Tuesday, March 17, 2020

पत्थरों में भी जुबाँ होती हैं (निदा फाजली के नज्मों का संकलन ‘हमक़दम’)



पत्थरों में भी जुबाँ होती हैं 

(निदा फाजली के नज्मों का संकलन हमक़दम’)

निरक्षरता की तुलना में जहाँ उच्च शिक्षा अभिशाप दिखने लगे, मस्जिदों और मन्दिरों के आँगन से ज्यादा उदार वेश्याओं का कमरा दिखने लगे, ‘मस्जिद का गुम्बद सूनाऔर मन्दिर की घाटी खामोशदिखने लगे, हैवानों की हरकतें इन्सानों (?) की आदतों में शामिल दिखने लगे, अर्थात् समाज से मौलिकता और मानवता लुप्त हो जाए, पाखण्ड का साम्राज्य कायम हो जाए, उर्दू के प्रख्यात रचनाकार निदा फाजली का रचना-कर्म वहीं से प्रारम्भ होता है।
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे
अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर दिल हों मुम्किन है
हम तो उस दिन राए देंगे जिस दिन धोखा खाएँगे
शिक्षा और सूरत की ऊँचाई से आए पाखण्ड पर इतना बड़ा व्यंग्य, इतने कम शब्दों में स्पष्ट करने का दम-खम कम रचनाकारों में है। देश में आज सूरत और शिक्षा के सहारे जितना धोखा और षड्यन्त्र हो रहा है, उसे देखते हुए इसकी परिणतियों पर शायर की ये पंक्तियाँ बेवाक व्यंग्य करती हैं। बच्चों में निदा साहब दुनिया-जहान की सारी खुशियाँ, सारी खूबियाँ मौजूद पाते हैं। बच्चे देश के भविष्य हैंजैसे सरकारी नारे सही अर्थों में इन्हीं पंक्तियों में मौजूद हैं।
साहित्य अकादेमी सहित कई प्रान्तीय और केन्द्रीय पुरस्कारों से सम्मानित रचनाकार निदा फाजली की कुछ गजलों, कुछ दोहों, कुछ नज्मों और कुछ गीतों का संकलन हमक़दम’, इन्हीं बातों का प्रमाण है। उनकी शायरी पर टिप्पणी करते हुए इस चयन के संकलक आलोक श्रीवास्तव की धारणा उचित है कि मुहब्बत, नफरत, वफ़ा, बेरुखी, गम, खुशी, उलझनें, परेशानियाँ, ख्वाब, मंजिलें, रास्ते, मुश्किलें, दोस्त, हमक़दम, रिश्ते और जिन्दगी से जुडे़ ऐसे ही न जाने कितने मौजुओं को अपनी शायरी की आँखों से देखने का निदा साहब का नजरिया इतना पारदर्शी है कि आम आदमी भी उससे एक तरफ से दूसरी तरफ मीलों दूर तक देख सकता है।
हर प्रतिनिधि संकलन रचनाकार की बहुआयामी दृष्टि का उदाहरण होता है, बेशक यह संकलन भी। यह संकलन निश्चय ही आम पाठकों को निदा के रचना संसार को समग्रता से जानने की पे्ररित देगा। गरज यह नहीं कि इन्हें लोग जानते नहीं और यह संकलन निदा को आम जनता तक पहुँचाने की पैरवी है। निदा को लोग खूब जानते हैं,  यह जानना इनके फिल्मी गीतों के प्रभाव के कारण नहीं, रचनाओं की गुणवत्ता से जानते हैं। फिल्मी गायक यकीनन इस मुगालते में न रहें कि उन्होंने निदा के गीतों, नज्मों और गजलों को प्रतिष्ठा दी, बल्कि इन रचनाओं ने ही उन गायकों को प्रतिष्ठा दी है। अपनी पीढ़ी के सफल शायर निदा फाजली जिन्दगी की बड़ी सचाई को, बड़ी से बड़ी फिलॉस्फी को भी अपनी शायरी में इतनी सादगी से बयान करते हैं कि वो आला अदीब से लेकर ताजा-तरीन फूलों तक के दिलो-दिमाग पर नक्श हो जाती है।
उनकी रचनाओं की सादाबयानी और शब्दों तथा भावों के चयन प्रमाणित करते हैं कि वे पाखण्ड एवं पाण्डित्य से नफरत करते हैं और मानवीय सम्बन्धों तथा मानवता की सूक्ष्मतर स्थितियों से पे्रम करते हैं। जातीयता, साम्प्रदायिकता जैसी विकृतियों से उनका घृणा भाव मूर्त्त हो उठता है, जब वे लिखते हैं:
वो तवायफ
कई मर्दों को पहचानती है
शायद इसलिए
दुनिया को ज्यादा जानती है
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उसके कमरे में
हर मजबह के भगवान की
एक-एक तस्वीर लटकी है
ये तस्वीरें लीडरों की तक्रीरों की तरह नुमाइशी नहीं
उसका दरवाजा
रात गए तक
हिन्दू
मुस्लिम
सिख
ईसाई
हर जात के आदमी के लिए खुला रहता है
खुदा जाने
उसके कमरे की सी सादगी
मस्जिदों
और
मन्दिरों के आँगन में कब पैदा होगी
सादगी और सादाबयानी का ऐसा क्रम कम मिलता है कि उर्दू अदब से, फारसी लफ्जों से अपरिचित पाठकों के दिल में उनकी शायरी हू-ब-हू उतर जाए। उनकी रचनाओं को उर्दू की रचना कहने की आवश्यकता हो, तो वह सिर्फ लिपि के कारण कहा जाएगा। उनकी रचनाएँ इस बात का प्रमाण है कि भाषा की सीमा-सरहद किसी रचनाकार को बाँध कर नहीं रख सकती। निदा एकदम से शुद्ध भारतीय मानस के भारतीय रचनाकार हैं जो जन सामान्य के लिए लिखते हैं, किसी खास भाषा या जाति के लिए नहीं। उनकी रचनाएँ बार-बार कबीर और नागार्जुन की याद दिलाती रहती है कि इस दुनिया में आम जनता के लिए जो कुछ हित-भाव की चीजें हैं, केवल वही रहनी चाहिए, इसके अलावा यदि कुछ है, तो वह यहाँ नहीं रहनी चाहिए। यदि वेश्याओं के कोठों पर उदारता और समदर्शी भाव है, तो वह मन्दिरों और मस्जिदों में भी होनी चाहिए।
किसी शहर में अमाँ नहीं है,
अयोधिया अब कहाँ नहीं है
या
ये शैखो-बिरहमन हमें अच्छे नहीं लगते,
हम जितने हैं ये उतने भी सच्चे नहीं लगते
ऐसे ही गली-कूचे में बस्ती है हमारी,
बचपन में भी बच्चे जहाँ बच्चे नहीं लगते
ऐसी पंक्तियाँ कहते समय निदा को कितनी पीड़ा हुई होगी, इसका अन्दाज आज के राजनीतिक पण्डे और मुल्ले तथा धर्म के दलाल कैसे समझ पाएँगे?
आज साहित्य सृजन की जो परम्परा चल पड़ी है, उसमें चीखने-चिल्लाने की हरकतें कुछ ज्यादा ही होने लगी हैं। पर निदा की शायरी कबीर और नागार्जुन की तरह यह प्रमाणित करती है कि भाषा की अपनी ताकत ही इतनी प्रबल होती है कि वह बिना चीखे-चिल्लाए सब कुछ कह देती है। उसकी अपनी ध्वनि इतनी तीक्ष्ण होती है कि उसमें अलग से डाली गई आवाज उसकी धार को कुन्द ही करती है।
धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
जिन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो।
पत्थरों में भी जुबाँ होती है दिल होते हैं
अपने घर के दरो-दीवार सजाकर देखो।
निदा की शायरी का यही अन्दाज और भावनाओं का यही वजन उन्हें महान, किन्तु सहज और सरल बनाता है। उनकी रचनाओं का यही स्तर और यही तेवर प्रमाणित करता है कि रचनाकर्म की गरिष्ठता और पाण्डित्य (?) का प्रदर्शन साहित्य को आम जनता से दूर ले जाता है। ऊपर जब निदा को पढ़ते हुए कबीर और नागार्जुन की याद आने की बात की गई, तो वह इसीलिए कि वहाँ भी और यहाँ भी जो बातें की गई हैं, वे कोई किताबी ज्ञान के सहारे नहीं। आज किताबी ज्ञान के आडम्बर में यदि सबसे ज्यादा कुछ आहत हुआ है या हुई है, तो वह है मनुष्यता, मानवीय सम्बन्ध, भावनाएँ और जीवन मूल्य की सहजता।
कबीर ने जब कहा किपोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पण्डित भया न कोइ। ढाई आखर पे्रम का पढ़े सो पण्डित होइतो शायद यही बातें उनके मन में रही होंगी। कबीर का, या कि निदा का किताबों के बारे ऐसा कहने का मतलब किताबों से उनकी विरक्ति नहीं है। निहित भाव यह है कि जीवन की सहजता को किताबी ज्ञान का जो आडम्बर खण्डित करता है, उससे हमारा बचना बहुत जरूरी है। बच्चों की सहजता को, यानी जीवन की सहजता को किताबों से नहीं, किताबों के जरिए आए पाखण्ड से बचाना चाहिए।
धूप, चिड़िया, सूरज, मिट्टी, नदी, फूल, तितली, हवा, अमाँ, आकाश, धरती, ओस, सुबह, पर्वत, चाँद, सितारे, ख्वाब आदि बिम्बों के सहारे निदा ने जिन खुशनुमा स्थितियों को चित्रित किया है, उसे समझने के लिए किसी शास्त्रीय ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। समस्त भारतीय भाषाओं के फलक को ध्यान में रखकर यदि गणना की जाए तो निदा उन थोडे़ से रचनाकारों में से हैं, जो अपनी कृति को अबूझ पहेली नहीं बनाना चाहते, उनकी कृतियाँ किसी आलोचक अथवा टीकाकार के मोहताज नहीं रहती, इनमें मानव जीवन की इच्छा-आकांक्षा, हर्ष-विषाद, राग-विराग, ईष्र्या-द्वेष, पे्रम-घृणा ज्यों का त्यों दर्ज है और वे जिन पाठकों के लिए लिखी गई हैं उन तक उसी घनत्व के साथ पहुँचती हैं, जिस घनत्व के साथ निदा ने उसे इस समाज से उठाया है। अर्थात्, निदा अपने परिवेश से उठाई गई बातें, आम जनता की जुबान में, उन्हीं की शब्दावलियों में जस का तस रख देते हैं। उनकी रचनाओं के श्रोता-पाठक, चाहे वे सिनेमा के गीतों के मनचले हों, साहित्य के शोधकत्र्ता, मानवीय दर्शन के व्याख्याता हों--कोई फर्क नहीं पड़ता, वे रचनाएँ उन तक अपने पूरे वजूद के साथ पहुँचती हैं और उसके बाद वे श्रोता-पाठक यह सोचने को मजबूर होते हैं कि वाकई निश्छलता और पूर्वाग्रह से विरक्ति बड़ी चीज होती है।
निदा की रचनाएँ, चाहे वे जीवन-यथार्थ की खूबियों-खामियों की सूक्ष्मताओं का चित्रण हों या पे्रम और प्रणय निवेदन की प्रस्तुति हों, जीवन-दर्शन का स्तर कमतर नहीं होता। उनके यहाँ जितनी सहजता से जितनी ऊँची बात की गई है, वह भारतीय साहित्य में कम रचनाकारों के यहाँ दिखती हैं। यहाँ तक कि सिनेमा के लिए लिखे गए उनके गीत भी अपनी ऊँचाई से नीचे नहीं आते। आज जब विखण्डनवाद के इस माहौल में सब कुछ बाजार और व्यापारीकरण में आकर सिमट गया है, बड़े बडे़ साहित्यिक सूरमा फिल्म-निर्माताओं और निर्देशकों के इशारे पर अपना मुँह काला, हाथ टेढ़ा और कलम को अपाहिज बना चुके हैं, निदा ऐसे समय में भी इन खतरों से जूझते हुए अपनी जमीन और अपनी ज़मीर पर काबि़ज हैं।
जीवन शोर भरा सन्नाटा’, ‘तुझ बिन मुझको कैसे-कैसे छेड़े काली रात’, ‘भाग रही हैं काली रातें, दौड़ रहे हैं दिन, बदला पल-पल मंजर रे’, ‘बादल मेरे गाँव भी आओ, चौपालों पर कथा सुनाओ’...जैसी पंक्तियों के साथ जो गीत लिखे गए हैं, उन गीतों में यह तलाशना बड़ा सहज है कि जीवन की सचाइयों का उत्कर्ष यहाँ पर अपने पूरे दम-खम के साथ है।
हम्दऔर रोशनी के फरिश्ते’--दोनों कविताओं में जीवन का जो सच दिखता है, उसका बयान किया जाना मुश्किल है, इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। अल्ला मियाँसे शायर की प्रार्थना या अल्ला मियाँको शायर का आदेश दिया जाना कि बच्चों का गेन्द बनकर आए, टूटे और गीले छप्पर को सूरज बनकर सुखाए...शायर को भारत की अधिसंख्य जनता के दुख-दर्द का शागिर्द बनाता प्रस्तुत करता है। चूँकि बच्चे स्कूल जा रहे हैंइसलिए निदा आकाश, सूरज, सब्ज डालियाँ, फरिश्ते, कबूतर, पेड़-पौधे...सारी की सारी दुनिया को प्रसन्न और इन बच्चों की प्रसन्नता, में संलग्न देख रहे हैं। यह प्रसन्नता निदा की नजर का दोष नहीं हैं। यह सही है कि सौन्दर्य वस्तु में नहीं आँख में होता है। निदा ने इस प्रसन्नता के सहारे भारत के भविष्य के प्रति एक बड़ी आस्था जाहिर की है। जहाँ के बच्चों की प्रसन्नता और बढ़ने, प्रगति करने को इतने महत्त्व के साथ लिया जाएगा, वहाँ एक अच्छे माहौल की कल्पना की जा सकेगी। वहाँ फिर शहर-शहर में अयोधियानहीं होगा, हर जगह अमाँहोगा। अभी तो हालात ये हैं किः
चिड़िया ने उड़कर कहा, ‘मेरा है आकाश’,
बोला शिकरा डाल से, ‘ऐसा होता काश
लेकिन इतना तय है कि यदि निदा की शायरी को कायदे से समझा गया, तो ऐसा ही होगा।
पत्थरों में भी जुबान होती हैं, साक्षात्कार, भोपाल, जुलाई 2000
हमक़दम/निदाफाज़ली/आलोक श्रीवास्तव(सं.)/रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा, मध्यप्रदेश
रु. : 170.00/पृ.160

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