Tuesday, March 17, 2020

जख़्म हरा रखने के लिए (युवा कवि नीलोत्पल का कविता संग्रह)



जख़्म हरा रखने के लिए 

(युवा कवि नीलोत्पल का कविता संग्रह)

युवा कवि नीलोत्पल की पचासी कविताओं का संग्रह अनाज पकने का समय हिन्दी की समकालीन कविता-धारा में एक सार्थक हस्तक्षेप है। यहाँ अपनी तमाम कविताओं में कवि एक सकारात्मक सोच के साथ उपस्थित दिखते हैं। यह पुस्तक कवि का पहला संग्रह है। अकारण नहीं है कि कवि अपने संग्रह की पहली ही कविता में आगपैदा होने का संकेत पाते हैं और आखिरी कविता में अलविदाकहते हुए जाने के बावजूद कहीं मनुष्यता को बचाए रखने की सम्भावना भी देखते हैं। एक ओर जहाँ संकलन की पहली ही कविता कोई आग पैदा कर रहा हैमें सारी हार बेमानी हो जाती हैऔर कवि को ऐसा प्रतीत होता है कि
जरूरी नहीं है
संगीत की प्रत्याशा जानना
जरूरी है
सुना जाए उसे तन्मयता से
एक-एक पत्ती बजती है
सुनाई पड़ता है
कोई आग पैदा कर रहा है
बर्फ के जमे पहाड़ पर...
वहीं अपने वातावरण की तमाम आपदाओं और विकृतियों के बावजूद कवि को अपने और अपने सहयात्रियों की शक्ति पर इतनी आस्था है कि वह पुकारता है--
...बचाओ इसे
बचाओ अपने भीतर ध्वस्त हो रहे
पहाड़, पेड़, नदी, इनसान और वह सब
जो हमें बचाए है हत्यारा होने से...
आज के साहित्य पर विचार करते हुए हम जितनी भी बातों पर तर्क, मीमांसा कर लें, एक बात बहुत जरूरी लगती है कि हमारा समय इतना अधिक जटिल हो गया है कि अब घटनाओं और परिस्थितियों के प्रति किसी रचनाकार का दृष्टिकोण भी, पाठकों को बहुत कुछ कहने लगा है। ध्यान देने की बात है कि रचनाकार का दृष्टिकोण उसे न केवल उस विषय-प्रसंग को अनुभूत और आत्मसात करने का कौशल देता है, बल्कि उस विषय-वस्तु को व्यक्त करने की शैली और शिल्प भी समझाता है और रचनाकार की अवधारणाओं को मूर्त्तमान करता है।
नीलोत्पल का दृष्टिकोण इन कविताओं में पर्याप्त निश्छलता से स्पष्ट होता है। कवि अपने समय की तमाम विपरीत परिस्थितियों से वाकिफ हैं, अपने आसपास फैले समस्त जागतिक आचरण, जन-व्यवहार, सत्ता-व्यवस्था, भाव भंगिमा, समाज-संचालन की नीतियों में गहरे तौर पर समाई हुई अनैतिकता...सभी से परिचित हैं; पर किसी भी विपरीत परिस्थिति से विचलित और भयभीत नहीं हैं। वे अपने सहयात्रियों से सदा साहचर्य और सहकार की उम्मीद करते हैं, उन पर आस्था रखते हैं, और उन्हें कहते हैं कि--
इस तरह सोओ नहीं कि
उनकी बढ़ती हुई ज़द में!
मौजूद हो हमारा जीवन
नकेल कसे पशु की तरह
या दरख्तों पर बैठे पंछियों को उड़ा दिया जाए...
अपनी इस कविता इस तरह सोओ नहींमें कवि ने बहुत कम शब्दों में बहुत ही तल्ख बातों को पकड़ने की चेष्टा की है। समाज व्यवस्था के नियन्ताओं और खुद को समय का देवता साबित करने की जिद पकड़े भारत के स्वम्भू भाग्य-विधाताओं की कारस्तानी से कवि भली भाँति परिचित हैं--
उन्हें मालूम है हमारे बीच रहने के लिए
सच की नहीं
जरूरत है लिबास ओढ़े झूठ की
जिससे भरा जाता है बाजार धूर्तता और कमीनगी की...
कवि को मालूम है कि यह समय इतना विकट है, इसकी बात-व्यवस्था इतनी जटिल है कि हिंसा के खिलाफ चीखते हुए भी हम उन्हीं की गिरफ्त में होते हैं।...अब ऐसे में यदि कवि अपने आसपास के लोगों को सोने से बरजते हैं, तो यह क्रिया भी यहाँ एक रूपक की तरह उपस्थिति होती है, और अपनी व्यंजनाओं में किसी गूढ़ अर्थ की ओर संकेत करती है। सो जानाएक क्रिया है, जो मनुष्य की जाग्रतावस्था की विपरीतार्थक क्रिया है, जहाँ मानवीय इन्द्रियों की क्रियाशीलता निश्चेष्ट रहती है। दूसरा बिम्ब पशु का है, जो मनुष्य की आत्मरक्षात्मक ताकत का प्रतीक है। तीसरा बिम्ब पंछियों का है, जो मनुष्य की स्वच्छन्दता का प्रतीक है। कवि अपनी इस कविता में मनुष्य की ताकत और कामनाओं के प्रतीक-चित्रों के सहारे जागृति और चेतना की क्रियाशीलता का सन्देश देता है, उसमें कवि का यह सन्देश प्रशंसनीय है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कवि निराश नहीं होता, उन्हें मानवीय शक्ति पर इतनी आस्था है कि उसके जाग्रत रहने से सारी बेहतरी की सम्भावना बनी रह सकती है।
इस संकलन की तमाम कविताएँ बड़ी सादगी और संजीदगी से रची हुई हैं। कवि ने कहीं किसी दूर की कौड़ी ले आने का उद्यम नहीं किया है, बस अपने आसपास से बटोरे हुए बिम्बों को अपने काव्य-कौशल का संस्पर्श मात्रा दे दिया है। चतुर्दिक वातावरण में जो कुछ घटित हो रहा है, उसे सुपरिचित और सहज प्रतीकों और रूपकों से मूर्त्त करते हुए कवि ने उन परिस्थितियों को आम पाठकों के लिए तल्ख बना दिया है। इन कविताओं में घर, आग, अलाव, उषा, सागर, समय, नदी, रिश्तों, पंछियों, पत्तियों, पेड़-पवन-पहाड़-प्रकृति की विशिष्टताओं के सहारे अपनी हर कविता में कवि ने अपने समय की किसी न किसी भयावह परिस्थितियों से आम जन को सावधान किया है। समाज-व्यवस्था और मानवीय सत्ता के बाजार में कवि जिस नियामक शक्ति के प्रतिपक्ष में खडे़ आम जन का नेतृत्व करता है, उसकी आदतों से उनके मन में, और उनकी क्रियाशीलता में कोई विचलन नहीं होता, कोई भय-आतंक नहीं छाता, क्योंकि उन्हें उस नियामक शक्ति के अनैतिक आचरण और सामरिक शक्ति की सीमा का इल्म है, और अपने सामथ्र्य पर आस्था भी है। कवि स्पष्टतः कहते हैं--
उन्हें ही तय करने दें हमारी ताकत
...उन्हें ही बताने दें
रिश्तों और सम्बन्धों की नई परिभाषाएँ...
कवि को मालूम है कि
हम चाहे उनकी इच्छाओं के मुताबिक
बनाएँ अपनी तस्वीर
किन्तु वे हमारी सच्ची वल्दियत के जरिए
भरना चाहते हैं अपनी जेबें...
उनके नियन्त्रणशीर्षक इस कविता में कवि ने स्पष्ट रूप से अपने अगले उद्यम की कोई घोषणा, या उनके पराभव की कोई सूचना अथवा सम्भावना नहीं व्यक्त की है; पर जो बहुत बड़ी बात है, वह यह कि आज के जटिल परिवेश में प्रतिपक्ष के उद्देश्य और चरम लक्ष्य की जानकारी हासिल कर ली है। ऐसे में कवि ने अपने नीति कुशल योद्धा होने का प्रमाण दिया है। क्योंकि शत्रु-पक्ष के आक्रमण से अपने बचाव का उद्यम जितना आवश्यक है, शत्रु-पक्ष के बचावकारी उद्यमों का ज्ञान रखना कहीं उससे अधिक आवश्यक है। इस क्रिया में कहीं एक आघात को खाली छोड़ देने में बचाई गई ऊर्जा का बेहतर उपयोग किसी दूसरे आघात को रोकने में किया जा सकता हैै। धनानन्द जैसे दुर्वृत्त शासक से टक्कर लेने में चाणक्य ने भी तो इसी नीति का उपयोग किया था। अपनी नीतिपूर्ण कौशल से ही घटाटोप अन्धकार, विकट आपदाओं से भरे परिवेश, जटिल बौद्धिकताओं की कुटिल निश्चेष्टता और समाज निरपेक्षता के बीच कवि ने अपनी एक अलग भाषा और अलग काव्य-शैली तैयार की, जिसमें सरबजीत’, ‘हेमन्त देवलेकर’, ‘चन्द्रकान्त देवतालेजैसे कुछ व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के सहारे जातिवाचक और भाववाचक विम्ब गढ़े हैं।
वस्तुतः इन दिनों हम ऐसी सामाजिक पर्यवस्थ्तिि में जी रहे हैं, जहाँ मनुष्य को सामथ्र्यशाली सत्ता द्वारा दाखिल और खारिज किया जाता है। यह दाखिल और खारिज उस व्यक्ति या व्यक्ति के उद्यम की योग्यता पर नहीं होता, बल्कि नियामक शक्तियों के साथ सुरमिलानी करने, जुगलबन्दी करने, उसकी दुवृत्र्तियों में शामिल हो जाने के स्वभाव के लचीलेपन पर निर्भर करता है। पर कवि ने साफ-साफ घोषणा की है कि--
मैं इस तरह खारिज नहीं होना चाहता!
उन्होंने कहा कि--
मैंने नीतियों के लिए
अमेरिका का समर्थन नहीं किया
तब मुझसे कहा गया
तुम विकास की प्रक्रिया के विरुद्ध हो
और लामबन्द किया गया मुझे...
अपनी इसी कविता में कवि ने मनुष्य की बहुत बड़ी मासूमियत की ओर इशारा करते हुए पहली ही पंक्ति में खुद में एक अयोग्यता घोषित कर पूरी दुनिया की क्रूरता पर व्यंग्य का इतना बड़ा आघात किया कि विराट व्यंजना ध्वनित हो उठी--मुझे दुनियादारी नहीं आई...।
हिन्दी पट्टी में एक कहावत प्रचलित है--जिस पेड़ का छिलका है, उसी में फिर फिट बैठेगा! यह कहावत प्रतीक अर्थाें में रिश्तों की व्याख्या करने का एक महत्त्वपूर्ण और बहुअर्थी उपस्कर की तरह है। परिवार, समाज, प्रान्त, राष्ट्र के मानवीय और सांस्थानिक रिश्तों के साथ-साथ विश्व बन्धुत्व तक का सन्देश हमें यहाँ मिल जा सकता है। जो लोग इस कहावत की अर्थ-ध्वनियों को समझने में विफल हो जाते हैं, या कि उन ध्वनियों के सन्देश की जान-बूझकर उपेक्षा करते हैं, आज की दुनिया की दरिन्दगी में मानवीय रिश्तों के हत्यारे, राष्ट्र-द्रोह के प्रतिनिधि और आतंक के पुतले वही होते हैं। हर समय का महत्त्वपूर्ण रचनाकार अपनी विरासत के अच्छे-भले प्रसंगों को अपने समकालीन सन्दर्भ में नया अर्थ देकर प्रस्तुत करता है। यहाँ प्रशंसनीय शब्दों में कहना पड़ेगा कि नीलोत्पल ने अपनी कविता आत्मकथ्यमें इस कहावत के एक छोटे-से अर्थ-प्रसंग को नया अर्थ दिया है--
झरे हुए पत्तों को देखकर
जो पेड़ शोक मना रहे हैं
यकीनन वे गुजर रहे हैं
कोलाहल से दूर आत्मन्थन की क्रिया से...
पहले भी कहा गया कि पत्तियाँ, नीलोत्पल की कविता में नए-नए अर्थाें का बिम्ब लेकर उपस्थित हुई हैं, कहीं लाचार, कहीं हरीतिमा से भरी, कहीं संगीत से लदी, कहीं छाया से भरी...तरह-तरह की अर्थध्वनियाँ इनके यहाँ पत्तियों में भरी पड़ी हैं, और विराट व्यंजनाओं से स्थिति-चित्र को मूर्त्त करती हैं। इस कविता में यह व्यंजना और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है। यह पेड़ किस तरह का आत्ममन्थन कर रहा है?--क्या वह पत्तियों की दुर्बलता, भंगुरता पर चिन्तित है, या फिर खुद की विवशता पर कि उसने उसे किस लय में पनगाया और अब बचा न सका झर जाने से? या फिर समय की ताकत के आगे खुद को कमजोर मानकर चिन्ता कर रहा है कि इसे तो झरना ही था समय के साथ? या फिर अपनी जड़ों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के समक्ष निरुत्तर होकर शर्मसार हो रहा है?...प्रश्नों की अनन्त कड़ियाँ इस पद्यांश से सामने आ जाती हैं। और, इन प्रश्नों के सहारे यदि इस पेड़ का मानवीकरण कर दें तो अपने समय के सामरिक मानवीय परिवेश को उपस्थित हुआ देखते हैं।
इस संकलन की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविता है--संघर्षरत। छह उपबन्धों में रची गई इस कविता में कवि ने मानवीय संघर्ष को बड़ी सूक्ष्मता से उकेरा है। उद्धृत करना हो तो इस कविता की करीब-करीब पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए किसी संघर्षरत मनुष्य की शक्ति, साहस और आस्था को व्याख्यायित किया जा सकता है। जय-पराजय के सामरिक परिवेश में केवल ताकत महत्त्वपूर्ण नहीं होती, ताकत की अनुभूति और ताकत के इस्तेमाल का कौशल और इन दोनों के बल बूते सफलता के प्रति आश्वस्ति कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। हाथी बहुत ताकतवर होता है। भीम जैसे गदाधर की शक्ति को हाथी की ताकत की इकाई में आँका जाता था, पर उस हाथी को चूँकि अपनी ताकत की अनुभूति नहीं होती, इसलिए वह मनुष्य द्वारा संचालित होता है। जिस दिन उसे अपनी ताकत का बोध हो जाता है, वह मनुष्य का जीना हराम कर देता है। कवि कहते हैं--
हम खुश हैं
क्योंकि हमारी बेवसी
रोटी छिनने का हथियार नहीं बनी
बल्कि अपने मोर्चे पर संघर्षरत
रोटी जुटाने की दरकार है
हक के लिए...
कवि नागरिक अपने संघर्ष को रेखांकित करते हुए कहते हैं--
हमारा संघर्ष केवल कार्य पाने के लिए नहीं
बल्कि उछाले जा रहे उन सवालों के खिलाफ है
जो तोड़ते हैं हमारी इयत्ताओं को
और श्रम को अपने फायदे के लिए करते हैं इस्तेमाल...
संघर्ष करने और करते रहने की इसी क्षमता और धैर्य के कारण अनन्त काल की विकृतियों से, अमानवीय आचरणों से मुठभेड़ करती हुई मानवीय सत्ता महफूज रहती आई है, और अनन्तकाल तक महफूज रहेगी।
इस संकलन का शीर्षक अनाज पकने का समयहै। पर, इस शीर्षक की कोई कविता इस संकलन में नहीं है। जाहिर है कि कवि ने इस ध्वन्यार्थक शीर्षक में बहुत कुछ देखा होगा। अनाज पकने का समय किसानों के लिए बड़े ही उल्लास का समय होता है, पर यही वह समय होता है, जिसमें किसानों को मौसम की औचक बेरहमी से सावधान भी रहना होता है, नीलोत्पल अपने समय के कवि नागरिक के रूप में इन कविताओं के साथ स्पष्ट सन्देश देना चाहते हैं कि अब वह समय आ गया है, जब हमें अपने सद्कर्मों की, उद्यमों-उपक्रमों की परिणातियों को देखने हेतु उल्लासमय स्थिति में रहना चाहिए; पर मौसम की औचक बेरहमी से सावधान भी रहना चाहिए। नीलोत्पल के इस पहले संग्रह में जो कुछ थोड़ी-बहुत कचास और शिल्प का बिखराव रह गया है, इनके अगले संकलनों में इसका परिष्करण शीघ्र ही हिन्दी पाठकों को देखने को मिलेगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।
अपना जख्म हरा रखने के लिए, समीक्षा, नई दिल्ली, जुलाई-सितम्बर, 2011
अनाज पकने का समय/नीलोत्पल/भारतीय ज्ञानपीठ/रु. 130/पृ. 170

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