कई पुस्तकें एक साथ
नारी-जीवन पर केन्द्रित उपन्यासों की हिन्दी में कमी नहीं है।
शशिप्रभा शास्त्री का नया उपन्यास ‘अमलतास’ उसी
क्रम की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इससे पहले उनके नौ उपन्यास, सात कहानी संग्रह और तीन बाल पुस्तकें
प्रकाशित हैं। इस पूरे उपन्यास में अमलतास, एक
प्रतीक की तरह है। यह कथानक के प्रभाव को कदम-कदम पर सुन्दर और सबल भी करता चलता
है। इस उपन्यास में सामन्ती संस्कारों की उन दुर्गन्धियों को तार-तार उकेरा गया है, जिसमें स्त्रियों को सहज रूप से दयनीय
जीवन जीने को मजबूर किया जाता है,
उसकी कामना-कल्पना, इच्छा-अभिलाषा की कारुणिक अवहेलना की
जाती है। पर लेखिका ने तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद स्त्री-मनोबल को टूटने नहीं
दिया है। उन्होंने अपनी नायिका कामदा के चरित्र-गठन से साबित कर दिखाया है कि
प्रबल आत्मशक्ति की स्त्री ठान ले तो मदमस्त पुरुष को उसके पराक्रम का सीमान्त
दिखाकर होश ठिकाने लगा सकती है।
जीवन के हारे हुए समय में अपने शरणागत पति को जब कामदा कहती
है--‘मैं अब आपकी व्याहता पत्नी नहीं हूँ, परित्यक्ता हूँ। व्याहता को आप कौड़ी को
तरसाएँ, पर परित्यक्ता तो आपसे लड़कर अपना हिस्सा
ले लेगी।...मैं आपके कपड़े बिकवाकर भी आपसे ले सकती हूँ...।’ तो इसका अर्थ अपने थकित-पराजित पति से
किसी परित्यक्ता द्वारा मुआवजे की वसूली, या
परित्यक्त होने के बावजूद पति की कमाई पर स्त्री का अश्रित होना नहीं है, दरअसल वह उस टूटे हुए पुरुष के अन्तिम
अहंकार को भी चूर देना चाहती है।
रियासत के अहंकार में स्त्री-दमन और ध्वस्त होते रियासत के
विपन्न पौरुष को लेखिका ने सूक्ष्मता से रेखांकित किया है। स्त्री-मन की भावनाओं, अरमानों, संवेदनाओं
के दमन की नृशंस वृत्ति और समर्थन का कौशल यहाँ बड़ी प्रमाणिकता और सहजता से अंकित
हुआ है। समीचीन कहा गया है कि ‘मानवीय संवेदनाओं को मनोविज्ञान की तुला
में तौलते चलने की लेखिका की निजी शैली ने इस उपन्यास को एक नया सौष्ठव और गरिमा
प्रदान की है जो प्रामाणिक होते हुए भी काल्पनिक है और काल्पनिक होते हुए भी
प्रामाणिक।’
अमलतास/शशिप्रभा
शास्त्री/वाणी प्रकाशन/पृ. 172/रु.85.00/समरलोक, भोपाल, जुलाई-सितम्बर/ 2000
···
कहानीकारों और कहानियों की कमी तो हिन्दी में वैसे भी नहीं है, कमल कुमार के नए संग्रह ‘क्रमशः’ जैसी
सपाट और वक्तव्यनुमा कहानियों की तो और भी कमी नहीं है। तीन उपन्यास, दो कहानी संग्रह, तीन कविता संग्रह, तीन आलोचना पुस्तक तथा एक जीवनवृत्त की
लेखिका कमल कुमार के इस संग्रह में बारह कहानियाँ हैं। इन कहानियों की कथाभूमि आम
मध्यम वर्ग; उच्च वर्ग की टोली में शरीक होते या
वैसा बनने की स्वांग रचते या लालसा करते मध्यम वर्ग; नवधनाढ्य, शहरी जीवन पर आधुनिकता के प्रभाव से आई
सामाजिक विकृतियाँ,
स्त्री-जीवन और
स्त्री-देह को भोग्य और उन्माद का आलम्बन समझने वाले समाज की मनोवृत्तियाँ आदि
हैं। आच्छादप पृष्ठ पर लिखा गया है कि ‘हिन्दी
की जिन कथालेखिकाओं ने पिछले कुछ वर्षों में कथ्य, भाषा
और शिल्प के स्तर पर अपनी पहचान बनाई है, उनमें
कमल कुमार प्रमुख हैं। --और इसका एक बड़ा कारण है उनकी सजग बहुआयामी जीवन-दृष्टि
तथा अपने परिवेश को रचनात्मक अभिव्यक्ति देने के प्रति गतिमान प्रतिबद्धता।’
यह वक्तव्य कमल कुमार के किसी अन्य संग्रह के लिए बेशक
प्रासंगिक हो, इस संकलन के लिए तो ऐसा स्वीकारना
असम्भव है। साहित्य की हर विधाओं के मानदण्ड युग के साथ बदलते गए हैं, पर कहानी के लिए आज भी पहली शर्त पाठकों
को सम्मोहित करना ही है,
उसे कहानी से बाहर
नहीं जाने देना है,
इसके बिना तो पाठक
रचनाकार के उद्देश्य तक जा ही नहीं सकेगा। कौशल से लिखी गई होतीं तो ताजगी भरे
कथ्य और संवेदना के कारण निस्सन्देह ये बेहतरीन कहानियाँ होतीं। ‘औरत और पोस्टर’, ‘खोखल’ जैसी
कहानियों का जानदार और शानदार कथ्य,
सृजन-कौशल के अभाव
में एक खबर बनकर रह गईं। सहज भाषा,
अनूठे शिल्प, स्पष्ट अभिव्यक्ति, चिन्तन की मौलिकता से कहानियों में
सम्मोहन आता है, सम्प्रेषणीयता आती है, जिसका इस संकलन में घोर अभाव है। ऊब से
भरी होने के कारण इसकी अधिकांश कहानियाँ जटिल सामाजिक यथार्थ तथा युग संघर्ष से
उपजी विसंगतियों को तल्खी से उठाकर भी अच्छी कहानी नहीं बन पाई। लेखिका का अगला
संग्रह शायद इससे बेहतर हो पाए।
क्रमशः/कमल
कुमार/भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन/पृ. 124/रु. 90.00/समरलोक, भोपाल, जुलाई-सितम्बर। 2000
•••
शलभ श्री राम सिंह की कविताएँ बहुत तीक्ष्ण प्रहार करती हैं।
संवादधर्मिता, अकृत्रिम प्रवाह और अनारोपित शब्द चयन
के कवि शलभ को विजय बहादुर सिंह के शब्दों में शब्द-छन्द के मिश्रित संस्कार का कवि
कहना उचित ही है। पहले भी इनके कई संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। जटिल अर्थबोध और ऊब
भरी मस्तिष्कवादी कविता के कवियों से बिल्कुल भिन्न शलभ की कविता का सरोकार आमजन
से पल-पल बना रहता है। कवि जब कहते हैं--
युद्ध है उत्सर्ग का आखिरी त्यौहार
त्यौहार का आयोजन करता है प्यार
प्यार नहीं कर सकता जो युद्ध नहीं कर
सकता वह...
तो स्वतः एक जीवन-दर्शन स्पष्ट हो उठता है। कविता का अर्थबोध
केवल कवि के कला-कौशल से नहीं,
उनकी जीवन-दृष्टि और
कथ्य की समझ पर निर्भर करता है। उलझी और जटिल कविताओं की वजह कवि के समझ की जटिलता
ही होती है। कवि शलभ अपनी इन कविताओं में
समय, समाज और अस्तित्व-रक्षा के संघर्ष में
डटे मानव-जीवन को सूक्ष्मता से प्रस्तुत करते दिख रहे हैं। ये कविताएँ कवि की इस
धारणा को पुष्ट करती हैं कि उनकी कविता बौद्धिक, जटिल
और रागहीन अनुभव के बीहड़ से बाहर निकल आई है। एक सौ अट्ठाइस कविताओं के इस संकलन
की अधिकांश कविताएँ बड़े सफल ढंग से पाठकों के मन-प्राण पर छा जाती हैं।
उन हाथों से परिचित
हूँ मैं (रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा/1993/पृ. 128/70.00)/-एक-एक कतरा, अप्रैल-जून 1999
•••
मलय के तीसरे कविता संकलन ‘शामिल
होता हूँ’ की अकेली कविता ‘माँ कसती है जिन्दगी’ एक संकलन को पूर्णता और सार्थकता देने
के लिए पर्याप्त है,
जहाँ कवि की गहरी
संवेदना, कलात्मकता, सृजन कौशल और विलक्षण दृष्टि पूरी तरह
निखर उठी है। कविता के अलावा मयल ने अन्य विधाओं में भी काम किया है। पर कविताओं
का काम अपेक्षाकृत अधिक सार्थक जान पड़ता है। मलय की कविता यथार्थनुभूति के लक्षित
आवेग का भाषिक अनुवाद और संघर्षजन्य अनुभूतियों का वास्तविक चित्र है। उनकी
कविताएँ कुछ बड़ी होती हैं,
छोटी भी होती हैं, लेकिन आकार के कारण न तो कहीं से कसाव
में ढीलापन दिखता है और न कहीं अकथपन। अपने प्रभाव और सम्प्रेषणीयता में संकलन की
सभी कविताएँ मुकम्मल हैं;
‘सनसनी किरन की’, ‘खटिया झिलगू हो गई’, ‘आत्मकथ्य’, ‘पिता
की पहचान धूप में’ शीर्षक कविताएँ इसके प्रमाण हैं। कविता
कहने की कवि की अपनी शैली है,
वे कहकर गुजर जाते
हैं और पीछे से कविता की शैली पाठक/श्रोता को आन्दोलित करती रहती है। ‘माँ कसती है जिन्दगी’ ऐसी ही कविताओं में से है।
शामिल होता हूँ (पहला
प्रकाशन,
भोपाल/1992/पृ. 136/30.00)/-एक-एक कतरा, अप्रैल-जून 1999
•••
विनय दुबे का काव्य संकलन ‘खलल’ तीखी, किन्तु
सहज कविताओं का संकलन है। संकलन के आच्छादप पृष्ठ की उक्ति ‘उन्मादी विद्रूपताओं का मखौल उड़ाना भी
जूझने का एक कारगर तरीका हो सकता है’...इन
कविताओं की परख की समुचित कसौटी हो सकती है। ‘फिर
वहीदा रहमान ने कहा’,
‘अयोध्या’, ‘विज्ञापन’, ‘देश
में’, ‘जहाँ कुछ नहीं हो रहा है’ कविताएँ वृत्तीय गति से चलती हैं और
फिर-फिर उसी बात पर आती हैं। कविता में पुनरावृत्ति का भी अपना महत्त्व है। अभिधा
में अपनी बात कहकर विनय दुबे व्यंजना उत्पन्न करते हैं। वस्तुतः ये कविताएँ
गिद्धों के जश्न में खलल डालने वाली कविताओं का संकलन है, जहाँ कवि ने मखौल को अपना हथियार बनाया
है।
खलल (परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद/1992/पृ. 72/45.00)/-एक-एक कतरा, अप्रैल-जून 1999
•••
गंगा प्रसाद विमल के कविता संग्रह ‘इतना कुछ’ के
लिए कहा गया है कि ‘कविताएँ और कुछ भी न देती हों पर वे अगर
मनुष्य को उसके खोए संगीत से जोड़ देती हैं तो शब्दों और अर्थों से परे अपने अस्तित्व
का विश्वास देती हैं।’
तथ्य है कि विचार और
बौद्धिकता से लदी हुई कविता मनुष्य को उसके खोए संगीत से नहीं जोड़ पाएँगी, बौद्धिक व्यायाम से लिखी कविता आम
पाठकों के लिए सहज और सुबोध हो ही नहीं सकती।
इस संकलन की इक्यावन कविताएँ तीन खण्डों--‘चल रहा हूँ वर्षों से’, ‘स्मृति के मणिबन्ध’, ‘रास्ते वहीं हैं’ में प्रस्तुत हैं। अपनी पीढ़ी के लेखकों
में गंगा प्रसाद विमल कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में भी लब्धप्रतिष्ठ हैं। सन्
1967 में ‘विजय’ और 1982 ‘बोधिवृक्ष’ शीर्षक से उनका काव्य संकलन प्रकाशित
हुआ। सन् 1990 में प्रकाशित यह संकलन विमल की
रचनाशीलता का नया आयाम खोलता है।
इस संकलन की सैंतीस कविताओं का पहला खण्ड ‘चल रहा हूँ वर्षों से’ कवि की जीवनाभूति की झाँकी प्रस्तुत
करता है। इन कविताओं में कवि ने अपनी अनुभूति को अभिव्यक्ति देने के लिए यथासम्भव
जीवन के प्रचलित उपादानों का सहारा लिया है। इस खण्ड की कविताएँ कवि के समृद्ध
अनुभव संसार से परिचय कराती हैं। घर, रास्ता, आदिम जिज्ञासा, इतना कुछ, क्षमा
आदि कविताएँ कवि की गहन जीवनानुभूति, विलक्षण
समझ और ईमानदार जीवन-दर्शन का प्रमाण देती हैं। प्रतीत होता है कि कवि
यथास्थितिवाद में अधिक विश्वास रखते हैं। अभिव्यक्ति में या तो कहीं अस्पष्टता है
या कहीं दूर रहकर ही अतीव्र आवाज में व्यवस्था को भला-बुरा कहकर सन्तोष कर लेने की
प्रवृत्ति। करीब-करीब एक की स्वभाव की कविता में जहाँ शलभ श्री राम सिंह कहते
हैं--
यहाँ परिन्दों से छीना जा रहा है
आकाश/वनस्पतियों से/हरियाली छीनी जा रही
है यहाँ
पृथ्वी के भी मोहभंग का समय समीप है
अब...
वहाँ विमल कहते हैं--
व्यवस्थाओं की सुरक्षित छतरियों के भीतर
नायाब षडयन्त्र चल रहे हैं /हो रहे हैं
अभ्यास हत्याओं के...
एक ही तरह की बात कहने में जहाँ शलभ ने जनोपयोगी उपादानों से
बिम्ब गढ़ा है वहीं विमल ने अलंकार लगाकर अभिव्यक्ति दी है। यहाँ आकर केदारनाथ सिंह
की बात पूरी तरह सत्य साबित हो जाती है कि बिम्ब विषय को मूर्त्त, संक्षिप्त और दीप्त बनाता है।
अन्य दो खण्डों ‘स्मृति
के मणिबन्ध’ और ‘रास्ते
वही हैं’ में भी विमल का कवि रूप बहुत आकर्षक रूप
में नहीं आता। संकलन की अधिकांश कविताएँ औसत दर्जे की हैं जो विमल के कद को छोटा
करती हैं। जाहिर है कि यह औसतपन कविता में अभिव्यक्तिमूलक है। अनुभूति की
प्रामाणिकता, ट्रीटमेण्ट के धुन्धलके से भी यत्र-तत्र
झाँक रही है।
इतना कुछ (किताब घर/1990/पृ. 104/50.00)/-एक-एक कतरा, अप्रैल-जून 1999
•••
पीढ़ियों के द्वन्द्व, वास्तविकता
एवं प्रतीति के द्वैध तथा विडम्बनाओं की कविताएँ लिखनेवाले कवि कीर्ति नारायण
मिश्र मैथिली साहित्य के स्थापित और वरिष्ठ कवियों में से हैं। छठे तथा सातवें दशक
में मैथिली कविताओं की एक पहचान बनाने वाले प्रमुख कवियों में उनकी गणना होती है। ‘सीमान्त’, ‘महानगर’, ‘हम स्तवन नहि लिखब’, ‘ध्वस्त होइत शान्ति स्तूप’ उनकी मैथिली की प्रमुख कृतियाँ हैं, जहाँ कवि का जीवन-दर्शन और जनसम्बन्ध
अपने प्रखर रूप में आया है। ‘विराट वटवृक्ष के प्रतिवाद में’ उनकी हिन्दी कविताओं का संकलन है। अपनी
मान्यताओं में भी अपनी रचनाओं में भी, कीर्तिनारायण
राजनीतिक पक्षधरता को जहाँ एक ओर नकारते हैं, वहीं
दूसरी ओर राजनीति में व्याप्त विसंगतियों से लोहा लेने को भी तैयार रहते हैं।
इन्हीं अर्थों में जनसमूह के सामने खड़े विशाल वरगद से प्रतिवाद करने को तैयार होते
हैं। ‘विराट वटवृक्ष के प्रतिवाद में’ शीर्षक कवि की विचारधारा को ही ध्वनित
करता है। संकलन की कविताओं में कवि व्यवस्था की ऊब से त्रस्त हैं। हालाँकि इस ऊब
से मुक्ति का कोई रास्ता वे नहीं तय कर पाते हैं, पर
सारी स्थितियों से बुरी तरह परेशान दिखते हैं। स्थिति कुछ है, मीडिया या राजनेता या नौकरशाहों द्वारा
जनसमूह तक सम्प्रेषित कुछ होता है,
शास्त्र और
आचार-संहिता कुछ कहती है और उसकी दुहाई ओढ़कर हो कुछ रहा है, पीढ़ियों के अन्तराल से अपेक्षाएँ कुछ
रहती हैं, वे कर कुछ और लेते हैं! कीर्तिनारायण
मिश्र की कविताएँ इन्हीं द्वन्द्वों से साक्षात्कार करती मनःस्थिति को उजागर करती
हैं। ‘बेचारा पिता’, ‘वसीयत’, ‘दो
पुरुषों के बीच’, ‘आदमी का दर्जा’ कविताएँ इसी तरह के द्वैध से उपजी हुई
हैं। नकार और स्वीकार के बीच खड़ा एक कवि इन्हीं यथार्थों से जूझता प्रतीत होता है
और एक विषैली छाया में लगभग भ्रान्तियाँ उत्पन्न करने वाली व्यवस्था अर्थात ‘विराट वटवृक्ष के प्रतिवाद में’ अपनी व्यथा कहने को तैयार होता है।
विराट वट-वृक्ष के
प्रतिवाद में (नाद प्रकाशन, टीटागढ़, प. बं./1991/पृ. 80/50.00)
एक-एक कतरा, अप्रैल-जून 1999
•••
स्वाधीन भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में निम्न-मध्यम वर्गीय
समुदाय की जीवन-क्रिया जैसी साँसत में बीती; व्यवस्था
में हुए मूल्यगत ह्रास के कारण जिस तरह इस समुदाय के लोगों का जीवन दुर्वह बीता; उसे अपनी पीढ़ी के महत्त्वपूर्ण कवि
विष्णु नागर ने गम्भीरता से देखा है। यही कारण हो कि उनकी अधिकांश रचनाओं का विषय
यही वर्ग होता है। अपनी कविताओं में सदैव इसी वर्ग की जीवन-प्रक्रिया को बिम्बित
करते प्रतीत होते हैं। ‘बच्चे, पिता
और माँ’ संकलन की सर्वाधिक कविताओं से कवि का
वही मानवीय सरोकार झाँकता है। इस संकलन की अधिकांश कविताएँ परिवार से सम्बन्ध रखती
हैं और व्यष्टि से समष्टि तक की दूरी पाटने का काम करती हैं। उनकी छोटी-छोटी
कविताएँ अपने असर में बड़ी घातक होती हैं, अत्यन्त
लापरवाही से सजे दिखते शब्द भी ध्वन्यार्थ से बड़ी जानदार और पूरी कविता के लिए जवाबदेह
हो जाते हैं। समय और परिस्थिति के बीच अनिर्धारित गति एवं दिशा के साथ झूलते-लटकते
मानव का दैन्य उनकी कविता में मुखर हो उठता है, जब
वे कहते हैं--
कल मैने खाई पूड़ी सात-आठ
कल मैंने चूमा पत्नी को बार-बार
कल मैं बरसात में भीगकर नाचा
आज मैं कल के सपने देखता हूँ...
पूरे संकलन में कवि के अनुभव का परिदृश्य वैयक्तिक और
पारिवारिक जीवन है। पारिवारिक जीवन की तमाम सचाइयाँ इन कविताओं में प्रखर हो उठी
हैं। परिवार के सदस्यों का वैयक्तिक एवं पारिवारिक अनुभव और उन सबकी मनःकथा, मनस्ताप विष्णु नागर की कविताओं में बड़े
खुले रूप से आया है। संकलन की कुछेक व्यक्तिवादी कविताएँ सपाटबयानी भी लगती हैं पर
उनसे संकलन के महत्त्व पर कोई असर नहीं पड़ता।
बच्चे, पिता और माँ (अपूर्व
प्रकाशन,
नई
दिल्ली/1992/पृ. 120/20.00)/-एक-एक कतरा, अप्रैल-जून 1999
•••
पूर्णचन्द्र रथ का काव्य-संकलन ‘लड़का
जाूद जानता है’ हैवानी की बस्ती में इनसान की तलाश की
कविताओं का संकलन है। उनके पहले संकलन‘आकाश
भी अपना’ की कविताओं से पाठकों का ध्यान
केन्द्रित हुआ था। परिवार से लेकर समाज तक, संस्कृति
से लेकर देश तक, साहित्य से लेकर राजनीति तक के विशाल
फलक पर व्यक्ति के जैसे चरित्र दिखते हैं, अभाव, बेकारी, निराशा, प्रपंच, छल-छद्म
जिस तरह चतुर्दिक व्याप्त है और नितान्त आत्मिक लाभ तथा क्रूर लिप्सा के कारण सारे
सम्बन्धों, शिष्टचारों का जैसा ह्रास हुआ है,...पूर्णचन्द्र रथ की कविताएँ इन स्थितियों
पर इनसान के हृदय में उठे असंख्य सवालों के हल ढूँढ़ने की कविताएँ हैं। ‘गाँव बुला रहा है’, ‘आदत’, ‘पता’, ‘नीति’, ‘एकालाप’, ‘कलम’, ‘बच्चे
फिर भी थे’ आदि कविताओं का यह संकलन कवि का दृष्टि
विस्तार प्रस्तुत करता है,
जहाँ गाँव का
साम्राज्य या जंगल का साम्राज्य या देश का साम्राज्य अपना-अपना अर्थ खोलता है।
कविता में भाषा प्रयोग के स्तर पर भी सचमुच पूर्णचन्द्र ने अपनी सचेत दृष्टि
प्रस्तुत की है।
लड़का जादू जानता है
(परिमल प्रकाशन/1993/पृ. 88/55.00)/-एक-एक कतरा, अप्रैल-जून 1999
•••
संख्या के हिसाब से मणिका मोहिनी कथा लेखिका अधिक और कवयित्री
कम लग रही हैं। ‘कटघरे में’ कविता संकलन में मणिका की कई तरह की
कविताएँ हैं। प्रेमपरक कविताएँ उनकी कोमल संवेदनाओं को उजागर करती हैं। अपनी प्रेम
कविताओं के माध्यम से मणिका ने कई बार प्यार को परिभाषित करने का भी प्रयास किया
है। यह दीगर बात है कि बतौर भूमिका उनकी कविताओं को पूजामय समर्पण की कविता कहा
गया है। वस्तुतः मणिका की कविताएँ अतृप्त वासना और असफल प्रेम की जमीन से उपजी
हैं। ‘आखिर तुम मेरे हो’, ‘छोटी सी चिड़िया’, ‘कटघरे में’, ‘दीवाना लड़की’, ‘कुछ गजलें’ आदि निश्चित रूप से प्रेम, प्रेम की असफलता, समर्पण के तिरस्कार इत्यादि की परतें
खोलती हैं और इनमें से असफल मनःस्थिति की ईमानदार टिप्पणी निकल आती हैं। असफलता की
इसी बौखलाहट में अनियन्त्रित गुस्सा और कभी स्वयं से तथा कभी आलम्बन से प्रश्नों
के बौछार निकलते हैं। पर यह भी एक तीखी अनुभूति का उदाहरण है। ‘हिन्दी’, ‘शर्म
की चीज’ जैसी कुछ कविताएँ निहायत कच्ची हैं, जो संकलन में अपनी उपस्थिति के लिए
प्रश्न चिह्न खड़ा सकती हैं। कुछ सियासी कविताएँ लिखने में कवयित्री को अतिरिक्त
असफलता हासिल हुई हैं।
हिन्दी के इन आठ संकलनों को देखते हुए जब आज की भारतीय कविता
के परिदृश्य पर नजर जाती है,
तो लगता है कि शायद
हिन्दी कविता में फिलहाल ठहराव की स्थिति चल रही है। यह बात तब और स्पष्टता से
साबित होती है, जब नवभारत टाइम्स (02.01.1994) में प्रकाशित हिन्दी, बंगला, कन्नड़
और असमिया कवियों को साथ-साथ देखा जाता है। पूरी तरह हिन्दी कविता की तीक्ष्णता
कुन्द होती जा रही है,
जबकि अन्य भारतीय
भाषाओं की कविताएँ तीक्ष्ण और धारदार होती हैं और नए-नए अनुभवों से परिचय कराती
हैं। इन स्थितियों में एक प्रश्न उठता है कि क्या यह कवियों के जन सरोकार और जमीन
से जुड़ाव पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाता?
कटघरे में (वैचारिकी
संकलन/दिल्ली/1993/पृ. 80/80.00)/-एक-एक कतरा, अप्रैल-जून 1999
•••
विद्यानिवास मिश्र द्वारा सम्पादित भोजपुरी की वाचिक परम्परा
के गीतों के संकलन ‘वाचिक कविता: भोजपुरी’ में लोक-परम्परा की अनूठी छवियोंवाले
तिरासी गीत संकलित हैं। इस संकलन की रचनाओं को चार खण्डों में बाँटा गया
है--सुमिरल, कहल, बतियावल
और कथावल। ‘सुमिरल’ खण्ड
में संकलित गीतों में शीतला माई,
कुल देवी, गंगा जी, संझा
माई, शिव-सती, आदिभवानी, राम-चन्द्र, कृष्ण आदि देवी-देवताओं के सुमिरन के
साथ, लोक-मंगल की कामनाएँ दर्ज हैं। इनमें
कुल चौदह कविताएँ संकलित हैं।
विद्यानिवास मिश्र ने इन गीतों को ‘वाचिक कविता’ कहा है। इस पुस्तक की भूमिका में
उन्होंने पूरी भारतीय संस्कृति को वाचिक परम्परा की परिणति बताते हुए यह स्थापित
किया है कि ‘भारतीय काव्य किसी-न-किसी रूप में वाचिक
संस्कार से अभी भी सुवासित है। कविता की वाचिकता किसी-न-किसी रूप में अभी भी है, लोक में आदर पाती है।’
विद्यानिवास मिश्र जैसे कृती विद्वान के इस वक्तव्य को
व्यावहारिक तौर पर जस-के-तस इसलिए भी स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि ‘लोक-साहित्य
की भाषा शिष्ट और साहित्यिक न होकर साधारण जन की भाषा है और उसकी वण्र्य-वस्तु, लोक-जीवन में गृहीत चरित्रों, भावों और प्रभावों तक सीमित है।’ इसके साथ-साथ लोक-साहित्य की एक और
मर्यादा है कि ‘उसकी रचना में व्यक्ति का नहीं, बल्कि समूचे समाज का समवेत योगदान’ होता है। इस संकलन की सारी ही कविताएँ
इस घोषणा के प्रमाण-स्वरूप हैं।
लोक-परम्परा में कीर्तन-भजन, प्रेम-विरह, शाप-वरदान, आहार-व्यवहार, राग-विराग, सुख-सुविधा, दुख-दुविधा को लय और तान में व्यक्त
करने और इन सारी स्थितियों को सामूहिकता देने की पद्धति प्राचीन-काल से लोकजीवन
में रची बसी है। आर्त्त-भाव से आरती करनी हो, या
समर्पण भाव से कीर्त्तन,
उल्लास-उमंग के साथ
होली खेलना हो, अथवा तन्मयता के साथ
कृषि-कर्म--लोक-परम्परा की सभी स्थितियाँ सार्वजनिकता और सामूहिकता में मुखरित
होती हैं। स्थिति चित्र इतना मार्मिक कि सहृदय मन औंचक सिहर उठे।--बादल बरस रहा है, ईष्ट देवों के लिए सेज सजाई जा रही है, जिन ईश्वरों की सेवा-भक्ति होनी है, उन्हीं की सेवा में मजबूरी बताई जा रही
है, प्रकृति से न लड़ पाने, प्रकृति को नहीं रोक पाने की मजबूरी
बताई जा रही है।
बाबा, कइसे मनाईं बदरबा
पनिया, रिमझिम बरिसे ना
जहाँ बर्हम बाबा सेज लगावें
ओहू प बरिसे ना
यहाँ ‘बादल’ को
वर्जना देने की अभीप्सा नहीं,
मनाने की लालसा है।
बादल जाएँ नहीं, रहें, मगर
जहाँ बर्हम बाबा, और डीह बाबा जैसे देवों की सेज है, वहाँ न बरसे...। लोक-परम्परा, लोक-चेतना, लोक-जीवन का संस्कार अपनी तमाम उदारता
के साथ इस संकलन में अपना परिचय दे रहा है। वहाँ सभी सामाजिक व्यवस्था रहने के
बावजूद, ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा, पूज्य-पूजक, आराध्य-आराधक--सभी तरह की व्यवस्था रहने
के बावजूद जनतन्त्र का बड़ा रोचक पहलू उजागर होता है। जहाँ कहीं भगवान-भक्त, पूज्य-पूजक, स्वामी-सेवक सभी एक पंघत में बैठते हुए
नजर आते हैं, वह वाचिक परम्परा की रचनाएँ और
लोक-परम्परा की स्थितियाँ ही हैं। कई मायने में हमारी लोक-परम्परा के सूत्र आज की
जीवन-व्यवस्था को बेहतरीन ढंग से परिष्कृत कर सकती हैं।
इस पुस्तक के दूसरे खण्ड ‘कहल’ में तीस कविताएँ संकलित हैं। इन कविताओं
का मर्म ‘कही हुई’ बातों
जैसा है। इसे ‘कहावत’ से
जोड़ा जा सकता है--‘तिरिया जनम ले कवन फल...पुतवा जनम जब
लेइहें’ या फिर ‘बाबा
निबिया के पेड़ जनि काटहुँ...बलइया लेईं बीरना!’ इस
खण्ड में गोण्ड गीत,
कहार-गीत, नेटुआ-गीत, चैती, होरी, कजली, फगुई, मार्ग-गीत, जँतसार, झूमर, हिण्डोला-गीत, बेटी-विदाई गीत, सुहाग गीत, जोग गीत, सिन्दूर-दान
गीत आदि संकलित हैं। तीसरे खण्ड ‘बतियावल’ की
इक्कीस कविताएँ वार्तालाप या प्रश्न उत्तर की शैली में हैं--
कवन गरहनवा बाबा साँझे जे लागे, कवन गरहनवा भिनुसार
चन्दर गरहनवा बेटी साँझे जे लागे, सुरुज गरहनवा भिनुसार
लोक-जीवन और सामाजिक जीवन पद्धति की सारी ही स्थितियाँ
लोक-गीतों में अथवा वाचिक परम्परा के अन्य विधानों में इसी तरह सूक्ष्मता से
व्याप्त हैं।
संकलन के चौथे खण्ड ‘कथावल’ की अठारह कविताओं के विषय-विधान और
अवसरों के चयन में कोई खास अन्तर नहीं हैं, सभी
लगभग वे ही हैं, पर यहाँ तरीके भिन्न हैं। यहाँ वे ही
सारी बातें कथावाचन की तरह कही गई हैं। सोहर, चैता, बारहमासा, बटगमनी
आदि गाते समय लोक-परम्परा का हर युवक राम और कृष्ण, हर
युवती सीता और राधा,
और हर माँ-बाप
कौशल्या-दशरथ, सुनैना-जनक, देवकी-वसुदेव हो जाते हैं। भक्त भगवान
का सम्बन्ध विखण्डित हो जाता है,
और एक नए समाज की
रचना हो जाती है।
इस संकलन का स्वागत धरोहर की तरह करने का एक अलग कारण यह भी है, कि वैज्ञानिक विकास के क्रम में आज बहुत
सारे लोग अपनी परम्परा और पारम्परिक बोली-बानी से कट गए हैं, उन्हें अपनी ही माटी के शब्द और आचरण
अनजाने लग रहे हैं,
इस संकलन की हरेक
रचना की व्याख्या सुस्पष्ट भाषा में हिन्दी में कर देने से यह संकलन भोजपुरीभाषी
जनता के अलावा अन्य लोगों के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण संकलन हो गया है।
वाचिक कविता:
भोजपुरी/भारतीय ज्ञानपीठ/1999, 2003/पृ 96/80.00
•••
लघु उपन्यास ‘चन्दो’ गोपालप्रसाद
व्यास की पहली औपन्यासिक कृति है। लेखकीय वक्तव्य में उन्होंने स्वीकारा है कि ‘व्यंग्य विनोद तो मैंने बहुविध लिखा है।
व्यंग्य में विनोद और विनोद में व्यंग्य का भी सम्मिश्रण है, संस्मरण भी लिखे हैं।...लेकिन कभी कोई
उपन्यास नहीं लिखा...।’
मगर, ब्रज समाज की विडम्बनाओं को उजागर करते
इस लघु उपन्यास में उनके कथा कौशल का उत्कर्ष निखर उठा है। भाषा प्रवाह, कथाभूमि के विस्तार, घटना क्रम के संयोजन, ग्राम्य पदों, मुहावरों, लोकोक्तियों
के प्रयोग तो इस उपन्यास में भली-भाँति मुखरित हुए हैं, मगर उपन्यास की कथा-नायिका चन्दो के
जीवन की परिणति आदर्शवाद की तरफ जाती है और उस आदर्शवाद के कारण नायिका के टूटन की
स्थिति आती है। फलतः नियताप्ति में कुछ महत्त्वपूर्ण हाथ नहीं लगता है। फिर भी
कमलेश्वर के इस वक्तव्य से सहमत हुआ जा सकता है कि ‘बड़ी
बात यह है कि व्यास जी ने उपन्यास विधा में रुचि ली, और
यह भी कि वे निरन्तर रचनारत हैं।’
उपन्यास की नायिका चन्दो, तकदीर
की मारी हुई है। स्त्रियों को शोषण,
और लगातार परीक्षण की
वस्तु मानने की प्रवृत्ति जगजाहिर है। इसी सामाजिक मानदण्ड में, बचपन में ही, पिता के जीवित रहने के बावजूद अनाथ हुई चन्दो, पूरे जीवन में क्या-क्या दुर्गति नहीं
सहती है! अपने प्रेमी से विवाह नहीं कर पाती, नियति
के कारण प्राप्त पति के लांछण का शिकार होती है, अपनी
बेटी को प्रेम विवाह की अनुमति देती है, सामाजिक
कार्यकत्र्ता बनती है,
म्युनिसिपल कमेटी की
अध्यक्षा बनती है, अपने बारे में लांछित पंक्ति सुनती है
और मर जाती है। सारी खूबियों के बावजूद यह नायिका समाज की युवतियों को परिणति के
रूप में कुछ खास नहीं दे पाती है। परिणति यदि सकारात्मक न हो, तो वह साहित्य समाज को उद्वेलित नहीं कर
पाता है, समाज उसके दुख का सहभागी बनकर रह जाता
है।...इस लघु उपन्यास की कथा घटना के स्तर पर यह सत्य हो सकती है। मगर साहित्य, सत्य घटना का चित्रण मात्र नहीं। इस
नायिका को और ज्यादा जुझारू और व्यवस्था के ठेकेदार बने लोगों के प्रति आक्रामक
बनाने की आवश्यकता थी।
इन सबके बावजूद महान हिन्दी सेवी, राष्ट्रभाषा की सेवा में अपने को
धूपबत्ती की तरह जला देने वाले प्रसिद्ध निबन्धकार श्री गोपालप्रसाद व्यास ने इस
उम्र में उपन्यास लिखा,
यह बड़ी बात है।
सामाजिक विडम्बनाओं पर जिस व्यंग्यात्मक लहजे का उन्होंने उपयोग किया है, उससे इसकी प्रभावान्विति में चार चाँद
लग रहे हैं।
चन्दो/2004/पृ. 91/100.00/2004
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आधुनिक मराठी कथा-साहित्य के अग्रणी रचनाकार विश्वास पाटिल, आधुनिक जनपद के वर्तमान सामाजिक परिवेश, और विरासत की महिमामयी गाथा के चितेरे
हैं। व्यवस्थित सामाजिक सन्दर्भ और सहज मानवीय मूल्य का रागानुराग उनके रचनाकर्म
का मूल लक्ष्य होता है। विषय की सार्वभौमिकता और वैराट्य के कारण वे पूरे देश के
सभी भाषाओं और सभी क्षेत्रों के पाठकों को अपने-से लगते हैं। वर्तमान समाज
व्यवस्था की विसंगतियों पर कुपित और व्यंग्यात्मक दृष्टि तथा ऐतिहासिक तथ्य पर
आधारित रचनाओं में विवेकपूर्ण तर्कदृष्टि द्वारा पाठकों के मन मिजाज पर उनका
साम्राज्य बना रहता है। विश्लेषणपरक इतिहास-बोध और संवेदनात्मक सामाजिक सरोकारों
के कारण उनकी कृतियाँ एक विशेष कालखण्ड के आरोह-अवरोह से गुजरती हैं और समय तथा
समाज के वस्तुपरक सत्य से पाठकों को अवगत कराती हैं। उनके चर्चित उपन्यास
चन्द्रमुखी का हिन्दी अनुवाद एक रोचक अनुभूति देता है।
आलोच्य उपन्यास चन्द्रमुखी लोक-मंच की एक नृत्यांगना
चन्द्रमुखी की जीवन-यात्रा के उतार-चढ़ाव, द्वन्द्व-संघर्ष, सफलता-विफलता, राग-विराग, सुख-सौरभ, दुख-दुविधा
की गाथा है। इस उपन्यास की कथा में लोक-मंच के कलाकारों का जीवन-जगत इस बारीकी और
आत्मीयता से चित्रित हुआ है कि सहृदय पाठक उनके सुख-दुख से अपने को अलग नहीं रख
पाते। बाहरी तौर पर इस उपन्यास की कथा किसी राजनेता के राजनीतिक जीवन के
उत्थान-पतन और राजनीतिक अखाड़ेबाजी में सम्बन्धवाद, चाटुकारिता
वृत्ति एवं षड्यन्त्र का खजाना दिखती है, मगर, सही अर्थों में इस कथा में ‘स्त्री-शक्ति’ का उदात्त चित्र, अन्तःसलिला स्रोत की तरह दिखता है।
‘स्त्री
विमर्श’ पर अब तक भारतीय भाषाओं में बहुत कुछ
लिखा जा चुका है, मगर इस कथा में स्त्री शक्ति का बेमिसाल
चित्र उपस्थित हुआ है,
जहाँ प्रख्यात
नृत्यांगना चन्द्रमुखी,
पूरे जीवन और आचरण
में सन्तुलित ढंग से अपने स्त्रीत्व का परिचय देती है। लाख संघर्ष करती रही, राजनीतिक हल्कों में और संचार माध्यमों
में अपनी बदनामी झेलती रही,
मगर कभी वह अपनी
मान्यता और अपने लक्ष्य से नहीं हिली। प्रशंसा से खुश होना, अपमान से दुखी होना मानवीय प्रवृत्ति है, इसलिए वह भी खुश और दुखी हुई, मगर उल्लास अथवा व्यथा में भी अपना
नियन्त्रण बनाए रखा।
कथानायक दौलतराव पढ़े-लिखे युवा नेता के रूप में भारत के
राजनीतिक मैदान में उभरे,
अपने श्वसुर और
राजनीति के मँजे हुए खिलाड़ी दादा साहब के निर्देशन एवं संस्तुति के अधीन राजनीतिक
क्षितिज को छूना चाहते हैं। अचानक केन्द्रीय उद्योग मन्त्री की मृत्यु हो जाने के
बाद वह पद दौलतराव को मिलने वाला है। दादा साहब पूरी तल्लीनता से लगे हुए हैं। मगर
बीच में दौलतराव के फार्म हाउस में छापा पड़ता है और दौलतराव का चारित्रिक बदबू
पूरे देश में फैल जाता है।
इस कथा प्रवेश के साथ उपन्यास की मूल कथा शुरू होती है, चन्द्रमुखी की कथा आगे बढ़ती है। लोक-मंच
की प्रख्यात नृत्यांगना दौलतराव पर दिलोजान से न्योछावर है, दौलतराव अपनी धर्मप्राण पत्नी डॉली को
अन्धेरे में रखकर चन्द्रमुखी के साथ प्यार का नाटक करता हुआ ऐश करता है। दौलतराव
का साढूभाई नाना, चन्द्रमुखी के साथ बलात्कार करता है।
दौलतराव के फार्म हाउस पर छापा पड़ने से दौलतराव की निन्दा होती है और उनके हाथ आया
हुआ मन्त्री पद छिन जाता है। फिर जब चन्द्रमुखी के उदारतापूर्ण वक्तव्य से दौलतराव
की छवि की गन्दगी धुल जाती है,
तब दौलतराव को
मन्त्री पद मिलता है और उनकी पत्नी डॉली, दौलतराव
के काले कारनामे की धज्जियाँ उड़ाती हैं। चन्द्रमुखी से शादी करने को कहती है।
कृतज्ञता ज्ञापन हेतु जब दौलतराव चन्द्रमुखी के पास पहुँचता है, तब चन्द्रमुखी उसे आड़े-हाथों लेती है।
दौलतराव के सारे प्रस्तावों को ठुकराकर महाराष्ट्र के कोने-कोने में अपनी कला की
ध्वनि पहुँचाने पुणे चल देती है।
पूरे उपन्यास में डॉली और चन्द्रमुखी का चारित्रिक विश्लेषण
उत्कर्ष पर रहता है। कई पुरस्कारों से सम्मानित, कई
पुस्तकों के रचयिता विश्वास पाटिल का कथा कौशल इस उपन्यास में इतना मँजा हुआ है कि
जितनी बार पढ़ा जाए,
हर बार कथा नई लगे।
राजनीतिक गलियारे की गन्दगी में लोक-मंच की कला और लोक-मंच की अभिलाषा-आकांक्षा
किस तरह जल-भुन जा सकती है,
इसका, इससे बेहतर उदाहरण और कुछ नहीं हो सकता।
हर रचनाकार की हर रचना के पीछे कोई घटना होती है, कथाकार उसे सजाता है। हो सकता है कि
सजने के बाद वह किसी समकालीन व्यक्ति के जीवन से ताल मेल खा ले, मगर जो रचना अपनी समकालीनता हर समय बनाए
रखे, कालजयी कृति वही होगी। इस उपन्यास को
कालजयी कृति कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। स्त्री-विमर्श का इतना मुखर और
सकारात्मक प्रतिफल कम दिखता है। इस उपन्यास का स्त्री-विमर्श और राजनीतिक-विमर्श
वास्तविक है या नहीं,
यह शोध का विषय हो
सकता है, मगर वास्तविक लगता है--यह तय है।
चन्द्रमुखी का दृढ़ व्यक्तित्व,
न केवल चन्द्रमुखी को, बल्कि पूरी स्त्री जाति के सोच को एक
ठोस आधार देता है, और उन राजनीतिक विकृतियों को उजागर करता
है, जहाँ देश-दशा और जनजीवन का पराभव ही
दिखता है।
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रवीन्द्रनाथ त्यागी हिन्दी के यशस्वी व्यंग्यकारों में से हैं।
भारतेन्दु के जमाने से चली आ हिन्दी गद्य परम्परा की व्यंग्य-धारा, स्वातन्त्र्योत्तर काल में जिन
गिने-चुने व्यंग्यकारों के यहाँ विधात्मक प्रतिष्ठा पाई, उनमें रवीन्द्रनाथ त्यागी का नाम सम्मान
से लिया जाता है।
वसन्त के पतझर पुस्तक इनके चुने हुए संस्मरणात्मक व्यंग्य का
संकलन है। अशोक इन्दु त्यागी द्वारा तैयार किए गए इस संकलन में चुने हुए उन 43 व्यंग्य-लेखों को समाविष्ट किया गया है, जिनमें संस्मरणात्मक पुट है। इन लेखों
में रवीन्द्रनाथ त्यागी ने कहीं दूर की कौड़ी लाने की कोशिश नहीं की है, अपनी जीवन-यात्रा और रचना कर्म के दौरान
जो कुछ भी उन्होंने महसूस किया,
उसे तीक्ष्णता के साथ
यहाँ दर्ज किया है। कविता का परिदृश्य छोड़कर इस जोखिम भरी विधा में आए रवीन्द्रनाथ
त्यागी का मूल स्वभाव अट्टहास के अन्दाज में विषय की प्रस्तुति है। वे अकविता
आन्दोलन के दौरान सक्रिय होकर कविता लिख रहे थे। बचपन के दुख भरे विपन्न दिनों की
स्मृतियों, जीवन के उतार-चढ़ाव, देश और समाज में बढ़ते भ्रष्टाचार ने
उन्हें क्षोभ और क्रोध से भर दिया था। इसी क्षोभ ने उनके व्यंग्य की धार को
तीक्ष्ण किया। एक गन्दे कस्बे के जिस शोषित समाज में उनका जीवन शुरू हुआ, उसकी भयावह स्मृतियाँ काली परछाइयों की तरह
उनके मन-मस्तिष्क पर जीवन भर छाई रहीं।
सामाजिक विडम्बनाओं और विकृतियों की पराकाष्ठा से किसी
रचनात्मक व्यक्ति के मन में क्रोध उपजना स्वाभाविक है। जिस संवेदनशील लेखक का जन्म
गुलामी के माहौल में हुआ हो,
किशोरावस्था पार
करते-करते देश आजाद हुआ हो;
और आजाद देश की नई
व्यवस्था में वह देखे कि मुट्ठी भर शक्तिशाली नागरिक पूरे समूह को कठपुतली की तरह
नचा रहा है, आजाद होकर भी हम आजाद नहीं हैं; समाज व्यवस्था बनाने वाले पण्डित
पाखण्डी हैं, तो किसी रचनाशील मन में व्यंग्य ही उभर
सकता है।
रवीन्द्रनाथ त्यागी ने देश की इन अराजक स्थितियों, समाज-व्यवस्था के पाखण्डों का गम्भीरता
से परीक्षण कर जस के तस रख दिया। कुछ भी उधार नहीं रखा। एकदम उन्हीं की भाषा में
उनका सब कुछ।
जीवन भर बेमेल व्यक्तियों और बेमेल परिस्थितियों से जूझते हुए
जिन आहत करने वाली परिस्थितियों को उन्होंने झेला, उनका
प्रतिफलन ही उनकी रचनाएँ हैं। संस्मरण शैली में लिखे गए इन व्यंग्य लेखों में
उन्होंने वक्रोक्ति और व्यंजना का सहारा लिया है।
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कवि,
आलोचक डॉ सुधेश का
उपन्यास रेत के टीले का केन्द्रीय विषय शिक्षा जगत की विसंगतियाँ, विश्वविद्यालयों की विषम परिस्थितियाँ, छात्र-छात्राओं की समस्याएँ, शिक्षकों की नीयत एवं नियति और उनके
आन्दोलन हैं। ये उच्च शिक्षा-संस्थान रेत के टीलों में रूपान्तरित होते जा रहे
हैं--रेत के टीले जो तेज आँधी में स्थान बदलते रहते हैं। रेत के टीले धूल, आँधी; और
पानी तथा हरियाली के अभाव के प्रतीक हैं। इस उपन्यास के अनुसार हमारे
विश्वविद्यालयों में विचारों की स्वच्छता, ज्ञान
की आँधी, जीवन की सजलता व सरसता और उच्च मानवीय
मूल्यों की हरियाली शेष नहीं रह गई है। शिक्षा संस्थाओं का राजनीतिकरण और
व्यासायीकरण बढ़ रहा है। ऐसे प्रश्नों के उत्तरों को इस उपन्यास में खोजने का
प्रयास किया गया है।
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सुपरिचित कवि अजित कुमार के सात कविता-संग्रहों के अलावा कहानी, उपन्यास, यात्रा
संस्मरण, आलोचना आदि की लगभग दो दर्जन पुस्तकें
प्रकाशित हैं। उन्हें पूर्वज पीढ़ी के अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों से निकटता का
सुअवसर पारिवारिक पृष्ठभूमि,
शिक्षा-दीक्षा आदि के
नाते मिल सका। ‘दूर वन में’ तथा ‘निकट
मन में’ के अपने संस्मरणों में उन्होंने कुछ
लोगों का चित्रण किया भी है। हरिवंश राय बच्चन के साथ उनका बड़ा ही नेहमय सम्बन्ध
था। कविवर बच्चन के साथ पुस्तक में हरिवंश राय बच्चन के साथ अजित कुमार के निजी और
अन्तरंग वार्तालाप संकलित हैं। इसमें अंकित प्रसंग छायावादोत्तर काल के
महत्त्वपूर्ण कवि हरिवंश राय बच्चन के लेखन और जीवन को सूक्ष्मता से रेखांकित करते
हैं। इसे बच्चन के रचनात्मक सूत्रों को बेहतर ढंग से जानने का दिग्दर्शिका कहा जा
सकता है। इसमें अंकित प्रसंग पूर्णतः प्रामाणिक हैं। ये प्रसंग कई बार बच्चन जी की
आत्मकथा-शृंखला ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ की नींव में मौजूद पत्थरों जैसे जान
पड़ेंगे।
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धर्मवीर भारती के पत्र: पुष्पा भारती के
नाम एक ऐसे कालजयी
रचनाकार के अन्तरंग का आलोक है,
जिसने भारतीय साहित्य
को अभिनव आकाश प्रदान किए हैं। धर्मवीर भारती के ये पत्र भावना की शिखरमुखी ऊर्जा
से आप्लावित हैं। अपने साहित्य में प्रेम की अद्भुत व्याख्या के लिए भारती
सुपरिचित हैं। इन पत्रों में दर्ज प्रेम का वैराट्य अभिव्यक्ति का पवित्र प्रतिमान
निर्मित करता है। ये पत्र दैनन्दिन जीवन का व्यक्तिगत लेखा-जोखा मात्रा नहीं है, ‘सम्बोधित’ के
प्रति समग्र-समर्पण और उसके हितचिन्तक की प्रेमिल पराकाष्ठा इसकी विशेषता है। यह
भी कहना उचित है कि भारती-साहित्य को समझने में इन पत्रों से एक नया झरोखा खुल
सकेगा।
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सौरी की कहानियाँ नवीन कुमार नैथानी का पहला कहानी-संग्रह है।
लोक-आख्यानों-उपाख्यानों एवं किंवदन्तियों को समकालीन कहानी में दर्ज करने वाले
रचनाकारों की संख्या कम है। नवीन कुमार नैथानी लम्बे अरसे से पहाड़ी अंचल की
लोक-कथाओं को समकालीन कहानी का कलेवर प्रदान करने वाले ऐसे ही विरल रचनाकार हैं।
ये लोक-कथाएँ सचमुच किसी अंचल विशेष ‘सौरी’ की हैं या कहानीकार की कपोलकल्पित
रचनाएँ--उतनी ही अस्पष्ट हैं जितनी ऐसी रचनाओं का भूगोल-इतिहास। सौरी और वहाँ के
बाशिन्दों का देशकाल निर्मित करती हुई इन कहानियों से ‘सौरी’ हमारे
वर्तमान समय एवं समाज की पहचान बनकर आश्वस्ति प्राप्त कर लेता है। लोक-सम्पदा से
समृद्ध और विकसित करने की यह व्यापक रचनात्मक चेष्टा नवीन कुमार नैथानी को अपने
समवर्ती रचनाकारों से अलग पहचान दिलाती है।
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सन्तोख सिंह धीर पंजाबी के बहुचर्चित एवं प्रतिष्ठित
कवि-कथाकार हैं। नया जन्म उनके पंजाबी उपन्यास नवां जन्म का अनुवाद है। नवां जन्म
का प्रकाशन सन् 1997 में हुआ था। इस उपन्यास की कथावस्तु एक
लेखक पात्र की मनोदशाओं पर आधारित है। सामान्य परिवार से सम्बद्ध यह चरित्र अपनी
पारम्परिक जीवन-पद्धति से घोर अवसाद में चला जाता है जिसका परिणाम न केवल जीवन
जीने के विरुद्ध है बल्कि रचनात्मक स्तर पर भी असह्य है। इस तरह उसका व्यवहार
सामाजिक और रचनात्मक स्तर पर मनोरोगी से कम नहीं देखा जाता। एक मनोरोगी पात्र की
यह कहानी हिन्दी साहित्य जगत में एक नया स्वाद देती है।
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मॉरिशस में जन्मे हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार अभिमन्यु अनत ने
भारत के हिन्दी पाठकों में भी अच्छी लोकप्रियता हासिल की है। उपन्यासों की कड़ी में
मेरा निर्णय उनकी बत्तीसवीं कृति है। इस उपन्यास में मॉरिशस के महत्त्वाकांक्षी
जनसमुदाय के कुछ प्रतिनिधि चरित्रों की जीवनगाथा अंकित है। देश में बेकारी अपनी
पराकाष्ठा पर है। इन परिस्थितियों में नौकरी पाने के लिए नवयुवकों को
प्रभुसत्तात्मक देश इंग्लैण्ड की ओर ताक लगाए रहना पड़ता है। उपन्यास की कथाभूमि
यद्यपि मॉरीशस की है,
तथापि वहाँ की
संस्कृति, संस्कार, मानसिक
उद्वेग, हर्ष-विषाद आदि सब कुछ भारतीय परिवेश से
मिलते-जुलते हैं।
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अलग-अलग दीवारें सुमति सक्सेना लाल का पहला कहानी-संग्रह है।
सुमति की कहानियों में बहुआयामी जीवनानुभव समाहित है। उन्होंने जो चरित्र गढ़े हैं
वे समाज में कहीं भी देखे जा सकते हैं। इन चरित्रों के द्वारा सुमति
विचारों-आस्थाओं तथा अवधारणाओं में आ रहे परिवर्तनों को प्रकट करती हैं। परम्परागत
शब्दावली में कहें तो सुमति सक्सेना लाल की कहानियाँ चरित्र-प्रधान हैं। इस
कहानी-संग्रह के सूत्र उस समाज में बिखरे हैं जो शिक्षित हैं और एक नवीन जीवन-पथ
का अन्वेषण कर रहा है। इन कहानियों का यथार्थ अधिकतर नारी-जीवन की विसंगतियों पर
प्रकाश डालता है।... अर्थात् स्वीकार और नकार के द्वन्द्व में उलझा जीवन किसी भी
निर्णय तक पहुँचने से पहले आत्मसंघर्ष की जटिल प्रक्रिया से गुजरता है।
मर्मस्पर्शी मनःस्थितियों के सार्थक चित्रण के कारण यह संग्रह अत्यन्त प्रभावकारी
है।
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कित्ता पानी अनिता गोपेश का पहला कहानी-संग्रह है। अनिता गोपेश
अपनी कहानियों के सन्दर्भ मध्यवर्गीय समाज से जुटाती हैं। रूढ़ि और आधुनिकता के बीच
विकसित होते सम्बन्धों को केन्द्र में रखकर उनकी कहानियाँ आकार पाती हैं। लेखिका
ने स्त्री-विमर्श की पक्षधरता के अनुरूप कहानियों में स्त्राी-जीवन की विभिन्न
स्थितियों को रेखांकित किया है। इन कहानियों के मुख्य पात्रा परिवार, प्रेम, अस्तित्व
एवं आर्थिक सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं के बीच संघर्षरत हैं। इन समस्याओं के लिए जो
कारण उत्तरदायी हैं,
लेखिका ने उनकी ओर भी
संकेत किया है। एक ‘समेकित सामाजिकता’ के भीतर दिन-प्रतिदिन होने वाले ‘जटिल भावनात्मक युद्ध’ की व्यक्तिगत प्रतिक्रियाएँ उनकी
कहानियों में अनुगूंजित हैं। भाषा निरलंकार होने के बावजूद पर्याप्त प्रभावी है।
उसमें व्यक्ति के मनोभावों का सूक्ष्म विवेचन भली-भाँति अंकित हुआ है।
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अकथ युवा कहानीकार रणविजय सिंह सत्यकेतु की रचनाशीलता को
प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करनेवाला कहानी-संग्रह है। ये कहानियाँ हमारे बाहर और
भीतर व्याप्त जड़ता और संवेदनहीनता के परिदृश्य को शिद्दत से उद्घाटित करती हैं।
यहाँ सदियों से गुलामी बजाती भीड़ के उस जीवन-संघर्ष को रेखांकित किया गया है, जिसमें अपने भारी संख्या-बल के बावजूद
अमानवीय परिस्थितियों से संघर्ष करने, और
त्रासद नियति को झेलते रहने को वह मजबूर होता रहा है, सामन्ती संस्कारों के आगे घुटने टेकते
रहा है। ये कहानियाँ उस मुठभेड़ में शामिल व्यक्ति चरित्रों की कथा को उजागर करती
हैं। उनके हौसलों के सामने सामन्तशाही बौनी साबित होती है। यही संघर्ष और हौसला
सत्यकेतु की कहानियों का अन्तःसूत्र है। हमारी सामाजिकता का वर्तमान और स्मृति पर
रूढ़ि की विजय के उद्घोष को तटस्थ मुद्रा झेलते जाना जिस समाज की पद्धति हो जाए, वहाँ की जीवन-व्यवस्था का वास्तविक
स्वरूप इन कहानियों में उकेरा गया है। सत्यकेतु इस सामाजिकता और तटस्थता के बरक्स
स्मृति की ताकत को रेखांकित करते हैं।
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उत्तर उपनिवेशवादी भारतीय परिवेश में नागरिक-जीवन, विचित्रताओं का कोलाज बन गया है। उत्तर
आधुनिक सभ्यता की देन से जनजीवन कितना आधुनिक हुआ, कितना
अराजक, इसका लेखा-जोखा कर पाना भी एक जोखिम भरा
काम है। पर यह जोखिम कथाकार शिवदयाल ने उठाया है। उनके कहानी संग्रह मुन्ना
बैण्डवाले उस्ताद में उसी जीवन की वास्तविकता अंकित हुई है। दाम्पत्य जीवन की
संशयात्मकता हो या मानवीयता पर बाज़ारवाद का प्रभाव, परजीविता
का बोलबाला हो या बिन्दास जीवनशैली...उत्तर आधुनिक सभ्यता के हर प्रतिफल का
प्रतिरोध इन कहानियों में दर्ज है। शिवदयाल न तो समय से त्रस्त हैं, न आशंकित। नया समाज रचने के क्रम में वे
समय भी रच लेते हैं। भूमण्डलीकरण के नए अर्थतन्त्र की उलझन से अपनी अस्मिता के लिए
संघर्ष करते चन्दन और खुशबू जैसे उनकी कहानियों पात्र सहज ही नायकत्व पा जाते हैं।
वाकई ये कहानियाँ अपने समय के सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति हैं। दिलचस्प है कि
यहाँ यथार्थ की भाषा रचने में कथाकार की कला की सहजता दिखाई पड़ती है।
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ग्यारह कथा-संग्रहों से अपनी पहचान बना चुकीं दीपक शर्मा
हिन्दी कथा-साहित्य के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। नारेबाजी के जिस तुमुल कोलाहल
में ‘स्त्री-विमर्श’ खोता जा रहा है, और ‘देह-विमर्श’ निर्धारित करने की तमाम कोशिशों में लोग
जुटे हुए हैं, वहाँ ‘स्त्री-मुक्ति’ और ‘सापेक्ष
स्वतन्त्रता’ का जरूरी कलेवर तैयार देखने हेतु दीपक
शर्मा की कहानियों का संग्रह घोड़ा एक पैर अपना उत्तरदायित्व निर्धारित करता है। इन
कहानियों का अनुभव-संसार सघन और व्यापक है, जिसकी
परिधि में एक तरफ निम्न-मध्यवर्गीय जीवन की विषम परिस्थितियाँ भी हैं तो दूसरी तरफ
उत्तर आधुनिक अभिलाषाएँ भी। यहाँ जीवन की अनेक समकालीन समस्याएँ, नित नवीन होते षड्यन्त्रों की पद्धतियाँ
और कठिन परिस्थितियों के प्रति संघर्ष इन कहानियों में उत्तरजीवन की चुनौतियों की
तरह प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। कथा रस की शर्तों पर तो इनका महत्त्व और अधिक हो
जाता है।
•••
उमा शंकर चौधरी युवा कवियों में एक जाना-माना नाम
है--भूमण्डलीकरण के बाद के कस्बे,
नगर, गली, मुहल्ले
उनकी कविता में बेचैन और किंकर्तव्यविमूढ़ मिलते हैं--जन-जीवन में बिखड़ी पीड़ा, विवशता और बेचैनी के कई अन्तरंग चित्र
उनकी कविताओं में खड़े दिखते हैं। राजनीतिक षड्यन्त्र, आगजनी, हत्या, आतंक, लूटपाट
और मूल्यहीनता, आपसी सम्बन्धों में सहज ऊष्मा का अभाव, अपने आप में इतने बड़े विषय हैं कि ‘कोई कवि बन जाय सहज सम्भाव्य है।’ इन बड़े विषयों पर लिखते हुए बड़बोला होने
के खतरे बने रहते हैं। उमा शंकर की खासियत यह है कि वे बड़बोला होने से बचते
हैं--कभी फैण्टेसी के सहारे,
कभी दूसरी महीन
तकनीकों के दम से कवि जैसी तरकीब रचते हैं, वह
कभी तो अचानक से पाठक को झटक देती है; कभी
आँखों को और अधिक तेजमय बनाती है,
कभी कानों को और अधिक
सुग्राह्य, कम-से-कम चौकन्ना तो उसको कर ही देती
है। कहते हैं तब बादशाह सो रहे थे शीर्षक कविता संग्रह में उनकी ऐसी ही कविताएँ
संकलित हैं।
•••
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