Tuesday, March 17, 2020

प्राचीन वांग्मय : नई दृष्टि (अमरनाथ शुक्ल की पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति कथा कोश’)



प्राचीन वांग्मय : नई दृष्टि

 (अमरनाथ शुक्ल की पुस्तक भारतीय संस्कृति कथा कोश’)

मनुष्य जब अपनी सांस्कृतिक परम्परा और सभ्यता की विरासत से कटने लगता है, तो उसके विनाश का पहर नजदीक आया-सा प्रतीत होता है। चूँकि वह अपनी जड़ों से उखड़ा रहता है, इसलिए वह आधारहीन रहता है। आधारविहीन व्यक्ति शक्तिहीन होगा। फलतः उसमें असहिष्णुता और अधैर्य भर जाता है। नीति-अनीति का निर्णय-बोध उससे विलुप्त हो जाता है। और अनजाने में वह लगातार गलत दिशाओं में भटकता जाता है। ऐसे में मनुष्य को अपनी सभ्यता और संस्कृति का मूलाधार, उसका प्राचीन वांग्मय, उसे अपनी जड़ों से जोड़ता है, उसे उसकी भटकन से वापस लाकर अपना भूला हुआ घर दिखाता है। अमरनाथ शुक्ल की ताजा पुस्तक भारतीय संस्कृति कथा कोशऐसी ही कृति है, जो हमें अपने प्राचीन वांग्मय की धरोहरों से परिचय कराती है। आज भारतीय जनमानस से उसकी सांस्कृतिक विरासत विस्थापित हो रही है। वह लगातार पश्चिम के अन्धानुकरण में अपनी जड़ों से कटता जा रहा है। इस विपरीत परिस्थिति में यह पुस्तक निश्चय ही जनता को इस भटकाव से बचाएगी और उसे अपनी परम्परा की अच्छाइयों से जोड़ेगी।
इस पुस्तक में एक सौ पन्द्रह कथाएँ हैं। इन कथाओं का आधार मत्स्य पुराण, ऋग्वेद, महाभारत, बौद्ध जातक, विष्णु पुराण, रत्नकरण्डक श्रावकाचार, छान्दोग्य उपनिषद, आनन्द रामायण, केनोपनिषद, स्कन्द पुराण, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, अथर्ववेद, ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीमद्भागवत, शिवपुराण, कथासरित्सागर, आरण्यक, ब्राह्मण आदि हैं। लेकिन इस पुस्तक को हमारे इन प्राचीन वांग्मय का अनुवाद मात्र कहना उचित नहीं होगा। इसे बेशक इन आधार-ग्रन्थों का निचोड़ कहा जा सकता है। हिन्दी के प्रसिद्ध कथाशिल्पी कमलेश्वर ने सही कहा है कि शुक्लजी (अमरनाथ शुक्ल) ने वैदिक, पौराणिक विशाल ग्रन्थों का बहुत ही गहराई से अध्ययन कर ऐसे चरित्रों तथा कथा-सूत्रों को एक नई दृष्टि देते हुए इनमें लिया है जिनकी कहीं भी पुनरावृत्ति नहीं हुई है तथा आज भी जीवन के समसामयिक सन्दर्भों में इनकी उपयोगिता और महत्ता उतनी ही तीव्रता से अपेक्षित है। यह इनके गहन अध्ययन, चयन तथा अन्तर्दृष्टि का ही परिणाम है।
वस्तुतः आज हम जिस तरह की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति में जी रहे हैं, उसे पुराणों और मिथकों के बिम्बों के सहारे बहुत शानदार ढंग से व्याख्यायित किया जा सकता है। आज भी हमारे समाज में एकलव्य, कबीर, बुद्ध, भर्तृहरि, शकुन्तला आदि के जीवन की विडम्बनाएँ और संघर्ष मौजूद हैं; शान्तनु, परशुराम, ज्ञानेश्वर, कुमारिल भट्ट, कयाधू, अर्जुन, द्रोण का अन्तर्युद्ध आज भी हो रहा है; अन्धक, अहिरावण, कल्माषपाद, दुर्योधन की विवेकहीनता आज भी हमारी मानवता की बुनियाद उखाड़ रहा है-- यह पुस्तक पुराण-इतिहास और मिथक की इन सारी परिस्थितियों को आज के मानवों की जीवन-प्रक्रिया की तरह प्रस्तुत करती है।
इस पुस्तक के पुरोवाक् में लेखक अमरनाथ शुक्ल लिखते हैं कि मनुष्य किसी काल, किसी युग का रहा हो, उसके अन्दर की प्रवृत्तियाँ सदा एक जैसी रही हैं। मद, मोह, लोभ, माया, लिप्सा,...आस्था का संघर्ष उसमें अनवरत चलता रहा है।...अन्तःकरण की प्रवृत्तियों तथा जीवन-मूल्यों के संघर्ष को आज भी समस्त मानव जातियों के मध्य उसी प्रकार तीव्रता तथा संवेदना से देखा जा सकता है, जैसे वैदिक पौराणिक काल में था।यह उक्ति शत-प्रतिशत सच है। समय और नाम का परिवर्त्तन भले ही हो गया हो, कुछ भौतिक स्थितियाँ भी भले बदल गई हों, पर प्रवृतियाँ लगभग वही हैं। मद, मोह, माया, लिप्सा, ईष्र्या, द्वेष, पाखण्ड, अहंकार, दमन, शोषण, पराजय, हत्या, खून-खराबा, लूट-मार, अनैतिकता आदि...चतुर्दिक व्याप्त हैं। धन प्राप्ति, प्रभुत्व जमा करने की ललक, राजनीतिक श्रेष्ठता और सफलता की प्राप्ति में आज सारी नैतिकता ताख पर रख दी जाती है। पर इन्हीं अनाचारों और दुर्विचारों के बीच कहीं त्याग, परोपकार, अहिंसा, आस्था और नैतिकता की किरण भी फूट पड़ती है। भारतीय संस्कृति कथा कोशइस परिवेश में एक शुद्धिकरण अस्त्र की तरह उपस्थित है, जो आज के समाज को एक आलोकमय स्थिति प्रदान करने में सक्षम है।
भारतीय वांग्मय के विशाल भण्डार से चयनित, संकलित आज के समय के लिए उपयुक्त और विशिष्ट कथाओं की ऐसी पुनप्र्रस्तुति वाकई असाधारण उद्यम है। उक्त संकलन इस तरह के प्रयास का दूसरा भाग है। इसका पूर्वार्द्ध पहले ही प्रकाशित हो चुका है। उल्लेखनीय है कि इन प्रस्तुतियों में लेखक ने इन ग्रन्थों की कथाओं-उपकथाओं की पुनर्रचना की है और हर कथा के अन्त में एक छोटी-सी टिप्पणी भी दी है। यह टिप्पणी इन कथाओं को समकालीन यथार्थ से सम्बद्ध करने हेतु संयोजक का काम करता है। हमारे प्राचीन ग्रन्थ इस बात के साक्षी हैं कि उन कथाओं का आयत इतना विस्तृत है कि उनमें से छोटे-छोटे अंश निकालना और उन्हें इतनी छोटी काया में प्रस्तुत कर उन्हें स्वतन्त्र अस्मिता देना एक चुनौती भरा काम है। पर अमरनाथ शुक्ल ने इन चुनौतियों को स्वीकार करने और यह जोखिम उठाने का न केवल साहस किया है, बल्कि पूरी तरह वे सफल भी हुए हैं।
यह दीगर बात है कि इस कोश की कई कथाओं में संक्षिप्तता के कारण उसका कथा-तत्त्व आहत हो गया है और टिप्पणी तत्त्व प्रबल हो गया है। इच्छित आकार देने के क्रम में किसी कथाकृति के विकास को आहत करना उचित तो नहीं, पर जब मजबूरी हो तो वहाँ टिप्पणी ही उपयोगी होती है। यद्यपि यह कमेण्ट्री भी इतनी सशक्त है कि उसका सन्दर्भ और प्रवाह सुरक्षित रहा है। कबीर, बुद्ध, महावीर स्वामी, बोधिसत्व, रामानन्द प्रकरण जैसी कई कथाओं को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है।
इन कथाओं का एक उल्लेखनीय महत्त्व यह भी है कि अनादि काल से इनमें से कई प्रसंग हमारे यहाँ वाचिक परम्परा में किंवदन्तियाँ हो गए हैं। उनके मूल संस्कृत में होने के कारण और आम पाठकों का संस्कृत से जुड़ाव न होने के कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे प्रसंग अपने मौलिक स्वरूप से घिसते गए और उनमें कुछ अवान्तर बातें जुड़ती गईं। फलतः इस लम्बे अन्तराल में कई प्रसंगों के स्वरूप बदल गए हैं। भारतीय संस्कृति कथा कोशनामक यह पुस्तक फिर से हमारे समाज की नई पीढ़ी को उनकी विरासत का मूल स्वरूप वापस करती है और उन्हें अपने प्राचीन वांग्मय से गहरे तौर पर जुड़ने की प्रेरणा भी देती है।
इन विशेषताओं के अलावा इस पुस्तक का भाषाई पक्ष उल्लेखनीय है। सहज सम्पे्रषणीय, प्रवाहमयी, प्रभावमयी भाषा संरचना विशिष्ट एवं प्रशंसनीय है। वस्तुतः हमारे प्राचीन ग्रन्थ आज पुस्तकालयों और संग्रहालयों में सुरक्षित हो गए हैं। आम जनता तक वह भाषा पहुँच नहीं पाती। इस पुस्तक के सहारे वे ग्रन्थ और उनके ये प्रसंग शोधार्थियों के सन्दर्भ के लिए उपयोगी हो गए हैं। अमरनाथ शुक्ल ने इन्हें जनभाषा में प्रस्तुत कर आम जनता के लिए उपयोगी बनाया है। या कहें कि इन प्रसंगों को भाषाई कैदखाने से मुक्त कराया है और जनता के सामने एक बौद्धिक पाखण्ड का पर्दाफाश किया है। इस अर्थ में यह पुस्तक आज की जनता को विरासत से जोड़ने के उद्यम में भाषाई आन्दोलन के पुनरारम्भ की वकालत भी करती है।
 -हिन्दुस्तान (दैनिक, नई दिल्ली) 21 मई, 2000
भारतीय संस्कृति कथा कोश/अमरनाथ शुक्ल/शुभकामना प्रकाशन/पृ. 408/रु. 50.00

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