Tuesday, March 17, 2020

चर्चित कविताओं का सहारा (शतानन्द श्रोत्रिय का समीक्षा संकलन)



चर्चित कविताओं का सहारा  

(शतानन्द श्रोत्रिय का समीक्षा संकलन)

हिन्दी की समकालीन कविताओं पर पुस्तकों, शोध-ग्रन्थों तथा आलोचनात्मक लेखों की कोई कमी नहीं है। शतानन्द श्रोत्रिय की पुस्तक समकालीन हिन्दी कविता यात्राइस लिहाज से कोई अचम्भे में डालने वाली पुस्तक नहीं भी हो सकती है। पर इस पुस्तक के बारे में यह बड़ी स्थूल बात होगी। असल में इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है कि शतानन्द ने इसमें हिन्दी कविता को समृद्ध करने वाले चौंतीस छोटे-बडे़ कवियों के महत्त्वपूर्ण कविता संकलनों की समीक्षा प्रस्तुत की है। प्रारम्भ में हिन्दी के इक्कीस सुविख्यात और कुछ अल्पख्यात कवियों के कविता संग्रह की अलग-अलग समीक्षा की है, जिसमें रघुवीर सहाय, केदारनाथ अग्रवाल, केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल से लेकर प्रतापराव कदम तक की पुस्तकों की समीक्षा है। इसके बाद तेरह नए कवियों के संग्रहों पर अलग-अलग शीर्षक से दायरों को तोड़ती कविताएँअध्याय के अन्तर्गत की गई समीक्षाएँ वाकई हिन्दी पाठकों के लिए एक बड़ी बात है। और नहीं कुछ, तो इतने संकलनों का परिचय पाठकों को यह एक पुस्तक तो दे ही रही है।
अपै्रल 1995 से शतानन्द ने लिखना शुरू किया और दिलचस्प है कि आलोचना से ही लेखन शुरू किया। यह पुस्तक उनकी पहली कृति है। हिन्दी के महान-महान आलोचकों ने पद्य से ही अपने लेखन की शुरुआत की है, पर शतानन्द इस मायने में अलग दिखते हैं। अपने इन पाँच वर्षों के लेखन काल में ही उन्होंने जिन पुस्तकों की समीक्षा लिखी, वे उनके चयन की कसौटी को दाद देती हैं। वे पुस्तकें हैं--एक समय था (रघुवीर सहाय), कुहकी कोयल खडे़ पेड़ की देह (केदारनाथ अग्रवाल), उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ (केदारनाथ सिंह), सपना अभी भी (धर्मवीर भारती), शब्द वे लौटेंगे निश्चय (श्रीकान्त जोशी), उन हाथों से परिचित हूँ (शलभ श्रीराम सिंह), अनुभव के आकाश में चाँद (लीलाधर जगूड़ी), सबकी आवाज के पर्दे में (विष्णु खरे), सच पूछो तो (भगवत रावत), पत्थर की बेंच (चन्द्रकान्त देवताले), हम जो देखते हैं (मंगलेश डबराल), नेपथ्य में हँसी (राजेश जोशी), इतने गुमान (सुदीप बैनर्जी), नए इलाके में (अरुण कमल), रात बिरात (लीलाधर मण्डलोई), जो सुनना तो कहना जरूर (राजेश शर्मा), लो कहा साँबरी (तेजी ग्रोवर), क्रूरता (कुमार अम्बुज), सच सुने कई दिन हुए (बद्री नारायण), अन्न हैं मेरे शब्द (एकान्त श्रीवास्तव), एक तीली बची रहेगी (प्रतापराव कदम)। इसके अलावा दायरों को तोड़ती कविताएँमें उन्होंने जिन संकलनों को शरीक किया है, वे हैं: चलने से पहले (हेमन्त कुकरैती), दीवार पर टंगी तस्वीरें (लालित्य ललित), इन दिनों की याद में (सुधीर मोता), जो कुछ घट रहा है दुनिया में (नासिर अहमद सिकन्दर), रास्ता साफ होगा (शैलेन्द्र शरण), बीसवीं तारीख के आस-पास (धर्मेन्द्र पारे), रोज ही होता था यह सब (अरुण आदित्य), फिर कभी (प्रदीप मिश्र), एक आकाश छोटा-सा (बुद्धिलाल पाल), सिर्फ आँख भर रोशनी में (शशि शर्मा), अपनी-अपनी धूप (क्रान्ति येवतीकर), घर निकासी (नीलेश रघुवंशी), अरुण सातले की कविताएँ (अरुण सातले)।
इन संकलनों का प्रकाशन अन्तराल बहुत छोटा नहीं है; ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये एकदम से ताजा-तरीन संकलन हैं। इस अन्तराल में और भी कई महत्त्वपूर्ण और कुछ स्थापित हो चुके कवियों की श्रेष्ठ कविताओं के संकलन प्रकाशित हुए। यदि ताजा प्रकाशनया नवीनतम कृतिजैसा बन्धन नहीं था, तो इस दौरान प्रकाशित विशिष्ट संकलनों को अथवा समकालीन धारा के अन्य महत्त्वपूर्ण कवियों के पुराने संकलनों को ही शामिल कर लेना उचित होता। अब यह बात तो लेखक ही बताएँगे कि उनके सामने लक्ष्य क्या था, पर इस पुस्तक में विनोद कुमार शुक्ल, आलोकधन्वा, देवी प्रसाद मिश्र, कात्यायनी, अनामिका, विमल कुमार, दिनेश शुक्ल, विनय दूबे के साथ-साथ और भी कई महत्त्वपूर्ण कवियों की गैरहाजिरी अखड़ने लायक है। यूँ अनुपस्थित महत्त्वपूर्ण रचनाकारों की सूची लम्बी है, पर वह सूची पेश करना जरूरी नहीं। स्वयं लेखक ने कहा है कि ‘‘समीक्षार्थ संग्रह मैंने अपनी पसन्द के चर्चित और अच्छे क्रय किए हैं...इन संग्रहों को क्रय करते समय किसी का आग्रह या दुराग्रह नहीं रहा है--मेरा स्वयं का भी। संग्रह का चयन करते समय...जिस भी संग्रह की यहाँ-वहाँ अधिक चर्चा सुनी, क्रय कर किया और अपने विचार अंकित कर लिए।’’-- इससे पूर्व उनकी उक्ति है--‘‘मेरी कोशिश रही है कि समीक्ष्य संग्रह की कविताओं के अच्छे पक्ष को अधिक से अधिक उद्घाटित किया जाए। महज कुछ कवियों के कारण संग्रह के अच्छे पक्ष को अनदेखा करना उचित भी नहीं है।...कमियों से आम पाठक का क्या लेना-देना?’’-- समीक्षक शतानन्द की स्थापना है कि ‘‘यह (कविता) गतिशील और चिन्तक मानस की देन है, जो अपनी निजता को तोड़ने के लिए व्याकुल है। यह असुन्दरता को समाप्त करके सुन्दरता की स्थापना और कलुष को नष्ट करके पावन उज्ज्वल दीप प्रज्वलित करने का अभिनन्दनीय यत्न है, असत् को समाप्त कर सत् की प्रतिष्ठा की पीठिका है।’’-- तब फिर इतने श्रेष्ठ लक्ष्य के लिए लिखी जानेवाली कविता के प्रति इतनी उदारता क्यों? ऐसा क्यों कि जो कुछ लिखा गया, उसकी केवल तारीफ हो? यदि उसमें कुछ कमी है तो उसकी भी चर्चा होनी चाहिए।
आलोचना का मौलिक काम है किसी वस्तु अथवा प्रसंग को पहचानकर उसे उसका मौलिक और सच्चा सम्बोधन देना। इस मायने में यदि रचना का मूल धर्म समाज के लिए दर्पण जैसा है, तो आलोचना का मूल धर्म भी, समाज और रचना--दोनों के लिए दर्पण जैसा होना चाहिए। रचनाकारों की नाराजगी का डर हो तो आलोचना विधा में पदार्पण करने की गलती किसी को नहीं करनी चाहिए। आलोचक उचितवक्ता होता है, यदि वह किसी पूर्वाग्रह अथवा ग्रन्थि से ग्रस्त नहीं है, यदि वह सहृदय है और रचनाकार तथा रचना की अन्तः प्रकृति को समझने की उसमें क्षमता है, यदि उसके भीतर एक विवेकशील और साहसी प्राणी जिन्दा है, तो वह उचितवक्ता होता है। इस पुस्तक के लेखक शतानन्द श्रोत्रिय ने आलोचना लिखने का खतरनाक प्रयास जब प्रारम्भ किया होगा, तब शायद इन सत्यों से वे परिचित हो गए होंगे। फिर यह समझौता क्यों करना चाहते हैं? ऐसे भी जो श्रेष्ठ रचनाकार होते हैं, वे अपनी रचनाओं की बुराई से नाराज नहीं होते, उन्हें बड़े सकारात्मक रूप से लेते हैं। हाँ, कुछ कृत्रिम और बदहवास रचनाकार जरूर होते हैं, जो अपनी पहली रचना की यश-प्रतिष्ठा से ही निरालाहो जाना चाहते, पर ऐसे रचनाकारों की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। बहरहाल...
समकालीन हिन्दी कविता यात्रापर चर्चा करते हुए यह बात तो सामने आती ही है कि सम्भावनाओं की गुंजाईश हर अच्छे काम के बाद रह ही जाती है, लिहाजा इस संकलन की प्रस्तुति में भी कई सम्भावनाएँ रह गईं, पर जो काम सामने है, उसके आधार पर यह कहा जाना उचित होगा कि शतानन्द ने एक अच्छा काम पाठकों के सामने रखा है, एक साथ दो दर्जन से ज्यादा श्रेष्ठ कविता संकलनों की समीक्षा-पुस्तक के रूप में यह पाठकों का मन मोहेगी, अवश्य मोहेगी।
इस पुस्तक की तैयारी शतानन्द ने किसी शोधकर्मी के कर्मकाण्ड के साथ नहीं किया है, शुद्ध रूप से यह समीक्षाओं का संकलन है, सीधे-सीधे उस संकलन और उस कवि की रचना से शुरू कर लेखक ने उसके बारे में पर्याप्त जानकारी इन छोटी-छोटी समीक्षाओं में दी है। जैसा कि लेखक ने स्वयं कहा है कि संकलनों की खामियों की ओर उन्होंने मात्र इशारा भर कहीं-कहीं किया है। अब यह उस संग्रह के जिज्ञासुओं पर निर्भर करता है कि वे उन्हें खोजें और खामियों की व्याख्या करें।
यह संकलन इस रूप में भी रेखांकित करने लायक है कि योजनाबद्ध ढंग से काफी पहले विश्वनाथ त्रिपाठी ने दो खण्डों में उस समय के श्रेष्ठ कवियों की कविताई पर व्याख्या प्रस्तुत की थी, यद्यपि उनमें शरीक कुछ कवि इस संकलन में भी हैं। उनके बाद इस तरह से व्यक्ति और पुस्तक केन्द्रित समीक्षाओं का संकलन कम, बल्कि नहीं के बराबर आया है। अभी तो हिन्दी की पत्रिकाएँ एवं प्रकाशन आयातित सामग्रियों के प्रचार में व्यस्त हैं, अपनी चीजों और अपने घरों में झाँकने की उन्हें फुर्सत कहाँ? ऐसे में यह संकलन स्वागत योग्य है, लेखक ने अपने घर में तो झाँका है।
चर्चित कविता संकलनों की नाव पर/साक्षात्कार समकालीन हिन्दी कविता यात्रा/शतानन्द श्रोत्रिय
अनुराग प्रकाशन, न.दि. पृ.-164, मू.150.00

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