नई जमीन की तलाश
(‘कथानक’ पत्रिका का कहानी विशेषांक)
बीसवीं सदी के सातवें, आठवें
एवं नौवें दशक के सोलह कहानीकारों की कहानियाँ ‘कथानक’ के कहानी विशेषांक-1992 में संकलित होकर आई हैं। हिन्दी कहानी
ने अपनी दीर्घ यात्रा के बाद आज जैसा स्वरूप ग्रहण कर रखा है, उसमें लघु-पत्रिकाओं का अपूर्व योगदान
प्रारम्भ से ही रहा है। ‘कथानक’ का
कहानी विशेषांक उसी दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।
साहित्य आज के समाज की परिभाषा है। आज की हिन्दी कहानी इस अर्थ
में अपने तमाम गुण-धर्म के साथ सही उतरती है। जन-जीवन की विसंगतियाँ ही समकालीन
सृजन का केन्द्रीय विषय है। पारम्परिक बुराइयाँ और आरोपित सामाजिक मान्यताएँ आज
कुछ अतिरिक्त विकृति तक आ गई हैं। इसके साथ ही हमारे समाज का परिदृश्य अन्य मामलों
में भी बिगड़ा है। इन बिगड़े स्वरूपों को आज की कहानियों ने अपना निशाना बनाया है। ‘कथानक’ का
कहानी विशेषांक इसी दिशा में एक साहसिक प्रयास है। एकाध को छोड़कर इस विशेषांक की
सभी कहानियाँ सामान्य जन-जीवन की विसंगतियों को उकेरती प्रतीत होती हैं।
समकालीन हिन्दी कहानी का मूल्यांकन करते हुए शम्भु गुप्त ने
इसी अंक में लिखा है,
‘राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति के माफिया
अपने-अपने गर्भ-गृहों से इस देश का संचालन कर रहे हैं। एक मजे की बात है कि हमारे
वृहत्तर जन-समुदाय,
हमारी जातीय परम्परा
और हमारी जवीन पद्धति के खिलाफ एक सीमा के बाद ये ही माफिया एक संयुक्त षड्यन्त्र
में बदल जाते हैं और चाहे प्रच्छन्न रूप में ही, एक
दूसरे को सहयोग करते हुए और एक सम्मिलित मंच पर आ खड़े होते हैं...।’
इन परिस्थितियों में, जब
राजनीति, कालेधन और जड़वाद की चौखट पर चारों खाने
चित्त पड़ी हो, संचार-माध्यम पूँजीपति या राजनीतिज्ञ के
इशारे पर नाचते हों,
शासन-व्यवस्था
जनविरोधी लोगों के हाथ हो,...तब साहित्य, कला और संस्कृति के प्रति सर्व-सामान्य
की दृष्टि अस्वस्थ और विकृत होना तय है। आज की हिन्दी कहानी इन्हीं परिस्थितियों
से उत्पन्न एक भयावहता के विरोध का दुर्ग खड़ा करती है। वर्तमान व्यवस्था ने जनजीवन
को जिन-जिन विवशताओं तक पहुँचाया है, आज
की कहानी उसकी कुत्सा की तह खोलती प्रतीत होती है। ‘कथानक’ के इस विशेषांक की कहानियाँ सामाजिक और
राजनीतिक इन्हीं विडम्बनाओं से निकलकर अपनी आवाज बुलन्द करती हैं।
इस अंक की कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं की नारकीय परिस्थितियों
को अत्यन्त सामान्य ढंग से उठाती हैं और सहज ढंग से अपना अभिप्रेत कह जाती है। ‘नई चौपाल गाथा’, ‘एक बाबा और एक बच्चा’, ‘एक कद्दावर औरत’, ‘मुँह खोलते बीज’...इस संग्रह की महत्त्वपूर्ण कहानियों में
से हैं। आज का राजनीतिक परिदृश्य जनजीवन में कटुता पैदा करने की तरकीब खोजता रहता
है। अशिक्षा, बेकारी, गलतफहमी, वैमनस्यता, द्वेष, अभाव, अनिश्चितता, भय, आतंक
आदि वर्तमान राजनेताओं के सहायक तत्त्व हैं। सामान्य जन-जीवन की आत्मनिर्भरता, जागरूकता, शिक्षा
आदि इसके षड्यन्त्र के लिए हानिकारक साबित होती है। ऐसे में जनजीवन को आपसी उलझनों
में फँसाकर उसे रत रखना इन लोगों ने अपना धन्धा बना लिया। इसी क्रम में इनकी
हैवानी बहुत प्रगति पा गई। आश्रित लोग, नारी
और असहाय वर्ग के लिए इतने नृशंस काम होने लगे कि कथाकारों को यहाँ कहानी की अच्छी
जमीन मिली। इसी जमीन से उठी कहानी आज के यथार्थ को प्रस्तुत कर यह सन्तोष कर रही
है, लेखक आश्वस्त हो रहे हैं कि आम जनजीवन
तक इन्होंने अपनी बात पहुँचा दी।
सूर्यबाला आठवें दशक की उन महत्त्वपूर्ण कथा-लेखिकाओं में से
हैं, जिन्होंने आम जन-जीवन के विकृत आदर्श से
उत्पन्न रोमांचक यथार्थ को अपनी कहानी में नया स्वर दिया है। समकालीन जन-सत्य की
त्रासदी उनकी कहानियों का केन्द्र-बिन्दु रहा है। अपनी कहानी ‘एक बाबा और एक बच्चा’ में एक पार्क का मानवीकरण करते हुए
लेखिका ने पार्क को कथावाचिका बनाई है और उसके मुँह से एक ‘आया’ के
व्यवहारों को चित्रित करवाकर मानव-व्यवहार में समाहित टूटन को जीवन्त किया है।
सूर्यबाला ने अपनी इस कहानी में मालिक और अपनी सन्तान के बीच स्नेह-प्रेम के
बँटवारे में सहज नृशंसता अपनाती एक आया के स्वभाव को मुखरित कर कहानी-लेखन के लिए
एक नए विषय की ओर इशारा किया है।
नारी का नारी होना उसे मान्यता और रोजगार के बीच कितनी विवशता
से गुजरने को बाध्य करता है,
इसका मूर्त्तस्वरूप
जवाहर सिंह ने अपनी कहानी में खड़ा किया है।
नौवें दशक के महत्त्वपूर्ण कथाकारों में अग्रणी रमेश नीलकमल
अपनी कथा-रचना की एक खास भूमि तलाश कर शहर और देहात की संस्कृति के मिश्रण से
उत्पन्न अधकचरी संस्कृति को सजीव करते रहे हैं। अपनी कहानी ‘नई चौपाल गाथा’ से पूर्व की कहानियों में भी उन्होंने
अपने लिए कथा-लेखन की मौलिक दुनिया खोजी है। शहर की संस्कृति से परिचिति कायम रखने
के षड्यन्त्र का रहस्य उनकी इस कहानी में जाग्रत हो उठा है। रमेश नीलकमल वर्तमान
राजनीतिक व्यवस्था से उत्पन्न हिंसक वातावरण को अपनी कहानियों में बल देते हैं।
उनका राजनीतिक-बोध कहानी में खुल कर स्पष्ट हुआ है।
मैत्रेयी पुष्पा ने भी अपनी कहानी ‘मुँह खोलते बीज’ में किंचित गाँव के जन-जीवन को ही
प्राणवान किया है। पारिवारिक विघटन पर केन्द्रित यह मानव-सम्बन्धों के लोप की
रोमांचक कहानी है, जहाँ सिर्फ स्वार्थ और स्वार्थ ही भरा
है। मनुष्य की दानवीय प्रवृत्ति अपने प्रच्छन्न रूप में इस कहानी में मुखरित हुई
है। पारिवारिक अत्याचारियों के लिए,
लेखिका, विचित्र घृणा-भाव प्रस्तुत करती हैं।
यहाँ संकलित कथाकारों में सबसे महत्त्वपूर्ण नाम होते हुए भी
गिरिराज किशोर अपनी कहानी ‘कभी न छोड़े खेत’ में आम पाठकों के लिए अबूझ पहेली बनकर
रह गए हैं। कथाकार भूल गए हैं कि पाठक जिस उत्साह से अपना श्रम और समय कहानी पढ़ने
में लगाता है, उसके लिए लेखक का भी कोई दायित्व बनता
है। विदाई काण्ड (च.कि. जयसवाल),
विस्थापन (नारायण
सिंह), मूषक (नमिता सिंह), तूती की आवाज (राम सुरेश), दंगल (रा.च.राय), ट्रान्सफर (चित्रेश), शुक्रिया (बसन्त कुमार), अप्रत्याशित (र. त्रिवेदी), स्थगन (गम्भीर सिंह पालनी), ग्रहण (ओ. बाल्मीकि), गणित चक्र (देवेन्द्र सिंह) आदि
कहानियाँ इस विशेषांक को बहुमुखी साबित करती हैं। वर्तमान जनजीवन की तमाम दिशाओं
में विद्यमान विसंगतियाँ इन कहानियों में अपनी-अपनी सीमा में सहज रूप में चित्रित
हुई हैं। कहानियों में कथ्य की तार्किकता पाठक को चौंकाती है, तो शिल्प की धार उसे उत्तेजित करती है।
आधुनिक कहानी के समर्थ आलोचक सुरेन्द्र चौधरी द्वारा कथा का
वस्तुवादी मूल्यांकन इस विशेषांक के विशेष आकर्षण का केन्द्र है, जहाँ सुरेन्द्र चौधरी ने पूर्ण स्पष्टता
के साथ समकालीन यथार्थ और यथार्थवादियों के संकट पर विचार किया है। इस निबन्ध में
लेखक का एक सुलझा हुआ आलोचकीय दृष्टिकोण सामने आता है। कहानी के शिल्प पर और
पाठकीय सुख पर विचार करते हुए शम्भु गुप्त ने अपने निबन्ध में जिन मान्यताओं को
प्रस्तुत किया है, कई मायने में महत्त्वपूर्ण है। कथाकार
और पाठक के बीच संवाद-सम्प्रेषण की सहजता पर इस निबन्ध में लेखक ने गम्भीरता से
विचार किया है।
कुल मिलाकर यह विशेषांक हिन्दी कहानी की नवीन उपलब्धि को
मुखरित कर पाने का सफल प्रयास है,
जहाँ सृजनात्मक से
आलोचनात्मक खण्ड तक में अंक अपनी सार्थकता साबित करती है।
भावबोध की कथाभूमि की
तालाश,
हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, 02.08.1992
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