घर आँगन में बिखरे कथा-सूत्र
(मेहरुन्निसा परवेज की कहानियाँ)
साठ के दशक के बाद की हिन्दी कहानी में समकालीन समाज का
अन्तर्जीवन जिस गम्भीरता से खुलता है उसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण मेहरुन्निसा
परवेज़ का कहानी लेखन भी है। अब तक उनके चार उपन्यास तथा ग्यारह कहानी संग्रह
प्रकाशित हैं। मेहरुन्निसा की कहानियाँ किसी दिव्य-लोक के रहस्य या कल्पना-लोक की
रूमानियत के बखान से नहीं बल्कि आम जनजीवन की भली-बुरी स्थिति, उसकी तंगहाली, उसकी बदसूरती, उसकी विडम्बनाओं से निर्मित होती हैं।
उनकी रचनाएँ सामान्य जनजीवन के गहन पक्षों से जुड़ाव-बोध की कहानी है। नारी-जीवन
अक्सर उनकी कहानियों के केन्द्र में रहता है। उनकी तेरह कहानियों का नया संकलन ‘ढहता कुतुबमीनार’ इन्हीं भाव-भूमियों पर इनके कथा लेखन का
ताजा परिणाम है।
ये कहानियाँ उनके लेखन की खास विशेषताओं से रिश्ता कायम करने
का अवसर देती हैं। कथ्य चयन,
परिवेश निर्माण, पात्र सृजन, चरित्र-चित्रण, भाषा-शैली, शब्द नियोजन, मौलिक मुहावरों के समुचित प्रयोग...सब
मिलकर लेखिका की पुरानी छवि को और भी बल देते हैं। भाषा का प्रवाह और कोमलता उनकी
लेखन-शैली में चमत्कार उत्पन्न करती है। स्थान-काल-पात्र के अनुकूल भाषा-संयोजन
द्वारा समाज के ताने-बाने से निकाला गया उनके कथा का विषय अपने प्रभाव का उत्कर्ष
पाता है। ‘कयामत आ गई है’ या ‘नंगी
आँखोंवाला रेगिस्तान’
जैसी उनकी कुछ खास
कहानियों में यह विशेषता स्पष्टतः देखी जा सकती है।
सामान्यतः उनकी कहानियाँ नारी-जीवन के चारो ओर घूमती रहती हैं।
उनकी कहानियों में सम्पूर्ण जगत् के जीवन को सघनता से निरूपित करती एक अदद नारी
अवश्य रहती है। वह नारी किसी सिंहासन पर बैठी ऐशो-आराम का जीवन बसर करती नारी नहीं
होतीं, वे मध्यवित्त और निम्न मध्यवित्त परिवार, समाज में अपनी स्थिति सुदृढ़ बनाने के
विचार से जीविकोपार्जन कर स्वावलम्बी बनी नारियाँ होती हैं। उनकी कहानियों से
सामान्य स्त्रियों का पारदर्शी व्यक्तित्व साफ-साफ झलकता है। उनका दृष्टिकोण सदा
इस बात पर बल देता है कि ‘स्त्री न तो देवी है, न दानवी। औरत तो बस औरत ही होती है, वह भावुक जरूर होती है, कमजोर नहीं। उसका अहं उसे टूटने नहीं
देता।’ मेहरुन्निसा का कथा-साहित्य नारी-जीवन
के गहनतम पक्षों का मर्मस्पर्शी स्पर्श है, जिसमें
नागरिक-जीवन की यथार्थ पीड़ा का अनुभव होता है, पूरा
दृश्य जीवन्त हो उठता है । इनमें लोक-जीवन के प्रति कथालेखिका की तीक्ष्ण अनुभूति
और जागरूक दृष्टि का स्पष्ट बोध होता है। अपनी कहानियों में एक ओर जहाँ वे नारी-मन
के अन्तरंग प्रसंगों को निष्ठा और ईमानदारी से प्रस्तुत करने के आग्रही दिखती हैं, वहीं पुरुष-वर्ग के प्रति किंचित उदासीन
भी। यह उदासीनता एक अर्थ में उनके कथा लेखन को असन्तुलित करती है। सम्पूर्ण सृष्टि
और सामाजिक गठन के लिए स्त्री और पुरुष--दोनों ही बराबर के सहभागी हैं। किसी से
किसी का महत्त्व कम नहीं। फिर इस हाल में किसी एक पक्ष के प्रति उदासीनता, लेखन को एकांगी बनाएगी। ऐसा सम्भवतः
उनके नारी होने के कारण हो...। इस न्यून प्रसंग के बावजूद उनकी दमदार कहानियाँ
पत्थरदिल पर भी मोम की परत बैठा जाती है।
इस संकलन में बतौर प्राक्कथन मेहरुन्निसा कहती हैं--कितना
अच्छा लगता है यह सोचकर कि हम अब जिन्दगी के एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच गए हैं, जहाँ से लौटना चाहें तो भी नहीं लौट
सकते, भाग नहीं सकते। अपनी तमाम उम्र के
यथार्थ-दर्शन और यथार्थ-भोग के साथ लेखिका ने अतीत और वर्तमान का जैसा सामंजस्य
कराया है, वह भविष्य के लिए एक दिशा-निर्देश साबित
होता है।
घर आँगन में बिखरे
कथासूत्र,
जनसत्ता, नई दिल्ली, 20.06.1993
-जनसत्ता, 20 जून 1993
नमस्कार
ReplyDeleteमैं मेहरुन्निसा परवेज पर एक विशेषांक निकल रहा हूँ क्या आप उनपर एक आलेख उपलब्ध करा सकते हैं।
संतोष श्रेयांस, संपादक - सृजनलोक
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