आइने के सामने खड़े लोग
रमेश नायडू के निर्देशन में ‘बहुरूपिया’ नाटक की प्रस्तुति
अच्छे नाटक के अभाव में, एक
ही लेखक की अनेक अच्छी कहानियों को जोड़कर अथवा अनेक लेखकों की अच्छी-अच्छी
कहानियों को जोड़कर नाटक तैयार करने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है। प्रेमचन्द
अथवा अन्य अच्छे-अच्छे लेखकों की कहानियों से पिछले दिनों नाटक की पटकथा तैयार की
जाती रही है। परिधि आर्ट ग्रुप द्वारा पिछले दिनों रमेश नायडू के निर्देशन में ‘बहुरूपिया’ की प्रस्तुति इसी परम्परा की अगली कड़ी
है।
‘तोताराम
की आत्मकथा’ (शैलेन्द्र सागर), ‘कालू की चिट्ठी’ (लक्ष्मीकान्त), ‘दीक्षान्त समारोह’ (हरिशंकर परसाई) तथा ‘मोटे राम की डायरी’ (प्रेमचन्द)--इन चारों कहानियों को जोड़कर
एकल अभिनय के साथ प्रस्तुत किया गया यह नाटक समाज की उन अराजक स्थितियों का नंगा
दृश्य है, जो सामान्य जनता के लिए अभिशाप बनी हुई
है। यहाँ यह अभिनेता,
अभिनय नहीं करता, बल्कि इन चारो कहानियों में आए चार
अलग-अलग वीभत्स चरित्रवाले लोगों के प्रतिनिधि के रूप में खुद को प्रस्तुत करता है, अपनी चरित्र-भ्रष्टता को गर्व से गाता
है। नायक की यही स्वीकारोक्ति यहाँ व्यंग्य उत्पन्न करती है और दर्शक आश्चर्यचकित
होते रहते हैं।
एक ही पात्र अपने अनेक रूपों में दर्शक के समक्ष आकर ‘बहरूपिया’ नाम
को सार्थक करता है। पूरे नाटक की प्रस्तुति में पौने दो घण्टे तक एक ही पात्र
दर्शक के सामने रहता है। फिर भी दर्शकों पर एकरसता के कारण कोई ऊब नहीं उपजती है।
अभिनेता, आवाज और अभिनय बदल-बदल कर न केवल दर्शक
की एकरसता दूर करते हैं,
बल्कि नाटक में सहजता
भी लाते हैं।
इन चारों चरित्रों को प्रस्तुत करने में प्रस्तोता ने ऐसा एक
क्रम बनाया है, जिसका क्रमशः विस्तार होता जाता है।
सबसे पहले आता है, साठ-पैंसठ वर्ष की आयु का तोता राम, जो अपनी पूरी गृहस्थी का सारांश सुनाता
हुआ, नाटक के संवाद को सरकारी धन की चोरी, नायायज धन कमाने के हथकण्डे और जनसंख्या
वृद्धि के मौलिक कारण की ओर केन्द्रित करता है। एक मोटर गैरेज में काम करते-करते
डी.टी.सी. में नौकरी पाता है और वहाँ से पूरे परिवहन-तन्त्र की दुःस्थितियों को
प्रस्तुत करता अपनी आत्मकथा खत्म कर लेता है।
नाटक का दूसरा अंश कुछ बड़े फलक के साथ प्रस्तुत होता है। एक
निरक्षर मिनिस्टर का साला,
‘कालू’ अपनी देहाती बहन को चिट्ठी लिखकर अपने
जीजा की ठाठ-बाट की सूचना देता है। यहाँ कथ्य, निम्न
तबके के कर्मचारियों की चोरी से निकलकर उसे दिशा देने वाले तन्त्र में आ जाता है।
चिट्ठी के पूरे मजमून को पूर्ण नाटकीयता देते हुए, एक
चमचा के रूप में कालू अपने जीजा की सारी अवस्थाओं को प्रस्तुत करता है। यहाँ
राजनीतिक अराजकता पर पूरी तरह रोशनी दी जाती है। जनतान्त्रिक प्रणाली की निरीह
अवस्था को व्यंग्यात्मक स्वरूप में प्रस्तुत किया है, जिसमें दर्शन को चकित करनेवाली
कलात्मकता भी है और मर्माहत करने वाली खरोंच भी। एक मूर्ख आदमी मन्त्री की कुर्सी
पर बैठकर किस तरह प्रतिभाशाली अफसरों के सर चढ़कर बोलता है, राजनीति के चकाचौंध भरे माहौल में आकर
कैसे लोग अपना अतीत भूलने का प्रयास करते हैं, इन
सारी स्थितियों को एक चिट्ठी के बहाने, सफलतापूर्वक
प्रस्तुत कर कालू अपनी चिट्ठी बन्द करते हैं।
तीसरे भाग में कथ्य का फलक थोड़ा और बढ़ता है। यहाँ नेता स्वयं
प्रस्तुत होते हैं। ‘दीक्षान्त समारोह’ में विश्वविद्यालय के छात्रों को भाषण
देते हुए, अपने चरित्र का कच्चा चिट्ठा स्वयं
प्रस्तुत करते हैं। देश को गर्त में ले जाने की और अपनी कुर्सी बचाने की सारी
योजनाएँ दर्शक के सामने प्रस्तुत करते हैं।
नाटक के अन्तिम अंश में डायरी और डेरी फार्म के बारे में
कन्फ्यूज्ड एक ब्राह्मण सामने आता है, जो
यह स्वीकारता है कि वह अपने यजमानों को ठग रहा है, लेकिन
यह भी महसूस करता है कि यजमान स्वयं ठगे जाना चाहते हैं। धर्मभीरुता, धर्मान्धता बड़े-बड़े बुद्धिजीवी को मूर्ख
और अन्धा बना देती है।
पूरे नाटक के चारों दृश्यों में नायक के आन्तरिक चरित्र को
मुखरित किया गया है। कथा चयन का यह कौशल, प्रस्तोता
का प्रशंसनीय गुण है। जरूरत पड़ने पर दूसरों के संवाद को प्रस्तुत करने के लिए
अभिनेता कभी नेपथ्य ध्वनि की मदद नहीं लेते, स्वयं
आवाज और अभिनय बदलकर,
वैसा माहौल, सहजता तथा आकर्षण भरते हैं--यह एक
प्रशंसा की बात है। ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था तथा निर्देशन आदि सभी स्तरों पर यह
नाटक सफल रूप में प्रस्तुत हुआ माना जाएगा।
-आइने के सामने खडे
लोग,
संडे
ऑब्जर्वर,
नई
दिल्ली,
अप्रैल
1992
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