सुगढ़ कौशल और भाषा अपेक्षित
पाँच नए कथाकारों की कथा-दृष्टि
इन दिनों हिन्दी कहानी में जिस पीढ़ी के लोग सक्रिय हैं, उनका दायित्व अपने पूर्ववर्तियों की
तुलना में बहुत बढ़ गया है,
बल्कि विराट हो गया है, क्योंकि उनका परिवेश कई दिलचस्प
परिस्थितियों का सामना कर रहा है। इस पीढ़ी के कथाकारों के सामने दमदार कथा लेखन की
एक भव्य परम्परा है। पूर्व से आ रही कई सामाजिक विडम्बनाओं तथा वर्तमान असंगत
परिस्थितियों का संस्पर्श पाकर यह कथाधारा आज कुछ और ही रुख अपना चुकी है।
विश्वग्राम की अवधारणा, विश्व
बाजार का दबाव, सांस्कृतिक सीमा के विस्तार और अतिक्रमण
का संघर्ष, धन-पद-मद-मान की प्राप्ति में तल्लीन
बुद्धिवादियों के सन्धान,
सिद्धान्त और विचार
के नारे बुलन्द करने के छर्ोिंं में लिप्त लोगों की मंशा, सामाजिक सांस्कृतिक उद्यमों का
कार्यकर्ता बनकर संसाधनों की तस्करी करने की प्रवृत्ति विगत दो दशकों में भारतीय
सामाजिक व्यवस्था में जड़ जमाने की ओर अग्रसर हुई है, बल्कि
बहुत हद तक इस उद्यम में सफल हुई है। और, इनके
कत्र्ता-धत्र्ता अपना वास्तविक रूप छिपाकर भव्य-दिव्य चेहरा दिखाते रहने में काफी
क्रियाशील हुए हैं।
स्वाधीनता आन्दोलन से लेकर आपातकाल तक के तीन दशकों की दुर्वह
स्थिति का गरिष्ठ-निकृष्ट बोझ ढोती हुई हिन्दी कहानी के समक्ष जिस तरह की भारतीय
जीवन-व्यवस्था खड़ी हुई थी;
राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक
परिदृश्य में मानवीय अभिलाषाएँ जिस कदर तड़प रही थीं--उसका वास्तविक चित्र हिन्दी
कहानियाँ उकेरने में लगी हुई थीं। सचाई है कि आपातकाल की त्रासदी से त्रस्त नागरिक
के मन में कांग्रेस विरोधी धारणाओं का विस्फोट हुआ था, और परिवर्तनकामी भारतीय नागरिक के मन की
मुराद, अपना सच्चा प्रतिनिधि चुनकर संसद में
भेजने, और स्थिर राजनीतिक व्यवस्था कायम करने
की उनकी अभिलाषा फिर से विफल हो गई थी। राजनीतिक अनस्थिरता का वह दौर अपनी तमाम
विकृतियों के साथ शुरू हुआ। तमाम राजनीतिक पार्टियों के संविद प्रयास ने आरक्षण के
विरूपित प्रचार के सहारे जातीय द्रोह, और
मन्दिर-मस्जिद विवाद के सहारे साम्प्रदायिक दंगा शुरू कर किया, और देश भर में मानव-द्रोह फैलाने में
सफलता हासिल की। चुनावी उपद्रव का बहुमुखी सिलसिला चल पड़ा। मनुष्य मात्र का उपयोग
लाठी-बारूद की हैसियत में होने लगा। सिद्धान्त, विचार
और आन्दोलन के रास्ते से युवावर्ग विमुख होकर अपनी उपलब्धियों के लिए पिछले दरवाजे
और अवान्तर रास्ते की तलाश में जुट गए। इधर साहित्य की दुनिया में
उत्तर-उपनिवेशवाद के एण्टीनैरेशन की पद्धति मुखर हो चुकी थी। दलित-प्रश्न और
स्त्री-विमर्श पर जोरों की बहस शुरू हो चुकी थी। सामाजिक और परिवारिक सन्दर्भो, सम्बन्धों में नए-नए मसले सामने आने लगे
थे। अधिकारी-अधीनस्थ,
मालिक-मजदूर, स्त्री-पुरुष, वणिक्-उपभोक्ता, उद्योगपति-कामगार के सम्बन्धों की नई-नई
व्याख्याएँ और नई-नई व्यवस्थाएँ सामने आने लगी थीं। इन तमाम नई व्यवस्थाओं ने
सामाजिक जीवन में नई-नई मुसीबतें पैदा कीं। पहले से चली आ रही मानव-विरोधी
यन्त्रणाओं से मुक्ति तो नहीं ही मिली थी, ऊपर
से नई-नई चुनौतियाँ प्रस्तुत हो गईं।
आज जिस पीढ़ी के लोग साहित्य-सृजन में सक्रिय हैं, उनकी शुरुआत इसी जनविरोधी पर्यवस्थिति
में हुई और इन परिस्थितियों ने उन्हें लिए-दिए भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में
पहुँचा दिया, जहाँ हरेक भाव-भूमि और हरेक सन्दर्भ
अपने सर्वमान्य या अधिमान्य अर्थ खो बैठे हैं। इस दौर की चरम-परम परिणति अथवा
नियति, संशय और अनिश्चय में तब्दील हो चुकी है।
देवता, पण्डित, पुजारी, तान्त्रिक, पंच, वैद्य, न्यायमूर्ति, वकील, व्यापारी, पुलिस, अधिकारी, राजनीतिज्ञ, शिक्षक, पत्रकार
और अपने को समय के नायक के रूप में प्रस्तुत करने में लिप्त आन्दोलनकारी...सबके सब, यहाँ तक कि प्रेमी-प्रेमिका की
अनुराग-वृत्ति भी संशय की दुकान के रूप में सामने प्रस्तुत है। हर स्थिति में आज
का नागरिक संशयात्मा बना हुआ है। उन्हें हर समय डर समाया रहता है कि न जाने किस
समय वह समाज के देवता के किस प्रपंच और धोखे का शिकार हो जाए। इन विकराल
परिस्थितियों में भाषा और मनुष्य की अभिव्यक्ति शैली भी आहत और अराजक हुई है।
मनुष्य के निजी जीवन में समाज का अनधिकृत प्रवेश पहले भी एकदम
से वर्जित नहीं था। पहले भी मनुष्य के निजी जीवन में समाज, और सामाजिक व्यवस्था ताक-झाँक कर लेती
थी, पर वह प्रवेश, और वह ताक-झाँक मनुष्य को अनुशासित रखने, उसके स्वैराचार को रोकने, उसके मौलिक अधिकार की रक्षा करने, और बुनियादी कर्तव्य की याद दिलाने के लिए
होती थी। जबकि इन बदली हुई परिस्थियों में सामाजिक मान्यता का प्रवेश नहीं हुआ; वह तो एक निमित्त है; असल प्रवेश तो मनुष्य की दूषित भावनाओं
और दुवृत्तियों का हुआ है। नागरिक व्यवस्था के अनुपालन और लोगों के स्वैराचार को
प्रतिबन्धित करने के प्रयास इसमें सिरे से गायब है, इस
ताक-झाँक में ओछी ईष्र्या,
वैयक्तिक द्वेष का
हिसाब-किताब होने लगा है। जाहिर है कि इन तमाम परिस्थियों में कहानी लिखने का
जोखिम जो कोई रचनाकार उठा रहा है,
उनके समक्ष चुनौतियों
का चट्टान खड़ा है।
कोशी अंचल के पाँच क्रियाशील नए कथाकारों की एक-एक कहानी के
अवगाहन करते समय इधर लगातार इन बातों का ध्यान आता रहा। महागिद्ध (गौरीनाथ), किसी की कचहरी में नहीं (अखिल आनन्द), देवदूत (ठाकुर शंकर कुमार), कनियाँ-पुतरा (मिथिलेश कुमार राय), और चाय लड़की और दोस्त (आलोक रंजन)
कहानियाँ पढ़ते हुए एक बार फिर प्रतीत हुआ कि भाषा-विधान और कथा-शिल्प के स्तर पर
इन कहानीकारों की ज्वाला अपना तेज खो बैठी है। तय है कि इन कहानीकारों के यहाँ
पर्याप्त आग है, अपने समय की गुफाओं में छिपे विषय को
ढूँढने का कौशल या उसे देख लेने की दृष्टि है; पर
उसे उकेरने के लिए बुनावट की जैसी सघनता और भाषा का जैसा प्रवाह चाहिए--उस परिणति
तक पहुँचना अभी बाकी है। भाव,
भाषा, और अभिव्यक्ति के विधान को समय के दबाव
ने और इलेक्ट्रोनिक माध्यमों के धारावाहिक एवं विज्ञापन संस्कृति ने जिस कदर दबोच
लिया है, उन सबका असर इन कहानीकारों पर पड़े बिना
नहीं रह पाया है।
अखिल आनन्द की कहानी किसी कचहरी में नहीं का कथ्य एक बड़े
विमर्श को निमन्त्रण देता है। वर्ण-व्यवस्था के ढहते हुए अहंकार, स्त्री-विमर्श की चौहद्दी, ग्रामीण परिवेश के कुण्ठाग्रस्त पाखण्ड
और षड्यन्त्र की दुर्वृत्तियाँ,
स्त्री का आत्मबोध और
नारी-सम्मान का विजयी भाव इस कहानी में बहस की पुरजोर सम्भावनाएँ पैदा करता है।
समाज और सरकार की जिस कचहरी में न्याय की भीख के लिए आज के नागरिक रिरियाते फिरते
हैं, और सामथ्र्य सम्पन्न लोग अपने पक्ष में
न्याय खरीद लेते हैं,
अखिल आनन्द की नायिका
उन दोनों कचहरी से परे न्याय का हिसाब-किताब कर देती है। यह कहानी अपने शीर्षक
विधान में ही एण्टी-नैरेशन का उदाहरण साबित होती है। चर्चा की जा चुकी है कि
मन्दिर-मस्जिद और आरक्षण विवाद के मसले से पूर्व से ही हमारा नागरिक परिदृश्य नीम
चढ़ा करैला बन चुका था। राजनीतिक अनस्थिरता के कारण पूरा समाज संशय और असुरक्षा के
दौर से गुजरने लगा था। मानव सभ्यता और सामाजिक जीवन पद्धति की सारी नैतिकताओं से
विमुख होकर लोग नृशंसता और दानवीय चेष्टा के किसी भी रूप को अपनाने पर आमादा हो
चुके थे। पंजाब से लेकर दक्षिण बिहार (अब झारखण्ड) तक की स्थिति को देखते हुए
आन्दोलन शब्द अपना पुराना अर्थ खोकर नया रूढ़ार्थ प्राप्त कर चुका था। व्यक्ति-हित
में आन्दोलन और दंगा होने लगे थे। धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग
में समाज इस कदर बँट गया कि धर्मान्ध लोगों का आचरण देखकर उनकी धार्मिकता तक पर शक
होने लगा था। धर्म के नाम पर दंगा और धर्म गुरु के नाम से भौगोलिक स्वायतता की
माँग करते हुए खून की होली खेलने और गाजर-मूली की तरह मनुष्य का सिर काटने, और अपने ही देश की राष्ट्रीय सम्पत्ति
नष्ट करने में लिप्त-तृप्त लोगों को किस धर्म और किस धर्म गुरु ने यह अनुमति दी
होगी, कहना कठिन था। ऐसी ही सामाजिक
पर्यवस्थिति और प्रदूषित राजनीतिक परिदृश्य में इन्दिरा गाँधी और राजीव गाँधी की
हत्या का षड्यन्त्र रचा गया। भारत जैसे विराट लोक-तन्त्र में चुनाव का अर्थ हर समय
किसी तरह का राजनीतिक सुविचार नहीं होकर, दुर्घटना
सम्भूत सहानुभूति बना रहा। खुराफात के सहारे आम चुनाव की तैयारी करने वाले
राजनेताओं का बेशर्म चेहरा निरन्तर सामने आता रहा। मस्जिद-ध्वंस भी उसी का एक
उदाहरण है। सोवियत विघटन की अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति ने भी भारतीय बौद्धिकता और
भारतीय चिन्तन प्रक्रिया को प्रभावित किया। जमीन्दारी प्रथा समाप्त हो जाने, मजदूर वर्गो में जागरण की स्थिति आ जाने
के बावजूद, यह सच है कि बिहार के कोशी अंचल में
बहुत देर तक निम्न आयवित्त के लोगों की दुर्दशा बनी रही। बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि-अनावृष्टि
के असन्तुलित वातावरण में,
प्राकृतिक अवदानों और
ईश्वरीय आशीर्वादों पर आश्रित कृषि कर्म के कारण हाल-हाल तक, इस जनपद में मुट्ठी भर लोग समृद्ध, और समाज भर लोग दाने को मोहताज बने रहे
हैं। पर शिक्षा के प्रवेश और थोड़े से सवर्ण नौजवानों की उदार अन्तर्दृष्टि के कारण
विगत दो दशकों से कोशी अंचल में पवित्र जागृति आई है। भूख और बेकारी इस हद तक बढ़
गई कि इस अंचल के नौजवान पुश्तैनी झोपड़ी का मोह छोड़कर, जातीय और कौलिक अहंकारों के टीले से
नीचे उतरकर, धनार्जन के विविध उद्यम में चल पड़े।
युवा वर्ग के पलायन की यह स्थिति किशोर और प्रौढ़ तक फैली। गरज यह कि आपातकाल के
बाद निरन्तर ह्रास की ओर जाते हुए समाज में बहुत कुछ बुरा हुआ, लेकिन इस सच को स्वीकार करने में कोई
कोताही नहीं होनी चाहिए कि इस बदहाली की प्रतिक्रिया से इस अंचल में जैसी जागृति
आई, उसी का सद्परिणाम है कि दाने-दाने को
मोहताज परिवार की स्त्रियाँ अब अपने बाल-बच्चों की शिक्षा और अपने स्वाभिमान की
रक्षा के बारे में सोचने लगी हैं। विकृतियाँ भी बहुत आईं, पर इसी जागृति का परिणाम है कि इस दौरान
अपनी पहचान सुस्थिर करने वाले युवा कथाकार अखिल आनन्द की कमलपुरवाली फिर से शृंगार
करने लगी, वर्षों से खाली पड़े अपने मन के मन्दिर
में फिर से एक देवता बसाने की बात सोचने लगी, और
अपने अस्तित्व रक्षा के लिए भोगी बाबू जैसे राक्षस पुरुष की छाती पर असुर-मर्दनी
की तरह चढ़ बैठी। कथाकार अखिल आनन्द ने एण्टी-नैरेटिव्स का शानदार और सार्थक चित्र
यहाँ प्रस्तुत किया है। पर विषय और घटना क्रम के स्तर पर प्रशंसनीय होने के बावजूद
यह कहना जरूरी है कि भाषा शिल्प के स्तर पर इस कहानी की चूलें बहुत हिली हुई हैं।
इसकी भाषा संरचना को सँवारने और इसकी फाँकों को भरने का काम अभी बचा हुआ है।
आंचलिक शब्दों और क्रियापदों के प्रयोग से भाषा में चमत्कार लाने में बाबा
नागार्जुन, फणीश्वर नाथ रेणु या शालिग्राम को जो
सिद्धि हासिल हो गई थी,
उसे प्राप्त किए बिना
उस उद्यम में कूदना जोखिम भरा काम है। इसके खतरे अधिक हैं।
आलोक रंजन की कहानी चाय, लड़की
और दोस्त तथा गौरीनाथ की कहानी महागिद्ध आस्था की बुनियाद को नेस्त-नाबूद करनेवाली
मानवीय प्रवृत्तियों को उजागर करती है। सचाई है कि विगत दो दशकों में हमारे समाज
का व्यक्ति सबसे अधिक नैतिकता से मरा है। मानव सभ्यता के इतिहास पर नजर डालें, तो परिवार और समाज नाम की संस्था की
संरचना जब से तैयार हुई है,
आस्था और विवेक की
बदौलत इसकी आधारशिला दृढ़ बनी हुई है। आधुनिक समय में राष्ट्र-मण्डल की संरचना में
भी आस्था और विवेक पर्याप्त अर्थवान रहा है। यहाँ तक कि सट्टेबाजी और हवाला के
आर्थिक विनिमय में भी इसकी गुणवत्ता कामयाब रही है। लेकिन भारतीय राजनीति की
दुर्गन्धियों और व्यापारिक संयन्त्रों को गालियाँ देने वाले हमारे समाज के आम
लोगों ने खुद अपनी नीयत कैसी बना ली है--इन मसलों पर ये दोनों कहानियाँ बहुत घातक
चोट करती हैं। मवेशियों की चर्बी का उपयोग जब कारतूस की बद्धी में किया गया था, तब हमारे देश के सिपाहियों ने विद्रोह
कर डाला था। इस तरह के अनैतिक कार्यों के कत्र्ता-धत्र्ता तो विदेशी थे। पर आज जो
लोग हमारे स्वदेशी हैं और भारतीय लोक-तन्त्र में सर्वधर्म समभाव की आस्था को
निरन्तर मजबूत रखने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं, वे
अपने देश के नागरिकों की आस्था और स्वास्थ्य की हत्या करने में इस कदर लिप्त हैं
कि उन्हें अपने कुकर्मों का आभास तक नहीं होता। मरे हुए मवेशियों का माँस बड़े-बड़े होटलों
में आपूरित कर अपने देश के नागरिकों की आस्था और स्वास्थ्य के साथ मजाक किए जा रहे
हैं। उन्हें तनिक भी चिन्ता नहीं होती कि इसकी परिणति जिस दिन उन पर फलित होगी, तो क्या होगा?
संशय और असुरक्षा भाव केवल लूट-पाट और खून-खराबे की घटनाओं में
ही नहीं होता। धार्मिक मान्यताओं,
आस्थाओं और स्वास्थ्य
सम्बन्धी बारीकियों का मसला भी अहम् होता है। लुटेरे और नृशंस हत्या करने वाले
व्यक्ति की तुलना यदि महागिद्ध के नायकों-उपनायकों से की जाए, तो आज का मनुष्य लुट-पिट जाने की स्थिति
को बेहतर मानेगा, क्योंकि धार्मिक मान्यताओं और स्वास्थ्य
की सावधानियों की चिन्ता आज भी हमारे यहाँ अहम् अर्थ रखती है। आजाद भारत के
लोक-तन्त्र और स्वदेशी समाज व्यवस्था की दुर्गन्धियों पर यह कहानी झन्नाटेदार असर
करती है। यद्यपि कहानी को कुछ असन्तुलित विवरणों, और
अप्रासांगिक शब्द-चित्रों से बचाया जा सकता था।
संशय और असुरक्षा की ऐसी ही स्थिति आलोक रंजन की कहानी में
उत्पन्न होती है। छात्र जीवन की रंगीनियों, गैरजिम्मेदार
टिप्पणियों, सोहदे नौजवानों की आम हरकतों, शिक्षा क्षेत्र और शैक्षिक अनुशासनों के
अवमूल्यनों के चित्रा इस कहानी में यदा-कदा अभद्र लगते हैं। लेकिन इस कहानी का
केन्द्रीय विषय शीना और राजीव के प्रेम-प्रसंग की दुर्घटना है। बहुत पुरानी कहानी
हार की जीत की याद करें,
तो बात बेहतर समझ में
आएगी कि साधु ने घोड़ा छीनने वाले से कहा था कि तुम इसकी कहीं चर्चा नहीं करना, वर्ना लोग निस्सहायों पर विश्वास करना छोड़
देंगे। इस कहानी में प्रेम का नाटक करीब-करीब उसी तरफ जाता नजर आता है। वैसे तो यह
अच्छी बात है कि नई पीढ़ी के किसी लेखक की रचना को पढ़ते हुए पूर्वजों की याद आ जाए।
इसके साथ यह और भी अच्छी बात है कि शीना और राजीव का प्रेम प्रसंग, जो एक धोखे के लिए शुरू हुआ था, राजीव के समर्पण और व्यक्तित्व की पहचान
के क्रम में, बीच में ही शीना का हृदय-परिवर्तन हो
गया; और कहानी एक सकारात्मक प्रभाव पर पहुँच
गई। लेकिन इस घटना के बाद राजीव के कोमल मन में जो सन्नाटा छाया, उसकी व्याख्या भी गौरतलब है।
इन दिनों महाविद्यालय और विश्वविद्यालय के परिसरों में लड़कियों
को छेड़ने की घटना आम हो गई है। कुछ तो उम्र के कुतूहल में, और कुछ आवारगी के कुसंस्कार में। आलोक
रंजन ने अपनी इस कहानी को,
और अन्य चार कथाकारों
ने भी अपनी उक्त कहानियों को माँसल बनाने के लिए जिन उपकथाओं, उपघटनाओं का जिक्र किया है, उनमें से अधिकांश, उस कहानी को समृद्ध करने में कोई योगदान
नहीं दे पा रही है। लिहाजा उसकी उपस्थिति कहानी के प्रभाव को आहत करती है। माँसलता
भरने का कौशल यदि कहानी के प्रभाव को समर्थन न दे, तो
उसे कथा-दृष्टि की विफलता ही कही जाएगी। यह बात गम्भीरता से कहने की जरूरत है कि
इस बात पर इन कहानीकारों को सावधान रहने की अधिक आवश्यकता है। कहानियों का आकार
बढ़ाने के लिए निरर्थक और निष्प्रभावी घटनाओं का जिक्र उपयुक्त नहीं। खास तौर पर यह
कहानी भाषा-संरचना के लिए अपेक्षाकृत अधिक असन्तुष्ट करती है। इस कहानी की भाषा और
बुनावट पर अभी बहुत काम करने की अपेक्षा है। इस कहानी में मूल कथा तो सम्बन्ध और
सामाजिक व्यवहार के नेपथ्य का छद्म है। इस समय हम जिस परिवेश में जी रहे हैं, उसमें हर व्यक्ति, और सम्बन्ध को संशयात्मक दृष्टि से
देखने की आवश्यकता हो गई है। मानवीय सम्बन्धों की निश्छलता आज सिरे से गायब है।
प्रेम, वात्सल्य और भक्ति--इन तीन प्रसंगों का
स्थायी भाव समर्पण है। समर्पण के बाद मनुष्य अपने आलम्बन पर इतना आश्वस्त हो जाता
है कि उसे तर्क और संशय करने की इच्छा अथवा फुरसत नहीं होती। सामाजिक व्यवस्था की
सर्वमान्य शक्तियों की ओर से आए दिन हमें जिस तरह की धूर्त्तताओं की खबरें मिलती
हैं, उनका भरपूर और प्रभावकारी संकेत हमें
आलोक रंजन की इस कहानी में शीना और राजीव के प्रेम-प्रसंग से मिलता है। पर यह सचाई
है कि कथाकार इधर-उधर हाथ-पाँव मारने के बजाए इस कहानी की मूल कथा में थोड़ा अधिक
रमते, उसे थोड़ा और सँवारते, तो कहानी अपने समय की संशय-दृष्टि को
अधिक तल्खी से उजागर करती।
मिथिलेश कुमार राय की कहानी कनियाँ-पुतरा का विषय बहुत पुराना
है। दहेज और गुड्डा-गुड्डी के प्रेम की बाल-सुलभ बातें बहुत पुरानी हैं। पर दो
बच्चियों के संवाद ने इस पुराने प्रसंग के साथ एक नया पाठ प्रस्तुत किया है। बाल
मनोविज्ञान और सामाजिक प्रसंगों के मिश्रण से इस कहानी में, अत्यधिक पुराना पाठ, नए रूपों में प्रस्तुत हुआ है। बाल
मनोविज्ञान पर हमारे प्रदूषित समाज की कृत्रिमता का जैसा कूटनीतिक प्रभाव छाया हुआ
है, वहाँ बालमन की कोमलता और समाज की
नृशंसता के मेल से जैसा पाखण्डपूर्ण दृश्य प्रस्तुत होता है, वह असहज लगने के बावजूद रोचक है। यह
दीगर बात है कि विवरण की निरर्थकता और भाषा-शिल्प की अनगढ़ता का दोष यहाँ भी
विद्यमान है। घटना प्रसंग और कथोपकथन में अविश्वसनीय संवाद का उल्लेख खीज उत्पन्न
करता है।
हर रचनाकार को सबसे पहले खुद अपना पाठक होना चाहिए, ताकि पाठक के रूप में वह तटस्थ होकर समझ
सके कि अपने पाठकों को वह जो देने जा रहा है, उसकी
सार्थकता क्या है। इन कहानियों में भाषा और विवरण की ऐसी-ऐसी भूलें हैं, जो विश्वास दिलाती हैं कि कहानीकार ने
लिखने के बाद अपनी कहानी,
एक पाठक की हैसियत से
खुद ही नहीं पढ़ी है। एक तो विवरण की निरर्थकता खटकती है, ऊपर से उसके घटना-सूत्रों की टूटे हुए
तारतम्य और अधिक परेशान करते हैं।
ठाकुर शंकर कुमार की कहानी देवदूत एक अच्छी कहानी हो सकती थी, यदि कथाकार ने इस पूरे प्रसंग के साथ
इतना अत्याचार न किया होता और इसे घटनाओं तथा विचारों का कोलाज बनाने की जिद न की
होती। इस कहानी में तराश का इतना अभाव है, और
कल्पित प्रसंगों का इतना जमावड़ा है कि विश्वास करते हिचक होती है। किसी कहानी का
पूरा परिदृश्य कोई सत्यकथा हो,
यह जरूरी नहीं है; पर वह कहानी पाठक को अविश्वासनीय न
लगे--यह जरूरी है। इस कहानी में कथाकार कई प्रसंग जुटाकर अपने ज्ञान प्रदर्शन के
लोभ में एक भी प्रसंग को स्थापित नहीं कर सके। जबकि हरेक प्रसंग में बड़े-बड़े
विमर्श के दोहन की सम्भावना थी। कथानायक का साहित्य प्रेम, वकील-मुवक्किल संवाद, पान दुकान की घटना, मुकदमे की सुनवाई, मुकदमे की आधार-घटना, भाषा की परिणति, कथानायक का जुडिशियल मजिस्ट्रेट के साथ
संवाद, संवाद के वैचारिक प्रसंग की अर्थवत्ता, फणीश्वर नाथ रेणु की रिपोर्ताज, कथानायक के मन में परिवेश की विसंगतियों
पर क्रोध...कुछ भी स्थापित नहीं हो सका, जबकि
कथाकार के विवरण प्रसंगों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उनके भीतर कहने को बहुत
कुछ है। विवरण शैली के धैर्य और भाषा संरचना की सुव्यवस्था के साथ इनमें से किसी
एक प्रसंग को ही चित्रित किया गया होता, तो
हर प्रसंग में अच्छी-भली कहानी थी। अच्छी कहानी के लिए घटना का सच होना उतना
आवश्यक नहीं, जितना उसका सच लगना; और पाठकों पर प्रभाव छोड़ना।
अपने समय के कहानी-लेखन पर टिप्पणी करते हुए राजकमल चौधरी ने
कहा है--दिए गए गलत नारों और गलत स्टडीज के कारण, और
मुनाफाखोरी के नानाविध हथकण्डों में आत्मलीन प्रकाशकों की व्यवसाय-बुद्धि के कारण
धीरे-धीरे नई पीढ़ी के कहानी-लेखक आत्महत्या करने पर विवश हो रहे हैं।...किसी को
सहयोगी लेखकों द्वारा लगाई गई झूठी लांछनाओं ने पराजित किया है। किसी को इस खयाल
ने मारा है कि नामवर कहानी-लेखक बनने के लिए जरूरी नहीं है कि अच्छी कहानी लिखी
जाए, जरूरी यह है कि चन्द फार्मूले, चन्द उसूल, चन्द पब्लिसीटी, स्टण्ट अपनाए जाएँ। किसी को प्रकाशक ने
मारा है। किसी को किसी भ्रम या मायाजाल या गलतफहमी ने!...कहानियाँ लाश बन रही
हैं।...स्वतन्त्र लेखों में,
टिप्पणियों में, स्तम्भों में, समीक्षाओं में, यहाँ तक कि प्रकाशित पत्रों में ही, कहीं न कहीं आपको ऐसी बात जरूर मिल
जाएगी जो किसी लेखक को ऊँचा और किसी लेखक को नीचा साबित करने के लिए, आज की कहानी को किसी न किसी भूषण या
दुर्गुण से मण्डित करती है। हर दूसरा आलोचक, और
तीसरा लेखक आज की कहानी के दर्द का,
सिरदर्द का मसीहा बन
रहा है।--यह उद्धरण इस समय के कहानीकारों के लिए चेतावनी का काम कर सकती है।
हमें यह बात दृढ़तापूर्वक याद रखनी चाहिए कि साहित्य-सृजन एक
पवित्र काम है। इसका महत् उद्देश्य होता है। अनेक उदाहरण सामने हैं कि जिस किसी ने
इसे सत्ता और शक्ति हासिल करने का आधार बनाया, वे
जीते जी मर गए हैं। हर समय का साहित्य समकालीन समाज की राजनीतिक परिस्थितियों को
अनुशासित रखने का काम अवश्य करती है, पर
सचाई है कि साहित्य राजनीति नहीं है, राजनीति
करने का साधन भी नहीं। क्योंकि आज की भारतीय राजनीति मनुष्य विरोधी आचरण में लिप्त
है, जबकि साहित्य समाज को मानवीय बनाए रखने
का साधन है। बहरहाल...
कोशी अंचल के युवा कहानीकारों के पास कहने को बहुत कुछ है। वे
कह भी लेते हैं। पर बहुत जल्दी में हैं। शीघ्रता से सब कुछ हासिल करने के अधैर्य
और असंयम में पड़ जा रहे हैं। इस कारण कथन-कौशल की कलात्मकता का अपेक्षित संस्पर्श
उनसे छूट जा रहा है। फिर भी यह विश्वास अनर्गल न होगा कि शीघ्र ही वे धैर्य और
संयम की ओर लौटकर अपने पाठकों की अपेक्षाएँ पूरी करेंगे। चूँकि उनके पीछे कथा-लेखन
की भव्य विरासत है,
इसलिए पाठक उनमें
उनके पूर्वजों का अवशेष भी ढूँढते हैं। और, यह
बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि आज की कहानी अपने कथ्य से कम, कथ्य की परिणति और उसके विवरण से ज्यादा
कुछ कह पाती हैं।
सुगढ़ कौशल और भाषा
अपेक्षित,
संवदिया, नई दिल्ली, 2009
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