जुग की मैल, एक रविवार
(अष्टभुजा शुक्ल का कविता संग्रह ‘पद-कुपद’)
नए जमाने के विषय की रचना छन्दबद्ध होने के कारण मात्र से
निष्प्रभ नहीं होती,
या नई रचना-धारा में
लिखी गई हर ऊल-जलूल कथन कविता नहीं होती; जैसे
पुरानी बोतल में नए समय की दवाई डाल देने से दवाई की गुणवत्ता नहीं घटती, आधुनिक चमक-दमक केवल प्राथमिक सम्मोहन
पैदा करता है, गुणवत्ता नहीं बढ़ाता। अष्टभुजा शुक्ल
कविताई इसका बेहतरीन उदाहरण है। यथार्थ-परीक्षण की जीवन-दृष्टि और उपस्थापन शैली
हर रचनाकार की अपनी अवश्य रहती है,
पर तथ्यतः समकालीन
समाज का यथार्थ हर समय की रचनाओं में साहित्य-सृजन के उद्भव काल से चित्रित होता
आया है। साहित्य में वस्तु प्रधान है या शिल्प--यह भी बहस का विषय है।
साहित्य-सृजन के किसी दौर की उपस्थापन शैली कभी त्याज्य नहीं हुई। छन्दबद्ध कविताएँ
आज भी बेहतरीन लिखी जाती हैं। क्योंकि असल बात कविता की लय होती है, जो बेहतरीन छन्दमुक्त कविताओं की साँसों
में सदैव बसी रहती है।
प्रखर कवि अष्टभुजा शुक्ल के ताजा संग्रह ‘पद-कुपद’ पर
विचार करते हुए, ये सारे मसले सामने होते हैं। कुल चौरासी
‘पदों’ के
इस संकलन के प्रकाशन से पूर्व अष्टभुजा के तीन कविता संग्रह--‘चैत के बादल’, ‘दुःस्वप्न भी आते हैं’, ‘इसी हवा में अपनी भी दो चार साँस है’ और एक ललित निबन्ध-संग्रह ‘मिठउवा’ प्रकाशित
और प्रशंसित हैं। इस संग्रह में संकलित पदों की ध्वनियाँ निरन्तर कबीर और
नागार्जुन के फक्कड़ाने अन्दाज की याद दिलाती हैं।
हिन्दी कविता परम्परा में भक्तिकाल और रीतिकाल में इस अन्दाज
के पद लिखने की प्रथा थी। अब तो हिन्दी कविता उससे आगे छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और अन्य कई छोटे-छोटे
काव्यान्दोलनों की घोषणाओं के बाद समकालीन कविता के समय में प्रवेश कर गई है। ऐसे
समय में आकर अष्टभुजा जैसे समर्थ कवि को भक्तिकाल, रीतिकाल
की शैली अपनाने के उद्यम पर गम्भीरता से विचार करना जरूरी है, सार्थक भी।
प्रतीत होता है कि परिवेश के आचरणों से अकुलाए अष्टभुजा शुक्ल
को अपने उद्वेलित विचार और व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति की तीक्ष्ण धार की रक्षा की
सुनिश्चिति सम्भवतः इस पद-शैली में ही दिखी होगी। कवि और भावक के लिए ये ‘पद’ भले
हों, पर लक्षित लोगों के लिए तो ये ‘कुपद’ हैं, ऐसे कुपद जो व्यवस्था और संस्कृति के
नियन्ताओं को सरेआम बेपर्द करते हैं। जमाने भर की करतबों की बखिया उधेड़ना, अमानवीय आचार को वैधता दिलाने का
तिलिस्म रचने वालों को नंगा करना कोई मामूली बात तो है नहीं! अपने परिवेश और
जीवन-दृष्टि के बूते अष्टभुजा ने भाषा का ठेंठपन तो अर्जित कर लिया था, कथन-शैली सम्भवतः सहजात अथवा
अध्ययनशीलता के कारण नागार्जुन की हो गई, और
शिल्प कबीर का आ गया,
सबने मिलकर जमाने के
लिए व्यक्त कवि के धिक्कार को,
उनके कुबोल को, ‘कुपद’ को
‘पद’ बना
दिया। जाहिर है कि ये ‘कुपद’ इसी
तरह कहे जा सकते थे,
हँसते हुए, फक्कड़ाने अन्दाज में; यहाँ रुलाई है, आर्त्तनाद है, धिक्कार है, फजीहत है, व्यंग्य
है...फक्कड़ शैली की इस अभिव्यक्ति में असामाजिक आचरण करने वाले स्वघोषित प्रभुवर्ग
को धिक्कारने के साथ-साथ कवि को एक और सुविधा हुई है; कई बार वे अपने और अपने सम्प्रदाय पर भी
प्रहार कर गए हैं।
इस संकलन का पहला ही पद है-‘भज
आलोचक’। साहित्य में इन दिनों जिस तरह
मान्यताओं और पुरस्कारों की रेवड़ी बँट रही है; आलोचकों
और कवियों की जुगलबन्दी जिस तरह कामयाब हो रही है, उसमें
कवियों को सलाह देते हुए वे व्यंग्य करते हैं--
भवमोचक आलोचक के सम्मुख चूहा बन जाओ
वह कह दे तो कवियों के कवि, कह वह दे तो आलू
उसकी वाणी आप्तवाक्य है उसकी टीका
चालू...।
यहाँ आलोचक केवल आलोचक नहीं, साहित्य
में मान्यता देने-दिलाने वाले वे ठेकेदार भी हैं, जो
निरन्तर अपने अहंकार और प्रभुत्व से साहित्य-सृजन की पवित्र धारा को कलुष मार्ग
पकड़ा रहे हैं, और कविता, कहानी, उपन्यास, नाट्य...सभी
विधाओं की स्तरीयता एवं उद्देश्य को अन्यथा आहत कर रहे हैं।
कुल चौरासी पदों के इस संकलन में अष्टभुजा की पैनी नजर इस
विराट जनजीवन की सभी दिशाओं में गई है। अकाल, अभाव, कृषि-कर्म की बदहाली, श्रम अवमूल्यन, दहेज, स्त्री-विमर्श, धार्मिक पाखण्ड, शोषण, अत्याचार, अनैतिक मार्ग से आगे बढ़ने की होड़, अज्ञानता पर अहंकार, ढोंग, पाखण्ड, आडम्बर, छल, छद्म राजनीतिक पराभव, चाटुकारिता, समाज-व्यवस्था, सामाजिक-राजनीतिक प्रपंच एवं
वंचना...कवि ने सभी मानवेतर आचरणों का संज्ञान गम्भीरता से लिया है। इन पदों में
काव्यनुभूति को स्थिति-चित्र के रूप में अंकित करने की कवि की पद्धति व्याख्येय
है। कथात्मक शिल्प में कहे गए इन पदों की भाषाशैली व्यंग्य के प्रहारक विधान से
भरी हुई है। मजाकिया अन्दाज की यह बतकही भावकों को उद्बुद्ध और उद्वेलित करती है।
विश्वासहीनता के दानवीय आतंक को कवि बड़ी ही सहज भाषा और जानी-पहचानी शब्दावली में
व्यक्त करते हैं, पर कौशल इतना, जबर्दस्त है कि सहज उद्वेलन उमड़ आता
है--
हर दाने के भीतर घुन है, हर बैगन में कीड़ा
ऊपर-ऊपर चिकने चुपड़े, भीतर गहरी पीड़ा
सभी लगे हैं यहाँ दाँव पर, अपना कौन पराया?
सबके सब, कोई न किसी का, अष्टभुजा जो पाया...।
हर पद में सामान्य जनजीवन के किसी न किसी नागरिक-सामाजिक
प्रसंग का कथासार प्रस्तुत हुआ है,
पर पूरे पद की
व्यंजना, बिम्ब-प्रतीक के प्रसार, अर्थ-छवियों के विस्तार से अनन्त
ध्वन्यार्थ का संसार आलोकित होता है। इस संकलन में कृषि-कर्म से सम्बद्ध कुछ और भी
पद हैं, पर पद-23
में ‘हम तो किसान सब जान रहे’ से कवि ने ग्रामीण समुदाय के आत्मबोध का
चमत्कृत स्वरूप प्रस्तुत किया है। यहाँ किसानों की जीवन-व्यवस्था, कृषि-कर्म की दुविधा, व्यस्तता पर विस्तार से बात हुई है--
हम इन अवतारी पौधों की माया नस-नस पहचान
रहे
अनबोए उगे ये फसलों में, सब पानी खाद डकार लिए
बावनवीर हुए, हरियाली में जौ के मुँह मार लिए
...हरियाली ही हरियाली की वैरी कैसे बन
जाती है
यह किसी वेद में नहीं लिखा, यह खेती हमें बताती है
है अष्टभुजा भी सजग इधर, उखमजो! उगो तुम बार-बार
हम फसलों के रखवाले हैं, कर देंगे तुमको तार-तार...।
सहज रूप से यह पद किसी किसान का आत्महुंकार लगता है, पर ‘अनबोए
उगे ये फसलों’, जिसे हम किसानी भाषा में खर-पतवार
कहेंगे और ‘हरियाली ही हरियाली की वैरी’ पदबन्धों पर विचार करने पर पूरा
राजनीतिक परिदृश्य और दूसरों के मुँह का आहार छीनने वाली जमातों की रहस्यमयी गाँठ
आप से खुली दिखने लगती है। दूसरी ओर, समाज
को दूषित करने वाले ये खर-पतवार जिस तरह बोए हुए फसलों के हिस्से का खाद-पानी डकार
लेते हैं; और हरियाली बनकर हरियाली के शत्रु रूप
में तैनात हो जाते हैं। इस पद में कवि किसानी बुद्धिमत्ता की उस सूक्ष्मता का
संकेत दे रहे हैं, जो किसानों और ग्रामीण परिवेश के
नागरिकों के जागरण और आत्मबोध का परिचायक है। कवि के इस पद में स्पष्ट घोषणा है--छद्मवेषियो, सावधान! तुम्हारे छद्म को पहचानने के
लिए हमें वेद पढ़ने की जरूरत नहीं। जिस किसान को तुम अनपढ़, गँवार और अपना शिकार समझते हो; वह सरल-सहज-सहृदय है, नासमझ और अज्ञ नहीं, हरियाली के बीच हरे-भरे बनकर शत्रुता
करने वालों को समझने का कौशल हमें खेती ने ही सिखा दी है; फसलों के हम रखवालों से
सावधान!...किसानों की नई आत्मचेतना का संकेत इस पद में कवि ने बड़ी सहजता से दिया
है; मनुष्यता के इन अवतारी हितैषियों को छद्मों
से बरजने की पद्धति यहाँ रोचक है।
किसी-किसी पद में कवि ने वक्रोक्ति शैली भी अपनाई है। आज
विपथगा होते जा रहे स्थापित मानदण्डों की बेशुमार घटनाओं से समाज का हर सुजान
व्यक्ति हताश होगा। सन्तों की निर्लजता, जनसेवकों
की धूर्त्तता, रखवालों की नृशंसता, शिक्षाविदों की क्षुद्रता से आज एक-एक
नागरिक क्षुब्ध है। समाज के निदेश-उपदेश-संचालन से सम्बद्ध महारथियों को
दुर्वृत्ति के सागर में गोता लगाते देखकर कोई भी सभ्य नागरिक अपने लिए ऐसे पदों का
सम्बोधन पसन्द नहीं करेगा। सम्भवतः इसी कारण कवि ने यह शैली अपनाई हो! पद-14 में कवि ‘खल’ बनने
की सोचने लगते हैं। धर्मस्थलियों में धर्माधिकरियों के पापाचार, शैक्षिक संस्थानों में शिक्षाविदों के
कदाचार, मठों-अखाड़ों में साधु-सन्तों के
दुष्कर्म से आज आचार-संहिता के स्थापित मानदण्ड दूषित हो गए हैं। इनके
विधान-विरुद्ध आचारों के नैरन्तर्य ने इस समय मूर्तियों, संस्थाओं, प्रतीकों, मठों, मठाधीशों
की मूल छवि विस्थापित कर इसके विपरीतमुखी प्रतीक खड़े कर दिए हैं। ऐसे में यह
प्रतिकूल पदधारण एक प्रतीक की तरह दिख रहा है, जिसमें
व्यंग्य का घातक प्रहार दिखता है। इसीलिए कवि कहते हैं--
सोच रहा हूँ, खल बन जाऊँ
...मन्दिर मस्जिद गिरजाघर पर कुछ गाली लिख
आऊँ
...विद्यादेवी की हन्सी को काली ध्वजा
दिखाऊँ
सन्तों से पट चुकी धरा पर पापाचार
बढ़ाऊँ...
इतना भरा गुबार न निकले तो खुद ही दग
जाऊँ
इतने देख मुखौटे कैसे आपे में रह
पाऊँ...!
गन्ने को सम्बोधित अपने एक पद में कवि कहते हैं--
पोर पोर पेरे जाओगे, ऐसी नियति तुम्हारी
अपनी ही खोइया पाती होगी अपनी अगियारी
...इतने कोल्हू, इतनी मीलें, इतने दाँत लगाए
ताक रहे कब तुमको अपने जबड़े में पा जाएँ
...कटकर, छिलकर, निचुड़ निचुड़कर, होकर गेंड़ी-गेंड़ी
अष्टभुजा की गाँठ बची तो फिर पनपेगी
पेंड़ी।
दरअसल यह स्थिति किसी खेत में उपजे किसी गन्ने की नहीं, भारत की लोकतान्त्रिक पद्धति में
गुजर-बसर कर रहे आम नागरिक की हैं। पूरे पद में गन्ने की गाथा के बहाने अष्टभुजा
ने भारत के समकालीन जनजीवन के त्रासद संघर्ष को उकेड़ा है। इस संकलन के पद कवि के
जनसरोकार और मानवीयता की सूक्ष्म समझ के प्रति आश्वस्त करते हैं। सचाई है कि
भूमण्डलीय परिदृश्य में समायोजित होने की होड़ में भारत के राजनीतिक और आर्थिक
परिदृश्य को अपनी करवटें बदलनी पड़ी हैं, भारतीय
लोक-तन्त्र की इस प्रक्रिया में समाज-व्यवस्था का जैसा स्वरूप तैयार हुआ, उसमें सर्वाधिक हताशा आम नागरिक के
हिस्से ही आई। निस्संकोच कहें तो दुनिया के सबसे बड़े लोक-तन्त्र के संचालक देश
भारत में आज लोक का समस्त अधिकार वायवीय है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ का अनुसरण करते हुए धर्मप्राण भारतीय
नागरिक की तरह वह अपने अधिकार प्राप्ति हेतु, बल्कि
जीवन जीने की बुनियादी सुविधा हासिल करने हेतु संघर्षरत है। इन पदों के साक्ष्य से
मुतमईन होना आसान है कि अष्टभुजा की काव्य-दृष्टि जीवन-संग्राम के आयुध जुटाने में
तल्लीन वृहत नागरिक समुदाय की पक्षधर भी है और उसकी चेतना को अग्रमुखी करते जाने
की प्रेरक एवं प्रहरी भी।
सही कहा गया है कि ‘पद-कुपद
हिन्दी कविता की जनोन्मुख परम्परा में एक प्रतिमान है। अष्टभुजा शुक्ल ऐसे कवि हैं
जिन्हें मनुष्यता के मौलिक मर्म का गहन ज्ञान है। उनकी कविताओं में वह गाँव और
कस्बा है जिसका संघर्ष निरन्तर बढ़ता जा रहा है। राजनीति और अर्थशास्त्र की
भूमण्डलीय परिभाषाओं के सम्मुख जो जीवन प्रायः भूलुण्ठित दिख रहा है, उसका प्रतिरोध अष्टभुजा शुक्ल की रचनाों
में गतिशील है।’
मानवीय आचरण की विकृतियों के चित्र इन पदों में बड़ी खिन्नता से
रेखांकित हुए हैं। जिस लोक-तन्त्री व्यवस्था में
मन्त्री जी की गाय बियाई
संसद और विधानसभा में बजने लगी बधाई
की स्थिति हो; जहाँ की स्त्रियों का अनुभव कहे कि
प्रीति-रीति का झाँसा देकर पहले हमें
फँसाते
फिर पंछी जैसे पिंजड़े में, हम बन्दी बन जाते
हम माया तो वे मायावी, कौन दूध का धोया
उनका अपना बचा हुआ सब, हमने सब कुछ खोया’,
जहाँ चारो तरफ ऐसे लोग भरे हों जो
जाति, धर्म, भाई-भाई में कटाजुद्ध करवाएँगे
खुद चिनगारी फेंक घड़ा ले सबसे आगे
धाएँगे
जहाँ
हर नाले में लाश पड़ी है, हर ऊँचे पर झण्डा
झुरमुट में नवजात रो रहे, हर बाँहों पर गण्डा
हो, जहाँ के राजनेता की अरमान इस धारणा में
पूरी हो कि
धरा ठूँठ हो जाए न जब तक, थूथुन थूथुन चरते रहिए
चारों ओर बड़ी चुप्पी है, रह-रह आप चिघरते रहिए
...ऐसे
दारुण परिदृश्य में कवि का मन यदि व्यथा से भर जाए, तो
क्यों न खुद के पशुशावक होने की कल्पना कर ले! पशु होने की इस आकांक्षा में कवि का
केवल पशु-प्रेम नहीं है। बल्कि कवि को मनुष्य की उक्त नृशंसताओं से घृणा है, और पशु-समाज के उस सौहार्द और निर्मलता
से प्यार है, जिसके कारण पशु-समाज कभी
घृणा, द्वेष, पाखण्ड, दम्भ के कण्टक कभी न बोते
परिजन को चाटते जीभ से, सींगों से खुजलाते
...पशु-समाज में जो भी हो पर रही बात यह
खास
कहीं बलात्कार का कोई नहीं मिला
इतिहास...
इस संकलन के सभी पदों में समेकित रूप से कवि के उस जाग्रत, जनोन्मुख और संवेदनशील चेतना-विस्तार
तथा आहत मन की खीज व्यक्त हुई है;
जो निरन्तर पतनोन्मुख
सामाजिक व्यवहार-व्यवस्था से उत्पन्न हुई है। प्रतीत होता है कि हमारा समाज कदाचित
आदिम युग से भी अधिक असभ्य और बर्वर हो गया है। आदिम युग में तो कम से कम सर्वाइवल
फोर द’ फिटेस्ट था, जिसको जिस पर नृशंस आक्रमण करना होता था, सीधे कर लेता था; इस समय तो सर्वत्र धोखा, प्रपंच, वंचना, विश्वासघात का सिलसिला चल पड़ा है। त्रासद
है कि मनुष्य-समाज की क्रूरता किसी भी हद में पशु-समाज में नहीं दिखती। ‘बड़े भाग मानुष तन पावा’ का अर्थ अब इस नृशंस समाज में क्या रह
जाता है! जहाँ साधु,
सन्त, नेता, अफसर, व्यापारी, पुलिस, चिकित्सक सारे के सारे सामाजिक उपदेशक
और संचालक दुर्वृत्तियों में लीन-तल्लीन हैं, वैसे
में जाहिर है कि अष्टभुजा जैसे सारे कवि चैन की नीन्द और आफियत की साँस नहीं ले
सकते।
पदों के तजबीज से कोई कोताही नहीं कि अष्टभुजा की ये
अनुभूतियाँ, या कहें कि ये ‘कुपद’ इस
तरह के ‘पद’ में
ही कहे जा सकते थे,
आज के प्रचलित
काव्य-विधान में सम्भव है कि कवि का लक्ष्य बाधित हो जाता। विदित है कि पद की पहली
पंक्ति कहने में ही कवि को एँड़ी-चोटी का जोड़ लगा देना पड़ता है, और बाकी की पंक्तियों में इस पहली
पंक्ति में भरे गए अर्थ-गाम्भीर्य को पुष्ट करने में काव्य-कौशल एवं जीवनानुभव का
उत्कर्ष झलकता है। हिन्दी की जनोन्मुख परम्परा के प्रतिमान ये पद बेखटक मनुष्यता
के मौलिक मर्म के ज्ञाता अष्टभुजा की रचनात्मक प्रतिबद्धता के सूचक हैं। पदों का
पाठ-विश्लेषण नागरिक जीवन के व्यावहारिक पहलुओं पर कवि की गहन वैचारिकता का परिचय
देता है। ‘जुग की मैल, एक रविवार’ में सामान्य तौर पर मैले कपड़े धोने का
साधारण-सा विवरण दिखता है,
पर गौर करने पर यहाँ
परत-दर-परत अर्थध्वनियाँ खुलती हैं। व्यंजनाओं का वैराट्य इसकी पहली ही पंक्ति के
दो पदबन्धों-‘जुग की मैल’ और ‘एक
रविवार’--से शुरू हो जाता है। यहाँ ‘रजक’ कपड़े
धोनेवाला ही नहीं, वह आम नागरिक है, जिसके दायित्व में पूरे जमाने के
उपदेशकों, संचालकों के पापों की धुलाई शामिल है, यह धुलाई उसे तब करनी है, जब उसके सामने तमाम परिस्थितियाँ
प्रतिकूल हैं। धुलाई के तमाम उपस्कर--पानी, रेह, बर्तन, हाथ, पाट, नदी-तट--सब
के सब गन्दे हैं। आवर्ती रूप से समय भी कम है, फकत
एक रविवार की फुरसत है,
क्योंकि अगले दिन फिर
सोमवार आ जाएगा, और गन्दगी फैलाने वाली शक्तियाँ पूरे
सप्ताह में गन्दगी का दूसरा ढेर फिर तैयार कर देंगी। अब इस रविवार को हम चाहें तो
चुनाव-पर्व का अन्तराल मान लें,
साधु-सन्तों के
पापाचार उजागर करने का बड़ी मुश्किल से आया अवसर या कोई और सुअवसर मान लें। पर इन
विपरीत परिस्थितियों में ही ‘चीकट मैल’ हटाने
का दायित्व उस ‘रजक’ पर, अर्थात् नागरिक पर है। विपत्ति ऐसी, कि अम्बर से झहरे पवित्र पानी तक के
नीचे गोबर की परत बिछ जाती है। प्रदूषण के समस्त खतरों, चुनौतियों से अपने ‘रजक’ को
सावधान करते हुए अष्टभुजा को मानव-निर्मित इन आपत्तियों का इल्म बखूबी है; पर वे जिद ठान बैठे हैं--
अष्टभुजा का पन्थ दिगम्बर मैल छुटे तो
छूटे
अथवा तार तार हो पट ही, पीर जाय, दृग फूटे।
इन दागदार परिस्थितियों से कवि इतने कुपित हैं कि सफाई के लिए
हर कीमत चुकाने को तैयार हैं--मैल छुड़ाने में वस्त्र भले फट जाए, दिगम्बर भले हो जाना पड़े, पर मैल अवश्य छूटे। मानवीय पक्षधरता में
कवि का ऐसा क्रोध और जिद लगभग सभी पदों में--सधुक्कड़ी अन्दाज, कबीरी उद्घोषणा, फक्कड़ाना पहल के साथ व्यक्त हुआ है, पर क्रोध में वे आग नहीं उगलते, अपनी पक्षधरता के परिपाक से नागरिक
स्वभाव की चिनगारी को फूँक मारकर सुलगाते नजर आते हैं।
उनके सृजन-समाज की स्त्रियाँ कुम्भ स्नान में घाट-घाट पर
चोर-उचक्कों, पण्डों, लण्ठों
को देखकर धार्मिक पाखण्ड को बड़ी आसानी से समझ जाती हैं; कर्ज उगाह कर कुम्भ-स्नान हेतु आने पर
जब वे देखती हैं कि धर्म की आड़ में यहाँ उगाही, ठगी, लफंगई होती है, यहाँ लाज और गठरी, दोनों की रक्षा असम्भव है, तो वे क्षुब्ध हो जाती हैं, कान पकड़ती हुई प्रतिज्ञा करती हैं कि
नरक भले चली जाऊँ, पर ऐसे तीर्थ में कदापि न आऊँ, उन्हें पश्चाताप होता है--‘कहाँ चली आई, क्यों आई, मन
को क्या समझाऊँ’!
उनके समाज का सामान्य नागरिक का जीवन इतना कठिन है कि
लोहे के कुछ चने सुबह थे, सायं जिन्हें भिगोया
पाने वाले राज पा गए, अष्टभुजा सब खोया!
उनके समाज में ‘ताब’ से
अधिक बेमतलब ‘बेताब’ होते
लोग भी जब-तब नजर आते हैं। ऐसे में एक सहृदय कवि तो सहज ही निवेदन करेगा--मिट्टी
साजो, चाक घुमाओ/एक सलोना दीया प्रतिदिन अपने
हाथ बनाओ’। दीया बनाने के इस अनुनय का उद्देश्य
वैसे बेताब नागरिकों का ज्ञान-चक्षु खोलना ही है। सर्वहारा और मजदूर-किसान के हित
में बात करने वाले कम्युनिस्टों के राजनीतिक तिकड़म पर कवि का व्यंग्य घातक
है--बज्र की मूठ, काठ की रेती/कामरेड! कैसे करोगे वामपन्थ
की खेती?
संकलन के अन्तिम कुछ पदों में कवि ने जीवन की गहन दार्शनिकता
का संकेत दिया है। असल में ‘ताब’ से
अधिक ‘बेताब’ नजर
आने की मानवीय हरकतों का असली कारण ही मानुष न बन पाना है, सही अर्थ में मानुष बन जाने से तो सारे
प्रमाद, लोभ, मद, लिप्सा का अन्त हो जाएगा।
अभी कहाँ मानुष बन पाया
गढ़ने वाला कहाँ चाक को अन्तिम बार
घुमाया...
जैसी घोषणा में कवि को पूर्ण नहीं हो पाने का असन्तोष है, पर जनशक्ति के प्रति आस्था, और नागरिक परिदृश्य तक अपनी सलाह
सम्प्रेषित हो जाने का भरपूर विश्वास भी है।
हर समय और हर पद्धति के रचनाकारों की जीवन-दृष्टि उनके शब्दों, मुहावरों, बिम्बों, प्रतीकों में स्पष्ट होती है। अष्टभुजा
के इन पदों का नायक हर समय या तो किसान, मजदूर, आम नागरिक है, या वे खुद हैं; उनके भोलेपन, और उस भोलेपन के कारण जमाने के छद्म का
उन पर हुए प्रकोप का जिक्र वे हर पद में करते हैं, उनकी
बदहाली और दमन का उल्लेख करते हैं,
पद का अन्त आते-आते
उनकी दुर्दमनीय चेतना को उजागर करते हैं। श्रम और स्वेद से उपजे ज्ञान को अष्टभुजा
ने इन पदों में अहम् ज्ञान का दर्जा दिया है और जन-चेतना के उज्ज्वल विजय और बेहतर
सुबह की कल्पना की है। यहाँ आततायियों के जबड़े में फँसी मानवीयता के अदम्य साहस को
उजागर किया गया है,
वंचकों की
वंचना-बुद्धि की पहचान के साथ मानवीय सौहार्द बहाल करने की दिशा में ये पद
आर्ष-वचन हैं। ‘कुपद’ ये
उन अर्थों में अवश्य हैं,
जिनमें दमनकारी
व्यवस्था के विरोध को आतंकी आचरण कहा जाता है, जिन
वंचकों की पहचान यहाँ कर ली गई है,
उनके लिए तो ये कुपद
ही होंगे! अष्टभुजा का काव्य-पुरुष भलीभाँति जान गया है कि
इस जंगल में इतना दाना
लगता है, कोई फेंका है जान बूझकर फाना
खाने उतरूँ तो फँस जाऊँ या तो करूँ उपास
उधर जाल है, इधर प्रलोभन खिसक रहा विश्वास...।
मानुष बनने की आश में, दिया
जलाने की सलाह में,
चेतना जगाने की
तल्लीनता में डटा हुआ कवि अष्टभुजा शुक्ल अपने जमाने की मुसीबतों के सामने डटकर
खड़ा है; उसे दिगम्बर होना कुबूल है, उपासे रहना कुबूल है, पर मैल चीकट और जाल, दाने से नफरत है। हिन्दी की जनोन्मुख
पद्धति में कहे गए इन पदों से आशा की जाती है कि आम नागरिक पर कवि के इन ‘कुपदों’ का
वही प्रभाव होगा जो कभी कबीर के शिल्प और नागार्जुन की शैली से हुआ है।
जुग की मैल एक रविवार, समीक्षा-3-4, अक्टूबर 2014-मार्च 2015, पृ. 30-31
-पद-कुपद/अष्टभुजा
शुक्ल/राजकमल प्रकाशन/2012/पृ. 96/रु. 200.00
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