शोषितों के कोई लिंग और मजहब नहीं होते
स्त्री स्वातन्त्र्य की बात करते समय इस पहल के पेन्दे में पड़े
सूराख को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। शैक्षिक और आर्थिक दुर्बलता उनकी बदहाली का
प्रमुख कारण है, इस तथ्य से मुकरा नहीं जा सकता, पर हकीकत है कि पिछले कुछ समय से हमारे
यहाँ भारतीय सवालों का हल विदेशी फार्मूले पर ढूँढने में हमारे कर्णधार परेशान
हैं। याद रखने की बात है कि हमारी भारतीयता आत्मनिष्ठता या व्यक्तिनिष्ठता में
नहीं, परिवारनिष्ठता और समाजनिष्ठता में है।
नकलिया तौर पर चलाए गए इस आन्दोलन ने कितने परिवारों को विघटित किया, कितनी दम्पतियों की जिन्दगी उजाड़ी, इसके कई प्रमाण मिल सकते हैं। दीर्घ
अन्तराल से इतने ऊँचे बुद्धिजीवियों द्वारा चलाया गया अन्दोलन आज भी तूल नहीं पकड़
सका है तो इसका सीधा कारण इन अग्रणी लोगों का वैचारिक भ्रम ही है। नारी शोषण के
विरुद्ध गला फाड़कर नारा लगाएँगे और व्यावहारिक जीवन में वह सारा कुछ करेंगे, जो कभी उन पोंगा पण्डितों और मुल्लाओं
तक से भी सम्भव न हो सका।
विदेशी तर्ज की नकली पिस्तौल का मुँह आसमान की ओर करके भड़भड़ाते
रहेंगे। अपनी जमीन पर बनी पिस्तौल से सही दिशा में निशाना नहीं लगाएँगे। इतिहास
पुराण बताता है कि देवराज इन्द्र की सेवा में गणिकाएँ रहती थीं, इधर राजाओं के आजू-बाजू चँवर हिलाने
हेतु दासियाँ रहने लगीं,
आज हर दफ्तर के निजी
सचिव, रिशेप्सनिस्ट आदि पद पर लड़कियों का पद
आरक्षित हो गया। जहाँ कहीं मंच-व्यवस्था हो तो बड़े ओहदे वाले अतिथियों को बुके
देने के लिए दो चार सजी-सजाई लड़कियों की व्यवस्था होगी, मंच पर कोई कार्यक्रम है तो उसके संयोजन
में कोई सुन्दर लड़की ही आएगी,
कहीं किसी व्यापारिक
वस्तु का प्रचार करना है तो वहाँ लड़की ही आएगी (माडलिंग निरोध के लिए हो, साड़ी के लिए हो या ट्रक के टायर के
लिए--कोई फर्क नहीं पड़ता)। स्त्रियों के पक्ष में नारा लगानेवाले ऐसे कितने
वक्तव्यवीर हैं जिन्होंने अपने गाँव, शहर, या पड़ोस की वैसी विधवाओं को ब्याह लाना
चाहते हैं, जिनकी जाति/मजहब में स्त्रियों की दूसरी
शादी मान्य नहीं है। आज भी कई इलाके में असंख्य विधवा युवतियाँ यौन कुंठा से पीड़ित
हैं, रोटी और रक्षा के मूल्य पर परिवार और
समाज के कई मर्दों की हवस का शिकार होती हैं। शहरों में भाषणबाजी, अखबारों में रपटबाजी करते हुए ऊँचा नाम
कमाने का चक्कर छोड़कर वे जमीन पर कुछ काम करें तो कुछ काम हो!
प्रमाणित यथार्थ है कि स्त्रियों का सबसे बड़ा शोषक स्त्री ही
है, कई बार तो वह स्वयं ही होती है। उदाहरण
अपने घर से ही दूँ,
मेरी माँ को अपने लिए
‘नवीन की माँ’ या ‘मास्टरनी
काकी’ सम्बोधन बहुत प्रिय था, क्योंकि मेरा नाम नवीन है और मेरे पिता
स्कूल में शिक्षक थे। मैं अपना नाम बदलकर रामू रख लेता और मेरे पिताजी वकालत करने
लगते तो वह ‘रामू की माँ’ या ‘वकीलनी
काकी’ हो जाती, लेकिन
‘राधा’ उसका
नाम था, जो वह सुनना पसन्द नहीं करती थी।
बहू-दहन की जितनी घटनाएँ आज तक सामने आई हैं, परीक्षण करके देखा जाए तो सबके पीछे सास
और ननद की अहम् भूमिका रहती है। घर में एक बेटी पैदा हो जाए तो उसकी सबसे अधिक
उपेक्षा घर की स्त्रियाँ करती हैं। मेरी बहन जब मेरे पिता को प्रणाम करती थी तो
उसे आशीर्वाद मिलता था ‘विदुषी भव’ और जब माँ के पैर छूती थी तो आशीर्वाद
मिलता था ‘सदा सुहागिन रहो, दूधो नहाओ पूतो फलो।’
भारत में ऐसे कम्युनिस्टों और फेमिनिस्टों की कमी नहीं हैं, जो गरीबों और स्त्रियों के सम्बन्ध में
जानकारी किताबों से हासिल करते हैं। जब कभी बात करेंगे तो हकीकत का हवाला न देकर
कहेंगे कि ‘सिमोन द बुआ का कहना है कि नारी...!’ सारा जीवन आदमी किसी न किसी रूप में
स्त्री से जुड़ा ही रहता है। कभी माँ, कभी
बहन, कभी पत्नी/प्रेमिका आदि से, बल्कि मनुष्य की अस्मिता ही स्त्री से
शुरू होती है, लेकिन जब नारी के बारे में लिखना शुरू
करेंगे तो अपने विचारों और अपने आलेखों में वही विदेशी लेखक/लेखिकाओं की अवधारणाएँ
ठूँसते रहेंगे। जमीन पर स्त्री के साथ रहकर उन्हें वे स्थितियाँ नहीं मालूम होतीं, ऐसी बात नहीं है। असल बात यह है कि
नारी-पक्षधरता का प्रमाण-पत्र लेने के लिए इस तरह की नाटकबाजी करते रहना उनके लिए
आवश्यक है, क्योंकि वे स्त्रियों का सहयोग नहीं, उन्हें सम्मोहित करना चाहते हैं।
असल में (अपवादों को छोड़कर) इन्हें मालूम नहीं कि शोषितों के
लिंग, जाति, गाँव, प्रान्त, देश, मजहब नहीं होते, शोषित सिर्फ शोषित होते हैं।
-जे.वी.जी.टाइम्स, 18.11.1996
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