Thursday, November 28, 2019

अमराई के अठारह फूल/पद्मा सचदेव की पुस्‍तक ‘अमराई’



अमराई के अठारह फूल

पद्मा  सचदेव की पुस्‍तक अमराई

हिन्दी में संस्मरण और साक्षात्कार साहित्य की परम्परा अब नई नहीं है। साहित्यिक विधा के रूप में न सही पर सम्बद्ध रचनाकार और रचनाकारों की कृतियों के मूल्यांकन में इस साहित्य-शाखा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। हिन्दी और डोगरी की प्रसिद्ध लेखिका पद्मा  सचदेव द्वारा बसाई गई अमराईइस साहित्य-शाखा की एक संख्या भर नहीं, देश के गिने-चुने अठारह फलदायी पेड़ों की शीतल और ऊर्जस्वित घनच्छाया का समुच्चय है, जिनकी पूरी जिन्दगी देश, जनता और साहित्य की सेवा में लगी रही है।
डोगरी की पहली आधुनिक कवयित्री पद्मा  सचदेव को सन् 1969 में प्रकाशित मेरी कविता मेरे गीतपुस्तक के लिए सन् 1971 में डोगरी भाषा हेतु साहित्य अकादेमी द्वारा सम्मानित किया गया था। पद्मा  सचदेव की सबसे बड़ी खासियत उनकी भाषा-शैली है। उनकी कविता क्या, गद्य में भी लोक-गीतों और लोरियों का लय एवं माधुर्य रहता है, लयात्मकता उनकी रचनाओं का प्राण-तत्त्व है। पाठक मोहित हो-होकर उनके रचना-संसार में डूबते हैं और आह्लादित होते हैं। उल्लेखनीय है कि डोगरी लोक-गीतों से प्रभावित होकर बारह-तेरह वर्ष की उम्र में ही पद्मा  सचदेव ने डोगरी कविता लिखना प्रारम्भ किया था। हिन्दी में साक्षात्कार और संस्मरणों के क्षेत्र में पद्मा  सचदेव का विशिष्ट स्थान है, यह पुस्तक अमराईउस कथन को और भी विशिष्ट और ऊँचा करती है।
देश भर के हिन्दी और हिन्दीतर भाषाओं के एक-से-एक रचनाकारों से पद्मा  सचदेव का आत्मीय सम्बन्ध रहा है। प्रख्यात लेखक, पत्रकार डॉ धर्मवीर भारती के निधन के बाद पद्मा  सचदेव के संस्मरण कुछ अखबारों में छपे थे। उन संस्मरणों ने उन क्षणों को इतनी तल्लीनता से रेखांकित किया था कि पूरा का पूरा दृश्य जीवन्त हो उठा था। इस पुस्तक में भी त्रिलोचन शास्त्री, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, धर्मवीर भारती, सुमित्रानन्दन पन्त, प्रभाकर माचवे, कुर्रतुल ऐन हैदर, इन्दिरा गोस्वामी, यू.आर. अनन्तमूर्ति, शिवानी जैसे प्रसिद्ध साहित्यकारों के साथ बिताए अपने समय का शब्द-चित्र उन्होंने बड़ी जादूगरी से उकेड़ा है। इन रचनाओं द्वारा उन चिन्तकों के जीवन से जुड़े महत्त्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी मिलती है। सवालों के शिष्टाचार द्वारा पद्मा  सचदेव बडे़-बड़े विद्वानों से वैसे तथ्य भी निकाल लेती हैं, जिसे वे खुद विस्मृति के अन्धेरे कुएँ में डाल चुके होते हैं। कौशल से वे संवाद को इस तरह रोचक बना देती हैं कि हँसते-हँसते लोग बड़ी सहजता से बड़ी-बड़ी गूढ़ बातें सामने रख देते हैं। और, उस बातचीत से हासिल हुई अनमोल बातें वे अपने पाठकों को उपलब्ध कराती हैं। कुर्रतुल ऐन हैदर, इन्दिरा गोस्वामी, केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह से हुई बातचीत की पंक्तियाँ इस स्थापना को समर्थन देती हैं।
तय करना कठिन है कि बहुमुखी प्रतिभा की स्वामिनी पद्मा  सचदेव की रचनाशीलता को कविता के क्षेत्र में प्रमुखता दी जाए या गीत में या कि संस्मरण और साक्षात्कार में! थोड़े दिनों पूर्व डोगरी कविता में प्रेमविषय पर आलेख पढ़ते हुए उन्होंने एक बार फिर से श्रोताओं को चौंका दिया। उनकी आलोचनात्मक दृष्टि, भाषाई गतिकता और कथात्मक पुट का कौशल उस पूरे पाठ में लगातार दिखता रहा।
साहित्य से जुड़े देश-देशान्तर के हर व्यक्ति जानते हैं कि पद्मा  सचदेव का सामाजिक सरोकार क्षेत्र, भाषा, साहित्य, राजनीति जैसे किसी वाद से प्रभावित नहीं है। उन्हें अपनी मातृभाषा से गहन अनुराग है, पर इस मूल्य पर किसी अन्य भाषा से विराग नहीं है; साहित्य उनका प्रिय क्षेत्र है, पर इस कारण संगीत, चित्रकला, समाजशास्त्र से उन्हें विरक्ति नहीं है। उनके अनुराग का विषय-फलक विराट है। अमराईमें संकलित संस्मरणों और साक्षात्कारों से भी यह बात पुष्ट होती है। जिस किसी क्षेत्र के लोग जिस भी दिशा में क्रियाशील हैं और उनके जीवन और कर्म में उन्हें थोड़ी भी प्रेरणास्पद बातें दिखती हैं, तो अपने पाठकों के लिए उनके चिन्तन-फलक को उजागर करना अपना धर्म समझती हैं। उनकी मूल प्रतिबद्धता जनता से है, उसके लिए सम्भावित हर मंगलकारी घटनाओं से है। यही कारण है कि अमराईमें एक तरफ त्रिलोचन शास्त्री हैं तो दूसरी तरफ फारुख अब्दुल्ला, सुमित्रानन्दन पन्त हैं, तो बख्शी गुलाम मुहम्मद और मलिका पुखराज, संसार चन्द बडू भी।
इस संकलन के संस्मरणों के शीर्षक से ही भाषा और कौशल का जादू शुरू हो जाता है। ललित शास्त्री के साथ हुई बातचीत के लिए कजरी उदास है’, त्रिलोचन शास्त्री के लिए रमता जोगी’, पन्तजी के लिए बारिश के मैके का कवि’, भारती जी के लिए अलाहाबादै के तो हैं’, अनन्तमूर्ति के लिए अक्खरों का ग्वालाजैसा शीर्षक देना उनके भाषाई संस्कार का परिचय देता है। लोक-भाषा और लोक-रुचि के रंग उनके चिन्तन और अभिव्यक्ति में संस्कार की तरह बसे हुए हैं, गाँव-कस्बे का वातावरण, लोकाचार एवं प्राकृतिक सुषमा उनके शब्द-शब्द में खेलते नजर आते हैं। साहित्य सहवास की तीसरी मंजिल के जिस घर के बरामदे में कदम्ब के फूल झुक आते हैं, जहाँ धरती से आती बेला, चमेली के फूलों की सुगन्ध बिन्दास घूमती रहती है, जहाँ अनगिनत किताबों को सुलाते-सुलाते साँझ की बयार खुद भी उनीन्दी हो उठती है,...बम्बई में वही घर डॉ धर्मवीर भारती का घर है।शब्द-योजना और भाषा प्रयोग का यह उदाहरण इस पुस्तक की पंक्ति-पंक्ति से दिया जा सकता है।
कई प्रकाशित/अप्रकाशित पुस्तकों की लेखिका पद्मा  सचदेव का एक आत्मविश्वास भी इस पुस्तक में झलकता है कि उन्होंने पुस्तक प्रारम्भ करने से पूर्व पाठकों के लिए भूमिका या पूर्वकथ्य जैसी कोई कुंजी नहीं पकड़ाई। गोया, अपनी प्रस्तुति से वे पूरी तरह आश्वस्त हैं, किसी वकालत, या व्याख्या की आवश्यकता नहीं, जो कुछ कहना होगा विषय-प्रसंग खुद कहेगा।...तथ्य है कि पूर्वकथ्य के बिना भी पाठकों को यहाँ सब कुछ मिला, शायद अपेक्षा के अनुकूल, पर हर अच्छी कृति अपनी समाप्ति पर पाठकों को असन्तोष तो देती ही है। ...यूँ इन प्रसंगों में कहीं-कहीं पद्मा  सचदेव आत्मश्लाघा और आत्म-विज्ञापन से घिरी दिखती हैं, पर उबरने में भी उन्हें देर नहीं लगती।
ये सारे प्रसंग पद्मा  सचदेव को संस्मरणों का खजाना साबित करते हैं। प्रतीत होता है कि अभी उनकी स्मृतियों में बहुत कुछ बचा है, जिसकी प्रतीक्षा पाठकों को है। शायद अगली पुस्तक में पूरी हो।
संस्मरणों की मोहक अमराइयाँ, हिन्दुस्तान (दैनिक, नई दिल्ली), नई दिल्ली, 02.07.2000
अमराई/पद्मा  सचदेव/राजकमल प्रकाशन/पृ. 208/रु. 175.00

पटकथा लेखन का जरूरी पाठ/मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक ‘पटकथा लेखन: एक परिचय’



पटकथा लेखन का जरूरी पाठ

मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक पटकथा लेखन: एक परिचय
 
भारतीय स्वाधीनता के दशकों बाद ज्ञान की विविध शाखाओं के प्रचलन को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना सरल है कि पटकथा लेखनहमारे लिए बड़े काम की चीज हो गई है। वैज्ञानिक प्रगति और ज्ञान की शाखाओं के विकास ने हमारी पारम्परिक शिक्षण पद्धति और प्रशिक्षण प्रक्रिया को इतना समृद्ध किया कि अब हमारे यहाँ अनुवाद अध्ययन, पुस्तक प्रकाशन जैसे अनुशासनों में डिग्री-डिप्लोमा मिलने लगी। विकास-प्रक्रिया ने बौद्धिक विलास और मानसिक तोष के अलावा अर्थोपार्जन की इतनी गुंजाइशें निकाल दीं कि इस तरफ लोग बड़ी आतुरता से अग्रसर हुए, लिहाजा इनके सिद्धान्तों और अनुशासनों पर भी गम्भीरता से चर्चा होने लगी। पटकथा लेखनज्ञान की इन्हीं शाखाओं का एक अंग है। ज्ञान की यह प्रविधि ग्रामीण जनपद में शहीद होती, विलुप्त होती लोक-कथाओं की स्थिति में न चली जाए, इसके लिए बहुत आवश्यक था कि इसके सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्षों पर गम्भीर विचार के साथ कुछ लिखित सामग्री उपलब्ध हो। अंग्रेजी भाषा में पटकथा-लेखन से सम्बद्ध पुस्तकों की कमी नहीं है। विदेशों में तो कई विश्वविद्यालयों में इस पर विधिवत पाठ्यक्रम भी चलते हैं। हिन्दी में ही इसका अभाव था, जबकि दूरदर्शन और सिनेमा के बहुमुखी विकास से इस दिशा में गुंजाइश बहुत है। कई छोटे-बड़े लेखकों ने इसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभाई है।
हिन्दी के सुविख्यात रचनाकार मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक पटकथा लेखन: एक परिचयके प्रकाशन से हिन्दी क्षेत्र की यह बड़ी रिक्तता भर गई। पटकथा लेखन के कई अन्तरंग पक्षों की गम्भीर व्याख्या करती हुई और इस विधा की कई उलझी हुई गाँठें सुलझाती हुई यह पुस्तक हिन्दी भाषा के लिए एक इतिहास कायम करेगी--यह स्वीकारने में हिन्दी के पाठकों को कोई दुविधा नहीं है।
कुल तेइस छोटे-छोटे अध्यायों में लिखी इस पुस्तक में सिनेमा, सीरियल, पटकथा, कथा, आइडिया, कथासार, चरित्र, दृश्य, सेट-अप, डाक्यूमेण्ट्री, चरित्र-चित्रण, दृश्योद्देश्य, भाषा-शैली, निर्देशन, लेखन आदि पक्षों की विषद् और गम्भीर चर्चा हुई है।
अजमेर में जन्मे, लखनऊ में पढ़े मनोहर श्याम जोशी ने जीवन के कई क्षेत्रों का मौलिक अनुभव जमा कर रखा है। बेरोजगारी से लेकर मास्टरी, क्लर्की से लेकर सम्पादन-लेखन तक का अनुभव अपने मानसलोक में उन्होंने संजो रखा। कुरु-कुरु स्वाहा’, ‘कसप’, ‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानी’, ‘हमजाद’, ‘टा टा प्रोफेसरआदि उपन्यास, विपुल संख्या में व्यंग्य, साक्षात्कार, कहानी आदि के साथ अपने गम्भीर पाठकों के प्यारे रचनाकार मनोहर श्याम जोशी ने दूरदर्शन के धारावाहिकों में जब काम शुरू किया तो मुंगेरीलाल के हसीन सपने’, ‘कक्काजी कहिनआदि से दर्शकों के मनोमस्तिष्क पर राज करने लगे। फिल्मों के लिए उन्होंने कई काम किए।
मूलतः विज्ञान के छात्र रहने के बावजूद, साहित्य और विविध कला जगत में इन्होंने जो योगदान दिया है, वह अप्रतिम है। श्रव्य-दृश्य माध्यमों और लिखित साहित्य--दोनों ही क्षेत्रों में उनके द्वारा किया गया काम उनकी उत्कृष्ट कल्पनाशीलता और श्रेष्ठ प्रतिभा का परिचायक है।
मनोहर श्याम जोशी के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि उन्होंने बहुत लिखा, पर ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जिसे उसके इकहरे अर्थ के साथ चलताऊ ढंग से ग्रहण कर छोड़ दिया जाए। उनके पूरे लेखन में दोहरे, तिहरे या उनसे भी ज्यादा अर्थोत्कर्ष और व्यंजना के विराट फलक मौजूद हैं। उनका कोई भी लेखन टाईम पास का उदाहरण नहीं है। कुरु-कुरु स्वाहाहो, ‘कसपहो, ‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानीहो, ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपनेहो, जो कुछ भी हों, वहाँ विराट् बौद्धिकता की गरिमा, श्रेष्ठ रचनाशीलता की पारदर्शिता, सहज-सरल-सलिल गतिकता, युग-यथार्थ की विकृति, भाषा का प्रवाह और अन्ततः लेखकीय ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ आम जनजीवन से अपने सरोकार उन्होंने व्यक्त किए हैं। आज जहाँ दृश्य-माध्यमों के चटोरे दृश्यों से आम जनता की रुचि प्रदूषित हो गई है, वहाँ उन्होंने बड़ी जिम्मेदारी से अपने धारावाहिकों में हास्य के साथ-साथ गम्भीर व्यंग्य डाला और प्रदूषित होती जनरुचि को विशाल अन्धकार की तरफ जाने से बचाया।
सिनेमा, दूरदर्शन और रंगकर्म से गहरे ताल्लुकात रखने वाले मनोहर श्याम जोशी अपनी प्रतिभा और गतिविधियों की बहुआयामिता के कारण हर जगह अव्वल रहे हैं। इसलिए पटकथा लेखनके गम्भीर पहलुओं से पाठकों को और इनसे जुड़े कर्मियों को परिचित कराने की आवश्यकता को उन्होंने समझा होगा। आलोच्य पुस्तक में लेखक ने जितनी गम्भीरता और सूक्ष्मता से इस विधा के एक-एक तन्तु की व्याख्या की है, वह न केवल एक परिचयात्मक नोट प्रस्तुत करती है, बल्कि दृश्य माध्यमों के एक-एक दोषादोष के लक्षण, कारण, प्रभाव, परहेज, परिणाम, परिणति सब बता देती है। महाभारत के सम्बन्ध में जैसे कहा गया है कि यहाँ वह सब कुछ है, जो कहीं भी है और जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है। उसी तरह, इस पुस्तक के सम्बन्ध में कहना अनुचित न होगा कि एक स्वस्थ और कल्याणमय समाज की स्थापना और उसके विकास को जिस तरह के सिनेमा, धाारावाहिक, डाक्यूमेण्ट्री, डॉक्यूड्रामा आदि से बल मिलेगा, वैसी पटकथा लिखने हेतु यदि पटकथा लेखक प्रतिबद्ध हों और समाज को पथभ्रष्ट और कफ्यूज्ड करने वाली सामग्री से बचाने की उनमें मनेच्छा हो, तो यहाँ हर कुछ पा सकते हैं, यह पुस्तक उनके लिए अन्धकारमुक्त राह पर निर्देशिका और रश्मिरेखा का काम करेगी।
इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि एक किस्सागो की शैली में उन्होंने इसकी शुरुआत की और वार्तालाप करने जैसी भाषा में सारी बातें कीं। देखने सुनने की चीज है सिनेमा’, ‘पटकथा क्या बला है?’, ‘कथा हो तो पटकथा बने’, ‘अथ आइडिया महात्म्य’, ‘कथासार और उसका विस्तार’, ‘पटकथा का कंकाल: स्टेप आउट लाइन’, ‘मिथक-पुराण उर्फ चरित्रों की खान’, ‘अपने पात्रों के बारे में सब कुछ जानिए’, ‘चरित्र, कर्म कथानक: मुर्गी, अण्डा, आमलेट’, ‘पटकथा का छन्द: द्वन्द्व-प्रतिद्वन्द्व’, ‘भूमिका ही नहीं तो चरित्र क्या करेगा!’, ‘पटकथा की शरीर-रचना’, ‘पहला अंक: सेट-अप’, ‘दूसरा अंक: टकराहट’, ‘तीसरा अंक: चरमोत्कर्ष और समाधान’, ‘दृश्य लेखन’, ‘दृश्य का उद्देश्य: कथा-निरूपण और चरित्र-चित्रण’, ‘सीक्वेन्स: एक माला बने दृश्यों की’, ‘सोप ऑपेरा, हाॅर्स ऑपेरा, वगैरह वगैरह’, ‘डाक्यूमेण्ट्री’, ‘डाक्यूड्रामा और डबिंग’, ‘कला और फार्मूला उर्फ अच्छी फिल्में, बुरी फिल्में’, ‘सिनेमा की भाषा-शाॅट बोलेंगे, ‘लेखक बनाम दिग्दर्शकइत्यादि शीर्षकों के अध्यायों में मनोहर श्याम जोशी ने पटकथा लेखन, दिग्दर्शन, प्रस्तुति, दृश्य, अभिनय, सेट-अप, सीक्वेन्स, गीत-योजना, भूलें, चालकियाँ, लोकानुरंजन, धनउगाही, सामाजिक-प्रतिबद्धता, मानवीय जिम्मेदारी सब पर चर्चा की है और यह बात स्पष्ट कर दी है कि किस तरह प्रतिभाहीन लेखक, दिग्दर्शक, अभिनेता, प्रस्तोता अपनी प्रतिभाहीनता और असफलता छुपाने के लिए दर्शकों को बरगलाते हैं और किस गोरखधन्धे से जनपद का अहित कर अपना काला मुँह ढक लेते हैं। सारी वर्जनाएँ, सारे उद्यमों, सारी गतिविधियों, सारे प्रयासों, अभ्यासों के जरिए एक स्वस्थ समाज और परिष्कृत जनमानस का सिलसिला बनाने के सारे रास्ते लेखक ने इस पुस्तक में अंकित किए हैं। यह निर्भर तो लेखक, दिग्दर्शक, अभिनेता, प्रस्तोता पर करता है कि वे इन्हें किस रूप में ग्रहण करें।
गरज यह नहीं कि यह पुस्तक कोई गीताहै जिसके पाठ के बिना किसी दूरदर्शनकर्मी अथवा सिनेमाकर्मी का उद्धार नहीं होगा। ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जो इस पुस्तक के छपने से पूर्व भी अच्छा कर रहे थे और आगे भी, बगैर इस पुस्तक को पढ़े अच्छा करेंगे। कुछ ऐसे लोग भी होंगे या हो सकेंगे, जो इससे भी बेहतर पुस्तक लिख ले सकेंगे, पर चूँकि इस पुस्तक ने एक नया मार्ग बनाया है, और हर नया मार्ग बनाने वालों के पैर लहूलुहान होते हैं, उनके शरीर पसीने से भीगते हैं, इसलिए उस लहू और उस पसीने की स्तुति होनी चाहिए, सम्भावनाएँ तो अनन्त होती ही हैं, आगे तो बहुत कुछ होगा...।

बबूल वन में चन्दन उगाने की जिद/चन्दन का पेड़(कवि‍ता संग्रह)/असलम परवेज़



बबूल वन में चन्दन उगाने की जिद

असलम परवेज़ का 'चन्दन का पेड़'(कवि‍ता संग्रह)

कविता जब भी यथार्थ के बहुत नजदीक जाती है, अथवा यथार्थ को अपने बहुत नजदीक लाती है, उसके जीवन-विवेक पर सबसे अधिक दबाव पड़ जाता है। वह सब, जो हो रहा, सही-गलत का मिला-जुला रूप है, यथार्थ है, व्यावहारिक है; वह सब जो होना चाहिए, यथार्थ से दूर हो सकता है। कविता यथार्थ को नजदीक से देखती, मगर दूर की सोचती है। वह एक बारीक मगर जरूरी फर्क करती है। जीवन-यथार्थ और जीवन-सत्य के बीच। दुनिया जैसी है और जैसी उसे होना चाहिए के बीच कहीं वह एक लगातार बेचैनी है। एक कवि में अगर दूर तक सोच सकने की ताकत नहीं है तो उसकी कविता या तो यथार्थ की सतह को खरोंच कर रह जाएगी या किसी भी आदर्श से चिपक कर--कवि कुँवर नारायण की इन पंक्तियों के आलोक में यह कहना होगा कि असलम परवेज की कविताएँ नजदीक से देखती है, दूर की सोचती है और यथार्थ की सतह पर कोई खरोंच भर नहीं, एक गहरा निशान दे जाती हैं, जो संवेदनशीलता के तन्तुओं को झनझना देती हैं। यह दीगर बात है कि कवि के आस-पास की स्थितियों पर इन कविताओं में कहीं परदा नहीं डाला गया है, बातें बिना किसी लाग-लपेट की कही गई हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में उर्दू विभाग के वरिष्ठ आचार्य असलम परवेज, उर्दू साहित्य के जाने-माने विद्वान हैं और--उन्होंने भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी-उर्दू के अध्ययन-अध्यापन के लिए नए-नए आयाम तलाशने हेतु एक मिसाल कायम की है। चन्दन का पेड़हिन्दी में उनका पहला कविता-संग्रह है। इस पुस्तक की भूमिका प्रो. नामवर सिंह ने लिखी है और कवि परिचय प्रो. केदारनाथ सिंह ने। चन्दन का पेड़वाकई एक चन्दन का पेड़ ही है, जिसके जर्रे-जर्रे से एक खुशबू आती है। यह खुशबू चैन और आराम से जीवन बसर करते लोगों के इत्र के फाहे की नहीं है, स्वार्थपूर्ति के तिकड़म की नहीं है, यह खुशबू है विकृतियों के इस माहौल में मानवता की तलाश में रत एक इन्सान की भावना की। यही खुशबू है, जो इस संकलन के महत्त्व को आँकने की प्रेरणा भी देती है और इसके मूल्यांकन में मदद भी करती है।
एक और दृष्टि से भी इस पुस्तक के महत्त्व पर विचार किया जाना है। वह है हिन्दी एवं उर्दू साहित्य के बीच में एक नई सर्जनात्मकता की तलाश। हिन्दी एवं उर्दू--दोनों भाषाओं की कविताओं की संरचना के स्तर पर इसमें गजलें हैं, नज्म हैं, दोहे हैं, कविताएँ हैं। विधागत इन काव्य प्रसंगों की चर्चा तो आगे होगी, लेकिन इतना तय है कि हिन्दी-उर्दू के सम्बन्धों की व्याख्या में इस पुस्तक की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। समाज से उठाए गए सारे विषय तो एक भी हो सकते हैं, किन्तु असलम परवेज ने भाषा, शब्द चयन, रूप आदि के स्तर पर जिस तरह हिन्दी एवं उर्दू की काव्य-संवेदना को एकमेक किया है, वह काबिले-तारीफ है। केदारनाथ सिंह के शब्दों में--चन्दन का पेड़, इस नाम में एक खुशबू है और इन कविताओं से गुजरते हुए लगेगा कि वह खुशबू जितनी हिन्दी की है, उतनी ही उर्दू की। असलम परवेज की कविता अपने सर्वोत्तम रूप में, उसी खुशबू को पकड़ने की कोशिश करती है, यह एक ऐसी कोशिश है, जिसमें वे लगभग अकेले हैं, अपनी भाषा की बनावट और अपनी काव्य-संवेदना, दोनों में है।
दरअसल आज के माहौल में विज्ञान की व्यस्तता और भौतिकता के प्रभाव ने मनुष्य की संवेदनाओं को इतनी भोथरी बना दिया है कि उसको सुसुप्तावस्था से जगाने हेतु एक सनसनाहट काफी नहीं होती, उसे जगाने के लिए खुली अर्थों वाली बातों से गहरी खरोंच डालने की जरूरत पड़ती है। असलम परवेज इन कविताओं में अर्थ के इसी खुलेपन और गहरी खरोंच के साथ उपस्थित दिखते हैं। बिम्ब-प्रतीकों के उपयोग से कविताओं का विषय संक्षिप्त अवश्य होता है, सम्प्रेषणीयता भी बढ़ती है, पर इन कविताओं, दोहों, गजलों और नज्मों में असलम परवेज ने साबित कर दिखाया है कि बिम्ब-प्रतीक का सहारा लिए बिना भी रचनाओं की सम्प्रेषणीयता बरकरार रह सकती है। चन्दन का पेड़’, ‘लकीरजैसी कई कविताओं में बिम्ब के उज्ज्वल रूप भी भरे हैं।
यहाँ कथ्य पर अनावश्यक आवरण डालना कवि का काम्य नहीं दिखता। दो पंक्तियाँ गौरतलब हैं:
तश्बीह के गिलाफ में कब तक रहेगी फिक्र
तलवार को मियान से अब तो निकाल लो।
नामवर सिंह सही कहते हैं, ‘असलम परवेज को तश्बीह से परहेज नहीं है। बिम्बों और प्रतीकों को इस्तेमाल करना वे भी जानते हैं और अक्सर करते भी हैं। लेकिन जब फटकार कर सच कहने का मौका आता है तो वे उस सच को खूबसूरत तश्बीहों में लपेटना जुर्म समझते हैं, जैसा कि कभी कबीर समझते थे।
इस संग्रह की कविताओं को कवि ने चार कोटियों में बाँट रखा है--गजलें, नज्में, दोहे और कविताएँ। ये रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तल्ख अनुभव की अभिव्यक्ति किसी हदबन्दी में विश्वास नहीं रखती, अभिव्यक्तियों के तरीके ही उन रिवाजों की सीमा का निर्धारण करते हैं। परवेज ने गजलों में कहीं बहुत पुरानी, बल्कि लुप्त होती जा रही रवायतों को पुनर्जीवित किया है। जिसे एक ही साथ उर्दू सृजन प्रक्रिया की उपलब्धि भी कही जा सकती है और कवि की उदारता एवं अपनी प्राचीन परम्परा से उनका लगाव भी। छद्म के लिए उनके पास कोई जगह नहीं है। प्रगतिशीलता के छद्म में उचित परम्परा को नकारना उनका स्वभाव नहीं। छद्म साहस दिखाने वालों की मानसिकता पर घातक व्यंग्य इजात करते हुए कहते हैं--
हम किनारे पे तुम्हें डूब के दिखला देंगे
पहले तुम हमको जरा पार उतर जाने दो।
टुकड़े-टुकड़े में बँटे इनसान, इनसानों का सूनापन, इनसानों का एकाकीपन, मानवीय सम्बन्धों के विघटन का वह घिनौना स्वरूप यकायक नजरों के सामने तब साफ हो जाता है, जब कवि कहते हैं:
भटक रहा हूँ अकेला नगर की गलियों में
अगरचे कहने को है मेरे साथ एक हुजूम।
उनकी तमाम गजलें मानवीय संवेदनाओं के कोमल पक्षों, सियासी हैवानियों, सामाजिक विकृतियों और लहूलुहान मानवता के चीत्कारों का चित्र प्रस्तुत करती हैं, जहाँ कवि अपने गुस्से में और कभी समय की अनुपयुक्तता में व्यंग्य करते हुए प्रतीत होते रहते हैं, कभी तो धिक्कार भी उठते हैं:
कब तक सुकूँ की राह पे चलते रहोगे यूँ
कुछ देर हादिसात के साए में दम तो लो।
नज़्मों में कवि की अनुभूतियाँ कुछ अधिक मुखर हुई हैं। जर्जर परम्परा और पीढ़ीगत द्वन्द्व को कवि ने अपनी एक छोटी सी नज़्म में बड़ी बारीकी से पिरोया है। यहाँ कवि अर्थ की कई परतें खोलते नजर आते हैं--रूढ़ियों के प्रति नकारात्मक रुख, नई शक्ति का आग्रह, संघर्ष के क्षितिज की तलाश, चुप बैठने और आरामतलब होने के खतरे और उन खतरों के लिए चेतावनी यकायक इस नज़्म में निखर उठती है:
बूढ़ों की बातों में मत आना
बूढ़े बरगद के पेड़ों की मानिन्द
बरगद
की छाया में जो बैठोगे
धूप से लड़ने की शक्ति खो दोगे और फिर
मौका पाते ही एक दिन
चढ़ते सूरज की गर्मी
तुमको खा जाएगी।
प्रचलित धारणा है कि आदमी को सबसे बड़ा भ्रम अपने बारे में होता है। कवि असलम परवेज इस भ्रम से काफी दूर हैं और आम जनमानस की प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए कम शब्दों में एक बड़ी बात कह जाते हैं। यह कवि के जीवन-दर्शन और उनकी अन्तर्दृष्टि को भी उजागर करती है:
मैं सागर की तह में बैठा
सोच रहा हूँ
परबत की चोटी पर रहने
वाले कितने छोटे-छोटे से होते हैं
हिन्दी और उर्दू की जिस मिश्रित खुशबू की बात केदारनाथ सिंह ने की है, मूल रूप से वह खुुशबू असलम परवेज की इन्हीं नज़्मों में और आगे की कविताओं में विद्यमान है। गरज यह नहीं कि ऐसा अन्यत्र नहीं है। नज़्मों और कविताओं में भाषा के स्तर पर, सोच के स्तर पर और प्रस्तुति के स्तर पर...हर तरह से यह खुशबू आती है। इन नज़्मों में ज्यादातर जगह पर कवि का आत्मसाक्षात्कार, आत्म-स्वीकृति, आत्ममन्थन, आत्मबोध झलकता है, जहाँ कवि बड़े साफ शब्दों में अपनी खामियों-खूबियों को बेपर्द करते हैं। अपनी बेइमानी, ईमानदारी, अपने दायित्व, अपने सामाजिक सरोकार एवं जवाबदेहियों के निर्वाह आदि पर रोशनी डालते हैं और आम जनजीवन के विभिन्न पहलुओं पर गम्भीरता से विचार करते हैं। ईंट का इक्का, दो पंछी, वो ही राहजन है तिरा--जैसी कुछ नज़्में कथा-काव्य की शैली में हैं, जो प्रतीकों के सहारे इस सियासत की आम जनता का चित्र खींचती हैं। कविता पर लिखते हुए अशोक वाजपेयी ने एक जगह कहा है--इधर एक-डेढ़ सदी से हम भारत में साहित्य को सामाजिक यथार्थ, आज के समय के प्रति उसकी सजगता और कुल मिलाकर मनुष्य की नियति से जोड़कर देखने लगे हैं। कहना चाहिए कि उसकी नितान्त समसामयिकता को प्रमुखता दी जाने लगी है। बल्कि सत्य का साहित्य के सन्दर्भ में अर्थ ही यथार्थ, समय और मनुष्य की स्थिति और नियति हो गया है...।असलम परवेज अपनी कविताओं में समकालीन समाज के इसी सत्य, इसी यथार्थ के प्रति चिन्तित दिखते हैं, समकालीन विकृतियों के प्रति क्षुब्ध दिखते हैं।
इन दिनों इस देश में सबसे सस्ती इनसानों की जिन्दगी है। मौजूदा माहौल में इनसानों को अपनी जान का डर हिंसक जानवरों के बजाय मनुष्यों से होने लगा है। खून-खराबा इस देश की आम घटना हो गई है। किसी दिन हत्या, अपहरण आदि समाचार अखबारों में न दिखे तो लोग हैरत में पड़ जाते हैं। परवेज एक शेर में इन हैवानियों और समकालीन विडम्बनाओं को अंकित करते हैं:
वो तिफ्ल जिनको किया तुमने दाखिले मकतब
कोई भी लौट के उनमें से घर नहीं आया।
ओस में डूबी घासशीर्षक में कुछ दोहे हैं जिनमें कवि की नजरें विविध दिशाओं में जाती हैं। कहीं मनुष्य की कोमल भावनाएँ जाग्रत होती हैं तो कहीं व्यवस्था की निष्ठुरता आगे आ खड़ी होती, कहीं जनजीवन की विकृतियाँ उभरती हैं तो कहीं पौराणिक सन्दर्भ की अर्थहीनता और थोथापन स्पष्ट होता है। यहाँ कबीर के प्रति कवि अपने झुकाव भी स्पष्ट करते हैं:
जितने भी जीवन में मिले हैं साधू-सन्त फकीर
उनमें हम को एक ही भाया जिसका नाम कबीर।
कहना मुनासिब होगा कि ये कविताएँ समकालीन जनजीवन के चित्र हैं, अपने आस-पास की तमाम असुन्दर और बेबर्दाश्त घटनाओं को कवि ने विवश होकर झेला है और उस पीड़ा को हू-ब-हू लिपिबद्ध किया है। इस असुन्दर को अपनी कलात्मकता से सुन्दर बनाने का अनावश्यक प्रयास नहीं किया है।
खामियाँ हर चीजों में होती हैं। इसलिए कुछ खामियाँ इस संकलन में भी हो तो हर्ज नहीं। किसी भी चीज का महत्त्व उसकी खूबियों से ही जाना जाता है और इस संकलन के महत्त्व में अभी एक बात और जुड़ती है। सांस्कृतिक वैमनस्य की अभी जो पराकाष्ठा है, ऐसे में इस संकलन की अहम भूमिका है, जो कई मायने में सराहनीय है --भाषा के स्तर पर भी और कथ्य के स्तर पर भी। भारतीय भाषा केन्द्र ने एक लम्बे समय से हिन्दी-उर्दू सम्बन्ध की जो विरासत बनाई है, कवि परवेज की ये कविताएँ उसी विरासत की कड़ी हैं। यहाँ पर कवि अपने व्यवहार और अपने लेखन में एकमेक होते दिखते हैं।
बबूल वन में चन्दन उगाने की जिद/जे.एन.यू. परिसर पत्रिका प्रवेशांक
चन्दन का पेड़/असलम परवेज़/रु. 75.00/वर्ष 1994

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