Tuesday, March 17, 2020

सदानन्द साही की दो कृति‍यां


असीम कुछ भी नहीं

असीम कुछ भी नहींकविता संग्रह कवि सदानन्द शाही की चौहत्तर कविताओं का पहला और ताजा संकलन है। आज के माहौल की अराजक स्थितियों की विकरालता से टक्कर लेती हुई इन कविताओं से कवि की आस्था इस बात के लिए आश्वस्त करती है कि भयावह स्थितियों के बावजूद असीम कुछ भी नहींहै।

अपनी सृजनशीलता में शब्द, बिम्ब, भाषा और अभिव्यक्ति शैली--हर स्तर पर कवि सामान्य जन के करीब हैं। भाषा सहजता और बेबाक टिप्पणियों की मदद से कई जगह कविता में सपाटबयानी भी है। पर, यह सपाटबयानी उद्दाम प्रवाह वाली नदी के बहाव की तरह इतनी उध्र्वगामी है कि वे सहज रूप से पाठकों के मनोमस्तिष्क पर छा जाती हैं। श्रेष्ठ कवि केदारनाथ सिंह इन कविताओं पर लिखते हैं: इस संग्रह की कविताएँ विराट या भव्य के विरुद्ध साधारण का पक्ष लेने वाली कविताएँ और एक खास अर्थ में भव्य या असीमके बिम्ब को तोड़ने वाली कविताएँ भी हैं। अभिधा के सहज ठाट में लिखी हुई ये कविताएँ मानो चुपचाप यह साबित करने का प्रयास करती हैं कि वर्तमान जीवन के गद्य को व्यक्त करने की सबसे अधिक क्षमता अभिधा में ही है। इस अभिधा वृत्ति को धार देने के लिए इस युवा कवि ने अक्सर व्यंग्यमय विडम्बना का सहारा लिया है। इस प्रकार इस पद्धति द्वारा एक अलग ढंग का शिल्प विकसित करने का प्रयास किया गया है।जब कवि कहते हैं कि
हथौड़ा चलाने वाले हाथ
धरती की छाती चीरकर
अन्न उगाने वाले हाथ
गुलामी की जंजीरें पहनने के लिए नहीं हैं
तो जाहिर है कि एक सन्देश और एक सपाटबयानी में कवि ने अपने और अपने आस-पास के साधारण जन की ताकत को व्यक्त किया है, जनशक्ति की प्रबलता की ओर इशारा किया है।
भरोसा
किसी पर्वत पर नहीं
हाथ की उस कुदाल पर करो
जो खोद सकती है पर्वत...
ऐसी पंक्तियाँ मानवीय शक्ति की बुनियाद से परिचय कराती हैं। पूरे संग्रह की सारी ही कविताएँ मनुष्य के हाथ, बुद्धि, ताकत, तरकीब, ज्ञान, उद्यम के वजूद की गाथा कहती हैं और उसकी शक्ति के प्रति आश्वस्त करती हैं। ये कविताएँ मानवीय जीवन में आए हर झंझावात से लड़ने की प्रेरणा देती हैं और विजयश्री की आश्वस्ति भी। नदी’, ‘स्त्री’, ‘देविका के लिए कविताऔर ईश्वर से मुलाकातशीर्षक से कवि ने शृंखला में कविता लिखी है। ये कविताएँ बडे़ सहज अन्दाज में, पास-पड़ोस में बिखरे विषयों पर व्यंग्यात्मक शैली में लिखी गई हैं। इनमें निरीहता भी है, प्राबल्य भी; दैन्य भी है और ताकत भी--पर, कुल मिलाकर ये और संग्रह की अन्य सभी कविताएँ एक मुठभेड़ की कविता है, जो बिना खून-खराबा, नारेबाजी, बारूद, बम-पिस्तौल के एक जंग की प्रेरणा और जय का बोध देती है। ये कविताएँ प्रमाणित करती हैं कि सचमुच असीम कुछ भी नहींहै, यदि मनुष्य को
प्यास भर पानी
भूख भर अन्न
देह भर धरती
आँख भर आकाश
साँस भर हवा
आँचल भर धूप
अँजुरी भर रूप
और जीवन भर प्यार मिल गया, तो उसे और कुछ नहीं चाहिए; असीम कुछ भी नहीं चाहिए, ‘सब कुछ सीमा में चाहिए।
 --ने.बु.ट्र.संवाद
असीम कुछ भी नहीं/सदानन्द साही/ वि.वि.प्रकाशन, वाराणसी/पृ. 88, रु. 100.00
 

दलित साहित्य की अवधारण और प्रेमचन्द

प्रेमचन्द का साहित्य हम भारतीयों के लिए ऐसा धरोहर है, जहाँ हम प्राचीन, अद्यतन हर समालोचनात्मक उपस्कर का उपयोग कर सकते हैं। इन दिनों दलित और स्त्री के समर्थन में सृजनात्मक, आलोचनात्मक--दोनों तरह के विपुल लेखन हो रहे हैं, पर तथ्यतः ऐसे  चिन्तन के बेशुमार सूत्र हमारे पूर्वजों ने पहले से दे रखे हैं। अकेले प्रेमचन्द के यहाँ दलित-चिन्तन के इतने दृष्टिकोण प्रकट होते हैं कि सारी सम्भावनाएँ आइने की तरह साफ दिखने लगती हैं।
दलित साहित्य की अवधारण और प्रेमचन्दपुस्तक ने इन्हीं सम्भावनाओं की तलाश की है। यह पुस्तक राजेश कुमार मल्ल के सहयोग से सदानन्द शाही ने सम्पादित की है। इन दिनों दलित लेखनपर खूब चर्चा हो रही है, किन्तु सतह पर सही काम करने वाले लोगों की कमी अभी भी है। ऐसे फैशनपरस्तों की कमी नहीं जो नेता तो मजदूरों के होंगे, चर्चा तो दलितों की करेंगे पर अपनी क्रिया में श्रमिकों को हीन दृष्टि से देखने में और उसकी मजदूरी मारने में कोई भी कसर नहीं उठाएँगे। इन सारी दृष्टियों से प्रेमचन्द का साहित्य शायद दलित साहित्य की अवधारणा को रेखांकित करने में ज्यादा सहायक होगा। आलोच्य पुस्तक में इस तथ्य का प्रमाण मिलता है।
इस पुस्तक में कुल अठारह निबन्ध हैं, जिन्हें तीन खण्डों में प्रस्तुत किया गया है। पहले खण्ड में विचार’, दूसरे खण्ड में विमर्शऔर तीसरे खण्ड में संवादहै। संवाद में नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, परमानन्द श्रीवास्तव से दलित लेखन पर बातचीत की गई है और दलित साहित्य पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट दी गई है। विमर्श खण्ड में नामवर सिंह, विजेन्द्र नारायण सिंह, मोहनदास नैमिशराय, सदानन्द शाही समेत कई विद्वानों के शोध सम्पन्न और विमर्श समृद्ध आलेख हैं जो प्रेमचन्द के साहित्य में दलित चेतना के ओर-छोर तलाश रहे हैं। विचार खण्ड में अय्यप्पा पणिक्कर, के. सच्चिदानन्द, मैनेजर पाण्डेय, ताराचन्द खण्डेकर प्रभृत्ति महान विचारकों के विचार रखे गए हैं।
--ने.बु.ट्र.संवाद

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