भयावह परिस्थितियों पर विजय की आकांक्षा
(राजनारायण बोहरे का कहानी संग्रह ‘इज्जत-आबरू’)
‘इज्जत-आबरू’ राजनारायण बोहरे की बारह कहानियों का
ताजा संकलन है। आज की युवा पीढ़ी के सामने कथा लेखन के आयाम काफी विस्तृत हैं। विषय
और शिल्प की विस्तृति की जितनी गुंजाईश उनके सामने है, इतनी पूर्व के कथाकारों को नहीं थी। आज
की पीढ़ी के लिए ऐसा अवसर जुटाने में कुछ भूमिका तो समय के बदलते तेवर की है, वैज्ञानिक विकास की है, भौतिक संसाधन की है, और कुछ भूमिका पूर्ववर्ती कथाकारों की
है, जिन्होंने बडे़ श्रम से और बड़ी साधना से
आज की पीढ़ी के लिए प्रशिक्षित और प्रबुद्ध और दिशा सिद्ध पाठकों की परम्परा बनाई
है। आज के कथाकार और आज की कहानी सीधे-सीधे और बडे़ व्यंग्यात्मक अथवा सांघातिक
शैली में समय-सत्य से मुखातिब होती है, और
आज के पाठक बड़ी आसानी से उन कहानियों से दो-चार हो जाते हैं, उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती--इसमें
पूर्ववर्ती कथा-परम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। राजनारायण बोहरे को यह पूरी
विरासत प्राप्त थी। कौशल के प्रशिक्षण के लिए पूरी कथा-परम्परा और विषय चयन के लिए
बुन्देलखण्ड और आस-पास का जनपद,
इन दोनों उपादानों के
बीच राजनारायण के भीतर के कथाकार का वजूद बनता है।
‘इज्जत-आबरू’ कहानी संकलन के बारे में सच ही लिखा गया
है कि ‘संग्रह की बारह कहानियों में बुन्देलखण्ड
के गाँवों-कस्बों का अनगढ़ व अनावृत जीवन है। समाज की विसंगतियाँ हैं, पीड़ाएँ हैं और विडम्बनाएँ भी। इन
कहानियों में आम आदमी के जीवन का स्पन्दन और हलचल मौजूद है। यहाँ आम आदमी के
आत्म-संघर्ष को पूरी ईमानदारी से व्यक्त किया गया है। उनमें अन्तव्र्याप्त करुणा और
संवेदना आम आदमी की चिन्ताओं को गहरे सामाजिक सरोकारों से भी जोड़ती है।’ पर कहानी के उम्दा होने के लिए इतनी ही
बातें पर्याप्त नहीं हैं। इन कहानियों के विषय फकत बुन्देलखण्ड क्षेत्र की सचाई
नहीं, पूरे भारतवर्ष के जनपद की सचाई है।
मजदूरों के श्रम और शील के साथ समृद्ध लोगों का खिलवाड़ पूरे भारतवर्ष की विकृति
है। श्रमिक वर्ग अपना श्रम-स्वेद तो बेच ले, पर
बहू-बेटियों की इज्जत सुरक्षित रखना चाहता है। अपने श्रम के मूल्य और स्त्रियों के
आबरू के प्रति वह सचेत रहता है। ‘इज्जत-आबरू’ कहानी में ये बातें झलकती हैं। कथा का नायक
‘खेता’ आज
के सुबोध मजदूर का प्रतीक है। भारत के धनशाली लोग आज तक समझते आए हैं कि भूखे
लोगों से पैसों के बल कुछ भी करवाया जा सकता है। अच्छे-खासे सुबुद्ध लोगों को
धनलाभ के लिए गलीज काम करते देखकर,
देश की अस्मिता और
इनसानी वजूद की दलाली से लेकर तरह-तरह के अनाचार और दुर्वृत्ति में लिप्त देखकर
सम्भवतः उन्होंने ऐसी धारणा बनाई हो। पर वे धोखा खा जाते हैं। असल में चूँकि वे
लोग ऐसे आचरण मजदूरों की तरह अस्तित्व रक्षा के लिए नहीं, रोटी के लिए नहीं, ऐशो-आराम के संसाधन जुटाने के लिए करते
हैं, इसलिए सामन्तों को समझ लेना चाहिए कि
रोटी के मूल्य पर आज के मजदूरों का शोषण सम्भव नहीं है, अपनी नैतिकता और श्रम-शक्ति पर ‘खेता’ जैसे
मजदूरों के पास भरपूर आस्था बची हुई है। अपने इज्जत-आबरू के प्रति लापरवाह सहयोगी
के समर्थन के बिना भी ‘खेता’ को
अपनी ही शक्ति पर इतनी बड़ी आस्था है कि वह अपने अन्नदाता, रोजगारदाता खन्ना साहब की बातों का
विरोध करने में, उसकी करनी पर थूकने में तनिक नहीं
हिचकता। पूरी कहानी शोषण की विडम्बनाओं से भरी है, कहानी
का अन्त एक अच्छे परिणाम के साथ होता है, ‘खेता’ उस चुनी हुई युवती को लेकर, रोजगार से मुँह फेरकर निकल जाता है।
यद्यपि आज का मजदूर कुछ और आगे बढ़ गया है। आज के कुछ फैशनपरस्त कथाकार, सम्भव है कि खेता द्वारा जुलूस निकलवाकर
खन्ना साहब की बोटी-बोटी नोचवा देते। पर, राजनारायण
ने ऐसा नहीं किया। कहानी का अन्त पूरी कहानी के फ्रेम के अनुकूल हुआ है, हो सकता है कि खेता की इस हरकत से अन्य
मजदूरों के मन में थोड़ी-सी ललकार जगे या हो सकता है कि खेता ने डिप्लोमेटिकली सोचा
हो कि भूख के आतंक में ये श्रमजीवी मेरी बात पर विश्वास न करें।...ये सारे सोच सही
हैं। पर जैसा कहा गया कि ‘आज की हिन्दी कहानी अपनी विशिष्ट शिल्प
और भंगिमा के कारण पाठकों का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करती है।’ राजनारायण बोहरे ने खुद अपनी भाषा चुनी
है और शिल्प का विस्तार किया है,
जिसमें उनकी मौलिकता
झलकती है।’ पर राजनारायण की यह मौलिकता और शिल्प का
यह विस्तार थोड़ी-सी चमक और तराश की अपेक्षा रखता है।
ये सारी कहानियाँ दारुण अन्धकार और भयावह परिस्थितियों में
निष्ठा और नैतिकता के विजय की बात करती हैं। हर जगह मानवता के सकारात्मक पहलू की
जीत हुई है, पर ये कहानियाँ एक घटना निवेदन की शैली
में खत्म होती रही हैं। शिल्प की मौलिकता में तराश की गुंजाईश यहीं थी। यह तो
प्रमाणित सत्य है कि उत्तम कोटि की कहानी अपने समाप्ति-स्थल से शुरू होती है। आज
के साहित्य का काम टाईम-पास तो नहीं है। साहित्य आज सीदित जनता को स्वोत्थान के
लिए प्रेरित और उद्बुद्ध करता है और एक सुखद परिवेश के निर्माण की ओर इशारा करता
है। और यह काम साहित्य-पाठ के बाद पाठकों की अन्तःप्रक्रिया से जुड़ा हुआ होता है, जो शिल्प के चातुर्य से सांघातिक होता
है, प्रभाव-कारी होता है। राजनारायण अपने
शिल्प-विस्तार में इस बिन्दु पर पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं।
‘बुलडोजर’ कहानी बुलडोजर के सारे अर्थों को ध्वनित
करती हुई चलती रहती है। अपनी पूरी आयत में यह कहानी ‘मैं’ और
‘मोहिनी’ की
इच्छा, आकांक्षा, श्रम, निष्ठा, लगन...सब
पर कितनी-कितनी बार बुलडोजर चलाती है, नायक
कितनी-कितनी बार ध्वस्त होकर फिर से अपने को संकलित, संगृहित
और पुनर्रचित करता है,
पर अनीति और अन्याय
के ठेकेदार, जिसमें प्रशासनिक अधिकारी भी शामिल हैं, उसे सिर उठाने के काबिल नहीं रहने देता
है। पूर्वाग्रह और धन-मद में चूर सेठ उसे बेईमान करार देता है, फिर भी वह अपना सर्वस्व लगाकर नई दुकान
प्रारम्भ करता है। इस दुकान की प्रगति, नैतिकता
और निष्ठा की विजय का संकेत देती है। पर आततायियों ने उसे भी नष्ट करवाने में
जी-जान लगा दी। और यह दिलचस्प है कि इस कथा का नायक परास्त नहीं होता। यह कहानी
परोक्ष रूप से नारी शक्ति के जिस उत्कर्ष की ओर इशारा करता है, उसे आज के फैशनेबल नारीवादी नहीं समझ
पाएँगे। जब सेवा से बहिष्कृत नायक टूटने को होता है, तब
उसे नई दुकान सँभालने का साहस मोहिनी देती है। और जब बुलडोजर के नीचे अपनी तमाम
आकांक्षा को ध्वस्त होने का नजारा नायक सपने में देखता है, तो वहाँ भी उसे नारी-शक्ति का ही सहारा
दिखता है--‘मैं अवश-सा उससे ऐसे लिपट गया, गोया डूबने वाला बचाने वाले को पकड़ ले।’ इस कथा के नायक का अपनी पत्नी मोहिनी से
इस प्रकार लिपट जाना और उसमें डूबते से बचाने वाले का बिम्ब देखना, निश्चित रूप से नारी के प्रति कथाकार के
उत्तम सोच का परिचायक है। यहाँ नारी शक्ति के जिस संरचनात्मक पहलू के प्रति
आदर-भाव दिखाया गया है,
वह निश्चय ही हमारे
समाज और परिवार की सांगठनिक शक्ति को परिपूर्ण करेगा।
‘गाड़ी
भर जोंक’ ट्रक ड्राईवर और क्लीनर के जीवन पर
केन्द्रित कथा है। विषय और विवरण के आधार पर यह कहना समीचीन होगा कि राजनारायण ने
जिस किसी भी विषय को स्पर्श किया है, उसका
परिचय भली-भाँति दिया है। ‘रामबरन’ ड्राईवर
और ‘कल्लू’ क्लीनर
की जिन्दगी के सहारे ड्राईवरी पेशा पर इतने विस्तार से टिप्पणी हुई है कि जीवन की
विडम्बनाओं के साथ-साथ इस पेशे की कई सूक्ष्म बातें जानकारी के तौर पर भी उभर आती
हैं। जीवन की भौतिक शर्तों को पूरा करने के लिए नौकरी चाहिए और यदि ट्रक ड्राईवर
की नौकरी मिल जाए तो सब कुछ तो मिल जाएगा, बस
जिन्दगी नहीं मिलेगी। पूरा जीवन सड़क पर बीत जाएगा। होटल से भूख शान्त करना और ढाबे
की पेशेवर छोकड़ियों के साथ यौन-तुष्टि--यही जीवन उसे नसीब होता है। इस कहानी में
इसी दृश्य को विस्तार दिया गया है। ‘गाड़ी
भर जोंक’ वाकई जोंक से लदी जिन्दगी का नमूना है, जहाँ विडम्बना ही विडम्बना है, पर यहाँ भी कहानी का नायक परास्त नहीं
है।
‘डूबते
जलयान’ में बिपिन, दिवा और दीपू में प्रेम का जो त्रिकोण
बना है, उसमें किसी के पक्ष में और किसी के
विपक्ष में निर्णय देना कठिन है। इस कहानी के हर पात्र उस जलयान के यात्री हैं, जो डूब रहा है। विडम्बना यह है कि इस
जलयान को डूबने से कोई बचा नहीं सकता। दायित्व-पूर्ति की नैतिकता में, अधिकार-प्राप्ति के औचित्य में और
आकांक्षाओं एवं सपनों की ललक में हर पात्र अपने-अपने तर्क के साथ अपना-अपना किरदार
निभा रहा है। सामाजिक बन्धन और व्यवस्था का शिकंजा यूँ कसा हुआ है कि कोई भी काम
कोई भी पात्र पूरी प्रतिबद्धता और जोखिम उठाने के साहस के साथ नहीं कर रहा है। ‘कुछ आगमन ऐसे होते हैं, जिनकी प्रतीक्षा भी होती है और वे टल
जाएँ, तो निष्कृति बोध भी।’ इस पंक्ति में मानवीय द्वन्द्व का
उत्कर्ष निखरा है। जो भी हो,
यह कहानी हमारे समाज
में नैतिकता के पाखण्ड से प्रेम की हत्या और जीवन के काँटों की फसल को चित्रित
करती है। यद्यपि पूरी कहानी यातना और कल्पना में ही बीतती है, पर इसका अन्त भी कथाकार ने ऋणात्मक नहीं
किया है। एक शंका है कि हो न हो दीपू इस साहस के साथ आया हो कि वह दिवा को ले
जाएगा और दिवा इस मनःस्थिति में हो कि वह दीपू का आमन्त्रण स्वीकार लेगी।
‘भय’ कहानी
एक नैतिकतावादी शिक्षक के मन में बैठे भय की कहानी है। कहानी यह तय करती है कि आज
के समय में भय अनैतिक काम करने के बाद नहीं होता। किसी भी ईमानदार हरकत के बाद भय
शुरू होता है। और उनकी ईमानदारी के कारण सदा उनके मन में बैठा भय जब उन्हें तोड़ने
की हद तक ले आता है,
तब उन्हीं की
ईमानदारी का शिकार हुआ एक छात्र,
उन्हें अपनी ईमानदारी
पर कायम रहने की सलाह देता है। ‘आदत’ कहानी
फिर इसी ईमानदारी के कारण जहालत भोगते यादव जी की कहानी है। यादव जी सारी प्रतिकूल
परिस्थितियों से लड़कर जीवन बिताता है, पर
अपनी ईमानदारी नहीं छोड़ता।
‘हवाई
जहाज’, ‘विसात’, ‘मुठभेड़’ और अन्य कहानियाँ भी इसी तरह के विषय पर
लिखी गई हैं, जहाँ अनैतिकता की आँधी में नैतिकता के
दीप प्रज्ज्वलित हैं। नैतिकता के आग्रही इस कथाकार के शिल्प-संस्कार एवं
शैली-विस्तार में निखार की अपेक्षा पाठकों को है। क्योंकि विषय के स्तर पर श्रेष्ठ
होने के बावजूद ये कहानियाँ स्थायी छाप छोड़ पाने में सफल नहीं हो पा रही हैं।
-भयावह परिस्थितियों
पर विजय की आकांक्षा, साक्षात्कार, भोपाल, जुलाई, 2000
इज्जत-आबरू/राजनारायण
बोहरे/यात्री प्रकाशन, दिल्ली/पृ.-124/रु.-110.00
No comments:
Post a Comment