Tuesday, March 17, 2020

खुल जा सिमसिम (देवकी नन्दन गौतम का नाटक ‘खुल जा सिमसिम’)



खुल जा सिमसिम  

(देवकी नन्दन गौतम का नाटक खुल जा सिमसिम’)

हिन्दी में नाटक, एकांकी या नुक्कड़ नाटक की प्राचीन परिपाटी है। आधुनिक तेवर और समकालीन यथार्थ से परिपूर्ण नाटक के आँकड़े सम्पन्न हैं। अपनी गुणवत्ता के लिए कई नाटक, मंचन और अवगाहन--दोनो दृष्टियों से विशिष्ट साबित हुए हैं। नाटकों को इस तेवर में लाने और आम जनता के बीच आकर्षण का केन्द्र बनाने में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के रंगकर्म से जुड़ी सरकारी, गैरसरकारी संस्थाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसके बावजूद हिन्दी की अन्य विधाओं जैसा उत्कर्ष नाटक के विषय एवं शिल्प में नहीं आया। देवकी नन्दन गौतम का ताजा नाटक खुल जा सिमसिमभी शिल्प के स्तर पर इसका अपवाद नहीं है। कहना चाहिए कि रचना-कौशल बेहतर प्रयुक्ति एवं विषय तराशने की कला के अभाव में एक शानदार विषय स्तरीय नहीं बन पाया। देश में नुक्कड़ नाटक करने और लिखनेवाली ऐसी कई संस्थाएँ और कई नाटककार हैं, जो गौतम की तरह ही कभी आतंकवाद का मानवीकरण कर देते हैं, कभी झूठ को, कभी मक्काड़ी को। मेरे विचार से नाटककारों को अब यह समझने की बहुत अधिक आवश्यकता है कि अमूर्त्त और निर्जीव के मानवीकरण की परम्परा हिन्दी में बहुत पीछे छूट गई है, इतना पीछे की आज के तेवर में लिखे जानेवाले नाटकों के पास उसकी चीख तक नहीं पहुँच सकती।
देश में फैले भ्रष्टाचार, अनीति, मुद्रा अवमूल्यन, डॉलर का प्रभाव, विश्व बैंक के कर्ज, भारत के मौलिक उत्पादनों का पेटेण्टीकरण, घोटाले, घपले, बुद्धिजीवियों की दुर्दशा, सत्य और निष्ठा की अवहेलना...अनेक ज्वलन्त मसलों को देवकीनन्दन गौतम ने अपने लेखन का विषय बनाया है। समाज में फैली बहुआयामी विकृतियों को व्यंग्यात्मक में यहाँ इस तरह उकेरा कि यह नाटक विडम्बनाओं, विसंगतियों, व्यभिचारों एवं अराजकताओं का कोलाज जैसा प्रतीत होता है। यहाँ हर दृश्य का स्वतन्त्र अस्तित्व है, पूर्वकथा और उत्तरकथा की इसमें कोई महत्ता नहीं दी गई है, विषय की विशृंखता ही इसका वैशिष्ट्य है, कथावस्तु की एकसूत्रता की कोई जरूरत भावकों को नहीं दिखती। दृश्यों विषय इतने ज्वलन्त हैं कि कथात्मक एकसूत्रता का प्रयोजन नहीं दिखता। किन्तु बिना नमक डाली सब्जी तरह, सारी खूबियों के बावजूद यह नाटक अपना उत्कर्ष साबित नहीं कर पाया है।
इस विषय पर, इस शैली में तो अब व्यंग्य भी नहीं लिखा जा सकता। मानवीकरण के बजाय, इसी व्यंग्यात्मक तेवर में यदि भ्रष्टाचार, सत्यनिष्ठा आदि का किसी पात्र में आरोपण किया गया होता; संविधान, आजादी, लोकतन्त्र, रुपए, रुपए के माँ-बाप, निर्यात आदि का मानवीकरण न कर उन दशाओं का चित्रण मानवीय आचरणों में किया गया होता, तो सम्भवतः इस नाटक की प्रभावान्विति में चार चाँद लग जाते। विश्व स्तर की राजनीतिक और मानवीय दूरदर्शिता का जितना विराट स्वरूप यहाँ दिखता है, उसके आधार पर मन में एक टीस-सी उठती है--आह! यह क्या कर दिया नाटककार ने? थोड़ा इन्तजार क्यों नहीं किया? इस विषय को अपनी रचनाधर्मिता के भिन्न-भिन्न पात्रों में कुछ और क्यों नहीं फेंटा? कितनी बड़ी चीज होनी थी इसे? अमरीकी साम्राज्यवादियों ने विश्व बन्धुत्व को जो नाटक बना रखा है और वित्तीय सहायता देने के नाम पर औपनिवेशिक राष्ट्रों को जिस तरह अपने जाल में फँसा रखा है, यह नाटक खुल जा सिमसिमउसी के काले चेहरे को उजागर करता है। पुस्तक के आच्छादप पृष्ठ पर सही लिखा गया है कि साम्राज्यपरस्त रवैए के यथार्थ को उजागर करने और सांस्कृतिक तथा राजनीतिक स्तर पर आई गिरावट का भण्डा फोड़ने का व्यंग्यात्मक नाटक--खुल जा सिमसिम--न सिर्फ गुदगुदाने का काम करता है अपितु विवेकवान व्यक्ति को सोचने पर भी विवश करता है।कहावत भी है कि साँडों की लड़ाई में घास की दुर्गति होती है। इधर के कुछ वर्षों में साम्राज्यवाद के इस मानवेतर रवैए और भारतीय व्यवस्था में शरीक राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, पूँजीपतियों के अर्थलोलुप आचरण ने भारत की सांस्कृतिक और पारम्परिक मूल्यों की जिस बेरहमी से हत्या की है और भारत की जनता के मनोद्रेक का जितना अपमान किया है, वह इतिहास के पन्ने पर काले पृष्ठ के नाम से जाना जाएगा, पर इतना कुछ हो जाने के बावजूद भारत के रहनुमाओं की नजर खुल नहीं रही है।
सूत्रधार द्वारा विषय प्रवेश की उद्घोषणा के पश्चात दो संन्यासी गीत गाते हुए प्रवेश करते हैं, गीत का विषय फिर वही देश-दशा है। दो व्यक्ति इन्हें देखकर टीका-टिप्पणी करते हैं, बाद में वही संन्यासी उस्ताद-जमूरे बनकर देश-दशा का खेल दिखाने लगते हैं। यदि रूपक में ग्रहण करें, तो वाकई यह देश जिस हिसाब से चल रहा है, वह सही अर्थों में उस्ताद-जमूरे का खेल है, और यहाँ जनता को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करने का खेल दिखाया जा रहा है। इसी खेल में आगे के कई दृश्यों तक कभी भ्रष्टाचार वन्दना, सत्यनिष्ठा की उपेक्षा की जाती है, कभी जंगल में चुनाव कराया जाता है, कभी रुपयों के अवमूल्यन और निर्यात की स्थिति पर फबती कसी जाती है, कभी पेटेण्ट करने की परम्परा पर बात होती है, कभी स्वामी अश्रद्धालु की बात तो कभी दो संन्यासियों के तर्क-वितर्क आदि-आदि तरीके से नाटक में देश की दुरवस्थाओं का चित्रण हुआ है।
इन दुरवस्थाओं के चित्रण का मूलधर्म व्यंग्य है, पर तत्काल हास्य की स्थिति उत्पन्न होती है। यह स्थिति एक अच्छी बात का संकेत देती है कि हास्य के कारण प्रस्तुति फूहड़ न हो और व्यंग्य के कारण विषय बोझिल न हो, मामला सन्तुलित रहे। पर सम्पूर्णता में इस नाटक का सबसे बड़ा दोष यही है कि मानवीकरण की अचिन्तित पद्धति ने जबरन इसे एक स्तरीय नाटक नहीं होने दिया। बहरहाल, साम्राज्यवादी दुष्कर्म एवं मरी मक्खी देखकर भी दूध के गिलास गटकनेवाले औपनिवेशिक राष्ट्र की दुर्वृत्ति पहचानने में यह पुस्तक सहयोग अवश्य करेगी।
-खुल जा सिमसिम/देवकी नन्दन गौतम/प्रकाशन संस्थान/पृ. 112/रु. 100.00

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