शिकार हुई कोई स्त्री अपनी एक ही जिन्दगी में
रोज-रोज और पल-पल कितनी-कितनी मौतें मरती है?
विडम्बना देखिए कि आज भी हम उस नृशंस घटना को ‘ताजा घटना’ कहने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि उसके बाद इस समाज में बलात्कार
की कई घटनाएँ हो चुकी हैं। और ऐसा उस दौरान हुआ जब पूरे देश का नागरिक परिदृश्य
बलात्कार के अपराधियों को कच्चा चबा जाने को आमादा था। इस सामूहिक बलात्कार से इतर
बलात्कार की घटना के शैतानों को इस बात का कोई भय था?
ऐसा क्यों होता है? आदिम
युग में भी ऐसी बर्वर और आपराधिक मनोवृत्ति वाले मनुष्य को चैन से जीते चले जाने
की छूट नहीं रहती होगी। आज हम भारत सरकार से माँग करते हैं कि उन अपराधियों को
मृत्यु दण्ड दिया जाए। कोई आश्वस्त कर सकता है कि उनकी मौत के बाद इस तरह की घटना
फिर कभी नहीं होगी?
आखिरकार क्यों हम
किसी हृदय विदारक घटना की ही प्रतीक्षा करते हैं? हम
तनिक जल्दी जगने का उद्यम क्यों नहीं करते? जिस
सामाजिक परिवेश में इन दुष्कर्मियों का चारित्रिक गठन और मानसिक विकास होता है, जिस पारिवारिक संस्कार में उसकी परवरिश
होती है, और जिस तरह की सामाजिक हैसियत निर्मित
करने की उसे प्रेरणा दी जाती है;
हमारा समाज क्या उस
पर कभी नहीं सोचेगा?
सबूत के साथ कहा जा सकता है कि इस दारुण और नृशंस घटना से पूरे
देश का नागरिक, खासकर दिल्ली का नागरिक जितना विचलित
हुआ है, अतीत में शायद ही कभी हुआ हो! लोगों को
इतनी शर्म और और इतना गुस्सा शायद ही कभी आया हो। पर क्या हम केवल गुस्सा दिखा
सकते हैं? धरना-प्रदर्शन, हो-हंगामा, चीख-चिल्लाहट मचा सकते हैं? सरकार से कहें कि समाज को सुधारो, खुद नहीं सुधार सकते? बलात्कार की चरम मनोवृत्ति तक पहुँचने
का आसुरी स्वभाव दरअसल आता कहाँ से है? मानसिक
अशिक्षा, दूषित परवरिश, अवैध कमाई और दण्ड विधान की अशक्यता ही
इस अनाचार की जननी है। घूसखोरी,
मिलावट, जुआबाजी, घपला, घोटाला, कालाबाजारी, सट्टेबाजी, तस्करी, राष्ट्रीय
गोपनीयता भंग करने की प्रवृत्ति,
प्राप्त शासकीय सत्ता
का दुरुपयोग...सभी अनाचारों के समेकित प्रभाव मनुष्य को अनैतिक बनने की जैसी
सुविधा देते जा रहे हैं,
उन्हें मिटाने के
प्रयास हमें ही तो करने होंगे।
नागरिक परिदृश्य में इस घिनौनी हरकत से इतना आक्रोश फैला कि
लोक-सत्ता ने राजसत्ता की नीन्द उड़ा दी। लोक-भय का ऐसा नजारा तो सम्भवतः इन
सत्तासीन भाग्यविधाताओं के जीवन में चुनाव के दिनों में भी नहीं आता होगा। पर
ध्यान देने की बात है कि इस देश का नागरिक लाठी के बल ही नैतिक होने की सिफारिश
क्यों करते हैं?
इस घटना के आरोपी को कोर्ट जो भी सजा दे, उस युवती की जिन्दगी वापस नहीं हो सकेगी, उसके रिश्तेदारों की पीड़ा कम नहीं हो
जाएगी। जनाक्रोश ने न केवल प्रशासन तन्त्र को नाक में दम कर दिया, बल्कि बीते दस दिनों से नागरिक जीवन भी
तंग-तबाह रहा। इस जनाक्रोश में केवल राजपथ और जनपथ पर जमा हुए स्त्री-पुरुष का
गुस्सा ही नहीं है,
दिल्ली के छोटे-छोटे
मुहल्लों में, और देश के अन्य गाँवों-कस्बों में भी
शान्ति-यात्रा कर लाखों लोगों ने इस नृशंसता का विरोध किया है, इसके साथ वैसे लोगों की तादाद भी बड़ी है
जिन्होंने इस तरह के किसी प्रदर्शन में तो भाग नहीं लिया, किन्तु इस घटना से शर्मसार हैं। पर क्या
वे सब के सब स्थायी तौर पर शर्मसार हुए हैं? यदि
हुए हैं तो उन सारे पुरुषों को प्रण करना चाहिए कि आज के बाद वे नैतिकता के सिपाही
बन जाएँगे, ताउम्र अपने परिवार और समाज को नैतिक
बनाने की चेष्टा करेंगे। और,
उन सारी स्त्रियों को
प्रण करना चाहिए कि वे अपने पिता,
पति, पुत्र, भाई
के किसी भी अनैतिक कार्य और उसके प्रतिफल को सहमति-स्वीकृति नहीं देंगी।...इतना भर
ही हो जाए, नए वर्ष की शुरुआत में देश के बस इतने
ही नागरिक इस प्रण पर अमल कर लें,
तो उन राक्षसों का
आहार बन गई उस युवती की मौत इस देश के लिए शहादत साबित हो जाएगी, और उनकी आत्मा की शान्ति के लिए बड़ी
श्रद्धांजलि होगी।
काश,
उसकी दारुण मौत भी
हमें मानवीय बना देती! अब भी हम ऐसा उद्यम करें तो भला हो?
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