लक्ष्मीनाथ गोसाईं : कुछ प्रसंग
मिथिलांचल (बिहार) की ऊर्वर भूमि केवल अधिक अन्न उपजाने के लिए
नहीं, प्रखर बुद्धि, विलक्षण प्रतिभा, और तेजस्विता के पराक्रम से अपनी
मातृभूमि की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली सन्तानों के लिए भी विख्यात है। युग-युगान्तर से
यहाँ की माँओं की गोद में ऐसी सन्तानें आती रही हैं। उदयन, अयाची, मण्डन, भारती, वाचस्पति, भामती जैसी मनस्वी प्रतिभाओं के यश-सौरभ
से मिथिलांचल दमकता रहा है।
मिथिला क्षेत्र के निष्णात योगी परमहंस लक्ष्मीनाथ गोसाईं का
नाम ऐसी विभूतियों में बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। मैथिली भाषा के सन्त परम्परा
के वे सुविख्यात कवि हैं। अपने जीवन-काल में उन्होंने में राधा-कृष्ण और शिव विषयक
ढेरो भजनों की रचना की। उनके ईसाई शिष्य जॉन साहब ने उनके भजनों के संकलन भी
प्रकाशित किए। उनका जन्म उत्तर बिहार के सहरसा जिले के ‘परसरमा’ गाँव
में हुआ। जनश्रुति है कि भगवान् परशुराम जब श्री रामचन्द्र जी के चरणों में अपना
सब कुछ समर्पित कर पूर्व दिशा की ओर चले तो उनका पहला पड़ाव जहाँ पड़ा, वहीं वे रात भर हार्दिक क्षोभ से रोते
रहे। उसी स्थान का नाम ‘परशुरामा’ पड़ा
जो बाद में विकृत होकर अथवा वर्णविपर्यय के रूप में परसरमा हो गया। इसी ऐतिहासिक
भूमि पर इस विशाल तरुवर का उदय हुआ,
जिसकी छाया समस्त मूढ़
एवं सुधी जनों को समान रूप से मिली। विक्रम संवत् 1850 (सन्
1783) में उनका जन्म ‘कुजिलवार-दिगौन’ मूल एवं कात्यायन गोत्र के ब्राह्मण कुल
में हुआ। उनके पिता का नाम बच्चा झा था। उनका मूलनाम लक्ष्मीनाथ झा था। बाल्यकाल
से ही असाधारण दिखने वाले उस महात्मा ने अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा से अपनी
मातृभूमि को ज्योतित किया। अपने योग-बल और अलौकिक चमत्कार से नागरिक-परिदृश्य को
मुग्ध कर देने वाले उस महापुरुष के देहावसान के लगभग दो शताब्दी बाद आज भी मिथिला
के नागरिक ‘बबाजी’ सम्बोधन
से उनकी स्मृति में उनकी कुटी के सामने सिर नवाते हैं, और श्रद्धा-भाव से पूजते हैं। उल्लेखनीय
है कि यह ‘बबाजी’ शब्द
‘बाबाजी’ का
मैथिलीकृत रूप है, पर यह किसी साधु अथवा दादाजी का पर्याय
नहीं है, इस शब्द में आस्था और भक्ति की असीम
कल्पना भरी हुई है।
छुटपन से ही बालक लक्ष्मीनाथ समाज के अन्य बच्चों से अलग
स्वभाव के दिखते थे। वे अक्सर गाय चराने जाया करते थे। वहाँ गहरे तालाब में देर तक
डुबकी लगाए रहते थे। उनमें साँस रोकने की अजब क्षमता थी। कबड्डी खेलते वक्त वे देर
तक साँस दबाए रहते थे। उनके चरवाहे-मित्र इस क्षमता से चमत्कृत रहते थे। जनश्रुति
है कि एक दिन तालाब में देर तक डुबकी लगाए रहने पर भगवान् कृष्ण ने उन्हें दर्शन
देते हुए कहा--‘लक्ष्मीनाथ! तुम्हें गोचारण के लिए नहीं
भेजा गया है। तुम्हें समाज को बहुत कुछ देना है।’ कहा
जाता है कि बबाजी की आँखें वहीं खुलीं।
उनके पिता ने बालक लक्ष्मीनाथ को ज्योतिष विद्या सीखने के लिए
बाल्यकाल में ही दरभंगा जिलान्तर्गत महिनाथपुर गाँव के निवासी ज्योतिषाचार्य श्री
रत्ते झा के पास भेजा। ज्योतिष विद्या से उस समय अच्छा अर्थोपार्जन सम्भव था।
लेकिन बालक लक्ष्मीनाथ ने इस विद्या के अतिरिक्त तान्त्रिक रत्ते झा से तन्त्र में
भी निपुणता प्राप्त कर ली। योग और वेदान्त दर्शन में वे बचपन से ही रुचिशील थे।
सांसारिक प्रसंगों में उनका मन रमता नहीं था। उनके उस विरक्ति-भाव को देखकर उनके
माता-पिता ने छुटपन में ही उनका विवाह करवाना चाहा। माता-पिता एवं अग्रज के बहुत
कहने पर उन्होंने कहुआ ग्राम निवासी शोखादत्त ठाकुर की सुपुत्री से शादी भी की। एक
पुत्र-रत्न भी हुआ,
जिनका नाम नेना झा
था। किन्तु युवक लक्ष्मीनाथ सांसारिकता में रम न सके। कालान्तर में एक दिन वैवाहिक
जीवन त्यागकर घर से निकल पड़े। एक गुरु की तलाश में घने जंगलों में भटकने लगे। भारत
और नेपाल के कई धार्मिक स्थलों की यात्रा की। जंगल में भटकते लक्ष्मीनाथ की भेंट
एक दिन नाथ सम्प्रदाय के गुरु मत्स्येन्द्र नाथ के शिष्य गोरखनाथ तथा उनके शिष्य
गुरु लम्बनाथ से हुई। उन्होंने भूखे लक्ष्मीनाथ को प्रेम से अमरकन्द खिलाया और
उनकी अनेक परीक्षाएँ लीं। लक्ष्मीनाथ झा नाम बताने पर उन्होंने ‘झा’ शब्द
का तात्पर्य पूछा। लक्ष्मीनाथ ने बताया--हम उपाध्याय के वंशज हैं। झा की व्युत्पति
उपाध्याय से हुई है। उपाध्याय से कालान्तर में ओझा, फिर
‘झा’ बना
है। बालक लक्ष्मीनाथ की इस अतुलित प्रतिभा एवं धैर्य से गुरु लम्बनाथ प्रभावित हुए
और उन्हें शिष्य बनाकर दीक्षा देनी शुरू कर दी। छह महीनों तक उन्होंने गुरु के पास
योग के सभी मुख्य विषयों का ज्ञान प्राप्त किया।
सन्त शिरोमणि लक्ष्मीनाथ गोसाईं को आज उनके भक्त बाबा, बबाजी, परमहंस, गोसाईंजी कहकर स्मरण करते हैं। उन्हें
आठ सिद्धियाँ--अणिमा,
महिमा, गरिमा, लघिमा, प्रकाम्य, वशीत्व, स्थायित्व प्राप्त थीं। अपनी भजन मण्डली
के साथ वे देश के कोने-कोने में घूमे थे। शकरपुरा, महिनाथपुर, मधेपुर, पचही
स्टेट, फटकी, लखनौर
आदि स्थानों पर यदा-कदा आते थे। कई एक जगह तो उनकी कुटी भी है। लेकिन योग सिद्धि
के बाद वे स्थायी तौर पर बनगाँव में ही रहने लगे। बनगाँव मैथिल ब्राह्मणों की एक
विशाल बस्ती है, जहाँ उनके द्वारा बनाई गई एक कुटी का
परिस्कृत रूप अभी भी मौजूद है। आज भी उस इलाके के समस्त नर-नारी वहाँ प्रतिदिन आकर
श्रद्धावश स्वतः नतमस्तक हो जाते हैं। बनगाँव, सहरसा
जंक्शन से मण्डनधाम माहिष्मती नगरी जाने के रास्ते में है।
सन्त शिरोमणि लक्ष्मीनाथ गोसाईं के चमत्कारों से जुड़ी असंख्य
घटनाएँ हैं, जिन्हें उनके भक्त-जन आज भी भक्ति-भाव
से दुहराते-सुनाते रहते हैं। कुछ प्रेरक घटनाएँ इस प्रकार हैं:
एक साथ दो जगह भोजन
कहते हैं कि एक दिन अगहन महीने में परसरमा गाँव के एक श्रद्धालु
राजपूत ने बाबा को नवान्न का न्योता दिया। बाबा ने स्वीकार कर लिया। कुछेक क्षण
बाद पंचगछिया स्टेट के राजा साहब भी निमन्त्रण देने आ पहुँचे। बाबा ने उन्हें
परसमा निवासी उन सज्जन को मना लेने को कहा, जिनका
न्योता वे स्वीकार कर चुके थे। पर उस सज्जन ने राजा साहब से साफ कहा कि बड़े भाग्य
से आज मेरे घर ऐसे महात्मा के चरण पड़ेंगे, मैं
इस सौभाग्य से वंचित नहीं हो सकता। वापस आए निराश राजा साहब का शोकपूर्ण चेहरा
देखकर बाबा बोले--ठीक है,
मैं निमन्त्रण
स्वीकार करता हूँ, और एक ही समय में बाबा ने दोनों जगह
भोजन किया। बाद में रहस्य खुलने पर लोग विस्मित हुए बिना न रह सके।
ठेहुना भर पानी
एक बार बाबा अपनी भजन-मण्डली के साथ एक भक्त के घर जा रहे थे।
रास्ते में त्रियुगा नदी बाढ़ के पानी से चढ़ाव पर थी। नाव के बिना नदी पार करना
असम्भव था। नाविक ने बाबा और उनकी मण्डली के भक्तों से उतराई के पैसे माँगे। बाबा
ने कहा--साधु के पास पैसा कहाँ रहेगा! ऐसे ही पार करा दो!...नाविक ने चिढ़कर
कहा--मैंने ऐसे ठग तथा ढोंगी साधुओं को बहुत देखा है।...बाबा को नाविक की इस बात
से बड़ा कष्ट हुआ। बाबा नदी किनारे कुछ देर आँख मूँद कर बैठ गए और उठकर अपने भक्तों
से बोले कि तुम सभी मेरे पीछे-पीछे आओ। भक्तों ने कहा--इस अथाह पानी में हम सभी
डूब मरेंगे बाबा! बाबा ने उत्तर दिया--इसीलिए तो आगे-आगे मैं चलता हूँ!...खड़ाऊँ
पहने ही बाबा नदी पार कर गए। नदी का जल बाबा के टखने से ऊपर न जा सका। नाविक यह
देखकर भौंचक हो गया। दौड़ा-दौड़ा आया और रोते हुए बोला--बाबा! यह घाट मैंने बहुत
पैसा देकर खरीदा है,
दया कीजिए!...बाबा ने
कहा--अब तो तुम्हें दूसरा घाट ही बनाना होगा!...‘ठेंगहा
घाट’ नाम से प्रसिद्ध इस घाट पर आज भी ठेहुना
भर ही पानी होता है।
कैद में बाबा
नेपाल के पहाड़ी गाँवों में घूमते हुए अपनी भजन-मण्डली के साथ
बाबा एक बार नेपाल की राजधानी काठमाण्डू पहुँचे। उनके चमत्कारों के किस्से जगह-जगह
प्रचारित हो चुके थे। इस कारण लोग उनकी तरफ आकृष्ट होते रहते थे। काठमाण्डू आने पर
बाबा की ख्याति की सुगन्धि सम्पूर्ण राजधानी में फैल गई। महाराजाधिराज को भी
जानकारी मिली कि यहाँ एक चमत्कारी साधु आए हुए हैं। उन्होंने उनको प्रासाद में
बुलवाकर प्रणाम किया,
और कुछ चमत्कार
दिखाने को कहा। बाबा बोले--मैं कोई जादूगर नहीं, जादू
देखना है तो किसी जागदूगर को बुला लीजिए!...पर महाराज हठ करने लगे। अन्त में
गोसाईंजी बोले--आप ही कोई चमत्कार दिखाइए!...महाराज को गुस्सा आ गया। उन्होंने
बाबा को कैदखाने में बन्द करने का आदेश दे दिया।
बाबा के भक्त रोने लगे। भक्तों को सान्त्वना देते हुए बाबा
बोले--चिन्ता मत करो! इससे पूर्व हमलोगों ने जहाँ स्नानादि किया था, तुमलोग आगे बढ़कर वहीं रुको। सब ठीक हो
जाएगा।... कैदखाने में बाबा से भोजन के सम्बन्ध में पूछा गया तो बोले--हम हाथी का
चारा खाते हैं!... नौकर ने वरगद की कुछ डालियाँ कैदखाने में बाबा के भोजन के लिए
गिरा दी।
इधर बाबा के भजनी लोग चिन्तित मन से अपने गन्तव्य पर जा रहे थे, सामने देखा तो वे लोग चकित हो गए। बाबा
तो पहले से ही वहाँ बैठे उन लोगों को बुला रहे थे। इधर सुबह जब पहरेदारों ने खिड़की
से झाँक कर कैदखाने में देखा,
तो पाया कि वहाँ कोई
था ही नहीं, केवल हाथी की लीद पड़ी हुई थी, और कैदखाने का फाटक बन्द था।...महाराज
को इसकी सूचना दी गई तो वे चिन्तित होकर बोले--घुड़सवारों, सिपहसालारों को भेजकर उस तपस्वी को खोजो
तथा बुलवाओ! सिपहसालार खोजते हुए पहुँचे तो देखा, बाबा
भक्तों के साथ भजन में लीन थे। भजन समाप्त हुआ तो सेनापति ने दण्डवत किया, और बोला--भगवन्! हमारे महाराज से गलती
हुई, उन्हें अपने किए पर पश्चाताप हो रहा है।
कृपा कर आप लौट चलें! बाबा ने कहा--अब मैं नहीं लौटूँगा!...सिपहसालार के पुनः-पुनः
आग्रह करने पर बाबा बोले--साधु दो बार नहीं बोलते!
चोट भक्त को: खून बाबा को
उल्लेखनीय है कि इतनी सिद्धि प्राप्त रहने के बावजूद बाबा ने
कभी इसका अनुचित लाभ नहीं उठाया,
किसी का अनिष्ट नहीं
किया, सतत जनकल्याण करते रहे। उनकी नजर में
भेद-भाव की कोई भावना नहीं थी। वे सभी को भक्त-हृदय ही समझते थे।
बनगाँव के निकट ही बरियाही कोठी में एक ब्रिटेन निवासी जॉन
साहब रहते थे। कुछ लीलाओं को देखकर जॉन साहब बाबा के पक्के शिष्य बन गए थे। उनके
प्रभाव क्षेत्र में आ जाने के बाद वे सभी काम बाबा के निर्देशानुसार करने लगे थे।
बाबा ने जॉन साहब को आदेश दिया कि तुम भगवद्गीता का अध्ययन करो! उन्होंने जवाब
कहा-- बाबा! हम तो हिन्दी भी ठीक से नहीं जानते, फिर
यह संस्कृत की इतनी जटिल पुस्तक कैसे पढ़ पाऊँगा? बाबा
बोले--पढ़ लोगे, तुम ले जाओ!...और, अपने शिष्य रघुवर झा से बोले कि मेरी
वाली भगवद्गीता पोथी जॉन को लाकर दे दो!
पोथी पर लकड़ी का कवर चढ़ा था। स्वाभाविक तौर से पोथी भारी थी।
दूसरी ओर जॉन को विदेशी समझकर रघुवर झा उनके स्पर्श से बचना चाहते थे, अतः रघुवर झा ने दूर से ही पोथी जॉन के
हाथ पर फेंक दी। भारी होने के कारण जॉन को चोट लग गई। हाथ के नीचे की चमड़ी फट गई, बाबा वहीं बैठे थे। जॉन को जहाँ चोट लगी
थी, ठीक उसी स्थान पर बाबा को खून निकलने
लगा। बाबा ने कहा--देख जॉन! क्या हो गया? ...अपने
ही सामने शिष्य का अनादर बाबा को सहन नहीं हुआ, उन्हें
रघुवर झा से घोर अश्रद्धा हो गई।
बाबा के बारे में ऐसी अनेक चमत्कारी घटनाएँ प्रसिद्ध हैं। योगी
लक्ष्मीनाथ एक ही साथ चिन्तक,
साधक, भक्त, योगी, तपस्वी, सिद्ध
पुरुष...सब थे। अपने योग बल से उन्होंने समाज का प्रभूत उपकार किया। आज भी उनकी
कृपा को जीवन सम्बल मानकर वहाँ के अस्तिक नागरिक विपत्ति में धैर्य और साहस जुटाते
मिलते हैं। कन्द-मूल खिलाकर वे लोगों की अनेक व्याधियाँ दूर कर देते थे। उनके नाम
से उन पेड़-पौधों की डालियों,
पत्तियों, जड़ों का उपयोग कर लोग आज भी अपनी व्याधि
दूर करते रहते हैं।
देवत्वयुक्त लक्ष्मीनाथ गोसाईं ने 5 दिसम्बर 1872 को फटकी कुटी में जाकर अपनी देह त्याग
दिए। फटकी कुटी दरभंगा जिले में है। उनकी वास्तविक जन्म-तिथि उद्घाटित नहीं है, इसलिए जन्म-दिवस के बजाए 5 दिसम्बर को वृहत् काव्य गोष्ठी का
आयोजन कर बनगाँव कुटी पर आज भी प्रति वर्ष उनकी पुण्य-तिथि मनाई जाती है। बनगाँव
में उन्होंने एक विशेष आकार की फूस की कुटी बनाई थी। हाल-हाल तक उस कुटी की मरम्मत
की जाती थी, पर इधर आकार भक्तों ने उसे उसी डिजाइन
में कंक्रीट का बना दिया। गोर्साइं जी अनुपम, अलौकिक
एवं अनूठे श्रेणी के महायोगी थे। अपने योग बल से उन्होंने ईश्वर और धर्म को
लोक-जीवन से जोड़ा था। उनके लिखे भक्ति-साहित्य का अनुशीलन होना अभी शेष है।
-कथालोक, होनहर वीरवान के होत
चिकने पात विशेषांक, फरवरी-1987
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