लोक कला का लोकायन
(युवा चिन्तक ओम प्रकाश भारती की पुस्तक 'लोकायन')
साहित्य,
संगीत, कला, संस्कृति
पर बात करते हुए लोग अक्सर ‘लोक’ और
‘शास्त्र’ की
चर्चा करते हैं। विचार की दुनिया में उल्टी गंगा बहाने वाले लोगों की कमी नहीं है, पर ‘लोक’ से ही ‘शास्त्र’ का विकास मानने वाले विचारकों की संख्या
आज भी अधिक है। सर्वेक्षण से भी यह प्रमाणित किया जा सकता है कि भाषा, संगीत और संस्कृति का विकास कामगारों के
बीच तीव्रता से होता है। चूँकि इस खण्ड के लोगों का जीवन क्रम घटना-बहुल और
क्षिप्र-प्रवाह से युक्त रहता है,
परिवर्तन की
प्रक्रिया सहज क्रम में होती है,
इसलिए यहाँ कला-रूपों
का विकास तेजी से होता है। लोक-जीवन के इसी प्रवाह की संगिनी को ‘लोक-कला’ के
रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
इतने बड़े देश भारत के विभिन्न भू-क्षेत्रों में भौगोलिक और
पर्यावरणीय विविधिता के कारण जाहिर है कि यहाँ का लोक-जीवन भी वैविध्यपूर्ण है।
लोक-कला विषय पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन मनने करने वाले युवा चिन्तक ओम प्रकाश
भारती की पुस्तक लोकायन इस बात का पुख्ता सबूत देती है। इस पुस्तक के लेखक लम्बे
समय से इस विषय पर शोधार्थी की तरह काम करते रहे हैं। देश की विभिन्न प्रतिष्ठित
पत्र-पत्रिकाओं में उनके चिन्तन के परिणाम दिखते रहे हैं। पुस्तकाकार प्रकाशित तो
यह लेखक की तीसरी कृति है,
पर पर्याप्त संख्या
में अभी अप्रकाशित हैं।
लोक-कला रूपों पर केन्द्रित इक्कीस शोध परक निबन्धों का यह
संग्रह देश के विविध क्षेत्रों की लोक-कलाओं पर प्रकाश डालता है। इसमें गीत, नृत्य, गाथा, चित्र, नाट्य-नौटंकी, तीज-त्योहार, आहार-व्यवहार, शील-संस्कार सबको ध्यान में रखते हुए
लेखक ने सोदाहरण विचार किया है। आधुनिकता और वैज्ञानिकता ने दुनिया को बहुत कुछ
दिया, लोक-कलाओं के संरक्षण के लिए वैज्ञानिक
पद्धति का संग्रहालय बना दिया,
पर लोक-कला के
सम्पोषकों का लोक-परलोक उजड़ गया। उन सम्पोषकों की ओर ध्यान नहीं के बराबर दिया
गया। इस प्रसंग में ओम प्रकाश भारती सच कहते हैं कि ‘लोक-कला रूपों के सृजक श्रम और उत्पादन
से जुड़ा लोक है। लोक-कला रूपों ने किसी वर्ग विशेष की अभिरुचि का सम्पोषण नहीं
किया बल्कि जनसाधारण की अभिरुचि और भावनाओं के अनुकूल विकसित हुआ।’ पर विकास की यह प्रक्रिया समाज के
बेतरतीब विकास के क्रम में अब किस तरह क्षीण हो रही है, लोक-कला के सम्पोषक किस तरह इसकी
संरक्षा और विकास के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और
लोक-जीवन के सुखद स्वरूप के लिए यह किस तरह की औषधि है, इस बात का सांगोपांग विवरण यह पुस्तक
देती है। इतने बड़े राष्ट्र के सारे लोक-कला रूपों की छवियाँ एक पुस्तक में
प्रस्तुत होना असम्भव तो है ही,
इसलिए, यह पुस्तक एक सीमा तक असन्तोष भी देती
है।
धरोहर (कला, संस्कृति एवं साहित्य
संस्थान,
साहिबाबाद)
No comments:
Post a Comment