आलोचना की जटिलता
(मदन सोनी का आलोचनात्मक निबन्ध संग्रह 'उत्प्रेक्षा')
उत्प्रेक्षा मदन सोनी के आलोचनात्मक निबन्धों का ताजा संग्रह
है। इससे पूर्व इनकी तीन आलोचनात्मक कृतियाँ प्रकाशित हैं। हिन्दी आलोचक के रूप
में मदन सोनी एक चर्चित नाम है। नई पीढ़ी के समालोचक के रूप में उन्हें देवी शंकर
अवस्थी सम्मान से सम्मानित किया गया। इस पुस्तक के फ्लैप पर उन्हें साहित्य से
गहरी और समझदार आसक्ति का एक उजला नाम कहा गया है। स्थापना दी गई है कि मदन सोनी
की आलोचना में हमेशा कुछ नया खोजने और कुछ विचारोत्तेजक जानने-पाने का अवसर मिलता
है। पुस्तक की भूमिका में चर्चित कवि प्रभात त्रिपाठी ने लिखा है कि मदन ने हिन्दी
भाषा को साहित्य समीक्षा की एक ऐसी पदावली देने की कोशिश की है, जिसमें पूर्वी (संस्कृत) और पश्चिमी
विचारों की टकराहट की श्लिष्ट और सार्थक अनुगूँजें हैं।
इस पुस्तक की समीक्षा करते समय समीक्षक को चार-चार
परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है--अशोक वाजपेयी द्वारा फ्लैप पर घोषित
मान्यता, प्रभात त्रिपाठी द्वारा लिखी गई भूमिका, लेखक द्वारा जारी भारी-भरकम प्राक्कथन, और अन्त में मूल पाठ का अवगाहन। मैं
समझता हूँ कि किसी किताब को पाठकों के हाथ भेजने से पूर्व इतने घटाटोप की तैयारी
बहुत कारगर नहीं होती। वास्तविक समीक्षक जो कोई होंगे, उन पर इन घोषणाओं का कोई असर नहीं हो
सकता। हद से हद वे लेखक की घोषणा की कसौटी पर उनके आलेखों की परख कर सकेंगे।
अन्ततः लेखक के निबन्ध ही उनके मूल्यांकन का निर्णायक आधार होगा। वैसे तो विडम्बना
ही है कि साठ को छूने को तैयार मदन सोनी, जो
अब अपनी तरह के आलोचनात्मक निबन्ध लिखने के लिए ख्यात हो चुके हैं, हिन्दी में उन्हें नए आलोचकों में गिना
जाता है।
वैसे हिन्दी आलोचना अब जिस मुकाम पर पहुँच गई है, किसी भी आलोचक की नवीनता और प्राचीनता, उनकी उम्र से नहीं, उनकी आलोचनात्मक दृष्टि से तय की जाएगी
कि वह कितनी नई, उदार और भारतीय समाज सापेक्ष है। हिन्दी
में एक से एक विचारक हैं जो जरावस्था में भी नवीनतम दृष्टि रख रहे हैं और
युवावस्था में भी जड़स्थ और रूढ़िग्रस्त औजार से अपना काम चला रहे हैं।
इस पुस्तक पर समीक्षात्मक दृष्टि डालते हुए बात निकलती है कि
नए समय का एक नया आलोचक पुराने आलोचनात्मक औजारों से, थके हुए शब्दों के सहारे आधुनिक भारतीय
साहित्य के विराट अतीत को जहाँ-तहाँ से टो रहे हैं। समय-समय पर लिखे फुटकर
निबन्धों के इस संकलन को किताब की शक्ल देते समय लेखक द्वारा निबन्धों में कोई
सम्बन्ध सूत्र बैठाने की फुरसत नहीं निकाली जा सकी। रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचन्द, अज्ञेय, वागीश
शुक्ल, अरुन्धती राय, अशोक वाजपेयी, रमेश चन्द्र शाह, कबीर, गगन
गिल, कृष्ण बलदेव वैद, विनोद कुमार शुक्ल, स्त्री विमर्श, एड्स...सारे विषय-खण्डों को जोड़कर पूरी
किताब की एकसूत्रता देने की यह जी-तोड़ कोशिश है। निबन्धों को चमत्कारिक पदबन्धों
के शीर्षक से मूर्त्त-अमूर्त्त करने की पुरजोर कोशिश करने वाली इस पुस्तक के आलेख
में पूर्वी-पश्चिमी विचारों की टकराहट से उत्पन्न पदावली जितनी भी दी गई हो, पर इतना तय है कि इस पुस्तक के पाठक को
हरदम एक टीकाकार की आवश्यकता होगी। अशोक वाजपेयी की कविता पर लिखते हुए मदन कहते
हैं, ‘हम अगर पिछले चालीसेक वर्ष की कविता के
सन्दर्भ में किंचित सत्ता मीमांसात्मक-सा सामान्यीकरण करते हुए ऐसे दो ध्रुवों की
कल्पना करें जिनमें से एक को प्रतिबद्धता का (यथार्थवादी) और दूसरे की अतिक्रामिता
का ध्रुव कहा जा सके तो अशोक वाजपेयी की कविता की (और कुल मिलाकर उनके
साहित्य-विमर्श से उभरती दृष्टि की भी) स्थिति इन धु्रवों के सन्दर्भ में दिलचस्प
ढंग से मध्यवर्ती की ठहरती है।’...कहा नहीं जा सकता कि इस तरह की स्थापना
किस कोटि के पाठकों के लिए दी गई है। आलोचना को रचना का शेषांश कहा गया है। गत
तीन-चार दशकों में हिन्दी आलोचना के औजार जितने भी आधुनिक हो गए हों, उसकी शब्दावली इतनी धारदार, प्रवाहमय, स्पष्ट, सहज, बोधगम्य, जनपदीय, लयात्मक
और असरदार अवश्य हो गई है कि आम पाठक भी उसके करीब आ गए हैं। कविताओं के
बिम्ब-प्रतीक आलोचक खोलते हैं,
तो आम पाठकों की नजर
में कविता, अथवा अन्य सृजनात्मक कृतियों की व्यंजना
खुलकर सामने आती है;
अब आलोचना के
बिम्ब-प्रतीक और उसकी जटिलता-रहस्यात्मकता कौन खोले?
इस तरह के फुुटकर निबन्धों को जमा कर, योजनाविहीन ढंग से प्रकाशित निबन्ध
संग्रहों की इन दिनों हिन्दी में कोई कमी नहीं है। साल-दो-साल तक लिखी गई
पुस्तक-समीक्षाओं और विविध विषयों पर की गई टिप्पणियों को एकत्र कर हिन्दी में थोक
के भाव से पुस्तकें छपने लगी हैं। पाठक पढ़ता है, ज्ञान
हासिल करने के लिए। लेकिन,
आलोचक यदि पाठकों के
ज्ञान की परीक्षा लेने लगें तो पुस्तक-प्र्रेम के भविष्य का क्या होगा--यह एक
विचारणीय प्रश्न बन गया है।
इस संकलन में भारतीय भाषाओं के जिन ख्यात रचनाकारों की रचना
प्रक्रिया और उनकी चर्चित कृतियों पर निबन्ध लिखे गए हैं, उनमें कोई एकसूत्रता बैठाई गई होती, और हिन्दी आलोचना की भाषा के
समाजशास्त्र की चिन्ता रखी गई होती,
तो सम्भव है कि
पाठकों के लिए यह एक जरूरी किताब बन पाती। खेद है कि ऐसा हो नहीं सका।
कमजोर आलोचना का उदाहरण, इण्डिया टुडे, नई दिल्ली, मार्च 2009
उत्प्रेक्षा/मदन सोनी/2007/सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर/पृ. 200.00/रु. 250.00
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