ज्वलन्त विषय की नकारात्मक कथा
(सूरज प्रकाश का उपन्यास 'देश बिराना')
समाज मनुष्य को बहुत कुछ देता है--प्यार, प्रतिष्ठा, सुरक्षा, व्यवस्था, आचार संहिता-- मगर व्यवस्था की आचार
संहिता के अधीन दी जाने वाली प्रतिष्ठा और प्यार के मूल्य पर उसका बहुत कुछ छीन लेता
है, या यूँ कहें कि सब कुछ छीन लेता है।
मनुष्य का जो बुनियादी गुण है,
उसका निजत्व--वही छीन
लेता है। सामाजिक मान्यताओं,
स्थापनाओं का विधिवत्
कद्र करता कोई सामाजिक प्राणी अपने निजत्व के साथ नहीं जी सकता। निजत्व पर पहला
आघात हर सामाजिक प्राणी को अपने माँ-बाप की ओर से ही झेलना पड़ता है। कुछ गिने चुने
परिवारों को छोड़कर आज भी हमारे देश में जनक-जननी अपनी सन्तानों को सन्तान से
ज्यादा अपनी सम्पत्ति,
या कि अपनी उपज मानते
हैं--बैल, बकड़े, मोटर
की तरह, या गेहूँ, मकई, रहड़ की तरह। वे चाहते हैं कि इसे हमने
कमाया/उपजाया है, हम जहाँ चाहें, जैसे चाहें रख/बेच सकते हैं या दान कर
सकते हैं। ऐसी ही एक सन्तान की व्यथा भरी जिन्दगी की कहानी है सूरज प्रकाश का
उपन्यास ‘देस बिराना’, जिसका नायक दीप पिता की डाँट-फटकार खाकर
नन्हीं-सी उमर में घर छोड़कर बाहर जाता है और चौदह बरस बाद अपनी हैसियत बनाकर वापस
आता है, मगर घर में फिर भी उसकी कोई निजतापूर्ण
हैसियत नहीं रहती। वह फिर घर छोड़कर भागता है, प्रगतिकामी
चेतना और पारम्परिक संस्कार --दोनों के समन्वय से जीवन बिताने की चाहत रखने वाला
दीप दर-दर की ठोकर खाकर हताश हो जाता है।
उपन्यसकार सूरज प्रकाश (जन्म-1952) ने
45 वर्ष की परिपक्व उम्र में सन् 1987 से लेखन प्रारम्भ किया। ‘देस बिराना’ उनका दूसरा उपन्यास है। इससे पूर्व ‘हादसों के बीच’ उपन्यास; ‘अधूरी
तस्वीर’ तथा ‘छूटे
हुए घर’ कहानी संग्रह; ‘जरा सँभल के चलो’ व्यंग्य-संग्रह के अलावा गुजराती तथा
अंग्रेजी से हिन्दी में कई महत्त्वपूर्ण कृतिकारों की महत्त्वपूर्ण कृतियों का
अनुवाद कार्य प्रकाशित है;
विषय-वस्तु केन्द्रित
कई कृतियों का सम्पादन भी किया और ‘साचा सरनामे’ नाम से कहानियों का एक संग्रह मूल
गुजराती में छपा। कुछ प्रान्तीय,
क्षेत्रीय पुरस्कारों
से सम्मानित भी हुए। भ्रमण और देशाटन से प्राप्त मौलिक अनुभूतियों को उन्होंने
अपनी सृजनशील प्रतिभा से धोया-पखारा; जानकारी
का खजाना न बनाकर उन्हें सृजन का उपस्कर बनाया; ‘देस
बिराना’ उन्हीं उपस्करों से तैयार एक अच्छी कृति
है। कहीं-कहीं अतिकथन,
अनावश्यक फैलाव, और कुछ स्थानों पर अनियन्त्रित भाषा को
नजर अन्दाज कर बात करें,
तो आत्मकथा के अन्दाज
में लिखा उपन्यास ‘देस बिराना’ एक अच्छी कृति है।
यद्यपि पंजाबी के विख्यात लेखक कत्र्तार सिंह दुग्गल की
भारी-भरकम आत्मकथा ‘किस पहि खोलऊ गँठड़ी’ में जितने अतिकथन और अनावश्यक विवरण का
दोष है, उसका आधा भी इसमें नहीं है। मगर यह
आत्मकथा नहीं है, सिर्फ इसकी शैली आत्मकथा की है। विवरण
के विस्तार को इसमें कम किया जा सकता था। इससे रचनाकार के संवेदनात्मक अनुभव एवं
कथा-कौशल के चमत्कार में और निखार आता। पंजाब के कस्बाई परिवेश की जनपदीय रूढ़ियों
से खदेड़ा हुआ कथानायक दीप,
शिक्षा और धन अरजने
तथा अपने निजत्व एवं निजी मान्यताओं की रक्षा करने के लिए नगर-महानगर, देश-देशान्तर घूम-भटक आता है और अन्त
में नकार से भरे निर्णय पर पहुँचता है।
कुल तिरसठ अध्यायों का यह उपन्यास दो खण्डों में विभक्त है।
कथानायक दीप को अपने घर में बहन गुड्डी से, गाँव
में दोस्त नन्द से,
बम्बई में पड़ोस की
मुँहबोली बहन अल्का दीदी से बेहिसाब प्यार और बेशर्त सहयोग, समर्थन मिलता है; इसके बावजूद पिता और छोटे भाइयों की
हरकतों से वह आतंकित रहता है। इतना आतंकित कि बेचैनी में सोचने लगता है--‘ऐसी नगरिया में केहि विधि रहना।’ यह उपन्यास का पहला खण्ड है। इतने-से
जीवन में तरह-तरह की घटनाओं का शिकार होकर, प्रेम
में धोखा खाकर, अनाथ की तरह बचपन और किशोरावस्था बिताकर, दुबारा घर-परिवार के वात्सल्य और ममत्व
से टूटकर नितान्त अकेला बना कथानायक सोचता है--‘जब
तक अकेला था, अपने आप में खुश था।...गोल्डी ने आकर
पहले मेरी उम्मीदें बढ़ाईं। यकायक चले जाकर ...पहले सिर्फ अकेलापन था, अब उसमें खालीपन भी जुड़ गया...।’
इस खालीपन और अकेलेपन को भरने का एक अवसर अचानक कथानायक को तब
दिखता है, जब वह लन्दनवासी हाण्डा परिवार की लड़की
से शादी कर घरजँवाई रहने का प्रस्ताव पाता है। अपने जीवन में लगातार कुछ बेहतर कर
पाने और अपने कौशल का बेहतर उपयोग कर निरन्तर अधिक से अधिक धन कमाने, अपने स्वाभिमान, ईमानदारी और अपने स्वदेशी शुभ संस्कारों
की रक्षा करने की मंशा पाले हुए कथानायक दीप लन्दन पहुँचता है, और वहाँ शादी कर ससुराल वालों के
साहचर्य में जीवन बिताते हुए वहाँ की जीवन पद्धति को समझने की कोशिश करता है। अपने
ससुर, साले, सालियों, साढू भाइयों के जीवन मूल्य, नैतिक मूल्य, अर्थ मूल्य, मानव मूल्य की पड़ताल करता है। वहाँ भी
उसे एक हमदर्द मिलता है,
शिशिर, जो उसका साढ़ू भाई है। दीप की तरह शिशिर
की शादी भी झूठ और धोखे की बुनियाद पर हुई थी। पर वहाँ भी अपने निजत्व के साथ दीप
रम नहीं पाया, ‘रहना नहि देस बिराना है...’ कहते हुए वह वापस आ गया। यह उपन्यास का
दूसरा खण्ड है।
आत्मकथा की शैली में लिखे इस उपन्यास ‘देस बिराना’ के नायक दीप का पूरा चरित्र नकारात्मक
अभिरुचियों और प्रतिगामी अवधारणाओं से भरा हुआ है। अपनी पूरी जीवन-प्रक्रिया में
कहीं भी साहसी हरकत नहीं दिखाता,
कछुआ-धर्म के साथ
जीवन बिताता है, पलायनवाद इस नायक का संस्कार बना हुआ
है। हर जगह अपने को कीचड़ में खिला कमल साबित करने में वह लीन रहता है।
विद्वत्समाज की राय है कि उपन्यास, साहित्य की सर्वाधिक गतिशील विधा है, यह सामाजिक उत्थान में सबसे प्रभावकारी
योगदान देता है, समाज की नवीन पीढ़ियों को उपन्यास के
नायक का चरित्र, दिशा देने का काम करता है। गोबर ने, बलचनमा ने, बालचन्द ने...अपने समय की सन्ततियों का
चरित्र सँवारा; आज इक्कीसवीं शताब्दी की सन्ततियों के
समक्ष दीप का जीवन उपस्थित अवश्य है, दीप
के पिता और भाई जैसे अर्थलोलुप रिश्तेदार, गोल्डी
जैसी मजबूर प्रेमिका,
गौरी जैसी
चरित्रभ्रष्ट मगर अक्खड़ बीवी,
हाण्डा परिवार जैसे
गलीज आचरण की ससुराल,
मालविका जैसी
कामदग्धा नायिका जहाँ-तहाँ मिलते अवश्य हैं, पर
दीप आज की सन्ततियों का आदर्श नहीं हो सकता।
इस उपन्यास का मूल्यांकन--कथ्य, शिल्प
और उपादेयता--तीनों नजरिए से अलग-अलग करने की आवश्यकता है। कथ्य निश्चित रूप से
बहुत जानदार है। इक्कीसवीं सदी में आकर भी, आधी
सदी की आजादी तेजी से पार कर भी,
तीव्रगामी वैज्ञानिक
युग में आकर भी, हमारे समाज में दीप के पिता जैसे असंख्य
लोग हैं, जो उद्यम और आयोजनपूर्वक नहीं, धोखे में सन्तान पैदा कर लेते हैं, उसके परवरिश के सम्बन्ध में कोई चेष्टा
या उपक्रम नहीं दिखाते। मगर धोखा से यदि कोई सन्तान किसी लायक हो जाती, तो वे उसका भरपूर दोहन अपनी जड़ बुद्धि
की अवधारित पद्धति से करने को आक्रामक रहते हैं, हिंस्र
पशु की तरह। अर्थलोलुपता के उन्माद में पागल हुए भारतीय दूसरे देश जाकर उखड़े हुए
पेड़ हो जाते हैं, दूसरी मिट्टी उसे स्वीकार नहीं पाती, अपनी मिट्टी में आकर वे फिर जम नहीं
पाते। इसी दशा में वे विक्षिप्त और विकृत हरकतें करते हैं, धोखा और फरेब करते हैं, अपने सारे संस्कार भूलकर पश्चिम की
विकृतियों का शिकार हो जाते हैं और मदक्की की तरह वापस आने को लालायित मगर वापस न
आने को मजबूर रहते हैं और अपनी जमात को अधिसंख्य बनाने की कोशिश में लिप्त रहते
हैं। अपने नैतिक, सांस्कारिक और चारित्रिक मूल्यों से
पतित हाण्डा परिवार के एक-एक स्त्री-पुरुष इसके उदाहरण हैं। इन दोनों परिवेशों से
दीप का साबिका पड़ा। मगर दीप दोनों ही जगह अपने निजत्व का गीत गाते रहे। न वहाँ के
हो पाए, न परिवेश को अपने अनुकूल बना पाए--यहाँ
तक कि उन विकृतियों से टक्कर लेने की कोशिश तक नहीं की।
उपन्यासकार ने एक ज्वलन्त और जरूरी कथ्य पर कलम अवश्य उठाई, मगर कथानायक बहुत कमजोर चुना। विषय के
चयन के लिए लेखक बेशक बधाई के पात्र हैं। कथ्य का कथानक तैयार करने और उसकी कथा
बनाने में भी जितने उपकरण जुटाए हैं, वे
नायक के जीवन की त्रासदी अंकित करने में पूरी तरह सहायक हैं। भाषा, पर्याप्त सहज और सरल है, बोधगम्य है, पात्रोचित है। दीप की माँ और कुछ अन्य
ग्रामीण महिलाओं का संवाद पंजाबी में होने के बावजूद सम्प्रेषणीय है, दीप के दारजी की भाषा हिन्दी अवश्य है, पर उस हिन्दी को पंजाबी शैली का समर्थन
है, जो दारजी के स्वभाव के अक्खड़पन और
कहीं-कहीं उजड्डपन को भी संकेतित करती है। मगर यह सब विवरणात्मक शैली में हैं।
पूरे उपन्यास में कहीं पर भाषा चमत्कृत नहीं करती। भाव सम्प्रेषण हो जाता है, पर कोई चमत्कारिक कला-कौशल का अभाव है।
इतने मोटे उपन्यास में रेखांकित करने योग्य पंक्तियाँ दिखीं नहीं।
हर कृति का नायक रचनाकार का मनःपूत होता है। साहित्यिक कृति
किसी अखबारी रिपोर्ट की तरह घटना का विवरण नहीं होती, उस घटना के भूत, भविष्य, वर्तमान
में लेखक स्वयं जो योगदान दे सकता था, या
दे सकता है, या देना चाहेगा-- अपने नायक से वही
करवाता है। इस अर्थ में कोई सन्देह नहीं कि ‘देस
बिराना’ का ‘दीप’, उपन्यासकार सूरज प्रकाश का मानस पुत्र
है। मगर वह नायक कायरता और छद्म के पहाड़ तले दबा हुआ है, उसके जीवन का चरम लक्ष्य भटका हुआ है, वह न तो अपनी कोई विचारधारा निर्धारित
कर पाया है, न ही उसके लिए कहीं दृढ़ निश्चय के साथ
खड़ा है। महाभारत के भीष्म की तरह हर जगह मन-ही-मन एक लड़ाई की पंचायत कर लेता है और
घोषित करता है कि ‘मेरी निष्ठा हस्तिनापुर की मर्यादा से
जुड़ी है।’ हर घटना में अपनी चुप्पी और
प्रतिवादहीनता के कारण पूरे कुरुवंश को सर्वनाश के शिखर पर पहुँचानेवाले निष्ठावान
भीष्म से कहीं बेहतर थे नेत्रविहीन धृतराष्ट्र, जिन्हें
‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ दिया जा सकता है। एकमात्र भीष्म की
लक्ष्यहीनता और हस्तिनापुर के प्रति अमूर्त्त निष्ठा के पाखण्ड पर्व के कारण
महाभारत कथा में सारे कुकृत्य हुए। ठीक उसी तरह इस उपन्यास ‘देस बिराना’ में सारी दुःस्थितियाँ दीप की कायरता के
कारण उत्पन्न हुई हैं। उसका पूरा व्यक्तित्व नकार से भरा हुआ है। नकार तो कबीर के
मन में भी था, ‘देस बिराना’ पदबन्ध तो उन्हीं का दिया हुआ है, मगर नकार के साथ-साथ उन्होंने साहस भी
बहुत दिखाया।
किसी उपन्यास का नायक अपने समय का आदर्श होता है। ‘देस बिराना’ उपन्यास के नायक के लिए अपना गाँव, अपना देश बहुत दुखदायी है। दुख का सारा
स्रोत नायक के पिता के पितृत्ववादी अहंकार से उत्पन्न हुआ है, जो पंजाब के कस्बे से लेकर बम्बई जैसे
महानगर तक भूत के साये की तरह उसके पीछे लगा है। पर, इस
दुखदायी माहौल में उसे बहन गुड्डी और दोस्त नन्दू का साथ तो हरदम रहा! उसने खुद
क्या किया? यह ठीक बात है कि ‘ऐसी नगरिया में किस विधि रहना’, पर जब लन्दन गया तो वहाँ भी ‘रहना नहि देश बिराना है’ क्यों हो गया? इस पूरे उपन्यास में नायक से बेहतर तो
उनके दोस्त नन्दू, उनके साढ़ू भाई शिशिर, उनकी बहन गुड्डी, मुँहबोली बहन अल्का, मजबूर प्रेमिका गोल्डी, उग्र कामातुरा मालविका हैं, जिन्होंने सहानुभूतिवश ही सही नायक को
थोड़ी-सी शान्ति तो दी है। इन सबने अपने जीवन में जो अख्तियार करना चाहा, अपनी निर्णायक सूझ-बूझ के साथ अख्तियार
तो कर लिया! अपने सिद्धान्तों में और व्यवहारों में इनके यहाँ कोई द्वैध तो नहीं
है। नायक तो हर समय द्वैध,
छद्म और पलायन के
संरक्षण में अपने को सुरक्षित पाता रहा, जबरन
अपने को नैतिकता, स्वाभिमान और प्रगतिशील सोच का पुजारी
साबित करने को उद्यत रहता रहा। सैद्धान्तिक उद्घोष ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य
समझनेवाले ऐसे नायक से जीवन में कुछ हो पाना असम्भव ही रहा।
बचपन में ही घर से खदेड़ दिए जाने के बावजूद, जब चौदह वर्षों के संघर्ष के बाद नायक
ने अपने को शैक्षिक और आर्थिक रूप से सामथ्र्यवान बना लिया, घर में छोटी बहन और गाँव में एक दोस्त
उसके समर्थन में हरदम खड़े रहे,
फिर भी इस नायक की
ऐसी कौन-सी अक्षमता थी कि वह अपने घर की दुर्वृत्तियाँ खत्म करने को उन्मुख नहीं
हुआ। गलत जगह ब्याही गई अपनी बहन के घर को आबाद करने हेतु पैसे भेजता रहा, एक शिक्षित, समझदार भाई कभी यह नहीं सोच पाया कि
परिवार पैसे से नहीं बसता है। पैसे कमाने की ललक में लन्दन जाने की लालसा प्रबल हो
उठी, उस समय यह पूछताछ नहीं की कि ‘मेरी शादी किससे हो रही है?’ पर लन्दन पहुँचकर शादी कर लेने के बाद
बीवी का आचरण प्रमाण-पत्र जुटाने लगा और अर्थाभाव में रहकर अपनी खुद्दारी दिखाने
लगा...।
हरि अनन्त,
हरि कथा अनन्ता...।
दीप की कायरता पर लम्बी बात की जा सकती है, पर
ऐसा भी नहीं है कि ऐसे पात्र हमारे आस-पास नहीं हैं, बहुत
हैं। दी हुई सामाजिक व्यवस्था के अधीन अपनी इनसानी कमजोरियों, कोमल संवेदनाओं, और तरह-तरह की भावनाओं के कारण मनुष्य, लाख साहस, शौर्य-पराक्रम
को भी मटियामेट कर देता है। जब जनक-जननी ही किसी व्यक्ति को उपकरण की तरह व्यवहार
में लाना शुरू कर दे तो सम्बन्ध की संवेदनाएँ उनके साहस को पस्त कर ही देगी। दीप
के जीवनक्रम को इस नजरिए से भी देखा जा सकता है।
यह उपन्यास नई पीढ़ी की प्रगतिशीलता पर पुरानी पीढ़ी के पाखण्ड
और प्रवासी भारतीय की अराजक संस्कृति की विजय की कहानी जैसा अवश्य दिखता है, पर व्यंजना के आधार पर इस उपन्यास की
उपादेयता के बारे में पूरी तल्खी के साथ कहा जा सकता है कि यह नई पीढ़ी की उदारता
का भी सूचक है। बचपन में दुत्कार के साथ भगाए जाने के बावजूद दीप के मन में घर और
पारिवारिक सम्बन्धों को लेकर कोई प्रतिक्रियापूर्ण धारणा नहीं बनी। पिता की हरकतों
से परेशान होकर दुबारा घर से भागता है, फिर
भी पारिवारिक सम्बन्ध को बनाए रखने की चेष्टा करता है। लन्दन चले जाने के बाद भी
जिन सम्बन्धों के कारण जीवन ग्रस्त रहा, उसके
सुरक्षार्थ तत्पर रहता है। मगर पुरानी पीढ़ी की विडम्बना है कि उनके जीवन में
सर्वाधिक प्रिय, सन्ततियों और सरोकारियों की खुशी नहीं, उनके अपने अहं की तुष्टि और पाखण्डपूर्ण
ऐश्वर्य है। वह पीढ़ी निरन्तर अपनी सन्ततियों को निलामी की दाँव पर लगाने को आतुर
रहती है। उनकी खुशियों का सुवास सम्बन्धों में नहीं, सम्बन्ध
की मजबूरियों और व्यवहार के उपकरणों में है। भले ही वे दीप के पिता हों या गौरी
के।
इन खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ सूरज प्रकाश का ताजा उपन्यास ‘देस बिराना’ अपनी तरह का महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।
समाज के एक महत्त्वपूर्ण और ज्वलन्त विषय पर बारीक पकड़ के साथ लिखी गई इस पुस्तक
के उपन्यास का नायक भले ही आज की पीढ़ी का आदर्श न हो, पर उपदेशक अवश्य है। क्योंकि हर असफल
व्यक्ति अपने जीवन की असफलता से भी समकालीन फसल को सफलता के लिए प्रेरित करती है।
नायक के समर्थक गौण चरित्र के उपक्रम तो प्रशंसनीय हैं ही। इन अर्थों में
उपन्यासकार ने अपने इस विशिष्ट सृजन के माध्यम से नई पीढ़ी को समृद्ध किया है।
देस बिराना/सूरज प्रकाश/प्रकाशन संस्थान/पृ.272/रु.250.00
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