चूके हुए निशाने का व्यंग्य
(ओमप्रकाश कश्यप का व्यंग्य संकलन ‘ताकि मनोबल बना रहे’)
हिन्दी में व्यंग्य लेखन की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है, गद्य में तो और भी नहीं। गद्य समेत अन्य
कई आधुनिक प्रवृतियों का विकास हिन्दी में भारतेन्दु काल से ही माना जाता है, व्यंग्य उन्हीं आधुनिक प्रवृतियों में
से है। सन् 1857 के बाद का समय भारत देश के
बुद्धिजीवियों के लिए बड़ा ही जटिल समय था। पूरे देश के बुद्धिजीवी नवोदित आकांक्षाओं
और अभिलाषाओं से भरे हुए थे। ब्रिटिश हुकूमत से त्रस्त शिक्षित समुदाय उस संक्रमण
काल में भयानक अन्तर्विरोध से ग्रस्त थे। राष्ट्रीय स्वाधीनता और भाषाई चेतना से
सब भरे हुए थे। भारतीय अर्थव्यवस्था का अंग्रेजों द्वारा शोषण-दोहन हो रहा था।
अशिक्षा, दरिद्रता, कुसंस्कार, रूढ़िग्रस्तता...पराकाष्ठा पर थी। ऊपर से
अंग्रेजी सत्ता का क्रूर दबाव था। इन्हीं परिस्थितियों में हिन्दी व्यंग्य का उदय
हुआ और भारतेन्दु युग से आगे बढ़ता हुआ प्रेमचन्द और निराला के समय को पार करता हुआ
हरिशंकर परसाई तक आ पहुँचा। कालखण्ड के बदलते परिवेश ने व्यंग्य को काफी तीक्ष्णता
और परिपक्वता दी। स्वातन्त्र्योत्तर काल की सामाजिक परिस्थितियाँ कुछ अधिक ही
वीभत्स हो गईं। खासकर सन् 1977 के बाद का राजनीतिक द्वन्द्व, सत्तात्मक अनस्थिरता और मानवीय पापाचार, अराजकता की कगार पर आ गया। इसी दौर में
हिन्दी व्यंग्य में ओमप्रकाश कश्यप का नाम सामने आया। उनकी शिक्षा-दीक्षा
दर्शनशास्त्र में हुई,
पर किताबों में
उद्धृत दर्शनशास्त्रीय सूत्रों से अधिक जनाकांक्षाओं के दमन-उत्पीड़न को परखने में
उनकी रुचि अधिक रही। लिखा तो उन्होंने अन्य विधाओं में भी, पर व्यंग्य-लेखन उनका मूलधर्म रहा।
‘ताकि
मनोबल बना रहे’ उनके इक्यावन व्यंग्य लेखों का ताजा
संग्रह है। इधर के तीन-चार दशकों में व्यंग्य कुछ अधिक ही महत्त्वपूर्ण हो गया है, पत्र-पत्रिकाओं में इसके लिए स्थान
सुरक्षित होने लगे हैं,
पर संकलन की तरफ फिर
भी ढंग से सोचा नहीं गया। असल में हिन्दी में केन्द्रित होकर व्यंग्य लिखने वाले
दो इतने बड़े मीनार (हरिशंकर परसाई और शरद जोशी) खड़े हो गए कि उनके प्रभामण्डल में
कई प्रतिष्ठित व्यंग्यकार अलक्षित रह गए। हिन्दी प्रकाशन जगत की जो दशा है, उसमें सारे व्यंग्यकारों का अलग-अलग
संकलन आ नहीं पाता,
ऐसे में चयनित
व्यंग्यकारों के चुने हुए व्यंग्यों का संकलन तैयार करना श्रेयस्कर होता है। सन् 1997 में
श्रीलाल शुक्ल तथा प्रेम जनमेजय के सहसम्पादन में प्रकाशित ‘हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलन’ में बालकृष्ण भट्ट से लेकर सुरेश कान्त
तक के उनचास व्यंग्यकारों के व्यंग्य लेखों का संकलन प्रकाशित हुआ। उसके बाद सन् 2000 में भावना प्रकाशन से युवा व्यंग्यकार
सुभाष चन्दर के सम्पादन में 109 व्यंग्यकारों की रचनाओं का संकलन ‘बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएँ’ प्रकाश में आईं। सीमाबद्धता के कारण ‘हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलन’ में
कई महत्त्वपूर्ण व्यंग्यकार दर्ज नहीं हुए। युवा सम्पादक सुभाष चन्दर के भी
कुछ आग्रह रहे होंगे,
जिस कारण कई
महत्त्वपूर्ण व्यंग्यकार उस पुस्तक में शामिल नहीं हुए और कुछ कमतर व्यंग्य शामिल
हुए। पर यह छोटी बात नहीं कि हिन्दी में नए-पुराने लगभग एक सौ व्यंग्यकार रचनारत
हैं। और उनकी रचनाधर्मिता का परिचय मोटे तौर पर उस संकलन में एकत्र है, संयोग से ओमप्रकाश कश्यप भी वहाँ मौजूद
हैं।
ओमप्रकाश कश्यप की किशोरावस्था की समाप्ति और देश में आपातकाल, राजनीतिक अराजकता, राजनीतिज्ञों की स्वार्थपरता और नृशंसता, पुलिस-पत्रकार-नेता, अफसर-वकील-शिक्षक-धार्मिक ठेकेदारों के
बीच विचारशून्यता, तथा आम जनजीवन की निराशा, हताशा, भय, आतंक, शोषण, उत्पीड़न, मूल्यहीनता
और दिग्भ्रम का समय एक ही है। अतः अलग से कहने की आवश्यकता नहीं कि ओमप्रकाश कश्यप
के लेखन का मूल लक्ष्य इन्हीं विसंगतियों और विकृतियों पर प्रहार है। राजनीतिक
तिकड़म और लफ्फाजी, चमचों की नीचता, घपलों-घोटालों के गलीज धन्धे, वोटतन्त्र का षड्यन्त्र, राजनेताओं की नृशंसता, जनता के साथ हो रहे प्रपंच इनके मुख्य
विषय हैं।
सधे हुए हाथ,
तीक्ष्ण जीवनदृष्टि, विलक्षण रचना कौशल से शुरू हुई व्यंग्य
लेखन परम्परा; हरिशंकर परसाई एवं शरद जोशी के समय
आते-आते एक मुकाम पर पहुँच गई। पर इतनी समृद्ध विरासत और इतने शानदार विषयों की
खदान होने के बावजूद ओमप्रकाश अपने व्यंग्य को अपेक्षित ऊँचाई नहीं दे पाए--यह
दुखद प्रसंग है। ‘चूहों का निन्दा प्रस्ताव’, ‘बिल क्लिंटन का सहयात्री’, ‘सुखीराम की दुखी आत्मा’ जैसे कुछ प्रभावकारी व्यंग्य लेखों के
अलावा ज्यादातर लेखों में समृद्ध संसाधन भव्य भवन बनाता हुआ कारीगर अपने ही हाथों
भवन ध्वस्त करता दिखता है। बयान ठूँसने के कारण अधिकांश व्यंग्य ऊब से भर गया है।
पुरोवाक् पढ़कर व्यंग्यकार के रचना कौशल पर जो आस्था बनती है, वह मूल पाठ देखने पर टूट जाती है। यह
संकलन ओमप्रकाश कश्यप के बेहतर व्यंग्य-समालोचक का संकेत तो देता है, बेहतर व्यंग्यकार का नहीं।
पाठ में आकर्षण बना रहना व्यंग्य की अनिवार्य शर्त है।
आधुनिकता के प्रवेश से आम जनता का अनुराग कुछ कम हुआ है, पर व्यंग्य तो ऐसा हो कि उसमें काका
हाथरसी और सुरेन्द्र शर्मा की फूहड़ कविताओं के पाठक-श्रोता भी रम जाएँ और
मुक्तिबोध, हावरमास, सोस्यूर
के भक्त भी।
विषय और संरचना के कलात्मक समावेश से व्यंग्य की व्यंजना को
उत्कर्ष दिया जाता है। उपस्थापन-शैली की विफलता, अतिकथन
और बयानबाजी से ओमप्रकाश कश्यप के व्यंग्य के सूत्र टूट गए हैं। संकलन का शीर्ष
व्यंग्य ‘ताकि मनोबल बना रहे’ में भी यही हाल है; ‘देश में सूखा: राजा भूखा’, ‘एक तमाशा यह भी यारो’, ‘मेड़ पर बकरियाँ’ आदि में तो है ही।
सृजन के एक लम्बे सफर में सध चुके हाथ और रचना-कौशल के बावजूद
ओमप्रकाश कश्यप अपने पाठकों की अपेक्षा इस संकलन से पूरी नहीं कर पा रहे हैं। अगला
संग्रह शायद हमें तोष दे।
व्यंग्य ही व्यवस्था
को शिष्ट बनाएगी, हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, 29.12.2002
ताकि मनोबल बना
रहे/ओमप्रकाश कश्यप/एराइज प्रकाशन, दिल्ली
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