सच लिखने का शरत् साहस
शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय का लेखन
‘चरित्रहीन’, ‘देवदास’, ‘काशीनाथ’, ‘श्रीकान्त’, ‘बड़ी दीदी’, ‘परिणीता’ जैसी कृतियों के प्रणेता शरत चन्द्र
चट्टोपाध्याय का लेखन भारतीय वांग्मय के लिए और उनका जीवन जनसमुदाय के लिए
अनुकरणीय है। वे जीवन भर तत्कालीन समाज में नारी-जीवन की विडम्बनाओं, मूल्यगत विकृतियों, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के विचारों
और राष्ट्रीय स्वाधीनता एवं सम्प्रभुता के प्रति नैष्ठिक रूप से चिन्तनशील रहे; विसंगतियों में आकण्ठ डूबे नागरिक-जीवन
की दुर्दशा से सदैव व्याकुल रहे;
स्पष्टतः ये सारे
प्रसंग उनकी रचनाओं के केन्द्रीय विषय थे! शोषित, उत्पीड़ित
स्त्रिायों के जीवन के सच को रेखांकित करना उनके लेखन और चिन्तन का प्राथमिक उद्देश्य
था।
उनके उपन्यासों में वेश्याओं के चित्रण के मद्देनजर इलाचन्द्र
जोशी ने उनसे प्रश्न किया कि यह उनकी वैयक्तिक रुचि की अभिव्यक्ति है क्या? तो शरत ने उत्तर दिया, ‘मैं स्वयं ऐसी स्त्रियों के सम्पर्क में
आया हूँ और मैंने तीव्र वेदना के साथ यह अनुभव किया है कि वे हमारे समाज के
अत्यन्त शोषित तथा उत्पीड़ित वर्ग की हैं। उन्हें केवल अपनी वित्तीय सुरक्षा के लिए
इतना अधम तथा घृणित जीवन बिताना पड़ता है। वे इससे मुक्ति चाहती हैं, किन्तु उन्हें सन्ताप सहना पड़ता है।
उनके इस दुर्गम सन्ताप को अधिक लोग नहीं समझ सकते, यदि
कभी कोई समझ भी लेता है तो वह इसे कभी भूल नहीं सकता। मैंने बहुत पहले निश्चय कर
लिया था कि उनके हृदय में हमेशा धधकते रहने वाले विद्रोह को मैं स्वर दूँगा और
अपने इस उद्देश्य को पूरा करने में कोई कोर कसर नहीं रखूँगा।’
उनकी जीवन-दृष्टि के रचाव में निश्चय ही ऐसी दुर्वह अनुभूतियों
का योगदान था। नागरिक-जीवन के अनुशीलन की उनकी पद्धति किताबी सूत्रों, सिद्धान्तों से नहीं चलती थी।
जीवन-व्यवस्था के संचालन में उन्हें हर प्रसंग में स्त्रियों की भूमिका वरेण्य
दिखती थी, जिसे उन्होंने अपने लेखन में गम्भीरता
से रेखांकित किया। स्वाधीनता संग्राम में भी उन्होंने स्त्रियों की भूमिका की
आवश्यकता जाहिर की। सन् 1921 की शरद ऋतु में शिवपुर संस्थान में दिए
गए अपने एक भाषण में उन्होंने कहा कि भारत में अनादि काल से ही पुरुषों ने नारियों
को आजादी से वंचित रखा है। भारत की पराधीनता इसी का स्वाभाविक परिणाम है।
उन्होंने कहा कि ‘यदि
इस व्यापक प्रयास में राष्ट्र की नारियाँ हमारे साथ नहीं रहतीं, यदि हम उनकी सहानुभूति प्राप्त नहीं कर
सकते, यदि हम ज्ञान से, शिक्षा से और इस महान सत्य को समझने के
साहस से उन्हें वंचित रखते हैं,
यदि हम उन्हें
कहवे-घरों तक सीमित रखकर,
केवल कताई ही करने
देते हैं तो हम कभी अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकते...। हमने स्त्रियों को केवल
स्त्रियाँ ही बने रहने दिया है। मानव नहीं बनने दिया। देश को, स्वाधीनता प्राप्ति योग्य बनने से पहले, इसके लिए प्रायश्चित करना चाहिए। हमारे
देश के पुरुषों ने स्त्री के अन्य सभी गुणों के ऊपर उसके सतीत्व को ही अधिक
महत्त्व दिया है और उसके अन्य सारे मानवीय गुणों की उपेक्षा कर दी है। कारण, हमारी स्वार्थपरता ने गहरी जड़ें जमा रखी
हैं, इसके लिए पहले उन्हें इसकी कीमत अदा
करनी पड़ेगी।’
भारत की परतन्त्रता के दंश से अभिभूत इस देशभक्त लेखक ने
गाँधीजी से बात करते हुए उनके चरखा कार्यक्रम के बारे में अरुचि दिखलाई थी।
उन्होंने कहा था कि देश को आजादी चरखा से नहीं, सैनिकों
से मिलेगी। जब गाँधी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद-त्याग किया तो उन्होंने ‘महात्मा का पद-त्याग’ शीर्षक निबन्ध में लिखा, ‘क्या चरखा देश की दुरवस्था को रोकने में
सफल हो गया है...? क्या अहिंसक असहयोग आन्दोलन ने राजनीतिक
आजादी हासिल कर ली है?
क्रान्ति का अन्तिम
परिणाम क्या रहेगा?
मैं इन प्रश्नों का
उत्तर आज नहीं दे सकता,
किन्तु मैं महात्माजी
के इस दावे की सत्यता को निश्चित रूप से समझ सकता हूँ कि उनके द्वारा निर्धारित
मार्ग पर चलकर भारत को कोई नुकसान नहीं हो सकता।’
शरत् चन्द्र के सम्पूर्ण लेखन और चिन्तन में देश की स्वाधीनता
के लिए व्यग्रता और तर्कपूर्ण चिन्ताएँ प्रबल दिखती हैं, देश की नारियों की दुर्दशा के प्रति वे
बड़े संवेदनशील दिखते हैं। वे परम्परा विरोधी नहीं, पर
रूढ़ियों के विरोधी और नवता के समर्थक थे, जमीन्दारी
प्रथा के विरोधी थे। उन्होंने लिखा है, ‘वह
सब कुछ जो प्राचीन और परम्परागत है,
वह सब कुछ जो ध्वस्त
और जीर्ण हो रहा है,
नष्ट कर देना चाहिए
और एक नए समाज का उद्भव होना चाहिए।’
मानवता और लेखन में इस वृत्ति की सुरक्षा के सम्बन्ध में उनकी
धारणा सन् 1927 में मानए जा रहे उनके 51वें जन्म-दिवस पर आयोजित समारोह में
उनके भाषण से स्पष्ट होती है। उन्होंने कहा, ‘अपने
जीवन के उतार-चढ़ाव के दौरान विभिन्न परिस्थितियों में मैं नाना प्रकार के लोगों के
निकट सम्पर्क में आया हूँ,
जिन्होंने मेरे
मस्तिष्क पर मिला जुला प्रभाव छोड़ा है और मन में यह विश्वास उत्पन्न किया है कि
मानव को दुर्गुण और दुर्बलता से,
अपराध और अनैतिकता से
कोई क्षति नहीं पहुँच सकती। उसके हृदय में कोई ऐसी चीज रहती है, जो त्रुटियों और सीमाओं की तुलना में
बहुत बड़ी होती है। मैंने बहुत पहले निश्चय किया था कि इस अलक्ष्य गुण को मैं अपने
उपन्यासों में प्रस्तुत और उजागर करूँगा। मैं अपने प्रयास में दृढ़ता से लगा हूँ, किन्तु दुर्भाग्यवश बहुत से लोग इस काम
में लगे रहना मेरा अपराध मानते हैं।’
उन्होंने दृढ़ता और उदारता से घोषण की कि ‘मैं नहीं जानता कि मेरा यह संकल्प भला
है या बुरा और न मैंने इस बात पर विचार किया कि इससे मानव का कल्याण होता है या
नहीं, मैं तो केवल इतना जानता हूँ कि मैंने
अपनी रचनाओं में वही प्रकट किया है,
जिसे मैंने अपनी पूरी
ईमानदारी के साथ मानव हृदय के विषय में सत्य समझा है। यह सत्य दैवी और शाश्वत है
या नहीं, इस पर भी मैंने कभी विचार नहीं किया।’
उत्कट आत्मविश्वास से भरे व्यक्तित्व के कालजयी लेखक शरत अपनी
खामियों को स्वीकारने में भी हरदम आगे रहे हैं। परिवेश के विकृत यथार्थ को
स्वीकारने और उसे कहने में उन्हें कभी संकोच नहीं हुआ। सत्य को सत्य की तरह कहने
में उन्होंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया कि लोग क्या कहेंगे। चरित्रहीन के प्रकाशन
से पूर्व जब प्रमथनाथ ने उनका विरोध किया तो उन्होंने उन्हें लिखा, ‘कोई भी अपनी नग्नता को प्रकट नहीं करता, यह मैं जानता हूँ, पर किसी को अपने घाव भी प्रकट नहीं करने
चाहिए यह मैं नहीं जानता था। एक पकते हुए घाव को देखना प्रिय नहीं लगता। लोग इसे
ढका हुआ और नजरों से दूर रखना चाहते हैं। पर क्या उसको ढक देने से घायल की कोई
सहायता होगी? सौन्दर्यपूर्ण रचना से आगे साहित्य में
कुछ और भी है और यह बात इसी में निहित है कि सत्य को देखा और दिखाया जाए। मुझे
आपके इस सुझाव से अत्यधिक ठेस पहुँची है कि मैं ‘चरित्रहीन’ को छद्म नाम से प्रकाशित कराऊँ। क्या
मैं इतना गिर चुका हूँ?
अच्छा हो या बुरा, मैं इसकी पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेना
चाहता हूँ।’
वर्तमान भारत के पूरे परिदृश्य का मुआयना करते हुए स्पष्ट कहा
जा सकता है कि इस समय देश के नौजवानों के समक्ष अपने आदर्श की खोज एक बड़ी समस्या
है। लोक-नायक जयप्रकाश नारायण की मृत्यु के बाद, या
कहें कि आपातकाल के बाद के चुनावी बन्दरबाँट के बाद नेता, शिक्षक, पुलिस, पत्रकार, वकील, पुजारी... कोई ऐसा व्यक्तित्व नौजवानों
के समक्ष उपस्थित नहीं है;
जिनके जीवन-क्रम और
चिन्तन-फलक को वे अपने आचरण में उतारने का उद्यम करे। शरत चन्द्र जैसी सामाजिक
निष्ठा, लेखकीय दायित्व और तटस्थ ईमानदारी के
कारण लेखक वर्ग ही ऐसा समुदाय हो सकेगा, जिसमें
आज की नई पीढ़ी अपने लिए कोई आदर्श ढूँढने का उद्यम करेगी।
जे.वी.जी.टाइम्स, 10.01.1997
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